Wednesday, May 09, 2012

एक सामान्य रेल यात्रा

http://web.archive.org/web/20140419212804/http://hindini.com/fursatiya/archives/2965

एक सामान्य रेल यात्रा

कानपुर से जबलपुर अपन ट्रेन से आते हैं।
कानपुर से जबलपुर के लिये सीधी ट्रेन एक्कै है -चित्रकूट एक्सप्रेस। बड़ी भली ट्रेन है। रिजर्वेशन आराम से मिल जाता है।

इस बार कराया जनरल में तो एक दिन पहले वेटिंग में 13 नंबर था। अगले दिन हो पक्का जाता लेकिन निश्चिंत होने के फ़ेर में तत्काल की शरण में गये और नीचे की बर्थ पाकर प्रसन्न चित्त हो गये।

समय पर स्टेशन पहुंचे। गाड़ी टाइम पर। ट्रेन में चढ़कर सीट पर पहुंचकर उसके पास सामान धरा। ट्रेन चली नहीं थी तो मन किया कन्फ़र्म किया जाये कि सही ट्रेन / डिब्बे में चढ़े हैं कि नहीं। वो भी कन्फ़र्म कर लिया तो मन किया देख लें चार्ट में नाम है कि नहीं। लेकिन ट्रेन सीटी बजा दिहिस। मन मारकर डब्बे में वापस आ गये।
वापस आने पर देखा कि हमारी नीचे वाली बर्थ पर एक महिला अपने बच्चों समेत विराज रही थीं। उनके इरादे सहज थे। उनके साथ कुल जमा चार बच्चे थे। दो आधी टिकट वाली उमर के और दो बिना टिकट वाली उमर के। पांच लोगों को कुल जमा दो सीट चाहिये थीं। नीचे वाली हमारी बर्थ पर वे अपने बिना टिकट की उमर वाले बच्चों के साथ बैठ ही चुकी थीं। बीच वाली बर्थ पर आधी टिकट वाली बच्चियां लेट गयीं थीं।

हमने सहमते हुये डिब्बे में जाहिर किया कि नीचे वाली बर्थ हमारी थी। इससे स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। बीच की सीट वाली बच्चियों ने बिना झिझके जो कुछ कहा उसका मतलब यह था कि मैं ऊपर की सीट पर चला जाऊं।

बच्चियों के आग्रह में स्वाभाविकता कुछ ज्यादा थी। सामने वाले साहब को लगा कि शायद इससे मैं बुरा न मान जाऊं। सो उन्होंने बच्चियों को समझाते हुये कहा- ऐसे नहीं कहा जाता बेटे। कहो कि अंकलजी आप ऊपर की सीट पर चले जाइये। 

बच्चियों को शायद लगा हो कि उन्होंने क्या गलत कह दिया। अपने मन की बात ही तो कही। वे मारे गुस्से के चुप हो गयीं।
फ़िर भाई साहब ने मुझसे कहा देख लीजिये -साथ में बच्चे हैं। हो सके तो आप ऊपर की बर्थ पर चले जाइये। 

हमें बड़ा वैसा सा लगा। लगा कि बताओ बर्थ हमें छोड़ना है। कब्जा दूसरे को करना है। लेकिन आवाहन ये तीसरा आदमी कर रहा है।

हमें लगा कि यह हमारे त्याग में भांजी मार रहा है। बर्थ का त्याग हम करें और श्रेय कोई और ले यह अच्छा नहीं न लगता जी। मन किया तो कि अगर ये दुबारा कहेंगे तो उनसे कहेंगे कि आप काहे नहीं अपना नीचे का बर्थ छोड़कर ऊपर स्थापित हो जाते हैं। लेकिन मौका आया नहीं। वे भाईसाहब मोबाइल पर जोर-जोर से बतियाने में व्यस्त हो गये। वो महिलाजी अपने बच्चे के साथ गुन्न-मुन्न ऊंघती हमारी तथाकथित बर्थ पर अपने बच्चों के साथ बैठी रहीं।


