Saturday, April 30, 2005

आशा ही जीवन है

वैसे तो यह मान लेने में मुझे कोई एतराज नहीं होना चाहिये कि आशा ही जीवन है.पर जहां मैं सोचता हूं वहीं मामला गड़बड़ा जाता है.आशा ही जीवन है कहना ठीक नहीं लगता.आशा -आशा है,जीवन -जीवन .यह सच है कि आशा का जीवन में बहुत बड़ा योगदान होता है.पर आशा ही जीवन है कहना जीवन के बाकी तत्वों की उपेक्षा करना है.जीवन का तो ऐसा है कि जो भी चीज जरूरी दिखी उसी को कह दिया कि वही जीवन है.जल की कमी हो रही है तो जल बचत करने वाले जलपरियोजना से जुड़े लोग कहते हैं जल ही जीवन है.जो लोग देशप्रेम का झंडा ऊंचा किये रहते हैं जो लोग देश को प्यार नहीं करते वे मरे के समान हैं मतलब देश प्रेम ही जीवन है.लब्बो-लुआब यह कि जिस किसी को भी महत्वपूर्ण बताना हुआ तो कह दिया कि वही जीवन है.
Akshargram Anugunj
आशा ही जीवन है कहना कुछ वैसा ही है जैसे कि कुछ सालों पहले बरुआजी ने इंदिरागांधीजी के लिये कहा था -इंदिरा इज इंडिया.अब इंदिराजी नहीं पर देश टनाटन चल रहा है-वाबजूद तमाम उखाड़-पछाड़ के सो इंदिरा इज इंडिया तो सही नहीं रहा होगा.
आशा जीवन के लिये महत्वपूर्ण हो सकती है.ड्राइविंग सीट पर बैठ कर जीवन की गाड़ी की दिशा निर्धारित कर सकती है पर भइये जैसे ड्राइवर और गाड़ी दो अलग इकाई हैं वैसे ही आशा अलग है जीवन अलग.बहुत लोग बिना किसी आशा के जीवन बिता देते हैं यह कहते हुये:-
सुबह होती है,शाम होती है
जिंदगी तमाम होती है.

बहुत लोग निराशा में ही जीवन बिता देते हैं उनके लिये निराशा ही जीवन है.आप लाख कहते रहो पर कि उनका जीना जीना नहीं है पर अगर वे कहते हैं हमारे लिये निराशा ही जीवन है तो आप अपनी आशा का कितना रंदा चलाओगे उन पर ?तो महाराज पहले तो मेरा यह बयान नोट किया जाये कि आशा ही जीवन है यह बात पूरी तरह सच नहीं है.जीवन में आशा के अलावा भी बहुत कुछ होता है.
यह तो हुआ मंगलाचरण.अब यह बतियाया जाये कि आशा है क्या ? हम बहुत पहले कह चुके हैं कि आशा हमारी पत्नी का नाम नहीं है. पर उस समय हम यह बताना छोड़ दिये थे कि आशा कौन है -किसका नाम है?तो अब वह बताने के प्रयास किया जाये.
आशा स्त्रीलिंग है.खूबसूरत है.आकर्षक है.बिना किसी उम्र-लिंग के भेदभाव के सबकी चहेती है.जीवन को अगर संसद कहा जाये तो आशा मंत्रिमंडल है.जीवन अगर कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है तो आशा वह शेयरधारक है जिसके पास इस कंपनी के सबसे ज्यादा शेयर हैं.जीवन अगर कोई गाड़ी है तो आशा उसकी ड्राईवर.जीवन अगर कोई इंजन है तो आशा उसका ईंधन.
आशा का स्थान बहुत जरूरी है जीवन में.बहुत कुछ होता है जीवन में जब मनचाहा नहीं होता.निराशा होती है.ऐसे समय में आशा एक संजीवनी होती है जिससे जीवन फिर उठ खड़ा होता है.आशा वह बतासा है जो जीवन के मुंह में घुल कर कड़वाहट दूर करता है.मिठाई में केवड़े की सुगन्ध की तरह है आशा की महक .
हमेशा से दुनिया में निराश होने का फैशन रहा है.आप देखिये अगर तो बहुतायत निराश लोगों की है.ये बहुसंख्यक निराश लोग भी अपने आसपास किसी आशा के दीप को जलते देखते हैं तो इनकी भी आंखें रोशनी की मीनार हो जाती हैं.आशा यह तेवर देती है कि हम किसी असफलता से सामना होने पर कह सकें:-
पराजित हैं हम
किंतु सदा के लिये नहीं
कल हम फिर उठेंगे
अधिक शक्तिऔर विवेक के साथ
!
आशा हमें यह खिलंदड़ा उत्साह देती है जो पराजयों के इतिहास को भी अनदेखा करके कह सकें:-
अन्य होंगे चरण हारे,
और हैं जो लौटते ,
दे शूल को संकल्प सारे.

