Friday, August 26, 2016

हेड आफ़िस के गिरगिट

पिछले दिनों उप्र हिन्दी अकादमी के पुरस्कार घोषित हुये तो पता चला अरविन्द तिवारी जी को भी दो लाख रुपये का इनाम मिला। अरविन्द जी कुछ दिन से फ़ेसबुक पर मित्र हैं। मेरी पोस्टस पढते रहते हैं, अकसर हौसला आफ़जाई भी करते रहते हैं। लेकिन उनके बारे में बहुत कम पता था मुझे।
जब इनाम , वह भी दो लाख रुपये, मिला अरविन्दजी को उनके बारे में सहज जिज्ञासा हुई। पता चला उनके व्यंग्य उपन्यास ’हेड आफ़िस के गिरगिट’ पर इनाम मिला है (भूल सुधार- अरविन्द जी को उत्त र प्रदेश साहित्य अकादमी का श्रीनारायण चतुर्वेदी पुरस्कार उनके संपूर्ण व्यंग्य लेखन पर मिला है) । बधाई देते ही मंगाया गया उपन्यास। किताबघर से छपा है उपन्यास। फ़ूंक दिये तीन सौ तीस रुपये किताब और डाकखर्च के।
किताब समय पर आ गयी। खोली तो गिरगिट के पलछिन बदलते रंग के उलट गाढे काही रंग का कवर देखकर लगा कि गिरगिट ने सही में गच्चा देने के लिये रंग बदल लिया है और बहुरंगी के बदले एकरंगी हो गया है।
खैर, किताब आई तो उलट-पुलट कर देखी। पढ़ना शुरु किया। अच्छा लगा तो पढ़ना बन्द करके रख दिया कि अब पूरा पढ़ा जायेगा। किताबों के साथ अक्सर ऐसा होता है कि जिस किताब को अच्छा समझते हैंउसको आराम-आराम से पढते हैं यह सोचकर कि जब यह किताब खत्म हो जायेगी तो क्या पढेंगे।
उस दिन से किताब हमारे साथ रहने लगी। दफ़्तर जाते तो ’लोटपोट’ वाले बैग में चार-पांच किताबें साथ जातीं। इनमें ’हेडआफ़िस का गिरगिट’ के अलावा अनुराधा बेनीवाल की - ’आजादी मेरा ब्रांड’, कमले श पांडेय की -’आत्मालाप’ के अलावा खुद की ’बेवकूफ़ी का सौंदर्य’ शामिल थी। ये सब किताबें आजकल एकसाथ बांच रहे थे। किताबें यह सोचकर ले जाते कि लंच टाइम में पढेंगे। लेकिन किताबें दफ़्तर में पढी नहीं गयीं। लौटकर घ र में सोचते सोते समय पढेंगे, लेकिन उसमें सोने का काम पहले शुरु हो जाता लिहाजा पढ़ना स्थगित होता गया।
लेकिन पहले इतवार फ़िर रक्षाबंधन और आज जन्माष्टमी के मौके का फ़ायदा उठाकर हमने किताबें पढ़ने में स्पीड पकड़ी और जिस किताब को कछुये की गति से पढ़ना शुरु किया था उसको खरगोश की चाल से पढ़कर निपटा दिया। इस सफ़लता में नि:सन्देह ’हेडआफ़िस के गिरगिट’ की सहज पढनीयता और रोचकता का पूरा हाथ रहा।
’हेडआफ़िस के गिरगिट’ अरविन्द तिवारी जी के शिक्षा विभाग के अनुभवों के आधार पर लिखा गया है। शिक्षा विभाग उसमें भी उसके दफ़्तरी पक्ष की विसंगतियां बहुत रोचक ढंग से वर्णित हैं इस व्यंग्य उपन्यास में। शिक्षा विभाग की मासिक शिविरा के संपादन काल (1996- 1999) के अनुभव भी जरूर इस उपन्यास में शामिल रहे होंगे।
अरविन्द जी का उपन्यास पढ़ने के पहले मैंने लेखकों के पेशे से जुड़े कुछ उपन्यास जो पढे थे वे निम्न थे:
१. हृदयेश जी का - ’सफ़ेद घोड़ा काला सवार’- अदालत से जुड़े अनुभव
२. ज्ञान चतुर्वेदी जी का - नरक यात्रा- डाक्टरी जीवन से जुड़े अनुभव