थोड़ी देर बाद हम अपनी बर्थ का त्याग करके ऊपर वाली बर्थ पर आ गये। इस त्याग के लिये हम तैयार तो बच्चों समेत महिला की स्थिति को देखते ही हो गये थे। लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस समझेंगी/कहेगी। फ़िर हम कहेंगे कि अरे इसमें क्या। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पहले हमें भाई साहब पर झुल्लाहट हुई कि हमारे त्याग में भांजी मार दी। इसके बाद महिला ने खास अनुरोध नहीं किया। इस सबके चलते हुआ यह कि बर्थ त्याग का पूरा श्रेय हमें नहीं मिला। भलेमानस होने का तो खैर पूरा पत्ता ही गोल हो गया।

बाद में ऊपर की बर्थ पर आराम से लेटते हुये सोचा तो हमारे मन ने हम पर चिरकुटई का इल्जाम लगा दिया। कैसे चिरकुट मनई हो जी। एक ठो बर्थ जरूरतमंद यात्री को देने को बड़का त्याग बताते हो।

बाद में पता चला कि वे भाईसाहब भी कोई शुकुलजी ही थे। फ़िर लगा कि सारी चिरकुटई शुकुलजी लोग ही करते हैं क्या।

सामने वाली बर्थ पर एक बाबाजी नुमा आदमी एक लुटिया टाइप की छोटे थैली में हाथ घुसाये माला टाइप जप रहे थे। मुंह से बुदबुदाते भी जा रहे थे। लगा कि गिनती सीख रहे हैं। कुछ देर में उनका खाने का बुलौवा हुआ। वे माला समेट के अपनी थैलिया में समेट के थैली को गोलिया के अपनी बनियाइन के अन्दर घुसा के खाना खाने चले गये।

डिब्बे में एक पुलिस वाला 303 वाली बन्दूकें लिये पहरा टाइप दे रहा था। कुछ देर बगल वाली बर्थ पर लेटे हुये गाना सुनता रहा। मोबाइल पर कौनौ तेज गाना चल रहा था। थोड़ी देर में वो ऊंघने लगा। मोबाइल को शायद यह अच्छा न लगा हो। मोबाइल नीचे गिरा भाड़ से। तेज आवाज हुई। लगा बम फ़टा। अब जमाना ऐसा ही हो गया है जी। हर तेज आवाज बम सरीखी लगती है। दो भले मानुषों ने एक साथ उसका मोबाइल उठाने की कोशिश की। टकराते हुये बचे। अंतत: एक ने उसका मोबाइल उठाकर उसे दिया। गाना फ़िर चालू। वो सिपाही मोबाइल को सीने में धरकर ऊंघने लगा। थका लग रहा था।

कुछ देर बाद देखा कि बासबेसिन के पास एक सिपाही ने एक लड़के को धमकियाने की कोशिश की। कहां है टिकट कहकर। जब यह तय हो गया कि लड़का टिकटधारी था तो उसकी आवाज मुलायम हो गयी। वह समझाने लगा उधर दरवज्जे के पास न खड़े हो। एक्सीडेंट हो सकता है। अपनी सीट पर जाकर बैठो।

पिछली यात्रा में मैंने देखा कि ऐसे ही एक यात्री से, जो रात को रिजर्व डिब्बे में आ गया था, सिपाही ने पचास रुपये ऐंठ लिये थे। फ़िर कहा- जहां मन आये सो जाओ। सिपाही को यह बर्दास्त नहीं हुआ कि कोई सरकार को चूना लगाकर मुफ़्त में रिजर्व डिब्बे में यात्रा करे। न सही सरकार के खजाने में लेकिन पैसा सरकारी मुलाजिम के पास तो पहुंचा।

इस बीच अचानक ट्रेन की चेन खिंची। पता चला कि एक महिला अपने बच्चे के साथ चढ़ रही थी। महिला चढ़ गयी लेकिन बच्चा रह गया। वह दौड़कर ट्रेन पकड़ने लगा। गाड़ी तेज हो गयी थी। किसी ने चेन खींच दी थी।

