Friday, February 25, 2005

मेरा चमत्कारी अनुभव

'क्या देह ही है सब कुछ' से शुरु हुई 'अनुगूंज यात्रा'बरास्ते 'भारतीय संस्कृति','आतंकवाद','बिहार' तथा 'पहला प्यार'होते हुये 'चमत्कार 'तक आ पहुंची है.यह स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा है.इस 'छायावादी'परिणति के लिये कहा गया है:-

विश्व के पलकों पर सुकुमार ,
विचरतें हैं जब स्वप्न अजान,
न जाने नक्षत्रों से कौन,
निमंन्त्रण देता मुझको मौन.


'छायावाद'गये जमाने की बात हो गयी.अब मामला प्रगतिवाद,प्रयोगवाद,यथार्थवाद(जनवाद)होते हुये उत्तर आधुनिकता तक आ पहुंचा है.पीछे जाना पडेगा छायावाद के लिये.भूत के पांव पीछे की तर्ज पर भूतकाल में जाना पडेगा चमत्कारी अनुभव के मोती बटोरने.

कुछ आधुनिक सर्वे रिपोर्टें बतातीं हैं कितने प्रतिशत लोगों का परायी स्त्री से प्यार का अनुभव अच्छा रहा कितनों का बुरा रहा.सिर्फ दो विकल्प--अच्छा रहा या खराब रहा.परायी स्त्री से प्यार हुआ नहीं,चाहा नहीं,जरूरत नहीं जैसे विकल्प नदारद .उसी तर्ज पर विषय यह मान के चलता है कि हम चमत्कार के फेरे में जरूर पडे होंगे.

हर असामन्यता या उस घटना को जो समझ में नहीं आती,चमत्कार मान लिया जाता है.चमत्कार समय सापेक्ष तथा व्यक्ति सापेक्ष होता है.आज जिस घटना को हम चमत्कार मानते हैं कल उसकी व्याख्या करने में समर्थ होने पर वही सामान्य घटना हो जाती है.जो हमारे लिये चमत्कार है हो सकता दूसरे के लिये साधारण बात हो.

कुछ चमत्कारों से मेरा भी पाला पडा है.एक बार मैं अपने मित्र पाठक जी से मिलने गया.घर से नदारद.कुछ देर बाद हांफते हुये आये.पता चला सबेरे से लाइन में लगे थे --गणेश जी को दूध पिलाने के लिये.गणेश जी को दूध पिलाने के आदेश की खबर मिनटों में दुनिया के कोने-कोने में फैल गयी थी.पता चला किसी को लंदन से फोन आया किसी को न्यूयार्क से --गणेश जी को दूध पिलाओ.चमत्कार होगा.यहां से फोन लंदन गये होंगे.गणेश जी का सिर हाथी का है.हाथी को गन्ना पसन्द है.रातों रात पसन्द बदल गयी उनकी.दूध पीने लगे.विघ्न विनाशक गणेश जी --बबुआ हो गये.भारत में एक बार फिर दूध-घी की नदियां तो नहीं पर नालियां बह चलीं. बाद में पता चला सब मन गढन्त था.पर तब तक टनो दूध नाली में बह चुका था.


तैतीस करोड देवता तो हमे विरासत में मिले.बाद में आबादी बढी तो ज्यादा देवताऒ की जरूरत पडी.तपस्या की लोगों ने आओ देव हमारा कल्याण करो.पर लगता है स्वर्ग में भी टी.ए.डी.ए.का पैसा खतम हो गया था.किसी देवता का डेपुटेशन मंजूर नहीं हुआ.मजबूरन हमें खुद ईजाद करने पडे देवता.एक देवता थे --स्टोव देवता.


स्टोव देवता को बुलाने का तरीका मजेदार था.तीन लोग स्टोव पर अंगुली रखकर कहते--स्टोव देवता आ जाइये, स्टोव देवता आ जाइये.करीब आधा घंटा बाद आते देवता जी.केवल आब्जेक्टिव सवालों के जवाब देते .हां या न में.एक बार खटकी टांग तो 'न' दो बार तो 'हां'.मैनें भी कुछ सवाल पूंछे.जो उन्होंने कहा था आधे में वही हुआ,आधे में उल्टा.मुझे शंका हुयी पर मन को समझा दिया शायद देवता की बात मैं गलत समझा हूं.

स्टोव देवता बाद में गैस देवी को चार्ज सौंप कर पता नहीं कहां चले गये.इनके हमेशा भाव बढते रहते हैं--आम आदमी दे दूर.लिफ्ट ही नहीं देती.

पर एक देवी थीं हमेशा आम आदमी के लिये परेशान रहीं.वे थीं संतोषी माता.उन पर पिक्चर बनी और देखते -देखते संतोषी माता की महिमा इतनी बढी कि उनके लिये हफ्ते का एक दिन अलाट किया गया.शुक्रवार के दिन कुंवारी लडकियां मनपसंद वर के लिये,शादी शुदा सुचारु रूप से घर-चलन के लिये अपने से कम उमर की देवी का व्रत रख़ने लगी.शंकरजी की दुकान मंद हुयी थोडी.जिस देवी ने करोडों लोगों के घर बसा दिये वह खुद कुंवारी है.देवियों की हालत भी हीरोईनों की तरह होती है,घर बसाया नहीं कि मार्केट वैल्यू डाउन.

कहां तक गिनायें भगवानों के चमत्कार?भभूतिये तो गली-गली फिरते हैं.कुछ लोगों ने ऐसे लोगों को चुनौती दी के ये तो हम भी कर लेते हैं इसमे चमत्कार क्या है ?भगवान ऐसे संसारी पुरुषों ने नहीं उलझे.खाली हवा में हाथ हिलाकर भभूत ,घडी निकलना तो जादूगर भी कर लेता है.उसको भगवतगति तो भगवान ही प्रदान कर सकता है.

पर आजकल भगवानों की हालत भी पतली चल रही है.ड्राप्सी बीमारी के डर से शनिदेव आजकल सरसों के तेल का परहेज करके वनस्पति तेल का चढावा मांग रहे हैं.हनुमान जी भी अपनी ताकत के लिये बोर्नविटा का सेवन कर रहे हैं--ऐसा उन्होंने एक चैनल से इन्टरव्यू में बताया.क्या यह प्रतिचमत्कार है.

चमत्कार अज्ञानता और अवैज्ञानिकता की कोख से उपजते हैं.जहां तक हमारी नजर सोच जाती है,उससे परे की चीज हमारे लिये चमत्कार हो जाती है.

हम बहुत भरोसा करते हैं चमत्कारों में.हर साल पानी जहां कम बरसा औरतों के कपडे उतरवा के हल थमा देते हैं .शायद इन्द्र भगवान पसीज जायें और दो-तीन बादल पानी ईशू कर दें.पेड हम काट रहे हैं.पानी तो कपडे उतरने पर बरस ही जायेगा.

स्काईलैब जब गिरने वाली थी तो लगभग जगहें पता थीं जहां वह गिरनी थी.पर हमारे देश में कीर्तन -भजन , पूजा-पाठ चलता रहा.गुरुत्वाकर्षण के नियम,हवा की दिशा के प्रभाव को भले स्काईलैब नकार दे पर हल्ले-गुल्ले से डर गयी वह और यहां नहीं गिरी.मजाल है जो पूजा-पाठ को नकार दे वह सांसारिक वस्तु!यह है चमत्कार.

