Monday, February 17, 2020

दिया तले अंधेरा- शिक्षा विभाग की पूरी पोल-पट्टी खोलता रोचक उपन्यास


 “शिक्षा जगत में हजारों कृपाराम अपने-अपने किरोड़ीमल के पीछे संलग्न प्रति की तरह चिपके हुये हैं। ये लोग शिक्षा के घोल में भ्रष्टाचार को मिला रहे हैं। भ्रष्टाचार हर एक द्रव में घुलनशील होता है, अत: शिक्षा का घोल भी दूषित हो गया है। इसे शुद्ध करने के उपकरण का आयात तो कर लिया गया, लेकिन घोटालों के कारण वह घटिया निकला।“

अब आप पूछेंगे कि कृपाराम कौन, किरोड़ीमल कहां ? तो इसके लिये आपको अरविंद तिवारी जी Arvind Tiwari का उपन्यास – ’दिया तले अंधेरा’ पढना होगा।
अरविंद तिवारी जी अपने परिचय में लिखते हैं- ’चर्चित व्यंग्यकार।ग्यारह व्यंग्य पुस्तकों सहित कुल तेरह पुस्तकें प्रकाशित। डाइट के प्राचार्य से रिटायर’। ’डाइट’ मतलब अध्यापकों को पढाने की ट्रेनिंग देने वाला संस्थान। शिक्षा विभाग में लंबी नौकरी के बाद यहां पोस्ट किये जाते हैं। अरविंद तिवारी जी यहीं के प्राचार्य होकर रिटायर हुये। जाहिर है कि शिक्षा विभाग से लम्बे समय तक जुड़े रहे। इसका फ़ायदा उठाते हुये शिक्षा विभाग की पूरी पोल-पट्टी अरविंद जी ने अपने इस पहले उपन्यास में खोलकर रख दी है।
अरविंद तिवारी जी ने तीन व्यंग्य उपन्यास लिखे हैं- ’दिया तले अंधेरा’, ’हेडऑफ़िस के गिरगिट’ और ’शेष अगले अंक’ में। ’हेडआफ़िस के गिरगिट’ शिक्षा विभाग के दफ़्तरी पक्ष की विसंगतियां को रोचक ढंग अंदाज में पेश करता है तो ’शेष अगले अंक’ एक छोटे कस्बे नागौर अखबारी दुनिया के किस्से के बहाने अपने समाज की पड़ताल करने वाला उपन्यास है। दोनों उपन्यास चर्चित , प्रशंसित और पुरस्कृत हैं। लेकिन इन दोनों उपन्यासों की नींव की ईंट अरविन्द तिवारी जी का पहला उपन्यास – ’दिया तले अंधेरा’ है जिससे उन्होंने उपन्यास लिखना शुरु किया।
उपन्यास किसी स्थानीय प्रकाशन से छपा है। किसी बड़े प्रकाशन से छपा होता तो इसकी ऑनलाइन प्रति मंगवाता। पढने की रुचि जाहिर करने पर अरविंद जी ने फ़ोटोकॉपी करके भेजा। भेजने के साथ ही ’आराम से पढना, कोई जल्दी नहीं’ कहकर फ़ौरन पढने का दबाव भी बना दिया। संयोग कि उपन्यास मिलने के अगले दिन ही शनिवार , इतवार भी मिल गया। पढना शुरु करने के साथ ही १७२ पेज पढ भी गये। यह तथ्य उपन्यास की रोचकता का प्रमाण है।
’दिया तले अंधेरा’ हिन्दुस्तानी के हिन्दी पट्टी के आम स्कूलों में होने वाले क्रिया कलापों की कहानी है, कच्चा चिट्ठा है। बदहाल शिक्षा व्यवस्था, क्लास से गायब शिक्षक, हर काम में कमीशन, पुरस्कारों में सेटिंग और समाज में व्याप्त तरह-तरह के भ्रष्टाचार की झलक इस उपन्यास में दिखा देते हैं अरविंद तिवारी जी।
इस उपन्यास की कथा मास्टर कृपाराम के इर्द गिर्द घूमती है। कृपाराम की काबिलियत की बानगी का नमूना आप देखना चाहते हैं तो उनके चयन का किस्सा पढिये:
“लोक सेवा आयोग के एक सदस्य ने कृपाराम से पूछा-“ आपको एक हायर सेकेंडरी स्कूल का संस्था प्रधान बना दिया जाये और कोई अतिरिक्त स्टाफ़, उपकरण आदि न दिये जायें तो आप उस हायर सेकेंडरी स्कूल को मल्टीपर्पज हायर सेकेंडरी स्कूल कैसे बना दोगे?
कृपाराम ने सहज होकर (जो उनकी प्रतिभा का एकमात्र परिचायक गुण है) उत्तर दिया –’मैं उस विद्यालय के नाम पट्ट पर हायर सेकेंडरी के स्थान पर चॉक से मल्टापर्पज हायर स्कूल लिखवा दूंगा।’
