Monday, May 27, 2019

ज्ञान चतुर्वेदी और राहुल से हुई लंबी बातचीत के चुनिंदा अंश



ज्ञान जी और राहुल देव की लंबी बातचीत ’साक्षी है संवाद’ के रूप में पिछले दिनों आई। इस किताब के बारे में विस्तार से पिछली पोस्ट में लिखा गया है। लिंक यह रहा। https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10214454674054111
किताब के कुछ मुख्य अंश यहां पेश हैं:
1. भगवान एक अनगढ हीरा देता है। उसे गढना पढता है। गढने में बहुत मेहनत लगती है। बहुत से प्रतिभाशाली हैं पर मेहनत नहीं करना चाहते। वो भी हीरा ही हैं। पर उसकी पहचान बनाने के लिये बहुत मेहनत करनी पड़ती है। वो प्रतिभा तराशने का काम आपका है।
2. आज व्यंग्य की प्रतिभा मुझसे ज्यादा अगर किसी में कहूं तो अंजनी चौहान में हैं।
3. व्यंग्य की हालत हमने लगभग मंच की कविता की तरह कर दी है जो लोकप्रिय तो है पर कमजोर भी है।
4. व्यंग्य बहुत लोकप्रिय है, बहुत छप रहा है। बहुत गतिविधियां हैं। बड़ी-बड़ी बातें कही जा रही हैं पर वो गहराई नहीं है। फ़ैलाव शायद बहुत है, गहराई नहीं है। बड़ी बात नहीं कही जा रही है।
5. जब आप सबकी तारीफ़ करते हैं, तो वास्तव में किसी की तारीफ़ नहीं करते। आपमें यह हिम्मत होनी ही चाहिये कि नहीं, खराब भी लिखा जा रहा है।
6. इन लोगों का बाकायदा एक गिरोह चल पड़ा है, जो दर्पण को दोनों तरफ़ से काला कर रहे हैं और उसी दर्पण को वे अब वास्तविक दर्पण बताने की कोशिश कर रहे हैं।
7. यहां तो बुझी मशाल लेकर चलने वाले आलोचक भी व्यंग्य में नहीं हैं। जलती हुई मशाल तो छोड़ ही दीजिये। जिनके पास बुझी मशाल है, उनमें से केवल मिट्टी का तेल धुंवाता है चारों ओर, बदबू आती है; मशाल वो भी नहीं है।
8. अभी आलोचना के नाम पर हमारी व्यंग्य पत्रिकाओं में जो लिखवाया जा रहा है, वो बहुत कमजोर चीज है। हम परिभाषाओं पर ज्यादा जाते हैं।
9. मुझे आलोचना बहुत उदात्त स्वरूप में व्यंग्य में अभी तक नहीं दिखी है।
10. मेरा मानना ये है कि समय जितना कठिन होता जायेगा, लेखन उतना ही बेहतर कर सकते हैं। चुनौतीपूर्ण समय आपको एक बड़ी चुनौती देता है और एक अच्छा लेखक बड़ी चुनौती से बाकयदा प्रेरणा लेता है।
11. ये जो बहलाने की तरकीबें हैं बाजार की, पूरे समाज को और हर आमजन को, ये मुझे बहुत डराती हैं। आमजन कभी अपने और समाज को सुधारने के लिये जो क्रांति के सपने बुनता था, जो बदलाव के सपने देखता था, बाजार ने वहां से उसकी दृष्टि हटा दी है। वो अब दूसरे किस्म के सपने देखने लगा है। वो असली सपनों से अलग हो गया है।
12. मनुष्य एक बहुत सक्षम किस्म का पुतला बनकर रह जायेगा। रोबो तैयार करना चाहते हैं आप। एक से सारे लोग हों, एक सा सोचें, एक से कपड़े पहनें, एक सी चिंतायें करें। चिंता के दायरे इतने सिकुड़ गये हैं कि जो बड़ी-बड़ी चिंतायें समाज को लेकर होती थीं, जीवन को लेकर होती थीं। वे तिरस्कार और उपहास के पात्र हो गये हैं।
13. अब चिन्तक पैदा होने कठिन हो गये हैं। हमारा चिंतन सारा इकोनामिक्स बेस्ड है और इस इकोनामिक्स ने इतने जोर से समाज को पकड़ लिया हैकि यहां की सारी क्रियेटिविटी, आपकी सारी रचनात्मकता अब केवल बाजार कैसे बढे, इसके लिये हैं।
14. जो रचनात्मक लोग हैं, उनका जो रचनात्मक पैनापन, वो बाजार के काम आ रहा है। वो रचनात्मकता जो समाज को मिलनी चाहिये, जो समाज को बदल सकती थी, वह बाजार की चेरी बन गयी है।
15. हिन्दी प्रकाशन में तो सभी बदमाश हैं, बहुत सारी गड़बडिया हैं।
16. अंग्रेजी में जिनके बहुत नाम हैं लेखन में, अरुंधती को मैने पढा अभी, नया जो उनका नावेल आया है। मैंने देखा है कि उन्होंने अच्छा लिखा है, मैं भी ऐसा ही लिखता हूं। मैं भी ऐसा ही अच्छा लिखता हूं। पर मेरे को पूछ कौन रहा है भैया अब?
