Friday, May 08, 2020

टर्निंग प्वाइन्ट

 [पिछले दिनों निर्माणी के साथी Shahid Raza शाहिद रजा जी ने मुझे मेरे करीब २५ साल पहले कुछ लेख दिखाये। ये लेख आयुध वस्त्र निर्माणी ,शाहजहांपुर की विभिन्न पत्रिकाओं में छपे थे। इनमें से ही एक लेख जो उस समय की ’प्रतिभा’ पत्रिका में छपा था। लेख दुबारा पढते हुये एहसास हुआ कि आज से २५ साल पहले भी मेरे लेख समय सीमा के आखिरे पायेदान पर पहुंचने पर ही पूरे होते थे। लेख यहां पेश है। ]

मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि अगले पल कुछ ऐसा होगा जो मेरे जीवन की दिशा बदल देगा। कोई घटना ऐसी घटेगी जो मेरे जीवन की कायापलट कर देगी। मैं ऐसी ही किसी ऐतिहासिक घटना की प्रतीक्षा वर्षों से कर रहा हूं। मेरी हालत,” अंखडियां झांई पड़ी पंथ निहारि-निहारि” सी हो चुकी है। अभी तक के सारे पल, क्षण निर्रथक रूप से आये, चले गये-’देश की तमाम सरकारों से।’ घड़ी की सुइयां कोल्हू के बैल सरीखी टिक-टिकाती घूमती रहीं। कई कैलेन्डर दीवार से उतर गये। बेचारी तारीखें मायूस हो गयीं। लगता है किसी के भाग्य में ऐतिहासिक बनना नहीं बदा है। पर मैं उन्हें दिलासा देता हूं- ’डोन्ट लूज होप, होप फ़ार द बेस्ट।’
मैं इसी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा एकनिष्ठ,समर्पण भाव से करता हूं। लेटे-लेटे कमरे की दीवारें, छत ताकता रहता हूं। टीवी देखता रहता हूं। पहले मुर्गी या अण्डा टाइप की उन बहसों में समय-ऊर्जा खपाता हूं, जिनका कोई हल नहीं होता। सारे जरूरी काम स्थगित करके सिर्फ़ मजबूरी में किये जाने वाले काम करता हूं। दरवाजे पर कोई भी खटका होते ही ’वेलकम’ की तख्ती लेकर दौड़ता हूं। अक्सर मेरी स्थिति ’आर्किमिडीज’ सरीखी होती है लेकिन दुर्लभ क्षणों पर दया करके थोड़ी ’सभ्यता’ पहन लेता हूं। अखबार की मुख्य खबरों के अलावा ’वान्टेड’,’खुश-खबरी’,’जीवन से निराश क्यों?’,’एक बार मिल तो लें’,’टेण्डर नोटिस’ जैसी खबरों समेत अखबारों की हर लाइन पढ़ता हूं। पता नहीं कब किसी ’ऐतिहासिक क्षण’ के आने की सूचना छप जाये। अक्सर मैं रात में टीवी खुला छोड़कर सोता हूं ताकि यदि किसी ’ऐतिहासिक क्षण’ के आने की अचानक घोषणा हो तो पता चल सके। यह बात अलग है कि रात में टीवी की ऊंची आवाज से परेशान होकर पड़ोसी उस ’ऐतिहासिक क्षण’ की प्रतीक्षा में हैं जब मैं या मेरा टीवी इतिहास की वस्तु बन जायेंगे।
तमाम सावधानियों के बावजूद कभी-कभी मेरे दिमाग में जाने कैसे , कहां से यह बात घुस जाती है कि मैं काल्पनिक ’ऐतिहासिक क्षण’ की प्रतीक्षा में अपना बहुमूल्य समय बरबाद कर रहा हूं। ऐसी स्थिति का सामना होते ही मैं मन ही मन में तुरन्त कोई काम करने की योजना बनाने लगता हूं। पहले लापरवाही से , फ़िर सावधानी से। अधिकांश योजनायें लापरवाही की बाल्यावस्था में ही दम तोड़ देती हैं। जो योजनायें अपनी बेशर्मी, उपलब्ध फ़ालतू समय एवं विभागीय मजबूरी के जीवन रक्षक टीके के बल पर लापरवाही की उमर पार कर जाती हैं , उन्हें मैं फ़िर दोबारा ( सोच में) सावधानी से बनाकर देखता हूं। यदि योजना में कोई कमी रह जाती है तो चिन्तन-मनन में उस कमी को दूर करता हूं। अन्तत: जब योजना इतनी सटीक बन जाती है कि उस अमल करने पर कार्य में सफ़लता निश्चित हो जाती है तो मैं योजना पर कार्यान्वयन स्थगित करके पहले काम से कुछ अपेक्षाकृत अधिक जरूरी काम की योजना बनाने में जुट जाता हूं। यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है, जब तक मैं योजनाओं के चक्रव्यूह में फ़ंसकर निद्रागति को नहीं प्राप्त हो जाता।
बीच-बीच में जागकर मैं देखता रहता हूं कि कहीं कोई ’ऐतिहासिक क्षण’ खिड़की या रोशनदान से कूदकर कमरे में मेरे जागने की प्रतीक्षा तो नहीं कर रहा। पूरी तरह जागकर मैं फ़िर से ’प्रतीक्षा’ या ’योजना’ में से कोई एक काम पूरी श्रद्धा से करने लगता हूं। कभी-कभी समय की कमी होने पर दोनों काम एक साथ करने पड़ते हैं।