इंटरव्यू लेने वाले सदस्य कृपाराम की ’विट पावर’ पर लट्टू हो गये और उनका चयन मेरिट लिस्ट में दूसरे स्थान पर कर लिया गया।“
कृपाराम ने जो अपने इंटरव्यू में हायर सेकेंडरी स्कूल को मल्टी परपज स्कूल बनाने का जो उपाय बताया उस पर ताजिन्दगी अमल भी किया। बिना काम के ग्रांट खपाई, बिना पढाई के स्कूल चलवाया, अफ़सरों को सहज भाव से पटाया , चेले बनाये, मारपीट करवाई, निपटारा करवाया, पिटने और छिपाने से भी गुरेज नहीं किया। इस तरह साधारण अध्यापक से शिक्षा विभाग के उपनिदेशक पद तक की यात्रा की।
उपन्यास में अध्यापकों को पीटने वाले छात्र हैं, पिटकर भी चुप रह जाने वाले अध्यापक हैं, ट्यूशन के जलवे हैं, ले-देकर या पट-पटाकर जांच रफ़ा-दफ़ा कर देने वाले अधिकारी हैं, मफ़ली , मिस फ़तनानी जैसे महिला पात्र भी हैं जिनके बहाने छात्रों, अध्यापकों और अन्य लोगों के चरित्र का भी लिटमस टेस्ट होता रहता है।
अरविंद तिवारी जी उपन्यास लेखन की खासियत है कि जिस विषय पर लिखते हैं उस पर डूबकर लिखते हैं। दायें-बायें नहीं देखते –कहीं ध्यान न भटक जाये। कभी-कभी लगता है कि कुछ इधर-उधर भी दिखाया जाये।
उपन्यास पढते समय कुछ पंच वाक्य भी छांटे। शुरुआती दौर में लिखा गया उपन्यास होने के नाते कुछ पंच वाक्य उतने चुस्त नहीं बने जितने बाद के उपन्यासों के हैं।
अरविंद जी ने शिक्षा व्यवस्था पर दो उपन्यास लिखे, पत्रकारिता पर लिखा। सभी में जो विषय लिया उसी पर केंद्रित रहे। अगला उपन्यास आने वाला है – ’लिफ़ाफ़े में कविता’। इसमें कवि सम्मेलनों के किस्से पढने को मिलेंगे।
कुल मिलाकर ’दिया तले अंधेरा’ एक रोचक उपन्यास है। पढने लायक। अरविंद जी ने इसकी फ़ोटोकॉपी भेजकर हमको इसे पढवाया इसके लिये उनका आभार। आभार इस बात का भी कि बहुत दिन बाद एक उपन्यास पूरा पढकर पढने का आत्मविश्वास भी फ़िर से जगा।
’दिया तले अंधेरा’ के कुछ पंच वाक्य यहां पेश हैं।
१. जिन दिनों परीक्षायें होतीं, उन दिनों यह श्मशान घाट ’नकल कराओ अभियान’ का आधार शिविर बन जाया करता था। यहां बैठकर गुंडेनुमा छात्र विषय-अध्यापकों को मुरगा बनाकर उनसे पेपर हल करवाया करते थे और फ़िर उन्हें पूरी अध्यापकीय अस्मिता के साथ , मुरगे से पुन: अध्यापक बनाकर छोड़ देते थे। श्मशान घाट से पुलिस भी दूर रहती थी, छात्रों ने भूत होने की अफ़वाह फ़ैला रखी थी।
२. स्कूल भवन विशाल था तथा परंपरागत स्कूलों की भांति उसका पलस्तर दीवारें छोड़ रहा था। स्कूल की दीवारें देखकर यह आसानी से कहा जा सकता था कि नई शिक्षा नीति हो या पुरानी , स्कूलों को बदलना असंभव है।
३. यह प्लास्टिक का जूता था, थप्प की आवाज के साथ कामतानाथ की कनपटी पर उसी तरह लगा जैसे कभी-कभी सरकार बढे हुये मंहगाई भत्ते को प्राविडेंट फ़ंड में जमा करा लेती है।
४. कामतानाथ की कनपटी पर जूता गुरुत्वाकर्षण के कारण अधिक देर तक रुक नहीं सका और नीचे गिर गया। कक्षा के छात्रों ने इस घटना को गौर से देखा और गुरुत्वाकर्षण को समझा।
५. जूते मारना शिक्षा में नवाचार नहीं है। शिक्षा का इतिहास गवाह है कि अनेक बार छात्रों ने अपने पुराने जूतों का उपयोग कांच का सामान न खरीदकर, उनसे शिक्षकों का सम्मान किया है।