17. मेरे मन में आता है कि मेरे उपन्यासों का, खासतौर पर ’नरक यात्रा’ वगैरह का कोई अच्छा अंग्रेजी अनुवाद कर दे, तो बहुत बिकेगा और पैसे भी मिलेंगे। वो मुझे अभी तक ऐसा सक्षम कोई आदमी नहीं मिला, जो अंग्रेजी अनुवाद कर दे मेरे उपन्यास का।
18. अगर मैं अपनी किताबों की रायल्टी पर ही जीने लगूं तो बर्बाद हो जाऊं।
19. मैं कहता हूं कि व्यंग्य वह है, जो मैं लिख रहा हूं। मेरे हिसाब से वो व्यंग्य है। जो परसाई ने लिखा है, वो व्यंग्य है। जो शरद जी ने लिखा, मुझे लगता है वो व्यंग्य है। जो त्यागी जी ने लिखा, वो व्यंग्य है और बहुतों मे ऐसा भी लिखा , जो मैं कह सकता हूं कि ये व्यंग्य नहीं है।
20. मुझे लगता है कि व्यंग्य की भी सबसे पहली शर्त ये है कि मैं पढूं तो मुझे लगे कि ये व्यंग्य है। मेरा पाठक पढे, तो उसे लगे कि यह व्यंग्य है। परिभाषा नहीं पूछता पाठक।
21. व्यंग्य की शास्त्रीय परिभाषा की मैंने कभी परवाह नहीं की। व्यंग्य को ’व्यंग’ कहें कि ’व्यंग्य’ कहें और ’व्यंग्य’ कहने से कौन सी गड़बड़ हो जायेगी ये सब बातें बेवकूफ़ी की हैं। ये उनके मानसिक विलास , जिनसे व्यंग्य बनता नहीं है।
22. आपको भ्रम है कि आप बड़ी तगड़ी अभिव्यक्ति दे रहे हैं। कोई नहीं पूछता साब। आप लिखिये। ठाठ से लिखिये। जब तक उनकी राजनीति के आड़े नहीं आता कोई, तब तक कोई फ़र्क नहीं पड़ता।
23. मुझे अभी फ़िलहाल के वातावरण में भी कहीं कोई अभिव्यक्ति पर खतरा नजर नहीं आता।
24. रचनाकार भी कहते हैं कि समय ही तय करेगा कि अंतत: कौन अच्छा रचनाकार था, कौन नहीं था? वो कई बार अपनी कमजोर रचना का बचाव करने के लिये भी कह देते हैं कि ये तो समय ही तय करेगा।
25. मुझे लगता है कि आलोचना को लफ़्फ़ाजी में बड़ा मजा आता है। कविता में लफ़्फ़ाजी बहुत की जा सकती है। उसमें बहुत सारी चीजें ढूंढी जा सकती हैं, पाठ-पुनर्पाठ करके।
26. आलोचना करने वाला फ़िर धीरे-धीरे खलीफ़ाई करने पर उतर आता है। जैसे ही उसका नाम हो जाता है, वह महंत बन जाता है।
27. हमारे ज्यादातर व्यंग्य आलोचक, व्यंग्य ही नहीं , हर तरह के आलोचक, जो बने, वे अंतत: खलीफ़ा के अंदाज में फ़तवे जारी करने लगे।
28. विचारहीन व्यंग्य हो ही नहीं सकता। विचार तो होना ही चाहिये व्यंग्य में।
29. व्यंग्य केवल भाषा या शैली ही नहीं है। यह केवल जुमलेबाजी भी नहीं है। ये सब बहुत जरूरी हैं व्यंग्य को करने के लिये क्योंकि ये व्यंग्य को एक ताकत देते हैं, व्यंग्य में पैनापन पैदा करती हैं ये सारी चीजें। पर अंतत: बात वहां टिकटी है कि आप इनका सहारा लेकर आखिर कह क्या रहे हो?
