Sunday, August 28, 2016

क्या फ़ायदा ऐसी अफ़सरी का

कल शाम दफ़्तर से निकले तो दिहाड़ी पर काम करने वाले अर्दली जी गेट पर मिल गये। बोले - ’आप आर्मापुर तक जायेंगे। हमको विजयनगर तक लेते चलिये।’
अर्दली का नाम याद नहीं था मुझे लेकिन दिन में कई बार आते-जाते भेंट होती है। कल शनिवार दोपहर देर तक चली मीटिंग में नाश्ते पानी ( जलेबी, मठरी) की व्यवस्था भी इन्होंने ही की थी।
हमने सोचा एक से भले दो। साथ रहेगा। बोले -’चलो।’
चले तो देखा पेट्रोल एकदम खतम था। कल से ही गाड़ी पीला निशान दिखा रही थी। आज लाल हो गया था निशान। सोचा पहले पेट्रोल ही भरवाया जाये वर्ना धक्का परेड करवानी पड़ेगी गाड़ी की।
पेट्रोल पम्प के पहले भीड़ थी सड़क पर। पता चला कि एक मारुति में चलते-चलते आग लग गयी। बीच सड़क पर। मने गाड़ियां तक तनाव में चल रही हैं। क्या पता पेट्रोल के रोज-रोज दाम ऊपर-नीचे होते देख माथा गरम हो गया हो गाड़ी का और सुलग गयी हो।
आग बुझा दी गयी थी। कुछ देर में भीड़ भी छंट गयी। हमने गाड़ी पेट्रोल पम्प पर ले जाकर ठढिया दी। पंप वाले ने पूछा कित्ते का तो जेब टटोली। पाया कुल मिलाकर सत्तर रुपये थे जेब मे।

एटीएम के चलन ने पैसे पास में लेकर चलने की अनिवार्यता कम कर दी है। लेकिन एटीएम दूर था। सोचा साथ की सवारी से मांग लें। फ़िर सोचा दुनिया भर में हल्ला मचेगा कि सवारी से पैसा उगाहते हैं। फ़िर सोचा एक लीटर ही भरा लेते हैं। आगे फ़िर पैसा निकालकर भरवायेंगे। लेकिन फ़िर तब तक अकल भी आ गयी साथ में और हमने पूछा - ’पैसा पेमेंट वाली मशीन है?’ उसने बोला है। हमने कहा तो फ़िर तौल देव हजार रुपये का तेल।

तेल भरवाकर आगे बढे तो बतियाने लगे साथ की सवारी से। पता चला कि चार साल से दिहाड़ी पर मजूरी कर रहे हैं फ़ैक्ट्री में। फ़िलहाल महीने के 7000/- रुपये मिलते हैं। मतलब कुछ लोगों के वेतन में जित्ती बढोत्तरी हुई है सातवें वेतन आयोग के बाद वो एक दिहाड़ी मजूर की महीने के कमाई से तीन गुनी से भी अधिक है।

भारत में स्थाई और अस्थाई मजूर की दिहाड़ी में अमेरिका और हिन्दुस्तान का अंतर है।
बतियाते हुये ही सवारी के घर परिवार के बारे में बात हुई। बताया तीन बच्चे हैं। दो लड़की , एक लड़का। मतलब तीसरा बच्चा लड़का न होता तो जनसंख्या और बढती। पत्नी भी कुछ काम करती है। खुद का भी कुछ बिजनेस है। बच्चे पढ़ते हैं। खुद भी घर जाकर पढाते हैं।

जिस तरह अधिकार पूर्वक हमसे लिफ़्ट मांगी हमारे दफ़्तर के अर्दली ने उससे हमें लगा -’बताओ यार, हमसे कोई डर ही नहीं अगले के मन में। दन्न से कहा -साथ लेते चले। मतलब हमको सीधा और भला आदमी ही समझा जाता है दफ़्तर में। क्या फ़ायदा ऐसी अफ़सरी का।’

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी कि दिहाड़ी मजूर का भी यह आत्मविश्वास है कि वह बराबरी के स्तर पर बात कर सकता है। हमारा दोस्ताना रवैया तो खैर रहा ही होगा इसका कारण।


जब पता चला कि आर्मापुर से ओपीएफ़ तक बस/आटो का किराया 13 रुपया है तो दो विचार आये दिमाग में। पहला तो यह कि रोज टेम्पो से आया-जाया करें। काम भर के पैसे बचेंगे। दूसरा आइडिया यह आया कि आते-जाते आर्मापुर से ओपीएफ़/स्टेशन की सवारी बैठा लिया करें। सोचा तो यह भी को ओला/उबेर टैक्सी वालों से संपर्क कर लें और आते-जाते उनकी सवारिया लादे लिये जाया करें। आप बताइये कौन सा तरीका ठीक रहेगा?

हम यह सब सोच ही रहे थे कि टाटमिल चौराहे पर एक पुलिस वाले ने गाड़ी रोककर कागजात दिखाने को कहा। हमारे सारे कागज उसको सौंपते ही कागजों में उसकी दिलचस्पी खतम हो गयी। लेकिन हम डरते ही रहे कि कोई कागज गलत न ठहरा दिया जाये। लेकिन उसने ऐसा जुल्म किया नहीं। बल्कि डिक्की खोलने को कहा। पता चला कि जो लोग एलपीजी सिंलिंडर गाड़ी में लगाये चल रहे हैं उनकी जांच चल रही है। लेकिन अगले दिन अखबार में पढ़ा कि विस्फ़ोटक बरामद हुये हैं तो हम दहल गये। लेकिन जब पुलिस वाले ने मुक्त करते हुये थैंक्यू कहा तो मन अच्छा हो गया।

शाम हो गयी थी। सूरज भाई अपना शटर गिराकर अपनी किरणों को समेटे हुये खरामा-खरामा निकल लिये। विजय नगर चौराहे पर अपनी सवारी उतारकर जब हम घर पहुंचे तब तक रात ने अपनी खटिया बिछाना शुरु कर दिया था।

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