Monday, February 27, 2023

लंच के बहाने



इस महीने की शुरुआत में एक बार फिर आयुध निर्माणी, कानपुर पहुंचे। 35 साल के कैरियर में तीसरी बार। पहली बार 30 मार्च, 1988 को नौकरी ज्वाइन करने पहुंचे थे। फैक्ट्री में काम कर चुके डीडी मिश्र अंकल ज्वाइन कराने साथ गए थे। साइकिल गेट के बाहर खड़ी करके अंदर गए थे। बाद में यहां से उड़ीसा के बोलांगीर गए थे फिर वहां से वापस शाहजहांपुर।
दूसरी बार जनवरी 2001 में आये थे। शाहजहांपुर से। अकेले आये थे। दोपहर का लंच फैक्ट्री के पास स्थित श्री भोजनालय में करते। पैदल चले जाते। बाहर फुटपाथ पर ही बेंच,कुर्सियां लगी थीं। जाते , बैठ जाते। आर्डर देते। अरहर की दाल और रोटी। आठ रुपये की दाल। एक रुपये की रोटी। ग्यारह रुपये में लंच हो जाता। खाकर टहलते हुए वापस आते। सड़क तब भी खूब चलती थी। आहिस्ते से नजारे देखते हुये लौटते। दोपहर के बाद का काम शुरू करते।
महीने भर लंच श्री भोजनालय में लंच किया। घर वाले कहते थे -'मोटा गए हो।'
इस बार फिर गए पहले दिन श्री भोजनालय। 22 साल बाद। भोजनालय में भीड़ थी। इस बीच ऊपर की मंजिल भी बन गयी है। नीचे भीड़ थी। नीचे धूल-धक्कड़ भी थी। हमको ऊपर की मंजिल पर जाने को कहा गया। गए। एक बन्द , कम रोशनी वाले, हाल में कुछ लोग खाना खा रहे थे। हम भी एक मेज के सामने पड़ी कुर्सी में बैठ गए।
मीनू कार्ड मंगाया। सबसे पहले दाल के दाम देखे। आठ रुपये वाली दाल 135 की हो गयी थी। रोटी एक रुपये बढ़कर 15 रुपये पहुंच गई थी। मन नहीं हुआ खाने का। एक मसाला डोसा खाकर चले आये। लंच हो गया।
सर्विस करने वाला बच्चा आठ-दस साल पहले यहां आया था। उसको इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि उसके यहां 22 साल पुराना ग्राहक आया है। उसने पूछा -'और कुछ लेंगे या बिल ले आएं।' हमने बिल चुकाया। कुछ टिप और वापस हो लिए।
लौटते में सड़क किनारे एक ठेले पर पराठे बिकते दिखे। दस रुपये का एक पराठा। आलू भरा। दो खा लेते तो पेट भर जाता। श्री भोजनालय के 165 रुपये , ठेले के 20 रूपये के बराबर। तुलना बेमानी है लेकिन मानव का सहज स्वभाव तुलना करने का। जितने की वहाँ टिप दी उतने में यहां आधा लंच हो जाता। यह बात अलग की अलग कि खड़े-खड़े खाना होता। उतना सहज भी नहीं रहते शायद। बाजार आपको कई तरह से प्रभावित करता है। बहुत शातिर होता है। अपने ही खिलाफ भड़काता है।
पराठे बेलते हुए अशोक सिंह ने बताया कि सुबह नौ बजे से दोपहर बाद तीन बजे तक सब सामान बिक जाता है। घर में आठ दस लोग हैं। सबका गुजारा चल जाता है। हमको दोहा याद आ गया:
साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम समाय,
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए।
जब यह दोहा लिखा गया होगा तब साधु लोगों की बड़ी इज्जत होती होगी समाज में। आज साधुओं के बारे में कुछ कहने में संकोच होता है। पता नहीं कौन पहुंचा हुआ निकल जाए।
ठेले वाले पराठे स्पेशल थे। दुकान के मालिक अशोक सिंह। मोबाइल नम्बर भी लिखा था। आपको खाना हो तो मंगा सकते हैं।

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