30. जहां तक वैचारिक प्रतिबद्धता की बात है कि वो वामपंथी हों, प्रगतिशील हों, इसके खिलाफ़ हम शुरु से ही थे। कोई भी आदमी मेरे को डिक्टेट नहीं कर सकता कि मैं क्या लिखूं?
31. अंतत: हर विचार एक मठ में तब्दील हो जाता है।इसे ही वैचारिक प्रतिबद्धता कहते हैं।
32. लेखक कितना एक्टिविस्ट हो और कितना लेखक हो, यह लेखक को ही तय करना है।
33. आप किसी चीज की कीमत पर ही दूसरी चीज कर पाते हैं। आपका प्यार किसके प्रति बहुत है यह तय करता है कि आप कितने एक्टिव रहे या कितना आपका लेखन रहेगा।
34. मेरी सारी प्रतिबद्धता मेरे लेखन के प्रति है और मेरी समाज के प्रति है जिसको मैं समझता हूं और जिसके बारे में , मैं लिखना चाहता हूं। उतना मैं कर सकूं तो मुझे लगेगा कि मैंने सब कर लिया। वो वैचारिक प्रतिबद्धता मेरी है। उतनी , उन अर्थों में है।
35. आप अपनी कमजोरी लेखन की विशेषता मत बता दीजिये। अगर मेरे से हास्य रचते नहीं बनता , तो मैं हास्य को कहूं कि ये तो बेकार की चीज है। मेरे से एक अच्छी कविता लिखते नहीं बनती और मैं यह कहूं कि कविता करना बेकार है। तो मैं अपनी कमजोरियों को विशेषता बनाकर न कहूं।
36. व्यंग्य को सपाटबयानी में तब्दील करने की इस मुहिम में हुआ यह है कि धीरे-धीरे व्यंग्य में भी व्यंग्य नहीं बचा। हास्य का साथ छोड़ा और व्यंग्य में जो विट और व्यंजना होनी चाहिये, वो है नहीं। वो ही नहीं बचा , क्या कहेंगे, कूव्वत, वो ही नहीं बची व्यंग्य में।
37. हास्य बहुत कठिन है, बहुत बड़ी चुनौती है और बहुत प्रतिभा मांगता है।
38. हास्य की तो बहुत इज्जत की जानी चाहिये। ’हास्यकार’ कहके किसी को दरकिनार कर देना बहुत बड़ा अपराध है।
39. यहां बहुत सारे वे लोग व्यंग्य लिख रहे हैं आज, जिनको व्यंग्य का क, ख, ग तक नहीं पता पर वो भी व्यंग्य लिख रहे हैं। वो इस कारण है कि लोगों ने व्यंग्य को एक बड़ा सरल काम समझ लिया है।
40. हिन्दी में बहुतों ने ’व्यंग्य’ लिखा है, पर वो व्यंग्य नहीं हो के व्यंग्य के नाम पर कुछ लिखा गया है।
41. ज्यादातर सीधा आदमी कई बार जटिल हो जाता है।
42. मेरे लिये किस्सागोई बहुत महत्वपूर्ण है। फ़िर उसमें जो बात कही जायेगी। वो आपके ऊपर है कि आप कितना जीवन समझते हो?