हमारे एक कर्मचारी थे-वजीर अंजुम.वे डायबिटीज से पीड़ित थे.तमाम मध्यवर्गीय बीमारियां उनकी मेहमाननवाजी करतीं थीं. पर वे जब तरन्नुम में गाते :-
हादसे राह भूल जायेंगे,कोई मेरे साथ चले तो सही.
तो लगता कि तमाम अंधेरे में रोशनी की मीनार जल रही हो.वे आज नहीं हैं पर यह गीत उस मंत्र की तरह कानों में गूंजता है जिसको सुनते निराशा के भूत सर पर पैर रखकर नौ दो ग्यारह हो लेते हैं.
बहुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे जो आशा का झंडा फहराते हैं.तमाम सूत्र वाक्य मिल जायेंगे पर एक दिन मैंने किसी बोर्ड पर लिखा देखा- सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है. इससे बेहतर आशा का मंत्र मुझे नहीं मिला आजतक.
जीवन में हम तमाम परेशानियों से दो चार होते हैं.जिनसे हम पहले निपट चुके होते हैं उनसे निपटने के तरीके भी हमें पता होते हैं.पर जो नयी चुनौतियां आती हैं उनसे निपटने के नये तरीके भी खोजने होते हैं.पर आशा का लंगर वही होता है .यह स्थायी भाव है .
अब यहां तक काम भर का हो गया.अब लेख समेटा जा सकता है.पर सबसे पहले जो मैंने स्वामीजी का लेख पढ़ा था उसकी पढ़ताल करने का मन कर रहा है.ये बताते हैं आशा कुछ नहीं है.जो कुछ है वह महिमा प्रपंच की है.स्वामीजी बताते हैं आशा ही जीवन नहीं है बल्कि प्रपंच ही जीवन है.सच तो यह है कि न आशा ही जीवन है न प्रपंच ही जीवन हैं.आशा व प्रपंच एक दूसरे की ‘मिरर इमेज’ हैं.आशा किसी शिखर की तरफ बढ़ते हुये के धनात्मक भाव हैं तो प्रपंच शिखर से रपटते हुये किसी के वे कलाबाजियां हैं जो शिखर-पतित येन-केन-प्रकारेण शिखर पर बने रहने के लिये करता है.
आशा का झंडा लहराते शिखर पर चढ़ते के लिये दुनिया वाह-वाह करती है.जबकि शिखर बचाये रखने के लिये प्रपंचरत के लिये दुनिया कहती है-देखो इनकी हवस नहीं गयी.आशावादी के प्रयास हनुमान के प्रयास के प्रयास होते हैं जिनकी सुरसा तक तारीफ करती है जिसे वे धता बताकर निकल आते है.प्रपंचरत के प्रयास को स्वामीजी तक धूर्तता बताते हैं.आशा वरेण्य है,प्रपंच चुभता है.आशा तो सबको साथ लेकर चल सकती है.पर प्रपंच की त्रासदी होती है कि वह अकेला होता है.तमाम छल करने पड़ते हैं प्रपंच को.और जब वह बेनकाब होता है तो सदियों तक हाय वे भी क्या दिन थे कहने के लिये बाध्य होता है.प्रपंच तभी तक कामयाब होता है जब तक आशायें अलग-थलग रहती हैं.आशाओं के गठबंधन को देखकर प्रपंच पतली गली से निकल लेता है .
तो मतलब मेरा यही है कि अगर कोई कहता है आशा ही जीवन है तो आई बेग टु डिफर.पर यह भी सच है कि आशा बहुत बड़ी ताकत है जीवन को दिशा देने में.अगर डायलागियाया जाये तो कहा जा सकता है-आशा जीवन तो नहीं पर जीवन की कसम यह जीवन से कम भी नहीं.
बाकी तो तुलसी बाबा के शब्दों में:-
जाकी रही भावना जैसी,
प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी
.

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

5 responses to “आशा ही जीवन है”

  1. eswami
    हां सही बात है, आशा धनात्मक है और प्रपन्च नकारात्मक का नकारात्मक है नीचे नही जाना इस डर से उपर चढते रहने का जुगाड! आज कल प्रपंच फेशन मे क्यों है?
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