दोनों लोग गाड़ी में आ गये। घटना किसी और डिब्बे में हुई थी। लेकिन कुछ ही देर में हमारे डिब्बे तक भी खबर आ गयी। हमारे यहां भी तमाम लोगों ने चैन की सांस ले ली। कई लोगों ने सांस लेने के बाद करवट भी बदल ली।
सुबह ऊपर वाली बर्थ से नीचे अवतरित हुये तो पता चला कि ट्रेन जबलपुर पहुंचने वाली थी। एक छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकी। एक बालिका सामने वाली बर्थ पर बैठते ही आंखे मूंदकर ऊंघने लगी। उसके हाथ में एक रजिस्टर था। फ़ाइल थी। उसको और उसकी फ़ाइल को देखकर लगा कि वह शायद जबलपुर से बी.एड. कर रही होगी। सुबह जल्दी उठकर स्कूल के लिये निकली होगी। ट्रेन में जगह मिलते ही ऊंघने लगी होगी।

कुछ ही देर में ट्रेन जबलपुर के प्लेटफ़ार्म नंबर दो पर रुकी। हम खरामा-खरामा चलते हुये प्लेटफ़ार्म नंबर एक पर आये। वहां लिखा था – गर्व करिये कि आप संस्कारधानी में हैं।

जबलपुर को संस्कारधानी नाम विनोबा जी ने दिया था। सुना है कभी किसी सांप्रदायिक दंगे के भड़कने पर नेहरू जी ने जबलपुर को गुंडों का शहर कहा था। हमें समझ में नहीं आया कि किस महापुरुष की बात सही माने। हमारे लिये तो दोनों आदरणीय व वंदनीय हैं।

दुविधा के मारे हम बिना गर्व या शर्म किये अपने ठिकाने की तरफ़ चल दिये।

54 responses to “एक सामान्य रेल यात्रा”

