Monday, December 23, 2013

लोकपाल के साइड इफ़ेक्ट

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लोकपाल के साइड इफ़ेक्ट

लोकपाल१लोकपाल बिल पास होते ही सरकारी दफ़्तरों में हल्ला मच गया।
लोकपाल में यह व्यवस्था है कि जांच फ़ौरन निपटाई जायेगी। दफ़्तरों में चर्चा होने लगी कि जांचों से निपटना तो खैर आता है लेकिन इस लोकपाल से कैसे निपटा जायेगा।
इस बारे में दो विचारधारायें सामने आयीं- व्यवहारिक विचारधारा और ईमानदार विचारधारा।
व्यवहारिक विचारधारा वाले लोगों का मानना है कि लोकपाल-फ़ोकपाल से डरने की कोई जरूरत नहीं है। अपना काम जैसे अब तक करते आये हैं वैसे ही किया जाये। कहीं लोकपाल ने पकड़ा तो उससे उसी तरह निपटा जायेगा जिस तरह अभी तक बाकी जांचों से निपटते आये हैं। आखिर लोकपाल में भी तो इसी समाज के लोग होंगे। कोई मंगलग्रह के लोग थोड़ी होंगे लोकपाल में जो हमारी भाषा न समझें। हमारे इशारे न बूझें।
ईमानदार विचारधारा के लोगों का कहना है कि हमको अपना काम और सावधानी से करना चाहना। काम हो चाहे न हो पर नियम कानून का पालन अच्छे से करना चाहिये। भले साल का काम चार साल में करें लेकिन करें पूरी ईमानदारी से।
साल का काम चार साल में करने वाले प्रस्ताव से लोगों में आम सहमति थी लेकिन उसमें एक अड़चन यह समझ में आई कि दफ़्तरों के नियम कानून चन्द्रमा की कलाओं की तरह बदलते रहते हैं। हर आला अधिकारी अपने आला दिमाग के प्रभाव में नये नियम बनाना रहता है या फ़िर पुराने नियम की नयी व्याख्या करता रहता है। नये नियम और पुराने नियम में अक्सर छत्तीस का आंकड़ा रहता है। ऐसे में फ़ाइलों पर कौन से नियम लागू होंगे? पहले साल वाले या चौथे साल वाले।
बड़ी बहस और फ़िर आपसी वोटिंग के बाद तय किया गया कि जिस तरह किसी राजनीतिक दल में नये प्रधानमंत्री का उम्मीदवार सामने आने पर पुराना अपने आप खारिज हो जाता है वैसे ही नये नियम के तहत ही काम का निपटारा किया जायेगा। नियमों में ज्यादा मतभेद हुये तो सारे काम को खारिज करके नये सिरे से काम शुरु किया जायेगा। काम भले हो न हो लेकिन ईमानदारी पर कोई समझौता नहीं होगा।
व्यवहारिक और ईमानदार दोनों विचारधारा के लोग इस बारे में एकमत थे कि ये नियम कानून भी बड़े छलिया टाइप होते हैं। कभी एक साथ सामने नहीं आते। काम के वक्त सामने रहें तो उनका ख्याल रख लिया जाये। लेकिन अक्सर कई नियम काम हो जाने पर उचककर सामने आ जाते हैं- ये देखिये हमारी अनदेखी हो गयी। 2013 में लिये गये फ़ैसले पर सन 1984 का कोई नियम आपत्ति जता देता है कि बरखुरदार हमें भूल गये। 1984 वाले की मिजाजपुर्सी करो तो उसी मामले में 1989 का कोई नियम सामने आ जाता है- अरे यार तुम खारिज नियम का पालन कर रहे हो। हमारी अनदेखी क्यों कर रहे हो। कुल मिलाकर नियम कानून सर्वव्यापी ’वरमूडा त्रिकोण’ की तरह होते हैं जो सामने दिखते भले न हों लेकिन कब किस फ़ाइल का जहाज कहां डुबा दें इसका कोई भरोसा नहीं होता।
व्यवहारिक और ईमानदार विचारधारा के लोग इस बात पर भी एकमत थे कि काम भले अलग-अलग तरीके से करें लेकिन फ़ंसने की हालत में बचने के तरीके पर अच्छे विचार करना चाहिये। नियम कानून के हिसाब से काम करना हमेशा एक ऐसी भूलभुलैया में चलने सरीखा होता है जिसमें दीवारों पर जगह अलग-अलग लम्बाई की कीलें निकले रहती हैं। तमाम सावधानी के बावजूद किस नियम की कील आपकी नौकरी का कुर्ता फ़ाड़ दे , कुछ कहा नहीं जा सकता।
इस खतरे से बचने के लिये लोगों ने अलग-अलग सुझाव दिये। उनमें से कुछ इस तरह हैं:
1. अपनी कमाई का कुछ हिस्सा मासिक किस्तों के रूप में बैक में जमा करते रहें। किसी केस में फ़ंसने पर उस पैसे का उपयोग मुकदमा लड़ने के लिये किया जाये।
2. सरकार से मांग की जाये कि हर कर्मचारी का ’लोकपाल बीमा’ कराया जाये। किसी जांच में फ़ंसने पर इस बीमा की रकम से फ़ंसे हुये कर्मचारी को कानूनी सहायता और नौकरी जाने पर जीवन यापन की सुविधा मिलेगी।
3. करप्शन के मामलों में शिकायत सीवीसी से की जाती है। सीवीसी काम हो जाने के बाद बताती है ये गड़बड़ हुई फ़ाइल में। अच्छा ये रहेगा कि निर्णय लेने के बाद और काम में अमल होने के पहले फ़ाइल सीवीसी के पास भेज दी जाये। सीवीसी द्वारा क्लियर करने के बाद ही फ़ाइल में लिये निर्णय पर अमल हो। जिन फ़ाइलों में अमल न होने की निर्णय हो उनकी रद्दी बेचकर ’प्रधानमंत्री राहत कोष’ में जमा करायी जाये। इससे आपदा प्रबंधन में किसी का मुंह न देखना पड़ेगा।
4. ज्यादा फ़ाइलें होने की दशा में एक ऐसा स्कैनर बनाने के बारें में सोचा जा सकता है जिससे गुजरने पर फ़ाइल अपने आप बता देगी कि किसी नियम की अनदेखी तो नहीं हुई इसमें। ’सीवीसी स्कैनर’ से गुजरने पर फ़ाइल में जिस नियम की अवहेलना हुई वह बीप-बीप करके सामने दिखने लगेगा। ’सीवीसी क्लियर’ फ़ाइलों वाले केस पर बाद में कोई जांच न होगी।
5. सारे निर्णय लेने का काम किसी विदेशी कम्पनी को आउटसोर्स कर दिये जायें। अगर कोई निर्णय गलत हो जाये तो उस कम्पनी को ब्लैकलिस्ट कर दिया जाये। दूसरी कम्पनी को निर्णय लेने के काम का ठेका दिया जाये। इससे और कुछ हो या न हो कम से कम कोई अपने लोगों को भ्रष्टाचारी तो न कहेगा।
उपरोक्त सुझावों पर अभी कोई अन्तिम निर्णय नहीं लिया जा सका है। लोगों का कहना है कि इनमें से किन सुझावों पर अमल करना है इस बारे में जनता की राय ले लेनी चाहिये। कुछ लोगों का मानना है कि हम कोई राजनीतिक लोग थोड़ी हैं जो जनता के पास जायें।
मामला अटका हुआ है। लोग इस बारे में संबंधित नियम की खोज में लगे हुये हैं कि इस समस्या का क्या हल निकाला जाये? सबका मामना है कि इस मामले में सर्वसम्मति से ही निर्णय लिया जायेगा। काम का हर्जा भले हो लेकिन हड़बड़ी में कोई निर्णय लेने के खिलाफ़ हैं लोग।
यह लोकपाल का (एक) साइड इफ़ेक्ट है।

