Wednesday, June 17, 2020

नर्म बिस्तर, ऊंची सोंचे, फिर उनींदापन

 आज सुबह ढाई बजे ही नींद खुल गयी। वैसे ऐसा कम ही होता है। नींद हमारी सुपरफास्ट ट्रेन की तरह है। रात के स्टेशन पर चढ़ी तो सुबह के जंक्शन पर ही रुकती है। आधी रात में कोई स्टापेज नहीं आता। लेकिन आज खुल गयी नींद। शायद किसी ने 'नींद ट्रेन' की चैन पुलिंग की। क्या पता कोई सपना उतरने की कोशिश कर रहा हो। क्या पता कोई आतंकवादी सपना 'नींद डकैती' की कोशिश में हो।

अब जब खुल गयी नींद तो।सोचा क्या करें? मन किया चाय बनवा के पी जाए। लेकिन फौरन मन ने मना भी कर दिया। मन को ऐसे ही थोड़ी चंचल कहा गया है।
फिर ख्याल आया कि सिरहाने रखी किताब पूरी कर ली जाए। पिछले कई महीनों से पढ़ रहे हैं किताब। पूरी नहीं हो पाई। रोज एक-दो पन्ना पढ़ते हैं, किनारा मोड़ कर रख देते हैं। हमेशा लगता है कि कब पूरी होगी किताब। हर छुट्टी सोचते हैं इस बार निपटा ही देंगे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। छुट्टी निपट जाती है, किताब नहीं निपटती।
पढ़ने की इच्छा और स्पीड बहुत कम हुई है पिछले कई दिनों में। एक से एक शानदार किताबें कुछ दिन साथ-साथ रहकर 'पढ़-कुंवारी' ही बनी रहीं। साथ छूट गया उनका। बिस्तर, मेज से अलमारी , डेस्क में चली गईं। कभी कुछ खोजते हुए मिलती हैं तो लगता है कोई पुराना दोस्त मिल गया। मन खिल जाता है। कुछ किताबें फिर मेज पर आ जाती हैं। लेकिन अक्सर वैसे ही फिर वापस चली जाती हैं।
बहरहाल किताब पूरी करने का ख्याल की सरकार भी पर्याप्त समर्थन के अभाव में गिर गयी। अंततः हम भी बिना और कुछ सोचे बिस्तर पर गिर गए। जो हुआ वह हम बहुत पहले कह चुके हैं:
'नर्म बिस्तर,
ऊंची सोंचे
फिर उनींदा पन।'
उनींदापन के बाद फिर नींद आई। इसके बाद कायदे से तो कोई सपना आना चाहिए। लेकिन अपन के पास सपने कम आते हैं। सामाजिक दूरी बनाए रखते हैं। लेकिन सुबह तो आई ही। रोज आती है।
सुबह के साथ बढ़िया चाय आई। एक के बाद एक दो पिये। फेसबुक के मैदान पर जल्दी-जल्दी टहले। मामला तनावपूर्ण दिखा। लोग अलग-अलग तरह से चीन से मुकाबला कर रहे थे। हम सभी वीरों को बाहर से समर्थन देते हुए भारत माता की जय बोलकर टहलने निकल लिए।
बाहर लान पर खड़े पेड़ पर एक चिड़िया पेड़ पर बैठी थी। हमको देखकर चोंच इधर-उधर करती हुई मुस्कराई। हम समझ नहीं पाए। हम कुछ कहते तब तक वह पेड़ से फुदककर गुमटी पर बैठ गयी। वहां से भी चोंच हिलाकर हमको नमस्ते टाइप करने लगी। हम भी सर हिलाकर सड़क पर निकल गए।
सड़क पार करके पार्क में आये। तमाम लोग आपस में सटे हुए स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे। बिना मास्क के बैठे लोग कोरोना को चुनौती देते हुए दिखे। गोया कह रहे हों -'अबे कोरोना के बच्चे, हिम्मत हो तो आ सामने।' कोरोना बेचारा किसी के सीने में, किसी के फेफड़े में दुबककर बैठ गया होगा। उसकी कहां हिम्मत ऐसे वीरों से मुकाबला करने की जो अक्ल और स्वास्थ्य हथेली पर लिए हवाखोरी करने निकले हों।
एकाध को हमने हिम्मत करके टोंका -'बिना मास्क लगाए कैसे सटे हुए बैठे हैं आप लोग।' लोगों ने हमको -'तुम कौन खाम ख्वाह ' वाली नजरों से देखा। सच बता रहे अगर हम मास्क न लगाए होते तो चेहरा उनकी निगाह से झुलस जाता।
कुछ लोगों ने अलबत्ता जेब से तहाया हुआ मास्क निकालकर चेहरे पर धारण कर लिया। शायद इनकी कोरोना से जान-पहचान या पैक्ट है कि जब आना तो बता देना। तुम्हारा स्वागत हम चेहरे पर मास्क लगाकर करेंगे।
ये टोंकने पर जेब से मास्क लगाने वाले लोग उस घराने के लोग हैं जो अपना हेलमेट घर पर या डिक्की में रखते हैं । टोंके जाने पर धारण कर लेते हैं। मानों दुर्घटनाएं उनसे बताकर घटती हैं। घटने के पहले सूचित करती हैं -'हेलमेट धारण करो आर्यपुत्र, अब मेरे अवतार का समय हो गया।'
पार्क में लोग मस्त थे। हम उनकी हिम्मत देखकर पस्त हो गए। लौट लिए।
सड़क पर लोग आ-जा रहे थे। लान में धूप पसरी हुई थी। वह भी कोई मास्क नहीं लगाए थी। धूप को तो टोंक भी नहीं सकते। उसको कोई कोरोना थोड़ी होना है। हमको लगा कि काश हम भी धूप की तरह होते। नरम, गुनगुने, खुशनुमा। लेकिन चाहने से क्या होता है।

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