Tuesday, June 23, 2020

'पागलखाना' के पंच

 

1. दुनिया बाजारवाद के कब्जे में आ गई थी। दुनिया बाजार में रहना और जीना सीख रही थी। पर कुछ लोगों ने बाजारवाद को पागलपन माना तथा बाजार को पागलखाना।

एक चमकीले अंधेरे से भरा पागलखाना।
2. अब सूर्योदय उन्हीं घरों में होता था जिन्होंने सूरज का प्री-पेड कार्ड बनवा रखा हो और समय पर इसे रिचार्च भी करते रहते हों। बाजार ने सूरज को अपनी मुट्ठी में बांध लिया था और सूरज बाजार का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाया।
3. बेहद आलीशान फ़्रेमों में जड़े प्रशंसापत्र तथा डिग्रियां। इतने सुन्दर हैं ये प्रमाणपत्र कि देखते ही इनके नकली होने का अहसास होता है।
4. फ़्रेम यदि एक बार चमकीला , नक्कासीदार और बहुत मंहगा वाला लगा दो तो फ़िर इस बात का कहीं कोई खतरा नहीं रह जाता कि आदमी का ध्यान उस विचार की तरफ़ भी जा सकता है।
5. ’क्या करें बाप हैं!’ वाले भाव में ’तुम बहुत सुन्दर हो’ वाला भाव मिला दो तो चेहरा जैसा बनेगा ,वैसा चेहरा लेकर वह रिशेप्शन पर बैठी युवती को घूर रहा है।
6. सरकार बाजार की ताकत का इस्तेमाल खुद के सरकार बने रहने के लिये करेगी, मानो कोई सुनामी की लहरों से बिजली पैदा करने की योजना बनाये और इस मूर्खता पर अपनी पीठ थपथपाये।
7. बाजार की सत्ता, सरकार की सत्ता से मिलकर यों गड्डमड्ड हो गई थी कि पता करना कठिन हो गया था कि दुकान कहां तक है और सरकार का दफ़्तर कहां से शुरु हो जाता है। सरकारी घोषणायें एकदम बाजार द्वारा डिक्टेट करके लिखवाई गई लगती थीं।
8. सपने देखने की क्षमता ही तो मनुष्य को मनुष्य बनाती है दोस्त।
9. सच, ईमानदारी, प्यार,सफ़लता, भाईचारा,लोकतंत्र,वात्सल्य, भलाई,सुन्दरता,स्वास्थ्य,सुकून भरी नींद, एकता,बराबरी-उसके हर सपने को बाजार ने उठा लिया था और अपने काम पर लगा दिया था।
10. कानून पर इतना भरोसा करना ठीक चीज नहीं क्योंकि स्वयं कानून भी कानून पर कोई खास भरोसा नहीं करता है आजकल।
11. सिस्टम में वह रोशनी पैदा तो कर सकता है पर इस रोशनी का इस्तेमाल स्वयं नहीं कर सकता है वह। उसे बस उन अंधेरों की मिल्कियत दी गई है जिन्हें इसी रोशनी ने पैदा किया है।
12. इन दिनों मानसिक रोगी होना भी एक किस्म की ऐयाशी है।
13. सरकार के विरुद्ध जो भी है, सब पर सरकार की नजर है।
14. वे संविधान में इतने संसोधन करा चुके हैं कि संविधान का हर पेज कटा-पिटा है। अब उसे पढना मुश्किल है, समझना तो और भी मुश्किल।
15. वे हमारा कान पकड़कर हमें सड़क पर बिठा दें तो अदालत भी बस यही कहकर रह जायेगी कि आपका इसका मुआवजा तो दिया जा चुका है न!
16. ’देवता बोले कि वे अब हमारे बस से एकदम बाहर जा चुके हैं। अब खुद सबसे बड़ा देवता बन गया है बाजार !’
17. देवता अब खुद भी बाजार से नहीं लड़ सकते। मैंने पूछा तो कहते हैं कि हमारा पूजा-पाठ भी तो अब बाजार के हाथों में ही है, सो हम तो मजबूर हैं। ... हम बस कभी-कभी आकाशवाणी भर कर सकते हैं।
18. आदमी जब फ़ोटो खिंचाता है तब झूठमूठ खुश हो ही लेता है। कहते हैं इससे फ़ोटो अच्छी आती है।
19. नकटा समय चल रहा हो तो नाक से निजात पाना जरूरी हो जाता है।
20. बाजार में आजकल भ्रम डिस्काउंट रेट पर मिल जाता है और नाक बड़े ऊंचे भाव पर बिक जाया करती है। लोग नाक बेच देते हैं और भ्रम लगाये घूम रहे हैं।इससे सभी को बड़ा सुभीता हो गया है।