6 responses to “लोकपाल के साइड इफ़ेक्ट”

  1. प्रवीण पाण्डेय
    मुम्बई में एक व्यवस्था है, टिकट बीमा की। व्यक्ति कुछ पैसे प्रतिमाह जमा करता है, एक एजेन्सी को और बिना टिकट ट्रेन में यात्रा करना प्रारम्भ कर देता है। पकड़े जाने की स्थिति में एजेन्सी ही भरपाई करती है। लगता है इसी तरह की बीमा योजना न आ जाये, यहाँ पर भी।
    प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..रिक्त मनुज का शेष रहेगा
  2. संतोष त्रिवेदी
    वाह।
  3. दीपक बाबा
    पाण्डेय सर की टीप पर गौर किया जाए. जबरदस्त आइडिया है सरजी.
    दीपक बाबा की हालिया प्रविष्टी..वो बाबु संभल संभलकर कदम रखता है
  4. arvind mishra
    सभी सुझाव बड़े काम के हैं
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..ह्रदय का रिक्त है फिर एक कोना!
  5. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    एक साल का काम चार साल में करने का सुझाव उस नियम से बाधित होता है जो कुछ कामों को एक ही वित्तीय वर्ष में पूरा करने को अनिवार्य बनाता है। अब तो आगे कुंआ पीछे खाई वाली हालत होने वाली है। :)
    सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..दहलीज़ पे बैठा है कोई दीप जलाकर (तरही ग़जल)
  6. Satish Tewari
    अति सुंदर व्याख्या!

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