Sunday, April 24, 2016

’शिकारी का अधिकार’ की भूमिका


कल लखनऊ में आरिफ़ा एविस के व्यंग्य संग्रह ’शिकारी का अधिकार’ का विमोचन हुआ। उस किताब की भूमिका अपन ने लिखी थी। बांचियेगा ? लीजिये पेश है। :)
’शिकारी का अधिकार’ की भूमिका
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आरिफ़ा एविस से कुछ दिन पहले ही फ़ेसबुक पर मित्रता हुई। उनकी दीवार पर खूब सारे लेख लगे हुये देखे। लगा कि धड़ाधड़ लेखिका हैं। नियमित लिखती हैं। मुझे लगा ऐसे–कैसे कि कोई नियमित व्यंग्य लिखता हो और हम उससे परिचित न हों। लेकिन यह सच ही था।

पहले भी कई बार ऐसा हुआ कि हम सालों से व्यंग्य लेखन में जुटे बड़े-बड़े पहलवानों को बहुत देर में जान पाये। पर अपनी काहिली और अज्ञानता के लिये दूसरे को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है, हम कोई जनसेवक तो हैं नहीं तो जो अपनी सारी घामड़पने का ठीकरा दूसरों के सर पर ठोंक दें।

मैंने Arifa के कुछ लेख देखे तो सहज सवाल किया- “अच्छा तो तुम व्यंग्य लेखिका हो?”


इस पर उनका कहना था आपने मुझे ’व्यंग्य लेखिका’ कहा तो मेरे ’पहले व्यंग्य संग्रह’ की भूमिका लिखिये। मने अपराध किया, तो सज़ा भुगतो। हमने भी झट से स्वीकार कर लिया सोचा कि कहने में क्या हर्ज? जब लिखना होगा तब देखेंगे। अपने कई दोस्तों की किताबों की भूमिका लिखने के लिये हामी भरकर हम गोली देते रहे हैं फ़िर उन्होंने मजबूरी में ख्यातनाम की लेखकों से भूमिका लिखवाकर अपनी किताबें छपवाईं।

लेकिन आरिफ़ा ने बताया कि भूमिका फ़ौरन लिखनी है। संग्रह तुरन्त आना है। हमने टालने के लिये चालू हथकंडे अपनाये जैसे हमारी तो कोई किताब आई नहीं , हम कोई व्यंग्य लेखक के रूप में कुख्यात तो हैं नहीं, Subhash Chander जी के व्यंग्य संग्रह की समीक्षा लिखी है तुमने, उनसे लिखवा लो , वे लिख देंगे। वे मूड बनाकर हफ़्ते भर में उपन्यास लिख मारते हैं तो किताब की भूमिका तो आधे घंटे में लिख देंगे।

लेकिन आरिफ़ा मानी नहीं और कहा- ’भूमिका आपको ही लिखनी है।’ आगे धमकी भी दे दी- ’नहीं लिखेंगे तो कोई बात नहीं व्यंग्य संग्रह तो छपना ही है।’

अब जब जिम्मेदारी आ ही गयी तो हमने कई भूमिकायें पढीं। सोचा उनमें से कुछ टीपकर लिख देंगे। यह भी मन किया कि मौके का फ़ायदा उठाकर व्यंग्य के बारे में झन्नाटेदार बयानबाजी करते हुये कुछ लिख दें। जैसे कि – ’आज व्यंग्य के नाम पर सपाट लेखन हो रहा है, सरोकार के नाम पर पठनीयता की गर्दन रेती जा रही है, व्यंग्य को लोग लफ़्फ़ाजी मसखरी समझते हैं, व्यंग्य के नाम पर खिलवाड़ कर रहे हैं लोग, व्यंग्य के नाम पर मठाधीशी कर रहे हैं चुके हुये लेखक, अमां ये व्यंग्य लिखते हैं या वीररस की कविता, इनसे न हो पायेगा व्यंग्य लेखन आदि-इत्यादि। लेकिन यह सोचकर नहीं लिखा कि अगर हम यह लिखेंगे तो कोई न कोई टप्प से कहेगा- ’इसमें नया क्या है? यह तो हम पहले ही कह चुके हैं।’