  1. amit srivastava
    सर जी, यह शहरों के नाम के आगे ‘पुर’ लगाने का क्या मकसद रहा होगा यथा शाहजहांपुर, कानपुर,जबलपुर,नागपुर,सुल्तानपुर,सहारनपुर,मुजफ्फरपुर,दुर्गापुर,रामपुर,सीतापुर, और न जाने कितने ‘पुर’ | कभी दोनों ‘पुरों’की यात्रा के बीच समय निकाल कर इस ‘पुर’ पर ‘पुराण’ लिखिए |
    amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." स्मृति की एक बूंद मेरे काँधे पे……."
  2. सतीश सक्सेना
    भलामानस या बड़े भाई जैसा कुछ करने के लिए, अपने लिए एक अनूप शुक्ल पैदा करो जो वक्त बेवक्त अपने ब्लॉग में आपको भला मानस बताता रहे तब आप भलमंसाई के सिकंदर माने जाओगे ! अब यह मत कह देना कि यह ओहदा मुझे दे रखा है :)
    वैसे आपकी यह यात्रा जोरदार हुई, हाँ सीट छीन जाने पर आपकी तड़प पर दिल भर आया !
    वाकई आज खाना खाने का दिल नहीं करेगा …
    और भी मौके आयेंगे ..
    दिल छोटा न करें !
    सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..मेरे गीत – सतीश सक्सेना
  3. arvind mishra
    सोच रहे किस बात पर कमेन्ट किया जाय ….चक्कर घानी और धानी के कुछ सामंजस्य में मन लग गया है
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..उफ़ यह अकेलापन!
  4. विवेक रस्तोगी
    ये सीट छिनने की प्रक्रिया बड़ी भयंकर होती है, जब कोई भीषण दृष्टि से हमारी ओर देखता है तो हम चाहकर भी अपनी दृष्टि फ़िरा नहीं पाते, और जो आपके साथ हुआ वही होता है ।
    जय नर्मदा मैया की… अच्छी पोस्ट लिख डाली… हम निकल रहे हैं ३६ घंटे की यात्रा पर … इसका मतलब कि १२ घंटे के हिसाब से ३ पोस्ट बनती हैं :)
    विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..निकल रहे हैं कल से यात्रा पर ..
  5. प्रवीण पाण्डेय
    न जाने कितनों बादलों का स्वरूप ले लेती है ट्रेन यात्रा..
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..हैं अशेष इच्छायें मन में
  6. sanjay jha
    बर्थ त्याग का श्रेय न मिलने के लिए हमारे तरफ से ‘सांत्वना’ ले ली जय……..कोई बात नै….फिर मौके आयेंगे.
    प्रणाम.
  7. mahendra mishra
    शुक्र हैं की जद्दोजहद भरे सफ़र में आप गर्व के साथ संस्कारधानी पहुँच गए … आपका इस शहर से पुराना नाता है . पता ही नहीं चल पाता है की आप कब जबलपुर पहुँच जाते हैं … आभार
  8. देवेन्द्र पाण्डेय
    एक्को इस्माइली नहीं लगाये ? कई बात तो बढ़िया लिखे हैं !
    त्याग पर भांजी मारना किसी को अच्छा नहीं लगता। कई बार नेता लोग अफसरों के त्याग में ऐसे ही भांजी मारते हैं। एक ब्लॉगर दूसरे ब्लॉगर के त्याग में भी तो भांजी नहीं मारते ? :)
    एक काम और आपने बढ़िया किया गर्मी में यात्रा करी, फोटू जाड़े वाली ठेल दी ।:)
    1. सतीश सक्सेना
      लो अब झेलो बनारसी बाबू की नज़र …
      ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं …
      जल्दी से फोटू बदल लो
      सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..मेरे गीत – सतीश सक्सेना
  9. shikha varshney
    ट्रेन के एक डिब्बे में पूरा शहर बस्ता है और जिंदगी के तमाम अच्छे- बुरे अनुभव भी वहीँ अक्सर मिल जाया करते हैं हमें तो यहीं बैठे यह बढ़िया पोस्ट मिल गई और आप सकुशल पहुँच गए संस्कारधानी में.अब गर्व कर लीजिए :).
  10. aradhana
    इस पोस्ट में आपने बिना किसी ‘उपमा-रूपक’ का प्रयोग किये अत्यधिक स्वाभाविकता से हास्य-सृजन किया है. इसे कहते हैं ‘सिचुएशनल कॉमेडी’- परिस्थितिजन्य हास्य. कुछ जगहें बड़ी मजेदार लगीं-
    ‘लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस कहेगी। फ़िर हम कहेंगे कि अरे इसमें क्या। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पहले हमें भाई साहब पर झुल्लाहट हुई कि हमारे त्याग में भांजी मार दी। इसके बाद महिला ने खास अनुरोध नहीं किया। इस सबके चलते हुआ यह कि बर्थ त्याग का पूरा श्रेय हमें नहीं मिला। भलेमानस होने का तो खैर पूरा पता ही गोल हो गया।’

