ऊपर की मंजिल बालकनी के कोने में एक सुखी टाइप परिवार दिखा। एक गोल-मटोल स्वस्थ सा जवानी की तरफ़ उन्मुख बच्चा बनियाइन पहने अपने दाँये हाथ से हवा में डमरू जैसा बजा रहा था। उनके खड़े उसके माँ-बाप उसको जिन भी निगाहों से निहार रहे थे उनको वात्सल्य की निगाह ही कहाँ जाएगा।
नोयडा सिटी सेंटर के पास का तिराहा। |
सामने से एक युवा महिला साइकिल पर चली आ रही थी। देखकर लगा कुछ दिन ही हुए होंगे उसका विवाह हुए। उसके माथे पर सिंदूर और चेहरे पर मुस्कान चमक रही थी। शायद कालोनी के घरों में काम करती होगी। खाना बनाने जैसा कुछ काम। कालोनी के माध्यम वर्गीय परिवारों में खाना बनाने के काम के लिए काम वाली महिलायें लगी हैं। कई घरों में खाना बनाती हैं। कोई-कोई तो छह से सात घरों में काम करती हैं। एक घर में दिन में दो बार खाना बनाती हैं। मतलब दिन भर में बारह-चौदह बार खाना बनाती हैं।
कालोनी से बाहर निकलते ही एक दंपति अपने बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के लिए लपकते दिखे। बच्चे की मम्मी ने भागती हुई आईं थीं बच्चे को बिठाने। शायद देर हो गई थी। बस में चढ़ाकर हाँफते हुए बच्चे से बोली -"बाय करो बेटा।" बच्चे ने बाय किया। तब तक उनकी साँस स्थिर हो गई थी। हाँफना छोड़कर वे भी मुस्कराने लगीं। उनके पति की गाड़ी बस के सामने बीच सड़क पर खड़ी थी। दोनों दरवाज़े डैनों की तरह खुले थे। बस के हार्न बजाने के बाद लपककर उन्होंने कार किनारे की। मियाँ-बीबी गाड़ी में बैठकर चले गए।
आगे एक कालोनी से गुजरते हुए एक घर के बाहर बेंच नुमा चबूतरे पर दो बच्चियाँ दिखीं। बड़ी बच्ची सीधे बैठी थी, छोटी बच्ची बेंच पर अधलेटी थी। शायद उनकी माँ उस घर में काम करती होंगी या क्या पता बच्ची ही साफ़-सफ़ाई का काम करती हो और गेट खुलने का इंतजार कर रही हो
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पार्क में एक आदमी लंगड़ाते हुए टहल रहा था। एक पैर एकदम सीधा किए चलते हुए। उस पैर में शायद चोट लगी थी। उसको देखकर लगा -"चोट लगने पर बड़े-बड़े सीधे हो जाते हैं। पैर क्या चीज है।"
नोयडा सिटी सेंटर तिराहे पर खड़े होकर कुछ देर ट्रैफिक देखा। गाड़ियाँ दिल्ली की तरफ़ भागती हुई चली जा रहीं थीं। कोई भी ठहरकर, तसल्ली से जाते हुए नहीं दिखा। सब हड़बड़ाये हुए भागते जाते दिखे। शायद उनको इस बात का डर होगा कि तसल्ली से चलने पर कहीं जिला बदर न कर दिए जाएँ।
मोड़ के आगे एक आदमी अपनी मोटरसाइकिल पर, उसकी लंबाई के लंबवत दिशा में, आलिंगन मुद्रा में लेटा हुआ अपने मोबाइल पर झुका हुआ था। मोटरसाइकिल चुपचाप उसकी छाती के नीचे दबी खड़ी थी। उसकी चाबी सवार के हाथ में थी इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकती थी। पेट्रोल भी तो वही डलवाता था।