21. जब समय ने ही अपनी नाक उतार डाली हो तब ऐसे नकटे समय में अपनी नाक रखने का आग्रह करना बड़ी मूर्खता कहलायेगी।
22. समय अब बाजार के हिसाब से चलना सीख रहा था क्योंकि समय ने भी स्वीकार कर लिया था कि बाजार का समय चल रहा है।
23. बाजार पागलों के लिये भी क्या खूब समय निकलता है।
24. पागल और सही आदमी के बीच अन्तर करना कठिन हो रहा है। यह अन्तर रोज-रोज और भी बारीक होता जा रहा है। दिनोंदिन यह जानना कठिन हो रहा है कि कौन समझदार है और कौन पागल।
25. कोई कितना भी समझदार हो जाये या कितना भी पागल- बाजार दोनों का इस्तेमाल कर सकता है।
26. बाजार को पागलों से कोई डर नहीं लगता। वह तो बस सतर्क रहता है उनसे।
27. कहीं सारी मानव-जाति ने ही तो सपने देखना बन्द नहीं कर दिया? कहां तो वह कभी खुली आंखों से भी खूब सपने देखा करता था और अब, उसके आसपास कहीं कोई सपना ही नहीं?
28. केवल मुर्दे ही नहीं, समझदार लोग भी नहीं सोचा करते।
29. एक बार सामने वाले को पागल भर मान लो तो चीजें आसान हो जाती हैं। तब उसके द्वारा सच भी एक चुटकुला माना जा सकता है।
30. बाजार जितना और-और चमकदार होता जाता था, उसके ठीक नीचे तथा पीछे अंधेरा बढता जाता था।
31. बाजार की यही तो विशेषता है। वह खुद ही अंधेरे पैदा करता है, फ़िर खुद ही उन अंधेरों की चिन्ता भी करता है। वह अपने ही पैदा किये और पाले हुये अंधेरों को दूर करता भी दीखता है। वह इन अंधेरों को दूर करने का संकल्प लेता है और इसके लिये जुगनुओं की व्यवस्था भी कर देता है। वह इन अंधेरों में बिना
बाती की मोमबत्तियां भी लगाकर आता है। वह अंधेरों पर चिन्ता करने वाले सम्मेलन प्रायोजित करता है, बहसें आयोजित करता है। अंधेरों की परिभाषा तय करने के लिये वह उन विद्वानों को आमंत्रित करता है जो बाजार की खाकर , उसकी ही गाते-बजाते हैं।
32. बाजार भी तो आजकल यही करता है। सबको उसी तरह डील करता है मानों सब पागल हों।
33. कई दफ़े , साथ रहने वाला शख्स पागल हो रहा हो तो करीबी लोगों को पता ही नहीं चल पाता। ...आदमी ,अधिकतर बड़ा धीरे-धीरे ही पागल होता है न ! इसीलिये।’
34. खुशबू बस एक भ्रम है। बदबू यथार्थ। वास्तव में सब तरफ़ बदबू ही है।
35. हर क्रान्तिकारी विचार शुरु के अकेलेपन में पागलपन ही तो होता है।
36. हत्यारे अपने हाथों में पुराणों और इतिहास के पन्नों से बने हथियार लिये थे। उनके कई हथियार तो हथियारों जैसे लगते ही नहीं थे। भीड़ में कई हमलावर तो पुष्पगुच्छ और मालायें लेकर दौड़ रहे थे। इनके हाथों में आकर गुलदस्ते, विनम्रता , प्रार्थना और स्वागत भी पैने हथियार बन गये थे। वे हर चीज को हथियार बना सकते थे। वे शातिर हत्यारे थे। वे आदमी की हत्या किये बिना भी उसकी हत्या कर सकते थे।
37. घुटन कहीं भी एक हद से ज्यादा बढ जाये तो विद्रोह खदबदाने लगता है।
38. ग्राहक जितना पागल हो, बाजार के लिये उतना ही फ़ायदेमन्द होता है।
लेखक: Gyan Chaturvedi
पागलखाना के बारे में यह भी पढ़ें
उपन्यास : पागलखाना
लेखक: ज्ञान चतुर्वेदी
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन
पेज: २७१
कीमत: पेपरबैक -२५०
खरीदने का लिंक : https://www.amazon.in/Pagalkhana-Gyan.../dp/938746234X

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