३. सुरेश कांत की का - ’ब से बैंक’ -बैंक से जुड़े अनुभव
अरविन्द जी का उपन्यास पढ़ते हुये सहज ही इन उपन्यासों से तुलना करने का मन हुआ। ’सफ़ेद घोड़ा काला सवार’, ’नरक यात्रा’ बहुत पहले पढे थे इसलिये अभी तुलनात्मक अध्ययन करना संभव नहीं लेकिन अब जब ”हेडआफ़िस का गिरगिट’ पढ चुका हूं तो मन कर रहा है कि फ़िर से इन सभी उपन्यासों को पढा जाये और तुलना की जाये कि अपने अनुभव को किस लेखक ने सबसे बेहतर तरीके से व्यक्त किया है।
’हेडआफ़िस के गिरगिट’ पढ़ना शुरु करते समय तो साधारण सा उपन्यास लगा लेकिन जैसे-जैसे आगे बढते गये यह बेहतर और बेहतर लगता गया। अब जब इसको पूरा पढ चुका तो कहने में कोई संशय नहीं कि एक बहुत अच्छा उपन्यास पढ़ने से न जाने कब तक वंचित रहता अगर लेखक को उत्तर प्रदेश साहित्य अकादमी पुरस्कार न मिलता।
यह मेरे लिये व्यक्तिगत तौर पर अफ़सोस की बात है कि व्यंग्य की विधा से कई सालों तक जुड़े रहने के बावजूद एक बहुत बढिया उपन्यास इतने दिनों बाद पढ़ पाया। इसमें लेखक में ’अपने मुंह तुम आपनि बरनी’ वाली पवृत्ति का अभाव और हिन्दी साहित्य में अच्छी किताबों के भी कम चर्चित रह जाने की परम्परा का हाथ है।
उपन्यास शुरु होता है उपन्यास के पात्र अंबुज जी के हेडआफ़िस ज्वाइन करने से और इसका खात्मा होता अंबुज जी के लाइन हाजिर होने में। इस बीच शिक्षा विभाग और सच कहें तो भारतीय नौकरशाही के काम करने के तरीके का विहंगम अवलोकन करते हुये उसकी विसंगतियां भी दिखाते चलते हैं अरविन्द जी। सारे किस्से एक -दूसरे से ऐसे गु्थे हुये हैं कि पढ़ने में बोझिल नहीं लगते। हां, कहीं-कहीं यह जरुर लगा कि जो दफ़्तरों , परियोजनाओं और पदों के प्रचलित नाम जस के तस न देकर और साधारणीकरण होता तो शायद बेहतर होता।
शिक्षा विभाग का दफ़्तरी बखूबी चित्रित हुआ इस उपन्यास में। विद्यालयी किस्से भी कुछ और होते तो शायद और मजे आते। लेकिन जो देखा उसे लिखा यह अपने आप में उपलब्धि है अरविन्द जी की। हो सकता है उनके पहले उपन्यास ’दिया तले अंधेरा’ में फ़ील्ड के किस्से हों।
विवरणात्मक अंदाज में लिखा गये इस उपन्यास में सार्वजनिक जुमले के तौर कुछ संवाद आप भी मुलाहिजा फ़र्मायें:
१. गद्दे जो थे वे भारतीय लोकतंत्र की तरह चीकट हो चुके थे।
२. गेस्ट हाउस की समस्त व्यवस्थायें कार्यालयी भ्रष्टाचार से प्रेम विवाह कर चुकी थीं।
३.भारत में भ्रष्टाचार और दफ़्तर की धूल , दोनों का एक ही स्वभाव है , चाहे जितना झाडू मारो, अपनी जगह नहीं छोड़ते।
४. टेबल-क्लाथ का फ़ायदा यह है कि उसे झाड़ते ही मेज की धूल गायब हो जाती है।
५.उनके कान भारतीय हुकूमत की तरह ऊंचा सुनने लगे थे।
६.कम सुनने वाला अफ़सर शिक्षा विभाग के लिये सर्वाधिक उपयुक्त माना जाता था।
७.हमारा भारत कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक है। जो गालियां उत्तर भारत में प्रचलित हैं , उन्हीं का प्रचलन दक्षिण भारत में भी है।