लोग कहते हैं इतनी विसंगतियों के बावजूद देश चल रहा है यह अपने आप में चमत्कार है.क्या ऐसा मान लिया जाये?चमत्कार व्यक्तिगत जीवन की कुछ घटनायें होती होंगी जिनका विष्लेषण हम नहीं कर पाते हैं.पर चमत्कार तभी तक हावी रहता है जब तक हम अंधविश्वाश की शरण में दुबके रहेंगे.आस्थावान होना अलग है अंधविश्वासी होना अलग.मुझे नहीं लगता कि चमत्कार जैसी किसी चीज के भरोसे समाज का कल्याण होगा.सुनामी तूफान में हजारों लोग तथा अभी जम्मू में वर्फ मेदब के सैकडों लोग मारे गये.दो चार बच गये होंगे किसी संयोगवस.पर सैकडों हजारों की मौत का सच कुछ चमत्कारिक बचाव से ज्यादा भयावह है.सही समय पर सूचना सैकडों-हजारों को भी बचा सकती थी.पर उसके लिये कम तब तक तैयार नहीं होंगे जब तक हम चमत्कार को नमस्कार करते रहेंगे.


इतना लिख चुकने के बाद हमें अतुल की याद आ रही है.वे कहते हैं जब हम लिखते हैं पूरे मूड में तो उनके सर के ऊपर से गुजर जाता है.तो अतुल के लिये अब अपना मूड उखाडता हूं और आगे एक सच्ची घटना बयान करता हूं.

करीब छह साल पहले मेरा बडा बालक चार मंजिल ऊपर छत से नीचे गिरा.छत से नीचे फर्श तक की दूरी उसने पीठ के बल तय की.जमीन से करीब तीन मीटर ऊंची रस्सी पर पीठ के बल गिरा.रस्सी टूट गयी और वह उछलकर मुंह के बल गिरा जमीन में.उसके होंठ पर सिर्फ इतनी चोट आयी थी जैसे कि दौडते हुये गिर गया हो मुंह के बल.हम भाग के गये घटनास्थल पर.पहला सवाल उसने पूंछा ---पापा मैं बच जाऊंगा. हम मियां-बीबी बोले--- हां बेटा तुम्हे हुआ क्या है?बस सोना नहीं.पता नहीं कितना धैर्य हमारे अन्दर आ गया.हम उससे बाते करते रहे.डाक्टर के पास गये.डाक्टर ने सी.टी.स्कैन वगैरह किया.सब ठीक था.तीन दिन के बाद वह घर आ गया.रस्सी देवी ने उसकी जान बचाई.खुद टूट गयी---बालक की जीवन डोर टूटने से बचाने के लिये.

मेरा बच्चा सामान्य भौतिकी के नियमूं का पालन करते हुये गिरा.गुरुत्वाकर्षण के नियम का पालन करते हुये धरती की तरफ गिरा.स्थतिज ऊर्जा गतिज ऊर्जा में बदली.वेग बढा.रस्सी अवरोध के रूप में आयी.न्यूटन के नियमों का पालन करती हुयी रस्सी टूटी.क्रिया-प्रतिक्रिया हुई.बच्चा अंतत: मुंह के बल नीचे गिरा.किसी भी वस्तु के साथ होने वाली यह बहुत सामान्य घटना है .

पर जब बच्चा अपना हो तब यह सामान्य भौतिकी के नियम इतने सरल लगते हैं क्या घटना के समय?

क्या यही चमत्कार है?

मेरी पसंद:

एक सपना उगा जो नयन में कभी,
आंसुऒ से धुला और बादल हुआ!

धूप में छांव बनकर अचानक मिला,
था अकेला मगर बन गया काफिला.
चाहते हैं कि हम भूल जायें मगर,
स्वप्न से है जुडा स्वप्न का सिलसिला.

एक पल दीप की भूमिका में जिया,
आंज लो आंख में नेह काजल हुआ.


---शतदल,कानपुर

Wednesday, February 23, 2005

हरिशंकर परसाई के लेखन के उद्धरण

हरिशंकर परसाई मेरे प्रिय लेखक हैं.व्यंग्य लेखन को साहित्य में प्रतिष्ठा दिलाने में परसाई जी का योगदान अमूल्य है.आजादी के बाद के भारतीय समाज की स्थिति का आईना है उनका लेखन.उनकी पक्षधरता आम आदमी की तरफ है.

मैं परसाईजी के लेखन के नमूने लिखता रहूंगा.मेरा मन तो उनका सारा लिखा नेट पर लाने का है.पर फिलहाल यह मुश्किल दिखता है.यहां मैं उनके लेखन के उद्धरण देता रहूंगा.यह पोस्ट मैं लगातार अपडेट करता रहूंगा. उनके इन्टरव्यू तथा आत्मकथ्य भी लिखूंगा.अगर उनका लिखा पसंद आये तो बार-बार यह पोस्ट देखते रहें. परसाईजी का लेखन कसौटी भी है उन लोगों के लिये जो अपने को व्यंग्य लेखक मानते हैं.

1.इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं,पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं.

2.जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये ,वह अपने दिन कैसे बदलेगी!

3.अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये.जरूरत पडी तब फैलाकर बैठ गये,नहीं तो मोडकर कोने से टिका दिया.

4.अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में.कोई उसे पीटकर पैसे छीन ले तो वह दान का मंत्र पढने लगता है.
5.अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं.बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है,सभ्यता बरस रही है.

6.चीनी नेता लडकों के हुल्लड को सांस्कृतिक क्रान्ति कहते हैं,तो पिटने वाला नागरिक सोचता है मैं सुसंस्कृत हो रहा हूं.

7.इस कौम की आधी ताकत लडकियों की शादी करने में जा रही है.

8.अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ बैठता है तब गोरक्षा आन्दोलन के नेता जूतों की दुकान खोल लेते हैं.

9.जो पानी छानकर पीते हैं, वे आदमी का खून बिना छना पी जाते हैं .

10.नशे के मामले में हम बहुत ऊंचे हैं.दो नशे खास हैं--हीनता का नशा और उच्चता का नशा,जो बारी-बारी से चढते रहते हैं.

11.शासन का घूंसा किसी बडी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है पर न जाने किस चमत्कार से बडी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड जाता है.

12.मैदान से भागकर शिविर में आ बैठने की सुखद मजबूरी का नाम इज्जत है.इज्जतदार आदमी ऊंचे झाड की ऊंची टहनी पर दूसरे के बनाये घोसले में अंडे देता है.

13.बेइज्जती में अगर दूसरे को भी शामिल कर लो तो आधी इज्जत बच जाती है.

14.मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढती - उतरती है,उन्हें मानवीयता के फिट आते हैं.

15.कैसी अद्भुत एकता है.पंजाब का गेहूं गुजरात के कालाबाजार में बिकता है और मध्यप्रदेश का चावल कलकत्ता के मुनाफाखोर के गोदाम में भरा है.देश एक है.कानपुर का ठग मदुरई में ठगी करता है,हिन्दी भाषी जेबकतरा तमिलभाषी की जेब काटता है और रामेश्वरम का भक्त बद्रीनाथ का सोना चुराने चल पडा है.सब सीमायें टूट गयीं.

16.रेडियो टिप्पणीकार कहता है--'घोर करतल ध्वनि हो रही है.'मैं देख रहा हूं,नहीं हो रही है.हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं.बाहर निकालने का जी नहीं होत.हाथ अकड जायेंगे.लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं फिर भी तालियां बज रही हैं.मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं ,जिनके पास हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं.लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों पर टिका है.गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं,जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है.

17.मौसम की मेहरवानी का इन्तजार करेंगे,तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी.मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होता.वसंत अपने आप नहीं आता,उसे लाना पडता है.सहज आने वाला तो पतझड होता है,वसंत नहीं.अपने आप तो पत्ते झडते हैं.नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं.वसंत यों नहीं आता.शीत और गरमी के बीच जो जितना वसंत निकाल सके,निकाल ले.दो पाटों के बीच में फंसा है देश वसंत.पाट और आगे खिसक रहे हैं.वसंत को बचाना है तो जोर लगाकर इन दो पाटों को पीचे ढकेलो--इधर शीत को उधर गरमी को .तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसंत.