    ‘हमारे यहां भी तमाम लोगों ने चैन की सांस ले ली। कई लोगों ने सांस लेने के बाद करवट भी बदल ली।’
    हम फिर ये कहेंगे कि आपका जवाब नहीं :)
    aradhana की हालिया प्रविष्टी..धूसर
  11. anita
    महिला ने सीट भी मार ली और बात तक नहीं की, महान भी न बनने दिया, हद्द है। वैसे यही होता है जब अपनी सीट के प्रति लोग ज्यादा आश्वस्त हो जाते हैं कि कहीं न जायेगी…चप्पलें कहां रखी थीं, पखें पर?
  12. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    “बाद में ऊपर की बर्थ पर आराम से लेटते हुये सोचा तो हमारे मन ने हम पर चिरकुटई का इल्जाम लगा दिया। कैसे चिरकुट मनई हो जी। एक ठो बर्थ जरूरतमंद यात्री को देने को बड़का त्याग बताते हो।”
    अच्छी बातें भी मन के भीतर ही घूमती रहती हैं जिन्हें थोड़ा ध्यान देकर सुनना पड़ता है। शोर गुल के बीच से बाहर निकलकर जब शान्त माहौल मिलता है तो यह साफ सुनायी देने लगता है।
    आपकी अभिव्यक्ति तो लाजवाब है ही।
    सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..बच्चों के लिए खुद को बदलना होगा…
  13. vineeta sharma
    बहुत मजेदार पोस्ट है शुक्ल जी. मजा आया. वैसे हम सोचते रहे, की आप जनरल डब्बे में क्यों गए होंगे? वो भी इतनी गर्मी में :(
    1. ashish
      विनीता जी, शुकुल साहब जेनरल मेनेजर जो है . इसलिए जेनरल डब्बा. . मजाक एक तरह वो उन्होंने शायद जेनरल केटेगरी से टिकट करवाने की बात की है नाकि जेनरल डब्बे में जाने की .वहा आरक्षण कहा है जी .
      ashish की हालिया प्रविष्टी..बनिहारिन
  14. हरभजन सिंह बडबोले
    आराधना जी से शब्दश: सहमत. कमाल का हास्य सृजन. आराधना ने जो उदहारण दिए हैं, उन्हें ही मेरा माना जाए :) बल्कि पूरा कमेन्ट ही कॉपी -पेस्ट समझा जाए :)
    सचमुच कमाल हैं आप.
  15. संतोष त्रिवेदी
    अच्छा है इस जात्रा में अपने को पहचान लिया आपने…मिसिर जी वैसन ही नहीं सोंटा लिए घूमत रहत हैं आपके पीछे.
    सारे फसाद की जड़ में ई सुकुल-कम्पनी है भाई !
    संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..तुम और तुम्हारी याद !
  16. rachna
    birth देने वाली को berth दे भी दी तो क्या त्याग किया ??
    आप किस क्लास में यात्रा कर रहे थे ? जो पूछ रहे हैं वो ध्यान दे की आप सबसे ऊपर वाली सीट पर सोये
    नीचे माँ उसके ऊपर बेटियाँ
    सरकारी यात्र नहीं हो सकती ये और कोई ब्लॉगर सम्मलेन भी नहीं था की टिकेट वहाँ से मिलता
    ख़ैर पोस्ट पढ़ कर मज़ा आया
    rachna की हालिया प्रविष्टी..एक लिंक
  17. G C Agnihotri
    kya yaar. सीट दी और परेशान हो.
  18. देवेन्द्र पाण्डेय
    इस्माइली लगाने से लगता है हमको पाठक की समझ पर भरोसा नहीं है। इस्माइली लगाना मतलब पाठक को फ़ौजी बनाने जैसा है कि यहां इस्माइली लगा है अब जवान हंसेगा। :)
    …उत्तर के लिए धन्यवाद। सभी को दिये उत्तर में इस्माइल लगाने के लिए डबल धन्यवाद।
  19. dhirendra pandey
    घटना किसी और डिब्बे में हुई थी। लेकिन कुछ ही देर में हमारे डिब्बे तक भी खबर आ गयी। हमारे यहां भी तमाम लोगों ने चैन की सांस ले ली। कई लोगों ने सांस लेने के बाद करवट भी बदल ली। ——–
    जैसे कि अगर वो महिला के बच्चे ना चढ़ पाते तो साँस लेने वाले खुद उतर कर चढा देते | हा और अगर वो बच्चे न चढ़ पाते तो सारे रास्ते चर्चा होती तमाम पुरानी कहनिया सुनायी जाती कि “एक बार ……..”