व्यंग्य पर बातचीत करते हुये कहा जाता है कि व्यंग्य विसंगतियों को उद्घाटित करता है। आज का समय बीहड़ विसंगतियों का समय है। समाज के हर हिस्से में विसंगतियों की भरमार है। इस लिहाज से देखा जाये तो व्यंग्य लेखन के सबसे शानदार मौका है आज के समय में। इस मौके का फ़ायदा उठाते हुये लोग दनादन व्यंग्य लिख रहे हैं। समाचार पत्र पत्रिकायें नियमित व्यंग्य लेखकों को मौका दे रहे हैं। इसके अलावा ब्लॉग, फ़ेसबुक और अन्य साइट में लोग व्यंग्य लेखन के जौहर दिखा रहे हैं।

विसंगतियों को उद्घाटित करने वाले व्यंग्य के साथ एक विसंगति यह भी दिखती है कि आदर्श व्यंग्य क्या है , कौन व्यंग्य लेखन आदर्श व्यंग्य लेखक है इस पर व्यंग्य लेखकों में काफ़ी मतभेद हैं। हरेक के अपने-अपने पसंदीदा लेखक हैं। जिसको एक घराने के लोग बेहतरीन व्यंग्यकार मानते हैं उसको दूसरे घराने के लोग चलताऊ और चुक गया बताते हैं। दूसरे घराने के लोग पहले घराने के शानदार लेखक को पुराना और एक पीढी पहले की बातें लिखने वाला बताते हैं। शायद ऐसा पहले भी रहा होगा। पहले भी लोग एक-दूसरे को खारिज करते, तारीफ़ करते, झेलते सराहते लिखते रहे होंगे।

साहित्य की अन्य विधाओं की तरह हिन्दी व्यंग्य में भी महिला लेखक अल्पसंख्यक हैं। आज के समय Shefali Pande, Archna Chaturvedi , Indrajeet Kaur , Niraj Sharma , Veena Singh और अब ये आरीफ़ा के लेख नियमित दिखते हैं। इसके अलावा परसाई जी की बात ’व्यंग्य एक स्पिरिट है, विधा नहीं’ के हिसाब से देखें तो तमाम लेखिकायें सोशल मीडिया पर जैसे Anita Misra , सुनीता सनाढ्य पाण्डेय, Kanupriya , Manisha Pandey आदि हैं जो सामाजिक विसंगतियों, स्त्री पुरुष गैर बराबरी और राजनीतिक धतकर्मों पर अपनी बहुत प्रभावी तरीके से चोट करती रहती हैं। ये तो वे हैं जिनसे हम परिचित हैं। इनके अलावा और भी अनगिनत होंगी जो व्यंग्य लिख रही होंगी। पर उनसे हम परिचित नहीं हैं।

आरीफ़ा नियमित लिखती हैं। समसामयिक विषयों मुद्दों पर अपने विचार व्यक्त करती हैं। समीक्षा भी लिखती हैं। उनके लेखन से समाज के वंचित वर्ग के प्रति सहानुभूति और समाज की दुर्गति के लिये जिम्मेदार संस्थानों के प्रति धिक्कार भाव साफ़ नजर आता है।

आरिफ़ा का पहला व्यंग्य लेख मैंने पढ़ा – ’भारत माता की जय।’ इस लेख से उनकी पक्षधरता का अंदाज लगता है। इसमें इस बात पर व्यंग्य किया गया है कि किस तरह जनता के नुमाइंदे नारेबाजी करते हुये समाज की बेहतरी से जुड़े मूल मुद्दे दायें-बायें करने में जुटे हुये हैं। वे लिखती हैं:

“वो बच्चे जिन्होंने कभी स्कूल की शक्ल नहीं देखी और वो बच्चे जो स्कूल सिर्फ एक वक्त के खाने के लिए भिखमंगे बना दिए गये है अगर वे भारतमाता कि जय नहीं बोलेंगे तो कौन बोलेगा।“

इस लेख के बाद और लेख भी पढे मैंने आरिफ़ा के। शिकार करने का जन्मसिद्ध अधिकार की ये पंक्तियां यह बताती हैं कि शोषक वर्ग समाज में यथास्थिति बनाये क्या-क्या हथकंडे अपनाता रहता है:

“जंगलीकानून को जन्मजात माना जाये .....शेर बकरी को खाता है, बकरी घास को खाती है.....यही सच है.... यह सदियों से चला आ रहा है। अतः इसको कोई भी राजा के रहते छीन नहीं सकता। सियार और भेड़ियों को अपने इलाके में शिकार करने का जन्मसिद्ध अधिकार है।“

अधिकतर व्यंग्यकारों की तर्ज पर परसाई जी उनके पसंदीदा व्यंग्य लेखक हैं। परसाई जी को पसंद करने का कारण उनका दृष्टिकोण, पुराने ढांचे की टूटन और नए समाज की बेजोड़ संकल्पना है।

आज जहां सोशल मीडिया के चलते लोग अपनी अभिव्यक्ति को मनचाहा स्वर दे रहे हैं वहीं ऐसा भी हो रहा है कि खिलाफ़ अभिव्यक्ति को देशद्रोह बताकर देशबदर करने की बाते कहना भी बहुत आम हो गया है। इसी बात को अपने लेख ’हरेक बात पर कहते हो घर छोड़ो’ में इस तरह व्यक्त किया है आरीफ़ा ने:-

“इस घर में उठने वाली हर आवाज को बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं लगेगी। समस्या को सहन करो पर चूं न करो। गर चूं करी तो बिना लिए दिए आपको दूसरे घर की नागरिकता मिल जाएगी। इसीलिए घर छोड़ो अभियान चलाने के लिए पूरी टीम बना दी गई है जो घर का भक्त बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।“

आरीफ़ा के व्यंग्य लेख के शीर्षक ही पूरे लेख का लब्बो-लुआब बयान कर देते हैं। कलकत्ते का पुल गिरने पर व्यंग्य करते हुये आरीफ़ा के लेख का शीर्षक ही अपने में एकलाईना व्यंग्य है – ’पुल में दबकर मरने वाले जिंदा ही कब थे।’

आज के समय में दुनिया भर में बाजार की ताकत के सामने में लोकतांत्रिक सरकारों के समर्पण करने के रवैये को बयान करते हुये आरीफ़ा लिखती हैं- “अगर किसी को ज्यादा प्यास सता रही है तो कोका कोला पी लो। देश की प्यास बुझाने के लिए सभी नदियों को एक-एक कर बेचा जा रहा है जब पानी ही देश का नहीं होगा तो पानी की लड़ाई भी अपने आप खत्म हो जाएगी।“

आरिफ़ा के इस संग्रह की अच्छी बात यह है कि उन्होंने अपने 15 व्यंग्य लेख ही इसमें शामिल किये हैं। इसके पीछे किताब की कीमत कम रखते हुये ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना मुख्य उद्देश्य है। उम्मीद करते हैं कि वे अपने उद्धेश्य में सफ़ल होंगी और उनकी देखा-देखी और लोग भी अपने संग्रह छपवाने के लिये बुढापे तक इंतजार न करेंगे जैसा परसाई जी के समकालीन लेखक साथी रामानुज प्रसाद श्रीवास्तव ’ऊँट’ की सुपौत्री साधना उपाध्याय को करना पड़ा। साधना जी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में छपे व्यंग्य लेखों का संग्रह ’बोया गुलाब उगा करेला’ जब छपा तो उन्होंने लिखा- ’जीवन के चौहत्तरवें वर्ष प्रवेश पर अब यह प्रकाशन करना उसी मुहावरे को सिद्ध करता है- बुढापे में लड़कौरी।’

आरीफ़ा ने अभी लिखना शुरु किया है। उनकी तुलना किसी ख्यातनाम लेखक से करना उनकी संभावनाओं की सीमित करने जैसा होगा। लेकिन अभी तक उनके जितने भी लेख मैंने पढ़े हैं उनसे लगता है उनकी समझ साफ़ है, संवेदना विराट है। समय के साथ उनके लेखन में निखार आयेगा। व्यंग्य विधा की नयी-नयी कसीदाकारी सीखेंगी।

यह भी लगता है कि इसी तरह लिखती रहीं तो आगे चलकर बड़ी लेखिका बनेंगी और हम भी फ़क्र से कहते फ़िरेंगे- ’इनकी पहली किताब की भूमिका मैंने लिखी थी।’

आरिफ़ा को उनके पहले व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन के लिये बहुत-बहुत मुबारकबाद, शुभकामनायें।
अनूप शुक्ल
जबलपुर।

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