18.सरकार कहती है कि हमने चूहे पकडने के लिये चूहेदानियां रखी हैं.एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की.उसमे घुसने के छेद से बडा छेद पीछे से निकलने के लिये है.चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है.पिंजडे बनाने वाले और चूहे पकडने वाले चूहों से मिले हैं.वे इधर हमें पिंजडा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं.हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ रहा है.

19.एक और बडे लोगों के क्लब में भाषण दे रहा था.मैं देश की गिरती हालत,मंहगाई ,गरीबी,बेकारी,भ्रष्टाचारपर बोल रहा था और खूब बोल रहा था.मैं पूरी पीडा से,गहरे आक्रोश से बोल रहा था .पर जब मैं ज्यादा मर्मिक हो जाता ,वे लोग तालियां पीटने लगते थे.मैंने कहा हम बहुत पतित हैं,तो वे लोग तालियां पीटने लगे.और मैं समारोहों के बाद रात को घर लौटता हूं तो सोचता रहता हूं कि जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हंसे,उसमे क्या कभी कोई क्रन्तिकारी हो सकता है?होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ कटेंगे और हंसने वाले जबडे टूटेंगे .

20.निन्दा में विटामिन और प्रोटीन होते हैं.निन्दा खून साफ करती है,पाचन क्रिया ठीक करती है,बल और स्फूर्ति देती है.निन्दा से मांसपेशियां पुष्ट होती हैं.निन्दा पयरिया का तो सफल इलाज है.सन्तों को परनिन्दा की मनाही है,इसलिये वे स्वनिन्दा करके स्वास्थ्य अच्छा रखते हैं.

21.मैं बैठा-बैठा सोच रहा हूं कि इस सडक में से किसका बंगला बन जायेगा?...बडी इमारतों के पेट से बंगले पैदा होते मैंने देखे हैं.दशरथ की रानियों को यज्ञ की खीर खाने से पुत्र हो गये थे.पुण्य का प्रताप अपार है.अनाथालय से हवेली पैदा हो जाती है.

Wednesday, January 26, 2005

ये पीला वासन्तिया चांद,

पिछलीपोस्ट लिखते समय लगा कि अगली पोस्ट में तफसील से लिखेंगे.पर सब हवा हो गया .इसीलिये संतजन कहते हैं कि आज का काम कल पर नहीं छोडना चाहिये.पर अब क्या करें छूट गया सो छूट गया.

यादें समेटते हुयी याद आयी एक और ठोस मादा पात्र.हमारे स्कूल से घर के रास्ते में बकरमंडी की ढाल उतर के थाना बजरिया के पास एक सुरसा की मूर्ति थी.मुंह खोले बडी नाक वाली.स्कूल से लौटते समय हम भाग के मूर्ति की नाक में उंगली करते.जो पहले करता वह खुश होता कि यह बेवकूफी उसने पहले कर ली.पर इसे तो कोई प्यार नहीं मानेगा इसलिये छोड़ा जाये इसे.

हमारे एक दोस्त हैं.स्वभाव से प्रेमीजीव .उनके बारे में हम अक्सर कहते कि दो अंकों की उमर वाली कोई भी मादा उनके लिये आकर्षण का कारण बन सकती है.दोनो की उमर के बीच का फासला जितना कम होगा और सम्बंधो(रिश्ते) में जितनी दूरी होगी यह संबंध उतना ही प्रगाढ होगा.कई किस्से चलन में थे उनके,जिनका प्रचार वे खुद करते.पर उनके बारे में फिर कभी.

तो हमारे साथ यह संयोग रहा कि किसी से इतना नहीं लटपटा पाये कभी कि किसी का चेहरा हमारी नींद में खलल डाल पाये या किसी की आंख का आंसू हमें परेशान करे तथा हम कहने के लिये मजबूर हों:-

सुनो ,
अब जब भी कहीं
कोई झील डबडबाती है
मुझे,
तुम्हारी आंख मे
ठिठके हुये बेचैन
समंदर की याद आती है.

आज जब मैं सोचता हूं कि ऐसा क्या कारण रहा कि बिना प्यार की गली में घुसे जिन्दगी के राजमार्ग पर चलने लगे.बकौल जीतेन्द्र बिना प्यार किये ये जिन्दगी तो अकारथ हो गयी .कौन है इस अपराध का दोषी.शायद संबंधों का अतिक्रमण न कर पर पाने की कमजोरी इसका कारण रही हो.मोहल्ला स्तर पर सारे संबंध यथासंभव घरेलू रूप लिये रहते हैं.हम उनको निबाहते रहे.जैसे थे वैसे .कभी अतिक्रमण करने की बात नहीं सोची.लगे रहे किताबी पढाई में.जिंदगी की पढाई को अनदेखा करके . कुछ लोगों के लिये संबंधों का रूप बदलना ब्लागस्पाट का टेम्पलेट बदलना जितना सरल होता है .पर हम इस मामले में हमेशा ठस रहे.मोहल्ले के बाद कालेज में भी हम बिना लुटे बचे रहे.

इस तरह हम अपनी जवानी का जहाज बिना किसी चुगदपने की भंवर में फंसाये ठाठ से ,यात्रा ही मंजिल है का बोर्ड मस्तूल से चिपकाये ,समयसागर के सीने पर ठाठे मार रहे थे कि पहुंचे उस किनारे पर जहां हमारा जहाज तब से अब तक लंगर डाले है.मेरी पहली मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से 10-15 मिनट की थी.उतनी ही देर में हम यह सोचने को बाध्य हुये जब शादी करनी ही है तो इससे बेहतर साथी न मिलेगा.दूर-दूर तक शादी की योजना न होने के बावजूद मैने शादी करने का निर्णय ले लिया.यह अपनी जिन्दगी के बारे में लिया मेरा पहला और अन्तिम निर्णय था,और हम आज तक अपने इस एकमात्र निर्णय पर फिदा हैं.---रपट पडे तो हर गंगा.

कहते हैं कि जीवनसाथी और मोबाइल में यही समानता है कि लोग सोचते हैं --अगर कुछ दिन और इन्तजार कर लेते तो बेहतर माडल मिल जाता.पर अपने मामले में मैं इसे अपवाद मानता हूं.

मेरे शादी के निर्णय के बाद कुछ दिन मेरे घर वाले लटकाये रहे मामला.न हां ,न ना.ये कनौजिया लटके-झटके होते हैं.शादी की बात के लिये लड़की वाला जाता है तो लड़के वाले कहते हैं---अभी कहां अभी तो हमें लडकी(शायद जिसने स्कूल जाना हाल में ही शुरु किया हो )ब्याहनी है.हमें एहसास था इस बात का.सो हम वीर रस का संचार करते हुये आदर्शवाद की शरण में चले गये.दाग दिया डायलाग भावी पत्नीजी से---हमारे घर वाले थोड़ा नखरा करेंगे पर मान जायेंगे.पर जिस दिन तुम्हे लगे कि और इन्तजार नहीं कर सकती तो बता देना मैं उसी दिन शादी कर लूंगा.हमें लगा कि महानता का मौका बस आने ही वाला है.पर हाय री किस्मत.घर वालों ने मुझे धोखा दिया.उनके इन्तजार की मिंयाद खतम होने से पहले ही अपनी नखरे की पारी घोषित कर दी.हम क्रान्तिकारी पति बनने से वंचित होकर एक अदद पति बन कर रह गये.

आदर्शवादी उठान तथा पतिवादी पतन के बीच के दौर में हमने समय का सदुपयोग किया और वही किया जो प्रतीक्षारत पति करते हैं .कुछ बेहद खूबसूरत पत्र लिखे.जो बाद में प्रेम पत्र के नाम से बदनाम हुये.इतनी कोमल भावनायें हैं उनकी कि बाहरी हवा-पानी से बचा के सहेज के रखा है उन्हें.डर लगता है दुबारा पढ़ते हुये--कहीं भावुकता का दौरा ना पड जाये.