  20. gitanjali srivastava
    सर रेल के सफ़र में ऐसा ही होता है | बचत तभी होती है जब या तो आपके साथ महिला हो या फिर कोई वरिष्ठ सदस्य हो वर्ना लोग आग्रह भी अधिकार से करते है और धन्यवाद भी नहीं करते | सहज स्वाभाविक वर्णन हास्य से भरपूर है | सर ऊपर वाली फोटो कहीं अतिक्रमणकारी की तो नहीं | सर पढ़कर मन आनंदित हो गया|
  21. satyavrat shukla
    हमें बड़ा वैसा सा लगा। लगा कि बताओ बर्थ हमें छोड़ना है। कब्जा दूसरे को करना है। लेकिन आवाहन ये तीसरा आदमी कर रहा है।……इस तरह (तीसरा आदमी) के लोंगो को ही कहते है रायजादा ,रायचंद |
    और आपकी इस पंक्ति -”लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस समझेंगी/कहेगी।” ने उस व्यक्ति कि याद दिला दी जो घूस लेता तो नहीं है लेकिन चाहता जरूर है कि उसको भी प्रस्ताव दे और फिर वो मना कर सके |
    बहुत ही अच्छा वर्णन किया है मौसा जी ……और अन्त तो सबसे अच्छा |
    satyavrat shukla की हालिया प्रविष्टी..माँ कभी खफा नहीं होती ……
  22. amit
    अब आप भले मानस हैं, खामखा जबरन ही किसी ने आपसे त्याग करवा लिया और त्याग की फीलिंग भी न होने दी। अब अईसा हमारे साथ होता तो हम अड़ जाते कि एक तो जबरन गुण्डई तरीके से सीट हथिया ली और ऊपर से कौनो एहसान तो दूर अकड़ के बोला जा रिया है कि ऊपर कट लो! भई आखिर तमीज़ नाम की भी कौनो चीज़ है कि नहीं! :)
    जबलपुर को संस्कारधानी नाम विनोबा जी ने दिया था। सुना है कभी किसी सांप्रदायिक दंगे के भड़कने पर नेहरू जी ने जबलपुर को गुंडों का शहर कहा था। हमें समझ में नहीं आया कि किस महापुरुष की बात सही माने। हमारे लिये तो दोनों आदरणीय व वंदनीय हैं।
    दोनों ही सही हो सकते हैं, संस्कारमई तरीके से गुण्डई हुई होगी! :D
    amit की हालिया प्रविष्टी..पापमोचनी मंदिर…..
  23. समीर लाल "पुराने जमाने के टिप्पणीकार"
    गर्व करिये कि आप संस्कारधानी में हैं।….हमारी तो खैर न मानने की आपकी कसम है ही तो जौन महापुरुष हमारे सिवाय समझ आये उसकी मान लेना…मगर सच तो सच ही रहेगा बाबू जी: गर्व करिये कि आप संस्कारधानी में हैं और यह समीर लाल की नगरी है!!! :)
    समीर लाल “पुराने जमाने के टिप्पणीकार” की हालिया प्रविष्टी..सेन फ्रेन्सिसको से कविता…
    1. sanjay jha
      @ aur ये ‘समीर लाल’ की नगरी है……सही है. बट आज-कल इस पे कब्ज़ा ‘फुरसतियाजी’ का है…… :(:(:(
      प्रणाम.
  24. Anonymous
    फुर्सतिया बाऊ। अच्छा लेख है।
    हम हैं कानपुरिये और हमरे ताऊजी जबलपुर में रहते थे।
    आपके लेख पढ़ कर बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं।
    ब्लाॅगियाते रहिये।
  25. Gyandutt Pandey
    अच्छा है – संस्कार की घानी में कानपुरी तिल्ल पेरा जा रहा है।
    वैल्यू एडीशन हो रहा है! :-)
    Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..मोहिन्दर सिंह गुजराल
    1. Anonymous
      ज्ञानजी, भला हो आपने नीम चड़ा नहीं बोला लेकिन तेल निकलवा दिया।
      खैर तेल तो सभी का निकलता है।
  26. प्रमेन्द्र
    स्लीपर में रेल यात्रा का मज़ा ही कुछ और होता है.. बाते भी होती है और टाइमपास भी..
  27. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] एक सामान्य रेल यात्रा [...]
  28. अमित तिवारी
    आपके साथ सफ़र अच्छा रहा।

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