43. आप कमीनेपन में नहीं पडोगे जीवन में, जब आप घटियापन में नहीं पड़ोगे, जब आप छोटे-छोटे स्वार्थों में नहीं पडोगे तो आप जीवन में बहुत बड़ी-बड़ी बातें भी सीख सकते हो।
44. ये जीवन बहुत छोटा है मनुष्य का। अब बुढापे में धीरे-धीरे समझ में आता है।
45. आप पॉपुलर होते हैं , तो आपको परेशानियां तो होती हैं।
46. (लेखन में) किस्सागोई बनी रहनी चाहिये। मजा आना चाहिये।
47. अगर मुझे गली का ही क्रिकेट खेलना है , तो मैं गली का ही क्रिकेटर होकर रह जाऊंगा। मुझे बड़ा काम करना है, तो मुझे बड़ा काम करना है। फ़िर आपको चुनौतियां भी बड़ी लेनी होंगी। फ़िर छोटी चुनौतियों की औकात नहीं रह जाती।
48. मेरी मुमुक्षा है , लिखना। जिस दिन मेरी यह मुमुक्षा खत्म हो जायेगी , उसी दिन मैं चुक जाऊंगा, खत्म हो जाऊंगा।
49. आपको हर रचना में डर लगना चाहिये। हर नयी रचना लिखने में मुझे बहुत डर लगता है कि इस बार वह ठीक नहीं हो पायेगी। लगता है, हर बार तो ठीक करते गये पर इस बार जरूर कोई गड़बड़ होगी। तो यह डर मुझे बड़ा अलर्ट रखता है, हमेशा।
50. अगर व्यंग्य आपका सहज स्वभाव है तब तो ठीक है, वरना जब तक व्यंग्य आपके सहज स्वभाव में नहीं है, आप व्यंग्य उपन्यास नहीं लिख सकते।
51. मुझे लगता है कि मेरा पाठक से सीधे जुड़ पाना ही मेरी ताकत है। जो मैं कह रहा हूं, वो पाठक को लगे कि ये ही बात तो वो भी कहना चाहता है- यही मेरी ताकत है।
52. एक सफ़ल व्यंग्यकार बनने की आवश्यक योग्यता है ईमानदारी और एक निर्मल हृदय। जैसे ही आप तिकड़म में जाते हैं, आप व्यंग्य से बाहर हो जाते हैं। मेरा मानना है कि वो ही व्यंग्यकार बड़े बन पाये, और वो तभी तक बड़े रहे, बाद में, जब तक वो जीवन की छोटी तिकड़मों में नहीं पड़े।
53. अगर आपको व्यंग्य उपन्यास लिखना है, तो आपके अन्दर एक व्यंग्य की दृष्टि होनी चाहिये। आपको जीवन की समझ बहुत अच्छी होनी चाहिये और आपका हृदय बहुत निर्मल होना चाहिये।
54. एक सफ़ल व्यंग्यकार और एक बड़े व्यंग्यकार में अंतर है। सफ़ल व्यंग्यकार होना बीच का रास्ता है। एक बड़ा व्यंग्यकार होने के लिये वो मुमुक्षा चाहिये आपको। जब व्यंग्य ही आपका जीवन हो जाये।
55. पूरा समाज , जीवन, देश और विश्व इस तरह से बदला है कि बिल्कुल ही अलग चुनौतियां हैं अब जीवन के सामने। बहुत अलग किस्म की चुनौतियां हैं ये और उसके बीच अगर हम उथला-उथला खेल करेंगे, अभी भी हम राजनीति पर बहुत उथले व्यंग्य लिखते रहेंगे और हम सोशल मीडिया की तारीफ़ को ही अगर तारीफ़ समझेंगे , एक दूसरे की तारीफ़ को जो कि एक वहां का सामान्य शिष्टाचार बन गया है, तो कहीं नहीं पहुंचेंगे।
56. आप किसी सही व्यक्ति को पकड़ो, जो आपसे सही बात कर सके। फ़िर आप आगे बढो। और रातों-रात, ओवरनाइट स्टार होने की कल्पना मत करो। ये एक बहुत लम्बा खेल है साहित्य। आप अच्छा लिखो, बस बाकी चीजें अपने आप पीछे-पीछे आयेंगी। मैं ये कह रहा हूं। पुरस्कार भी
आयेंगे। पहचान भी आयेगी। सम्मान भी आयेंगे। आपके बारे में बात भी होगी।
पुस्तक विवरण
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पुस्तक का नाम:’साक्षी है संवाद ’ (ज्ञान चतुर्वेदी से लंबी बातचीत)
वार्ताकार- राहुल देव
सहयोग राशि- 100
पेज- 96
प्रकाशक: रश्मि प्रकाशन, 204, सन साइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4 , कृष्णा नगर, लखनऊ- 226023
किताब के लिये आर्डर करने के तरीके:
1. 100 रुपये पेटीम करें फ़ोन नंबर - 8756219902
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3. किताब अमेजन पर इस पते पर उपलब्ध है -http://www.amazon.in/dp/B07D3N2P1R

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