८.ब्यूरोक्रेसी में व्यक्ति का दुखी होना हास्यास्पद माना जाता है, मांजने वाला नहीं।
९.टोपियां बदलने से खोपड़ियां नहीं बदला करतीं।
१०.चालू पत्नी का पति , प्राय: चरित्रवान पाया जाता है।
2014 के अंत में छपे इस उपन्यास को उसी वर्ष किताबघर के ’आर्य स्मृति सम्मान’ से नवाजा गया। डेढ साल बाद अभी इस किताब का पहला संस्करण ही चल रहा है। इससे हिन्दी पाठकों की साहियिक किताबें पढ़ने की रुचि का पता चलता है साथ ही हिन्दी में पाठकों तक पहुंचने की प्रकाशन विभागों की उदासीन रुचि का भी अंदाज होता है। शिक्षा विभाग और ब्यूरोक्रेसी से जुड़े लोगों को के लिये यह उपन्यास पढ़ना मजे का अनुभव होता।
सरकारी अनुभागों के धतकरमों के सहज अनुभवों के साथ मियां-बीबी जब एक साथ सरकारी अधिकारी हों तो उनके किस्से कैसे उछलते हैं इसका भी मजेदार विवरण मैडम उजला और रोहित के बहाने लिखा गया है। मियां-बीबी जब एक साथ नौकरी में हों तो आमतौर पर पत्नी को बेहतर अधिकारी मानने की परम्परा का है इसका भी जिक्र है। सन 2007 में पहली पहली बार हमने अपने एक अधिकारी के मुंह से सुना था -’रूल्स आर फ़ार फ़ूल्स’। मुझे लगा कि उसका इजाद किया हुआ संवाद है। लेकिन ’हेडअफ़िस के गिरगिट’ पढकर पता चला कि यह अन्यत्र भी प्रचलित है। मेरे बास बिना मूल स्रोत बताये इसको कहीं से हथिया लिये थे।
अरविन्द तिवारी जी का यह उपन्यास पढकर मुझे उनके अन्य उपन्यास भी पढ़ने का मन है। ’दिया तले अंधेरा’ और ’शेष अगले अंक में’ उपन्यास भी जुगाड़ करते हैं। सुभाष चन्दर जी ने जिस तरह ’हिन्दी व्यंग्य का इतिहास’ ’दिया तले अंधेरा’ का जिक्र किया है उससे लगता है यह उपन्यास भी धांसू है।
यहीं पर सुभाष चन्दर जी तारीफ़ भी करने का मन हो रहा है। कच्चा-पक्का , अच्छा-खराब जैसा भी काम उन्होंने सुभाष चन्दर जी ने ’हिन्दी व्यंग्य का इतिहास’ लिखकर किया है वह काबिले तारीफ़ है। व्यंग्य से संबंधित कोई भी जानकारी पाने की कोशिश की तो कुछ न कुछ तो मिला ही इस किताब में। सुभाष चन्दर जी की मेहनत को सलाम!
बहरहाल ’हेडअफ़िस का गिरगिट’ पढ़ने के बाद एक अच्छे उपन्यास को पढ़ने का आनन्द तो मिला ही साथ ही यह भी अंदाज हुआ कि व्यंग्य में जिन लोगों , किताबों का हल्ला है उससे भी इतर बहुत कुछ लिखा गया है जो उनसे कमतर नहीं जिसका हल्ला है। उसको भी पढना चाहिये। यह एहसास बनाने के लिये अरविन्द जी के उपन्यास की शानदार भूमिका रही। अरविन्द जी को बधाई।
उपन्यास - हेडआफ़िस के गिरगिट
लेखक- अरविन्द तिवारी
प्रकाशक- किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ - 176
कीमत -300 रुपये हार्डबाउन्ड
आनलाइन किताब खरीदने का लिंक
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Subhash Chander

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208904124333837

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