उन्हीं किन्हीं दिनों किसी दिन सबेरे-सबेरे एक कविता लिखी जिसके बारे में हम कहते हैं पत्नी से कि तुम्हारे लिये लिखी है.

इतने संक्षिप्त घटनाक्रम के बाद हम शादीगति को प्राप्त हुये.दिगदिगान्तर में हल्ला हो गया कि इन्होंने तो प्रेमविवाह किया है. कुछ दिन तो हम बहुत खुश रहे कि यार ये तो बड़ा बढ़िया है.एक के साथ एक मुफ्त वाले अंदाज में शादी के साथ प्रेम फालतू में.

पर कुछ दिन बाद हमें शंका हुयी कुछ बातों से.हमने अपने कुछ दोस्तों से राय ली .पूछा--क्या यही प्यार है. लोगों ने अलग-अलग राय दी.हम कन्फूजिया गये.फिर हमारे एक बहुपाठी दोस्त ने सलाह दी कि तुम किसी के बहकावे में न आओ.ये किताबें ले जाओ.दाम्पत्य जीवन विशषांक की .इनमें लिटमस टेस्ट दिये हैं यह जानने के लिये कि आप अपने जीवन साथी को कितना प्यार करते हैं.इनको हल करके पता कर लो असलियत.हमने उन वस्तुनिष्ठ सवालों को पूरी ईमानदारी से हल किया तो पाया कि बहुत तो नहीं पर पास होने लायक प्यार करते हम अपनी पत्नी को.कुछ सलाह भी दी गयीं थीं प्यार बढ़ाने के लिये.

अब चूंकि परचे आउट थे सो हम दुबारा सवाल हल किये.मेहनत का फल मिला .हमारा प्यार घंटे भर में ही दोगुना हो गया.फिर मैंने सोचा देखें हमारी पत्नी हमें कितना चाहती है.उसकी तरफ से परचा हल किया.हमें झटका लगा.पता चला वह हमें बहुत कम चाहती है.बहुत बुरा लगा मुझे .ये क्या मजाक है?खैर पानी पीकर फिर सवाल हल किये उसकी तरफ से.नंबर और कम हो गये थे.फिर तो भइया न पूंछो.हमने भी अपने पहले वाले नंबर मिटाकर तिबारा सवाल हल किये.नंबर पत्नी के नंबर से भी कम ले आये.जाओ हम भी नहीं करते प्यार.

वैसे भी कोई कैसे उस शख्स को प्यार कर सकता है जिसके चलते उसकी दुकान चौपट हो गयी हो.शादी के पहले घर में मेरी बहुत पूंछ थी.हर बात में लोग राय लेते थे.शादी के हादसे के बाद मैं नेपथ्य में चला गया.मेरे जिगरी दोस्त तक तभी तक मेरा साथ देते जब तक मेरी राय पत्नी की राय एक होती.राय अलग होते ही बहुमत मेरे खिलाफ हो जाता .मै यही मान के खुश होता कि बहुमत बेवकूफों का है.पर खुशफहमी कितने दिन खुश रख सकती है.

रुचि,स्वभाव तथा पसंद में हमारे में 36 का आंकड़ा है.वो सुरुचि संपन्नता के लिये जानी जाती हैं मैं अपने अलमस्त स्वभाव के लिये.मुझे कोई भी काम निपटा देना पसंद है .उसको मनमाफिक न होने पर पूरे किये को खारिज करके नये सिरे से करने का जुनून.मुझे हर एक की खिंचाई का शौक है .बीबीजी अपने दुश्मन से भी इतने अदब से बात करती हैं कि बेचारा अदब की मौत मर जाये.

जब-जब मुझसे जल्दी घर आने को कहा जाता है,देर हो जाती है.जब किसी काम की आशा की जाती है ,कभी आशानुसार काम नहीं करता.जब कोई आशा नहीं करता मैं काम कर देता हूं.झटका तब लगता है जब सुनाया जाता है-हमें पता था तुम ऐसा ही करोगे.

जब बीबी गुस्साती है हम चुप रहते हैं(और कर भी क्या सकते हैं)जब मेरा गुस्सा करने का मन करता तो वह हंसने लगती है.परस्पर तालमेल के अभाव में हम आजतक कोई झगड़ा दूसरे दिन तक नहीं ले जा पाये.

एक औसत पति की तरह मुझे भी पत्नी से डरने की सुविधा हासिल है .हम कोई कम डरपोंक थोड़ी हैं.पर यह डर उसके गुस्से नाराजगीसे नहीं उसकी चुप्पी से है.ऐसे में हम लगा देते हैं 'अंसार कंबरी' की कविता:-

क्या नहीं कर सकूंगा तुम्हारे लिये,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही.
पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो,
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो

ये 36 के आंकड़े बताते हैं कि हमारे घर में ई.आर.पी.तकनीक बहुत पहले से लागू से है.किसी स्वभाव,गुण,रुचि की डुप्लीकेटिंग नहीं.

पर दुनिया में भलाई का जमाना नहीं.कुछ लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि हम लोग बड़े खुश मिजाज है.लोगों के लिये हमारा घर तनाव मुक्ति केन्द्र बना रहा(जाहिर है मेरे लिये तनाव केन्द्र)शाहजहांपुर में.

ऐसे में व्यक्ति विकल्प खोजता है.मैंने भी कोशिश की.टुकड़ों-टुकड़ों मे तमाम महिलाओं में तमाम गुण चीजें देखीं जो मुझे लगातार आकर्षित करते रहे.पर टुकड़े,टुकड़े ही रहे. उन टुकड़ों को जोड़कर कोई मुकम्मल कोलाज ऐसा नहीं बन पाया आज तक जो मेरी बीबी की जगह ले सके.विकल्पहीनता की स्थिति में खींच रहे हैं गाडी- इश्क का हुक्का गुड़गुड़ाते हुये.

पत्नी आजकल बाहर रहती हैं.हफ्ते में मुलाकात होती है.चिन्ता का दिखावा बढ़ गया है हमारा.दिन में कई बार फोन करने के बाद अक्सर गुनगुनाते हैं:-

फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना,
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर
याद से हो गाया आमना-सामना.

साथ ही सैंकड़ो बार सुन चुके गीत का कैसेट सुन लेता हूं:-

ये पीला वासन्तिया चांद,
संघर्षों में है जिया चांद,
चंदा ने कभी राते पी लीं,
रातों ने कभी पी लिया चांद.
x x x x x x x x x x x x

राजा का जन्म हुआ था तो
उसकी माता ने चांद कहा
इक भिखमंगे की मां ने भी
अपने बेटे को चांद कहा
दुनिया भर की माताओं से
आशीषें लेकर जिया चांद

ये पीला वासन्तिया चांद,
संघर्षों में है जिया चांद.

पहली बार यह गीत संभावित पत्नी से तब सुना था जब हमारे क्रान्तिकारी पति बनने की संभावनायें बरकरार थीं, महानता से सिर्फ चंद दिन दूर थे हम.आज सारी संभावनायें खत्म हो चुकी हैं पर गीत की कशिश जस की तस बरकरार है.

मेरी पसंद

बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!
पूछेगा सारा गांव , बन्धु !

यह घाट वही,जिस पर हंसकर,
वह कभी नहाती थी धंसकर,
आंखें रह जाती थीं फंसकर,
कंपते थे दोनो पांव, बन्धु!

वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी ,सहती थी
देती थी सबको दांव बन्धु !

बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!
पूछेगा सारा गांव , बन्धु !


--सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला'

Wednesday, January 12, 2005

प्रेमगली अति सांकरी

किसी विषय पर लिखने के पहले उसकी परिभाषा देने का रिवाज है.हम लिखने जा रहे हैं -प्यार पर.कुछ लोग कहते हैं-प्यार एक सुखद अहसास है.पर यह ठीक नहीं है.प्यार के ब्रांड अम्बेडर लैला मजनू ,शीरी -फरहाद मर गये रोते-रोते.यह सुखद अहसास कैसे हो सकता है?

सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है.इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता .प्यार एक आग है.इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है. जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है.धुआं सुलगता रहता है.कुछ लोग इस पवित्र 'प्रेमयज्ञधूम' को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं .बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं.इनके लिये कहा है नंदनजी ने:-

अभी मुझसे फिर उससे फिर किसी और से
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना.


इजहारे मोहब्बत बहुत अहम भूमिका अदा करता है प्रेमकहानी की शुरुआत में.वैसे हमारे कुछ मित्रों का कहना है कि आदमी सबसे बड़ा चुगद लगता है जब वह कहता है-मैं तुम्हें प्यार करता हूं.लोग माने नहीं तो बहुमत के दबाव में संसोधन जारी हुआ-सबसे बड़ा चुगद वह होता है जो प्यार का इजहार नहीं कर पाता.प्रेमपीड़ित रहता है.पर न कर पाता है ,न कह पाता है.

बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में.बहुतों का साथ चाहा.बेकरारी से इंतजार किया.संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे 'बहुत'नरपुंगव रहे.मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो.'चुगदावस्था'ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली.

किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है.हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें.किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे.कोई तिरछी निगाह याद नहीं आती जो हमारे दिल में आजतक धंसी हो:-

तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा.


जैसा कि हर ब्लागर होता है हम भी अच्छे माने जाते थे पढ़ने में तथा एक अच्छे लड़के के रूप में बदनाम थे. ज्यादा अच्छाई का बुरा पहलू यह होता है कि फिर और सुधार की संभावनायें कम होती जाती हैं.यथास्थिति बनाये रखने में ही फिचकुर निकल जाता है.जबकि खुराफाती में हमेशा सुधार की गुंजाइस रहती है.तो हमसे भी दोस्त तथा कन्यायें पूछा-पुछौव्वल करती थे.दोस्त सीधे तथा कन्याराशि द्वारा उचित माध्यम (भाई,सहेली जो कि हमारेदोस्तकीबहन होती थीं)हम भी ज्ञान बांटते रहे -बिना छत,तखत तथा टीन शेड के.कभी-कभी उचितमाध्यम की दीवार तोड़ने की कोशिश की भी तो पर टूटी नहीं .शायद अम्बुजा सीमेंट की बनी थी.

हम उस जमाने की पैदाइस हैं जब लगभग सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते थे.बहुत कम लोग राखी के धागे को जीवन डोर में बदल पाते.ज्यादातर प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के मामा की स्थिति को प्राप्त होते.आजकल भाई-बहन के संबंध बरास्ता कजिन होते हुये दोस्ती के मुकाम से शुरु होना शुरु हुये है.पर एक नया लफड़ा भी आया है सामने.अच्छाभला "हम बने तुम बने एक दूजे के लिये"गाना परवान चढ़ते-चढ़ते "बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है"का राग अलापने लगता है.

बहलहाल इंटरमीडियेट के बाद हम पहुंचे कालेज. कालेज वो भी इंजीनियरिंग कालेज-हास्टल समेत.करेला वो भी नीम चढ़ा.ऐसे में लड़को की हालत घर से खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है.

हास्टल में उन दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी.फेल होने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी,मेज,किताब,कापी, हवा,बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं.

हमारे बैच में तीन सौ लोग थे.लड़कियां कुल जमा छह थी.तो हमारे हिस्से में आयी 1/50.हम संतोषी जीव . संतोष कर गये.पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा.हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं.तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा.तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं.बराबर-बराबर.हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .इतने में कोई कैसे प्यार कर सकता है?बकौल राजेश-नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े.

संसाधनो की कमी का रोना रोकर काम रोका जा सकता था. पर कुछ कर्मठ लोग थे.हिम्मत हारने के बजाये संभावनायें तलासी गयीं.तय हुआ कि किसी लड़की से टुकड़ों-टुकड़ों में (किस्तों में)तो प्यार किया जा सकता है पर टुकड़ा-टुकड़ा हो चुकी लड़की से नहीं.सो सारी लड़कियों के टुकड़ों को जोड़कर उन्हें फिर से पूरी लड़की में तब्दील किया गया. छोड़ दिया गया उन्हें स्वतंत्र.अब कोई भी बालक किसी भी कन्या का चुनाव करके अपनी कहानी लिखा सकता था.ब्लागस्पाट का टेम्पलेट हो गयीं कन्यायें.

हमारी ब्रांच में जो कन्या राशि थी उसमें उन गुणों का प्रकट रूप में अभाव था जिनके लिये कन्यायें जानी जाती हैं.नजाकत,लजाना,शरम से गाल लाल हो जाना,नैन-बैन-सैन रहित .बालिका बहादुर,बिंदास तथा थोड़ा मुंहफट थी. उंची आवाज तथा ठहाके 100 मीटर के दायरे में उसके होने की सूचना देते.अभी कुछ दिन पहले बात की फोन पर तो ठहाका और ऊंची आवाज मेंकोई कमी नहीं आयी है.कुछ बालकगणों ने घबराकर उसे लड़की मानने से ही इंकार कर दिया.हाय,कहीं ऐसी होती हैं लड़कियां.न अल्हड़ता,न बेवकूफी,न पढ़ने में कमजोर .उस सहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती.कानपुर में 15 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था.लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते.

कालेज में एक समस्या अक्सर आती.साल-छह माह में कोई बालक-बालिका प्रेम की गली में समा जाते.चूंकि प्रेम की गली बहुत संकरी होती है. दो लोग एक साथ समा नहीं सकते लिहाजा एक हो जाते.प्रति बालक-बालिका औसत और नीचे गिर जाता.बाद के दिनों में कन्यायें कुछ इफरात में आयीं लिहाजा बालक-बालिका औसत कुछ बेहतर हुआ.

परोपकाराय सतां विभूतय: की भावना वाले लोग हर जगह पाये जाते है.शादी.काम तो आज की बात है.उन दिनों प्रेमी.काम का जमाना था.लोग रुचि,गुण,स्वभाव,समझ में 36 के आंकडे वाले लड़के-लड़की में प्रेम करा देते.फेक देते प्रेम सरोवर में.कहते तुम्हें पता नहीं पर तुम एक दूसरे को बहुत चाहते हो.मरता क्या न करता-लोग भी जन भावना का आदर करके मजबूरी में प्यार करते.

इसी जनअदालत में फंस गया हमारा एक सिंधी दोस्त.बेचारा लटका रहा प्रेम की सूली पर तीन साल.आखिर में उसे उबारा उसी के एक दोस्त ने.जिस लड़की को वह भाभी माने बैठा था उसको पत्नी का दर्जा देकर उसने अपने मित्र की जान बचाई.एक दोस्त और कितनी बड़ी कुर्बानी कर सकता है दोस्त के लिये.

हमारे ऊपर कम मेहरबान नहीं रहे हमारे मित्र.हमें हमारे प्रेम का अहसास कराया.पर हमने जब भी देखना चाहा प्यार के आग के त्रिभुज की कोई न कोई भुजा या तो मिली नहीं या छोटी पढ़ गयी.गैर मुकम्मल त्रिभुज की भुजायें हमारा मुंह चिढ़ाती रहीं.

-बाकी अगली पोस्ट में

Thursday, January 06, 2005

अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है

ठेलुहा नरेश ठेलुहों के बारे में कहते हैं:-

एक ढूढ़ो हजार मिलते हैं,
बच के निकलो टकरा के मिलते है.

ऐसे ही अतुल टकरा गये एक पागल आदमी से(वो खुद कहता है यह- हम नहीं).पूछा-तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं?अब वह बता ही नहीं रहा कि अतुल क्या करें.बहुत नाइंसाफी है.