आगे दो लोग सड़क किनारे अपनी-अपनी स्कूटी खड़ी किए फुटपाथ पर बैठे अपने-अपने मोबाइल में डूबे हुए था। मन किया कि उनसे कुछ बात करें। लेकिन उनकी मोबाइल तल्लीनता देखकर उनको डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं पड़ी। उनकी 'मोबाइल तपस्या' भंग होने पर क्या पता वो नाराज होकर कोई श्राप जारी कर देते।
बगल से एक कूड़ा गाड़ी निकली। गाड़ी के डब्बों में गीला कूड़ा/सूखा कूड़ा देखकर मुझे लगा कूड़ा गाड़ी किसी लोकतांत्रिक देश की राजनीतिक पार्टियों को लिए जा रही है। गीला कूड़ा मतलब सत्ता धारी पार्टी, सूखा कूड़ा मतलब विपक्षी पार्टी। यह विचार आते ही मुझे लगा कोई राजनीतिक पार्टी मेरे विचार से बुरा न मान जाये। यह सोचते ही मैंने अपने विचार को उसी कूड़ा गाड़ी में फेंक दिया। पता नहीं मेरा विचार गीले कूड़े में गिरा या सूखे में। पता नहीं उन कूड़ों ने मेरे विचार के साथ क्या सुलूक किया हो। मुझे डर है उसकी बेहूदगी पर रीझकर किसी ने उसे अपनी संसद में न भेज दिया हो।
फुटपाथ किनारे के लोग आपस में तेज-तेज आवाज में लड़ रहे थे। एक महिला दूसरी को इस बात के लिए डाँट रही थी कि उसके बच्चे फुटपाथ में गंदगी करते हैं। दूसरी महिला क़सम खाते हुए कह रही थी -"हमारे बच्चे ने गंदगी नहीं की।" अपनी सफ़ाई को मजबूती देने के लिहाज से उसने कहा -" उसके बच्चे मर जायें जिसने यहाँ गंदगी की।"
हम थोड़ा ठहरकर उनका झगड़ा सुनने लगे। दोनों अपनी-अपनी बात हमसे कहने लगे। "अंकल जी, ये गंदगी करती है", "अंकलजी, ये झूठ बोलती है"। हमको लगा हम थोड़ा देर और रुककर उनकी लड़ाई में अंकल सैम की तरह सीजफायर कराकर ट्वीट करें। लेकिन हमको अपने विचार बेहूदा लगा। हम उनको लड़ता हुआ छोड़कर आगे बढ़ गए।
उनके बगल में ही पिंक ट्वायलेट था। महिलाओं के लिए मुफ्त। शायद महिलाएं उनका उपयोग करती हों लेकिन शायद वहाँ बच्चे नहीं जाते होंगे। या कोई और कारण रहा होगा। लेकिन उनके लड़ने की आवाज़ें दूर तक पीछा करती रहीं।
नुक्कड़ पर पान की दुकान पर एक नौजवान सिगरेट पीते हुए धुआँ उड़ा रहा था। धुँआ ऊपर की और लहराते हुए नागिन डांस जैसा करते हुए हवा में गुम हो गया । धुएँ का कालापन ऐसे हवा में घुल गया जैसे कोई भ्रष्टाचारी किसी राजनीतिक पार्टी में विलीन हो गया हो।
पार्क में पेड़-पौधे-हरी घास बहुत खूबसूरत लग रहे थे। हमने उनकी फ़ोटो लेने की सोची लेकिन फिर नहीं ली। सोचा कि पेड़-पौधों की भी निजता होती है। कहीं किसी पेड़ को बुरा लग गया तो उनका मन दुखी होगा।
लौटते हुए एक आदमी गाड़ी साफ़ करते हुए दिखी। पैर के पंजे में प्लास्टर चढ़ा हुआ था। बताया उसने -"चोट लग गई थी। दफ़्तर में खोलकर बैठें इसे।"
थोड़ा और बात होने पर उसने बताया वह ड्राइवर है। उसके साहब रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं। डाक्टर हैं। जो लोग विदेश जाने वाले होते हैं उनका मेडिकल करते हैं। बताते-बताते उसकी आवाज में अपने साहब का रुतबा भी मिल गया। हम उसको गाड़ी पोंछता छोड़कर घर आ गए।
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