Saturday, September 09, 2017

पंच होने से व्यंग्य का असर बढ़ जाता है- आलोक पुराणिक




Alok Puranik से सवाल- जबाब की कड़ी में आज के सवाल व्यंग्य के हथियार ’पंच’ पर
सवाल1. व्यंग्य में पंच का कितना महत्व होता है?
जवाब: पंच का शाब्दिक आशय है-मुक्का, घूंसा। व्यंग्य से उम्मीद की जाती है कि वह विसंगति की पड़ताल करेगा, विसंगति की पड़ताल की प्रकिया में जो रचनांश विशिष्ट होकर उभरते हैं, जिसमें मुक्का-परक क्षमताएं होती हैं, एकदम से पाठक के दिल में धंसने की क्षमताएं होती हैं, उन्हे आम तौर पर पंच कहा जा सकता है। पंच एक वाक्य में हो सकता है, पंच का पूरा पैरा हो सकता है। पंच की यह मेरी समझ है कि पंच यानी किसी व्यंग्य रचना का वह अंश जो बहुत महत्वपूर्ण बात कह रहा है। बड़ी रचनाओं, बड़े उपन्यासों में कई वनलाइनर निकलते हैं, उन्हे पंच माना जा सकता है। पंच की अपनी -अपनी परिभाषा हो सकती है, पर मेरी राय में पंच यही है, जो मैंने ऊपर बताया। व्यंग्य में पंच की खास भूमिका है। परसाईजी की एक रचना में एक वाक्य का आशय है कि महिला मुक्ति के इतिहास में यह वाक्य अमर रहेगा कि एक की कमाई में पूरा नहीं पड़ता। यह मारक पंच है। किसी लेखक की पूरी रचनाएं पढ़ने का वक्त ना हो, तो उसके पंचों के अध्ययन से भी उस लेखक का लेखन समझ में आ आ सकता है, एक हद तक।
सवाल 2. मारक पंच की क्या पहचान है?
-जवाब-मारक पंच मारक घूंसे की तरह असर करता है, एकदम दिमाग पर चोट करता है। याद रह जाता है।
सवाल 3. क्या पंच की मात्रा अधिक होने से किसी व्यंग्य के प्रभावित होने की मात्रा बढ जाती है।
जवाब-पंच होने से व्यंग्य का असर बढ़ जाता है।
सवाल 4. व्यंग्य कहानियों में कहानी के ताने-बाने के चलते किसी व्यंग्य लेख की तुलना में पंच कम होते हैं। अगर पंच के हिसाब से व्यंग्य की परख होगी तो
व्यंग्य कहानियां लिखने वाले लेखक कम अच्छे माने जा सकते हैं। इस बारे में क्या कहना है आपका?
जवाब-देखिये कहानी का ढांचा अलग होता है, कहानी अलग राह पर चलती है। और लेख का ढांचा अलग होता है, वह अलग राह पर चलता है। कहानी में पंच न हों तो भी वह उत्सुकता के आधार पर चलती है, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होनेवाला है। इस सवाल के जवाब में पाठक लगातार पढ़ता जाता है। पंच होना कहानी की जरुरत नहीं है, पर अगर व्यंग्य-कहानी कही जा रही है, तो पंच उसमें स्वाभाविक तौर पर आ जाते हैं। इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर -परसाईजी की रचना में पंचों का भंडार है, पर कथा लोग इसलिए पढ़ रहे हैं कि पता करना है आगे क्या होगा आगे क्या होगा। खराब से खऱाब से कहानी भी पाठक को इस सवाल के बूते पढ़वा ले जाती है कि आगे क्या होगा। व्यंग्य लेख का ढांचा अलग होता है, वहां एक पैरा पढ़वाना भी मुश्किल है, अगर लेखक पाठक को बांध नहीं पा रहा है। क्योंकि लेख के ढांचे में कोई सवाल नहीं है कि आगे क्या होगा, कोई कैरेक्टर नहीं बनाया गया, कोई प्लाट नहीं खड़ा किया गया। और यह सवाल निरर्थक है कि कम अच्छे लेखक या ज्यादा अच्छे लेखक, हरेक पास अपना शिल्प और असर है। परसाईजी व्यंग्य कथाओं के लिए प्रख्यात हैं और शरद जोशी व्यंग्य निबंधों के लिए प्रख्यात हैं,श्रीलाल शुक्ल उपन्यास के लिए जाने जाते हैं। ज्ञान चतुर्वेदी उपन्यास और लेखों के लिए विख्यात हैं। छोटा बड़ा ऐसे तय नहीं हो सकता। अच्छा बुरा ऐसे नहीं माना जा सकता। व्यंग्य कहानी पंच के आधार पर नहीं उत्सुकता के आधार पर चलती है, व्यंग्य लेख बिना पंच के ज्यादा लंबा नहीं चल सकता।