आजकल इस ऐतिहासिक क्षण को ’टर्निंग प्वाइन्ट’ कहते हैं। ’टर्निंग प्वाइन्ट’ समय से नहीं घटना से सम्बन्धित होता है। जैसे कहते हैं- मैच का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ तेन्दुलकर का आउट होना था। मैं इसी तरह के अनेको ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की लिस्ट बनाता हूं। मानव जाति का पहला ’टर्निंग प्वाइन्ट’ तब रहा होगा जब आदम ने हव्वा से बेशरमी से ’आई लव यू’ कहा होगा तथा हव्वा लाल होकर बोली होगी –’चलो हटो कोई देख लेगा।’ अपराध और बापू की खादी के सहारे जन-समुदाय की आंखों में धूल झोंककर चुनाव जीतना किसी नये नेता का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ होता है। अपने बूते किया गया कोई सरकारी घपला या घूस किसी अधिकारी का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ होता है। इसके बाद अधिकारी का आत्मविश्वास और क्षमता बढ जाती है। हवा में कृत्तिम गर्भाधान द्वारा बेबुनियाद खबरे पैदा करने की क्षमता व बेशरमी किसी पत्रकार का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ होती है।
अपने जीवन के इस ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की प्रतीक्षा मैं इत्मिनान से करता हूं। कोई हड़बड़ी नहीं है मुझे। जब आना हो आये। इसके वियोग में मेरी आंखे पथरा नहीं जायेंगी। इसकी प्रतीक्षा मैं आराम से खा-पीकर करता हूं। यह मेरा भरे पेट का सुख है। अपने तमाम काम मैं इसकी प्रतीक्षा में स्थगित रखता हूं। अपने सेक्शन की तमाम फ़ाइलों में मैं देखता हूं कि मैंने पत्रों पर नोट लिखे हैं-’ प्लीज पुट अप आफ़्टर द एराइवल आफ़ टर्निंग प्वाइन्ट।’ ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आने के बाद कागज पेश करो। समय बीतता जा रहा है। न मेरा ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आया न उन कागजों का।
मुझे बहुत से व्यक्तिगत काम करने हैं। मित्रों को पत्र लिखने हैं। कुछ लेख लिखने हैं। घर साफ़ करना है। बाजार से सामान खरीदने जाना है। बच्चे को पढाना है। अपने साहब पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग (साहब को समय-समय पर बताते रहना है कि आपसे महान यदि कोई है तो वो आप ही है हैं) करना है। दोस्तों का उधार चुकाना है। पर लेटे-लेटे सोचता हूं कि जीवन का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आने पर ही सब कुछ करूं। उसी समय सबको यह भी बता दूंगा –“भाई मेरा ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आ गया। मेरे जीवन की दिशा बदल गयी।“
जीवन की दिशा बदलने पर सब काम नये सिरे से करने होंगे तो अभी क्यों करू? उसी समय करूंगा। मैं जानता हूं कि मुझे बहुत सारे काम करने हैं। हर हाल में करने हैं। लेकिन उनको तुरन्त करने में ऊर्जा क्यों नष्ट करूं? पहले देख लूं कि समय, ऐतिहासिक समय, मेरे जीवन की क्या दशा निर्धारित करता है। फ़िर उसी दिशा में बढते हुये सारे काम एक साथ निपटा दूंगा। अभी उनको करने में लफ़ड़ा है। कहीं ऐसा न हो कि मैं भावनाओं में बहकर इधर कोई काम करने निकलूं और उधर मेरे जीवन की दिशा बदल जाये। दिशा बदलने तक किये गये काम की ऊर्जा, समय बेकार में नष्ट होंगे। बाद में फ़िर मैं सही दिशा के बावजूद कम महान बन पाउंगा।
यह मैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। हर महापुरुष की शोकसभा में लोग कहते हैं-“हमें उनके अधूरे कामों को पूरा करना है। वो असमय हमारे बीच से चले गये। उनके द्वारा जलाई मशाल को हमें जलाये रखना है। आगे ले जाना है।“ मुझे हंसी आती है। कितनी बचकाना सोच है। यहां लोग अपना काम तो करते नहीं । कर नहीं पाते। दूसरे का काम क्यों करेंगे? कैसे करेंगे? तेल इतना मंहगा हो गया है। क्यों दूसरे की मशाल जलायेंगे? उनको खुद अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिये ताकि थी। जब उनका ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आता फ़टाफ़ट पूरी ताकत लगाकर सारे काम पूरे कर लेते।