अतुल ने अपनी बात रखी तुरंत कि कहीं फिर देरी का इल्जाम न लगा दे कोई.चौपाल पर रखी ताकि सब सुन सकें. रोजनामचा में इसे देख कर कितने दोस्त दुश्मन बनेगे कह नहीं सकता-यह पढ़कर लगा कि अतुल का मुंहफटपन कितना समझदार है.पत्नी की सलाहों का असर है लगता है.

ब्लागमेला मैंने जब देखा था तो मैंने भी काफी सोचा था.मुझे याद आयी थी अतुल की मेल जिसमें हिंदी के छा जाने का जिक्र था.फिर कुछ दिन हम श्रद्घापूर्वक सारे हिंदी के चिट्ठों का नामांकन करते रहे.अतुल ने अगर कुछ लिखा तो जरूर नामांकन कराया-सबसे पहले .जीतेन्द्र भी ज्यादा पीछे नहीं रहते रहे.मैं लगभग अंत में जितने बचे ब्लाग होते थे उनका नामांकन कर देता था.

ब्लागमेला का फायदा यह मिला कि हमें शायद कुछ पाठक मिले.कुछ कलियां फूटीं.मेरा ख्याल है स्वामीजी जैसे साथी भी वहीं से हिंदी के चिट्ठे देखकर लिखने लगे.जो टिप्पणियां हैं वे खिन्न करने वाली हैं.इस लिहाज से अतुल का गुस्सा जायज है.पर गुस्से का अंदाज बता रहा है कि जैसे मिर्ची अतुल के ही लगी है और वही पूंछ रहे हैं-तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं.

भाई अतुल,यह पहली घटना नहीं है.इसके पहले भी एक शहजादी के नखरे हम देख चुके हैं.कुछ सूत्रवाक्य मेरा हमेशा साथ देते हैं.उनमें से एक है-जिसके जितनी अकल होती है वो उतनी बात करता है.तो जितनी अकल इनकी थी वैसी ही बात की इन्होंने.इसमें अपना खून काहे जलाते हो?फिर एक-दो लोग अगर बेवकूफी की बात करें तो सारी बिरादरी थोड़ी बेवकूफ हो जाती है.आगे किसी का कमेंट भी है-यह जानकारी दिलचस्प है कि हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है.लगता है कि कुछ ज्यादा ही आशा हम लगाये रहे ब्लागमेला से.तभी यह बात झटके की तरह लगी.

बहरहाल अतुलभाई,यह मानते हुये भी कि सारे अंग्रेजी ब्लागर सिरफिरे नहीं हैं,मैं तुम्हारी बात का समर्थन करता हूं और ब्लागमेला मेला में नामांकन बंद.किसी अंग्रेजी ब्लाग पर टिप्पणी न करना -यह बात ठीक नहीं लगती. इतना गुस्सा ठीक नहीं.थूक दो पिच्च से.बायीं तरफ.गुस्सा कमजोर आदमी का काम है.गांधीजी भी तो कहे हैं-पाप से घृणा करो,पापी से नहीं.बापूजी की बात मान लो. गुस्सा कमजोर आदमी का काम है .फिर अपने देवाशीष,पंकज,रवि,जीतेन्द्र,शैल,रमन,काली,स्वामी वगैरह के अग्रेजी ब्लाग भी तो हैं.मान जाओ.न हो तो श्रीमतीजी से सलाह ले लो.वे जरूर बतायेंगी कि हम ठीक कह रहे हैं.उनकी सहज बुद्धि पर हमें भरोसा है.

यहां तक तो बात मिर्ची लगने तक थी.अब जो यह मिर्ची लगी उसका किया क्या जाये?

भारतीयब्लागमेला(वर्तमान) का उपयोग तो सूचनात्मक/प्रचारात्मक होता है.किसी चीज को पटरा करने के दो ही तरीके होते हैं:-

1.उसको चीज को टपका दो(जो कि संभव नहीं है यहां)

2.बेहतर विकल्प पेश करो ताकि उस चीज के कदरदान कम हो जायें.

चूंकि हिंदी में ब्लाग कम लिखे जाते हैं अत:केवल हिंदी के लिये ब्लागमेला आयोजित करना फिजूल होगा.हां यह किया जा सकता है कि सभी भाषाओं के ब्लाग की साप्ताहिक समीक्षा की जाये.जो नामांकन करे उसकी तो करो ही जो न करे पर अगर अच्छा लिखा हो तो खुद जिक्र करो उसका और उसे सूचित करो ताकि वो हमसे जुड़ाव महसूस करे.तारीफ ,सच्ची हो तो,बहुत टनाटन फेवीकोल का काम करती है.है कि नहीं बाबू जीतेन्दर.तो शुरु करो तुरंत ब्लागमेला.

दूसरी बात ब्लागमैगजीन शुरु करने की है.इसे अविलंब शुरु किया जाये.तकनीकी जानकारी हमें नही है पर लगता है कि ज्ञानी लोग लगे हैं.जितनी जल्द यह हो सके उतना अच्छा.शुभस्य शीघ्रम.तारीख तय करो.26जनवरी या बसंतपचमी(निराला जयंती)तक हो पायेगा?कुछ बोलो यार अतुल,पंकज,देबू,जीतू तथा देवाधिदेव महाराज इंद्रकुमारजीअवस्थी.ब्लागजीन में भी चिट्ठाचर्चा हो सकती है.

झटकों में ऊर्जा होती है.उसका सदुपयोग किया जाना चाहिये.बात बोलेगी हम नहीं.ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते.पता नहीं अगली मिर्ची कब लगाये कोई.

पंकज ने मेरा नामांकन भी किया.इस मुरव्वत के लिये हम धन्यवाद भी न दे पाये.हम वह कैटेगरी खोजते रहे जिसके लिये नामांकन किया गया.बहरहाल अब हम शुक्रिया अदा करते हैं पंकजजी का.ज्यादा देर तो नहीं हुयी पंकज भाई!

हिंदी चिट्ठाजगत अभी शुरुआती दौर में है.आगे फले-फूलेगा.मैं सोचता हूं कि हिंदी का जितना साहित्य नेट पर लाया जा सकता है वह ले आया जाये. सूर,कबीर,तुलसी से शुरु करके.कैसे कर सकते हैं -बतायें ज्ञानीजन.

अतुल की देखादेखी मुझे भीसंस्मरन लिखास हो रही है.इंजीनियरिंग कालेज में थे तो हम तीन लोग साइकिल से भारतदर्शन करने गये थे.तीन महीने सड़क नापी.डायरी खोज के हम भी लिखना शुरु करते हैं-जिज्ञासु यायावर के संस्मरण.

मेरी पसंद

अंगारे को तुमने छुआ
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी सी बात पर
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ.

जरा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी
आपद्धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है.

--कन्हैयालालनंदन


Thursday, December 30, 2004

साल के आखिरी माह का लेखाजोखा

दक्षिण एशिया के समुद्रतटीय इलाकों में सुनामी (त्सुनामी) लहरों का तांडव हुआ.मृतकों,हताहतों की संख्या बढ़ती जा रही है.जैसा कि हर दुर्घटना के बाद होता है ,घटनाओं का पोस्टमार्टम जारी है.जिनको सहायता देनी है वे जुटे हैं बिना किसी बुलावे के.बकिया अगर-मगर ,किंतु-परंतु में जुटे हैं.

दिसम्बर का महीना.आशीष मस्त हैं.ठंड से उनकी सिकुड़ गयी पोस्ट.पंकज बहुत दिन दुनिया हिलाने के बाद अब सारे घर के पर्दे बदल रहे हैं.

आजकल कुछअलग हटकर करने का मौसम है.सोचा मैं भी करूं.तो मन किया सब चिट्ठों में दिसंबर में जो छपा उसका लेखा-जोखा करा जाये.बैठे से बेगार भली.