सवाल 5. पंचबैंक की उपयोगिता के बारे में आपके क्या विचार हैं? इसको कैसे और प्रभावी बनाया जा सकता है?
जवाब-बिलकुल बहुत जरुरी है पंच बैंक। इतना कुछ छप रहा है व्यंग्य में, उसका कंस्ट्रेट उस व्यंग्य के पंचों में है, उसका खास तत्व उन पंचों में है। उन पंचों को पाठकों के सामने रखा जाये, तो पाठकों को पूरी किताब या लेख पढ़ने के लिए प्रेरित करना आसान होता है। पंच एक तरह से ट्रेलर होता है फिल्म का। ट्रेलर देख लिया अब पूरी रचना भी पढ़ो। पूरी रचना पढ़ने का वक्त ना हो, पंच कम से कम न्यूनतम परिचय तो करा देंगे रचना से। पंच बैंक बहुत ही महत्वपूर्ण काम है। दस साल बाद हर साल के पंचबैंकों के अध्ययन ने व्यंग्य के विद्यार्थी व्यंग्य के काम से व्यवस्थित तरीके से परिचित हो सकेंगे।
सवाल 6: अपने कुछ पंच जो आपको पसंद हों और अभी याद आ रहे हों उनके बारे में लिखिये।
* नयी पीढ़ी समझती है कि फोटू का एकमात्र उद्देश्य है कि उसे फेसबुक आदि पर अपलोड कर दिया जाये। अगर फेसबुक पर अपलोड नहीं करना है, तो फोटू खींचो ही काहे को। जिस मोबाइल में कैमरे से फोटू खींचकर सीधे फेसबुक पर अपलोड करने की सुविधा ना हो, उसे मोबाइल तो माना जा सकता है, पर स्मार्ट नहीं माना जा सकता है।
* सम्मान झेलना भी टेढ़ा काम है साहब। शर्मीले पोज में मुस्कुराते हुए दिखना कतई-कतई मूर्खतापूर्ण काम है। सम्मान झेलना हरेक के लिए आसान काम नहीं है, एक हद तक निर्लज्ज होना पड़ता है। ये बात कहो, तो लोग कह उठते हैं अगर लज्जा होती तुममें, तो इतना और ऐसा काहे लिखते।
*नेता अब राष्ट्रीय ना होते, राष्ट्रीय तो कोल्ड ड्रिंक हैं। वो वाला फेमस कोल्ड ड्रिंक आप भुवनेश्वर में भी लो, और मुंबई में भी और अहमदाबाद में भी लो और जम्मू में भी। नेताओं के राष्ट्रीय होने के दौर गये। अब तो सिर्फ कोल्ड ड्रिंक ही राष्ट्रीय हो रहे हैं।
* सुबह सात बजे मोबाइल-एप्लीकेशन तापमान दिखाता है-44 डिग्री। कौन जाये इतनी गरमी में, जबकि पहले मैं चला जाता था, जब तापमान का हर घंटे पर ज्ञान नहीं था।
*ज्ञान कई बार मरवा देता है। ज्यादा ज्ञान तो पूरे तौर पर ही चौपट कर देता है।
*सवाल-मैं अगर फेयर एंड हैंडसम लगाऊं और फिर भी सुंदरियां आकर्षित न हों, तो क्या मैं कंपनी पर दावा ठोंक सकता हूं।
जवाब-नहीं, तमाम इश्तिहारों के विश्लेषण से साफ होता है कि सुंदरियां सिर्फ क्रीम लगाने भर से आकर्षित नहीं होतीं। इसके लिए वह वाला टायर भी लगाना पड़ता है। इसके लिए वो वाली बीड़ी भी पीनी पड़ती है। इसके लिए वो वाली सिगरेट भी पीने पड़ती है। इसके लिए वो वाली खैनी भी खानी पड़ती है। इसके लिए वो वाला टूथपेस्ट भी यूज करना पड़ता है। इसके वो वाला कोल्ड ड्रिंक भी पीना पड़ता है।
7. अन्य लेखकों के लेखन के कुछ पंच जो आपको पसंद हों।
-पूरा रागदरबारी पंचों का भंडार है। ज्ञान चतुर्वेदीजी, शऱद जोशीजी, परसाईजी सबके बहुत पंच है। इनके पंचों को पेश करना लंबा काम है, करुंगा जल्दी ही।
इसके पहले की बातचीत बांचने के लिये नीचे वाली कडियों पर पहुंचें।
आलोक पुराणिक से सवाल करने के लिये मुझे मेल करिये anupkidak@gmail पर या फ़िर इनबॉक्स में सवाल भेजिये।

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https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212464433979353 पाखंड को समझना व्यंग्यकार का काम है
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212457436844429लिखने-पढने की बात

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