कभी-कभी मेरा मन आतंकवादी सा हो जाता है। मन करता है कि किसी क्षण को बन्दूक की नोक पर पकड़कर अपने जीवन में लाकर उसे ऐतिहासिक बना डालूं। मुझे पता है कि हर ऐतिहासिक क्षण के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है। मेरी पत्नी स्वयं किसी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा में है। उसकी सेवायें सिर्फ़ एक पति के लिये उपलब्ध हैं। किसी ऐतिहासिक अभिलाषा के लिये नहीं। बाकी हमारी आसपास की सारी स्त्रियों पर उनके पतियों का कब्जा है। उनमें से किसी के भी माध्यम से महान बनने के प्रयास में जीते जी अपना भूगोल बिगड़वाकर स्वयं इतिहास की वस्तु बन जाने का खतरा है।
कभी-कभी मैं सोचता हूं कि ’चलो कुछ कर दिखायें’ की तर्ज पर शिक्षा का प्रचार करूं। पर कुछ करने के लिये सोचने से ही फ़ुरसत नहीं मिलती। फ़िर समाज सेवा की सोचता हूं तो लगता है इससे क्या होगा? यह तो तमाम लोग कर रहे हैं। जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक चिल्लाने, पसीना बहाने, समझाने से क्या होगा? मैं धीरज रखकर, व्यवस्था के साथ कदमताल करते हुये , व्यवस्था के ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की प्रतीक्षा करता हूं। क्या करुं, मजबूरी है।
ऐसा नहीं है कि मैं घर पर ही लेटकर , आराम करते हुये अपनी जिन्दगी के ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा करता हूं। ऑफ़िस में भी मैं पूरी तन्मयता के साथ ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की प्रतीक्षा करता हूं। जब भी फ़ोन की घंटी बजती है, मैं -’हेलो , टर्निंग प्वाइन्ट दिस साइड’ सुनने के लिये झपटकर फ़ोन उठाता हूं। रांग नम्बर कहकर फ़ौरन फ़ोन रख देता हूं। कहीं वो रिंग न कर रहा हो। हर पत्र मैं नीचे से देखना शुरु करता हूं। “योर्स फ़ेथफ़ुल्ली ’टर्निंग प्वाइन्ट’ ” न पाकर उसे पेंडिंग में रख देता हूं। चाय पीता हूं तो एक-दो कप अतिरिक्त मंगा लेता हूं जो बाद में ठण्डी हो जाने पर साथियों को पिलाता हूं। छत पर चलते पंखे को ताकता हूं। मेज पर हाथ फ़िराता हूं। उंगलिया चिटकाता हूं। ड्राअर खोलकर बन्द करता हूं। पेंडिग डाक फ़िर से देखकर से उसे फ़िर से पेंडिंग में रख देता हूं। खिड़की के सामने से गुजरते इन्सान को उसके ओझल होने तक देखता हूं। बन्दर और आदमी का तुलनात्मक अध्ययन करता हूं। बीच-बीच में दौरा करके अपने साथियों के कमरों में देखता हूं। कहीं वहीं न आकर बैठा हो। जब भी बॉस बुलाते हैं तो लगता है –’साला, थ्रू प्रापर चैनल आ रहा है।’ पहले वो महान बनेंगे तब मैं। पर वहां भी देखता हूं कोई नहीं है। लगता है बॉस भी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा में हैं और इन्तजार की ऊब मिटाने के लिये मुझे बुलाया है।
मैं जितना ही महान बनने की सोचता हूं, हरामखोरों पर मेरी श्रद्धा बढती जाती है। कितना एकनिष्ठ समर्पण है उनका अपने ’टर्निंग प्वाइन्ट’ के प्रति। चातक की तरह अपने ’ऐतिहासिक क्षण’ की स्वाति बूंद की प्रतीक्षा में शाश्वत अकर्मण्यता धारण किये हैं। ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आ जाये तो कार्यरत हों।
इतिहास गवाह है कि महानता की राह में ’प्रतिभा’ ने सदैव रोड़े अटकाये हैं। यहां भी वही बात है। मेरी साधना में प्रतिभा की लेख की मांग मेनका की तरह तप भंग का प्रयास कर रही है। फ़िलहाल अभी तक की तपस्या मेनका को अर्पित करके हिसाब बराबर करता हूं ताकि महानता की साधना नये सिरे से शुरु करूं। यही इस लेख का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ है।

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