इधर ब्लागजीन की खिचड़ी बहुत दिनों से पक रही है.लगता है कि जल्दी ही कुछ हो के रहेगा.

इस महीने तीन खूबसूरत फूल खिले-हिंदी ब्लाग उपवन में.रमणकौल काफी इधर-उधर घूमने के बाद आखिरकार आ गये मैदान में.रमन भी अपनी बात लेकर हाजिर हो गये.उधर सुदूर जापान से भी रंगीन चिट्ठा लेकर मत्सु आ गये.लोग साथ आते जा रहे हैं,काफिला बढ़ता जा रहा है.

नुक्ताचीनी पर ब्लागमेला तथा फिर अनुगूंज का आयोजन (अक्षरग्राम पर)हुआ.ब्लागमेला में भागेदारी बहुत कम रही.खासकर अंग्रेजी चिट्ठों की.जो थे भी वो छंट गये.व्यक्तिगत चिट्ठे की बात आयी.हालांकि मुझे लगता है कि आशीष की पोस्ट हां भाइयों में 'मैं' की शैली अपनायी गयी है.बाकी बात तो समाज की ही की गयी है.मैंने भी 'मैं'की शैली में ही लिखा था. लगता है कि आशीष ने 'मैं 'कुछ ज्यादा इस्तेमाल कर लिये.अनुंगूंज का मामला 'फुस्स'होता लग रहा है.एक तो दिये विषयों पर लिखना जटिल काम है .फिर जब लोग कम लिखें तो लगता है छोड़ो यार.कुछ कहानी की बात भी चली.एक तरफ अनुगूंज में दूसरी तरफ बुनो कहानी में.हमसे आशा की गयी है कि कहानी का समापन हम करेंगे.हम तैयार हैं.लाओ कहानी. करें अन्तिम क्रिया.

अनुगूंज में मेरापन्ना का जिक्र छूट गयाथा.मुझे लगता है कि कम्यूटर पर सीधे लिखने की यह अप्ररिहार्य सौगात है.कुछ न कुछ छूट ही जाता है.वैसे जब अक्षरग्राम पर चार दिन तक 'आ रहा है'का बोर्ड लगा रहा तो मुझे नये तरीके की जानकारी मिली. शीर्षक लगा दो. प्रकाशित कर दो फिर उसे पूरा कर लो.

देबाशीष ने ब्लागरोल से लोगो की बार-बार चिट्ठा अपडेट करने की समस्या हल कर दी.नितिन ने संक्षेप में आतंकवाद की समस्या से निजात पाने के उपाय बताये.देवाशीष ने कई हल सुझाने के बाद अपनी आशंका जाहिर की:-

कैंसर का ईलाज़ नीम हकीम कर रहे हैं और रोग बढ़ा जा रहा है। डर कि बात यह है कि कहीं सही इलाज के अभाव में यह कैंसर कश्मीर को ही निगल न ले।


महीने की दूसरी उल्लेखनीय घटना रही जीतेन्द्र का बउवा पुराण.अभी जीतेन्दर ब्लागमेला से बाहर होने के सदमे से उबरे नहीं थे कि अतुल ने उनके बउवापुराण को भांग की पकौड़ी के कुल का बता दिया.उनकी छठी इंद्रिय बोली थी तब जब पोस्ट बाहर नहीं हुयी थी. उन्होंने जीतेन्दर को बताया तब जब बहुत देर हो चुकी थी.अपने को मुंहफट बताने के लिये भी उनको पत्नी का सहारा लेना पड़ा.मुझे अनायास यशपाल का लेख बीबीजी कहती हैं मेरा चेहरा रोबीला है याद आया.

बहरहाल जीतेन्दर ने फिर अच्छे बच्चे के तरह तड़ से माफीमांग ली.शुक्रिया अदा किया काबिल दोस्त का.वैसे मुझे जीतेन्दर से बहुत नाराजगी है.एक दिन मैंने अवस्थी को फोन किया.पूरे 168 रुपये खर्चा हुये.इसमें से 80 रुपये की बातचीत के दौरान अवस्थी मेरापन्ना का गुणगान करते रहे.इसके अलावा जीतेन्दर की उत्पादन गति इतनी महान है कि अक्सर यह खतरा मिट जाता है किचिट्ठा विश्व पर मेरा पन्ना के अलावा कुछ और दिखेगा.

फिर कुछ दिन मूड उखड़ा रहा जीतेन्दर का.ब्लाग उत्पादन मशीन दूसरोंकी गजलें उगलती रहीं.अभी दो पोस्ट आयीं हैं .लालूजी वाली पोस्ट अगर लालूजी देख लें तो शायद बुला लें उन्हें अपना कामधाम देखने के लिये.मेरा पन्ना में टिप्पणी पता नहीं क्यों गायब हो जाती है.ई कैसा टिप्पणी इन्वेस्टमेंट मैनेजमेंट है भाई.दूसरी बात जो ये बिंदियां जो दो वाक्यों के बीच में रहती हैं वो लगता है कोई शाक एव्जारबर हैं रेल के दो डिब्बों (वाक्यों)के बीच में.कभी-कभी असहज लगता है.यह बात मैं खुद कह रहा हूं .मेरी पत्नी का इसमें कोई रोल नहीं है.

अवस्थी लिखने के बारे में अपने आलस्य से कोई समझौता नहीं करते.किसी हड़बड़ी में नहीं रहते.सौ सुनार की एक लोहार की .

कभी लेजर में बैठ के सोचो कितना ऐनसिएंट कल्चर है इंडिया का . लैंगुएज, कल्चर, रिलीजन डेवेलप होने में, इवाल्व होने में कितने थाउजेंड इयर्स लगते हैं.

हमारे वेदाज, पुरानाज, रामायना, माहाभारता जैसे स्क्रिप्चर्स देखिये, क्रिश्ना, रामा जैसे माइथालोजिकल हीरोज को देखिये, बुद्धिज्म, जैनिज्म, सिखिज्म जैसे रिलीजन्स के प्रपोनेन्ट्स कहाँ हुए? आफ कोर्स इंडिया में.

होली, दीवाली जैसे कितने कलरफुल फेस्टिवल्स हम सेलिब्रेट करते हैं. क्विजीन देखिये, नार्थ इंडिया से स्टार्ट कीजिये, डेकन होते हुए साउथ तक पहुँचिये, काउण्टलेस वेरायटीज. फाइन आर्ट्स ही देखिये क्लासिकल डांसेज. म्यूजिक, इंस्ट्रूमेंट्स - माइंड ब्लोइंग


नेशनल लैंगुएज को रिच बनाने के इनके यज्ञ में सबने अपनी आहुति डाली.मैं कई बार पढ़ चुका हूं.कइयों को पढ़ा चुका हूं.एक नरेश जी तो पढ़ते-पढ़ते इतना हंसे कि लोग समझे कोई हादसा हो गया.फिर उन्होंने टिप्पणी लिखना सीखा तथा टिप्पणी लिखी.अब समय हो गया है.केजी गुरु के आशीर्वाद से आशा है जल्द ही ठेलुहा पर नयी पोस्ट अवतरित होगी.आशा है देवाशीष(जी)भी इनका समुचित प्रयोग करंगें.

रोजनामचा में चार लेख आये.चोला बदलकर पहचान बचाने का अचूक मंत्र के बारे में ब्लागमेला में लिखा जा चुका है.प्रवासियों के पहचान के संकट पर अतुल का लेख बेहतरीन था.पर शीर्षक मुझे कुछ जमता नहीं.मुझे लगता है कि अगर हम ही अपनी अपने तुलना कुत्ते से करेंगे तो दूसरा अगर करता है तो क्या गलत करता है.भौं-भौं करने की इतनी क्या जरूरत है?हालांकि अवस्थी कह चुके हैं यह बात.इसके बाद पार्किंग की समस्या मजेदार अंदाज में लिखा अतुल ने.चौथा लेख अनुगूंज के लिये है.उधर एच ओ वी लेन में भी अमेरिकी प्रवास के रोचक किस्से जारी हैं.बहुत सिलसिलेवार अंदाजमें किस्से चल रहे हैं.वैसे मेरी अपेक्षा यह है कि हो सके तो दोनों देशो की सामाजिक स्थिति की तुलना करते रहेंगे अतुल ताकि जो इनकी आंखों से अमेरिका देख रहे हैं वे बिना टिकट अनुभव व जानकारी हासिल कर सकें.

