Wednesday, April 29, 2020

रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है

 


कोरोना काल में सब कुछ ठप्प सा है। शहरों पर लाकडाउन का कब्जा है। लोग घरों पर रहने को मजबूर हैं। नौकरी शुदा लोगों को घर से काम करने को कहा गया है- 'वर्क फ्रॉम होम'। घर से काम करें , वेतन उनके खाते में जायेगा।

पक्की नौकरी वाले मजे में हैं। घर में अंगड़ाइयां लेते हुए नए-नए कौतुक दिखा रहे हैं। कोई गाना गा रहा है, कोई खाना बना रहा है। कोई बोरियत को सेलिब्रेट कर रहा है। कोई समाज सेवा की बात कहकर अंगड़ाइयां ले रहा है, पलक झपकाकर आंखे मूंद ले रहा है।
वर्क फ्रॉम होम के तहत साहित्य उत्पादन भी खूब हुआ। कोरोना से जुड़ी शब्दावली का उपयोग करते हुए अनगिनत कविताएं लिखी गईं, इठलाती हुई आवाजों में प्रस्तुतियां हुई, उनके संग्रह की घोषणाएं हुईं। लाकडाउन में घरों में बैठे निठल्ले लोगों ने साहित्य के नाम पर जो रचा उसमें से अधिकांश ने फूहड़ता के शिखर छुये ।कारण शायद यह रहा हो कि जिन्होंने उसे रचा उनमें से कोई कोरोना ग्रस्त नहीं था और न उनके यहां खाने की कमी थी। पेट भरा होने पर ही ऐसी बेशर्मियाँ होती हैं, जिसको लोग साहित्य का नाम दे देते हैं।
वर्क फ्रॉम होम की बात जब भी चली तब मुझे वो लोग याद आये जिनका घर ही फुटपाथ पर है, सड़क जिनका आंगन है। बन्द दुकानों के बाहर चबूतरे पर सोने वाले लोगों ने कौन सा 'वर्क फ्रॉम होम' किया होगा। रिक्शेवाले, ऑटो वाले , सड़क ही जिनका घर और घर चलाने का साधन है, वो कैसे वर्क फ्रॉम होम किये होंगें।
शहरों के तमाम चौराहों पर रोज सुबह काम की तलाश में इकट्ठा होने वाले दिहाड़ी मजदूरों, मिस्त्री, हेल्पर , रोजनदार कैसे वर्क फ्रॉम होम किये होंगे? इसका कोई जबाब नहीं सूझता। इसलिए भागकर मैं फिर अपनी दुनिया में लौट आता हूँ। 'संवेदना-शुतुरमुर्ग' हो जाता हूँ।
घास के मैदान पर धूप पसरी हुई है। अलमस्त। दीन- दुनिया, कोरोना-फोरोना से बेपरवाह। धूप का हर फोटॉन दूसरे से सटा हुआ। सामाजिक दूरी की खिल्ली उड़ाता हुआ घास में खिलखिला रहा है। धूप से चमकती घास पर एक गिलहरी फुदक रही है। घास कुतरते हुए मुंडी इधर-उधर ऐसे हिला रही है जैसे कोई साम्राज्ञी अपने इशारों से राजाज्ञाएँ जारी कर रही हो।
मन किया गिलहरी को टोंक दूं -'मास्क लगा ले, लान वाबरी, धूप-ललचही।' लेकिन उसके चेहरे पर पसरे आत्मविश्वास के हिम्मत नहीं पड़ी। बाद में ध्यान आया कि गिलहरियों के कोरोना-ग्रस्त होने की कोई खबर सुनाई नहीं दी।
मैदान के बाहर खड़े दो पेड़ बढ़ते हुए ठेढे हो गए हैं। लगता है उन पर सामाजिक दूरी बनाए रखने का दबाब उनकी पैदाइश के समय से है।
बाहर सुनसान पार्क में एक महिला सिपाही अकेली गस्त कर रही है। मोबाइल पर बात करते हुए। उसको देखते हुए ध्यान आता है कि हम मुंह पर मास्क नहीं पहने हुए हैं। फौरन ही जेब से रुमाल निकाल कर चेहरे पर कपड़े का लटकौवा त्रिभुज धारण कर लेते हैं।
पार्क में फूल खिले हुए हैं। कोरोना काल में उनको कोई नोचने वाला नहीं है। एक पेड़ जमीन की तरफ झुकते हुए जमीन चूमने की कोशिश करता दिखा लेकिन कुछ फुट की दूरी पर सामाजिक दूरी की बात याद करके ठहर गया। उसको देखकर ऐसा लग रहा था कि जमीन कि तरफ बढ़ते हुए देखकर उसको किसी ने स्टेच्यू बोल दिया हो जिसे सुनते ही वह थम गया।
पुलिया पर एक सिपाही जी हथेली पर तम्बाकू मलते हुए इधर - उधर देख रहे हैं। मोड़ पर दो मोटरसाइकिल सवार एक दूसरे की उल्टी तरफ बैठे बतिया रहे हैं। सड़क पर गुजरते हुए लोग काम पर जा रहे हैं।
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है।

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