६. केमेस्ट्री में ट्यूशन अधिक आती थी , क्योंकि गणितवाले छात्र भी केमेस्ट्री पढते थे। इस दृष्टिकोण से केमेस्ट्री के सामने बायोलॉजी पानी भरती थी।
७. जो प्रधानाचार्य अपनी जेब से अधिकारियों को खिलाता है , वह महामूर्ख होता है।
८. शिक्षा विभाग में व्यक्ति को आदर्शवादी और भ्रष्टाचारी , दोनों की भूमिका निभानी पड़ती है तभी शिक्षा के लिये उपयुक्त वातावरण बनता है।
९. भ्रष्टाचारी और आदर्शवादी उसी तरह शिक्षा विभाग में शामिल होते हैं , जैसे पढाई के साथ-साथ छुट्टियां होती हैं। पूरे वर्ष पढाई और पूरा आदर्शवाद दोनों ही शिक्षा को उबाऊ बना देते हैं।
१०. कोई भी प्रशिक्षण महिला संभागियों के बिना अधूरा होता है।
११. शिक्षा अधिकारियों की जो नई पीढी आई थी , उसमें अंग्रेजी बोलने की बात तो दूर समझने की क्षमता भी नहीं थी। ये शिक्षा अधिकारी उस कथन को झुठलाना चाहते थे, जिसके अनुसार अंग्रेजी विश्व ज्ञान की खिड़की खोलती है।
१२. शिक्षा सेवा के अधिकारियों अधिकारियों का प्राय: अपमान होता रहता है और वे हर बार यह तय करते हैं –बदला लेंगे, लेकिन जब बदला लेने का समय आता है तो वे महामानव बन जाते। यही गुण शिक्षा अधिकारियों को अन्य प्रशासनिक अधिकारियों से अधिक महत्व प्रदान करता है।
१३. आज के युग में राष्ट्रभक्ति पेट की गैस के साथ बनती है और जब पेट की गैस का इलाज हो जाता है , राष्ट्रभक्ति अपने आप गायब हो जाती है।
१४. शिक्षा विभाग के अधिकारी बिना किसी खेमे में रहे नौकरी नहीं कर सकते।
१५. जब वे पढते थे तो संस्कृत के शिक्षक के मुंह से स्पष्ट आवाज नहीं निकलती थी। जब छात्रों ने मिलकर गुरु जी को कहा कि साफ़ बोला करें तो उन्होंने कहा-’ मेरी बत्तीसी नहीं है। आप लोग चंदे से लगवा दो।’ हम लोगों ने चंदे से बत्तीसी लगवाना गलत समझा, इसलिये आगे पढाई नहीं हो पाई।
१६. शिक्षा मंत्री जी की धोती खुल गई। सौभाग्य से वे अंडरवियर पहने हुये थे, यद्यपि राजनेताओं के लिये यह अपवाद था।
१७. राजनेता शिक्षाविदों से अधिक शक्तिशाली होते हैं और जिधर वे चाहते हैं, शिक्षा उधर ही खिंचती है।
१८. हमारे देश की यह विशेषता है कि यहां किसी समस्या का समाधान करने की कोशिश की जाए तो राजनीति ऐसा होने नहीं देती और यदि समस्या से आंखें मींच ली जायें तो समस्या अपने आप हल हो जाती है।
१९. शिक्षा विभाग के अधिकारियों को वीआईपी कहते रहो तो वे बैठने के लिये कुरसी की मांग नहीं करेंगे।
२०. शिक्षा विभाग में अपने बॉस को खुश करने की बीमारी अन्य विभागों से छूत के रूप में लगी है। यही कारण था कि शिक्षा विभाग में हर अफ़सर अपने से ऊपर वाले अफ़सर को खुश रखना चाहता था।
२१. ....डी.पी.सिंह गुस्से में तमतमा गये , परन्तु बड़े बाबू के आगे बड़ा शब्द लगा था, अत: उन्हें चुप हो जाना पड़ा।
यह भी पढ सकते हैं:
१. अरविंद तिवारी के उपन्यास - ’ ऑफ़िस का गिरगिट’ पर मेरी टिप्पणी- https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208904124333837
२. अरविंद तिवारी के उपन्यास - ’ शेष अगले अंक में ’ पर मेरी टिप्पणी-https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209738832441018

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10218875016959921

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