पंकज भाई, ब्लागमंडल के जूरी ,बहुत दिन तक नाच-नाच के दुनिया हिलाते रहे.अब जब हिलना बंद हुआ तो टूटे पत्तेसे होते हुये जहाज के पंछी हो गये.वैसे जहाज के पंछी वाली बात आत्मालाप (अपने से बातचीत)है:-

मेरो मन अनत कहां सुख पावै,
जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिर जहाज पर आवै
.

पर यहां बात दो लोगों से हो रही है.इसके लिये सूरदास जी कहतेहैं:-

उधौ मोहि ब्रज बिसरत नहीं,
हंससुता(यमुना) की सुंदर कगरी (किनारा)अरु कुंजन की छांही.


बिसरत नाहीं में एक सुविधा भी है कि उड़ने की मेहनत से बचाव हो जायेगा.याद आने में कोई मेहनत थोड़ी लगती है.

मुझे समझ नहीं आता कि माननीय जूरी महाशय बार-बारनामांकन काहे मांग रहे हैं-इंडीब्लागी अवार्ड के लिये.भाई आपको जूरी बनाया गया है.आपको हिंदी के सारे चिट्ठाकारों के बारे में पता है .फिर यह 'बुलौवा नामांकन' का किसलिये आर्यपुत्र?ये बात कुछ हजम नहीं हुयी.स्वदेस फिल्म के लिये देवाशीष की टिप्पणी काबिलेगौर है:-

खेद की बात है कि यह फिल्म पुरस्कार पाने और ओवरसीज़ बाज़ार के लिए ही बनाइ गई, नाम भी रखा “स्वदेस” स्वदेश नहीं। हम लोग गोरी चमड़ी और गोरों की बनाई हर चीज़, जैसे आस्कर, के इतने कायल हैं और फिल्मफेयर जैसे पुराने घरेलू पुरस्कारों को जूती पर रखते हैं। लॉबिंग आस्कर के लिए भी कम नहीं होती, पर घरेलू पुरस्कारों पर अक्सर बेईमानी का आरोप लगता है।


पंकज को बधाई कि अनुगूंज के लिये सबसे सटीक बात वो रख पाये -बमार्फत शर्माजी.

यह महीनाअक्षरग्राम के पुनर्जन्म का रहा.फिर पंकज गायब हो गये कुछ दिन के लिये. इसके बाद हावी रहा मानसिक लुच्चापन काफी दिन तक अक्षरग्राम में.पता नहीं अभी तक पंकज आये कि उनका भूत ही कर रहा हैलिखा पढ़ी!अक्षरग्राम की पहुंच के जलवे दिखे.अतुल खोज रहे घर किरायेदार के लिये.पार्किंग लाट की तरह उन्होंने देवाशीष की गाड़ी निकलने का इंतजार नहीं किया.अपनी गाड़ी घुसा दी अनुगूंज की.ये कुछ ऐसा ही है कि बड़ी बिटिया का होने वाला पति परदेश से आ रहा हो .इंतजार के फेर में न पड़कर कई बेटियों का बाप उचित वर मिलने पर छोटी बेटी के हाथ पीले कर देता .कहीं हाथ में आया हुआ लड़का न निकल जाये.बड़ी कि तय तो होही गयी है.बस करने की बात है.हो जायेगी.

हिंदी के आदि चिट्ठाकार का नौ दो ग्यारह मुझे टेलीग्रामिया चिट्ठा लगता है.कम से कम शब्द.थोड़ा कहा बहुत समझना वाला अंदाज.नयी जानकारी देते रहने के लिहाज से यह सूचना चिट्ठा भी है.देवनागरी,आस्ट्रेलिया की जानकारी के बाद विजयठाकुर का हाथ मांग लिया.फिर प्रजाभारत,फोन सेवा,मराठी व महावीर शर्मा की कविताओं की जानकारी देने के बाद जुआ खेलने के तरीके बताये.गाना सुना,क्रिकेट खेला फिर परिचय सुदूर जापान में हिन्दी में लिखने वाले मत्शु का दिया.'एक दिन में एक शेर' का परिचय जिस शेर से हुआ वह बार-बार इसे देखने को बाध्य करता है:-

ये धुआँ कम हो तो पहचान हो मुमकिन, शायद
यूँ तो वो जलता हुआ, अपना ही घर लगता है


प्रेमचंद की कहानियों के बाद सुनामी तूफान तथा फिर स्वामीजी के हिंदी टूल की सूचना.कुल मिलाकर यह गूगलचिट्ठा है जो अपने आप जानकारियां देता रहता है

स्वामी जी हिन्दी ब्लाग की नवीनतम सनसनी हैं.हिंदी लिखने में इन्हें मजा आया तो बना डाला टूल.अब इसकी पड़ताल ज्ञानी लोगकरें.

रमता जोगी बहता पानी ,इनको कौन सके विरमाय.कुछ यही अंदाजरहता है रवि रतलामी के लेखन का.सामाजिक स्थितियों से जुड़े लेख.प्रमाण के लिये अखबार की कतरन तथा विषयानुरूप गज़ल.इतनी जल्दी विषय के अनुरूप गज़ल लिख लेना काबिले तारीफ काम है.तकनीकी जानकारी वाले लेख के साथ जब वे याहू कहकर उछलते हैं तो अंदाजा लगता है कि गांगुली ने कैसे नेटवेस्ट सीरीज में जीतने के बाद अपनी शर्ट उछाली होगी.नेताओं के भाषणप्रेम के बारे में कहना है रवि का:-

नेताओं का कोई काम भाषण के बगैर हो सकता है क्या? वे खांसते छींकते भी हैं तो भाषणों में. वे खाते पीते ओढ़ते बिछाते सब काम भाषणों में करते हैं. कोई उद्घाटन होगा, कोई समारोह होगा तो कार्यक्रम का प्रारंभ भाषणों से होगा और अंत भी भाषणों से होगा. संसद के भीतर और बाहर तमाम नेता भाषण देते नजर आते हैं, और उससे ज्यादा इस बात पर चिंतित रहते हैं कि उनकी बकवास को हर कोई ध्यान से सुने


आशीष ने अपने माध्यम से शिक्षा जगत का जायजा लिया.आई.आई.टी.से लेकर प्राइमरी शिक्षा और कोचिंग के संजाल की पड़ताल की:-

खुद की प्राथमिक शिक्षा के अनुभव से, छात्रों को देख कर और उनसे सुनकर ये लगता है कि हमारा समाज जिस तरह से बच्चों को पढ़ाता है ये जिस तरह से स्कूलों में बच्चों को तालीम दी जाती है उसमें कहीं न कहीं कुछ बहुत बड़ी कमी है। बच्चों पर बस्ते का इतना बड़ा बोझ है कि उनका बचपन बरबाद हो जाता है। जे ई ई और इसके जैसी तमाम प्रतियोगी परीक्षाओं ने आज शैक्षिक व्यवस्था की रीढ़ तोड़ दी है क्योंकि उसमें स्कूल या विद्यालय के योगदान का कोई स्थान नहीं है और साथ ही साथ उसने बचपन से लेकर आजतक जो कुछ सीखा उसका कुछ खास मतलब नहीं है अगर वो बच्चा उन मात्र नौ घंटों के इम्तहान में अच्छा नहीं कर पाता है। साथ ही साथ इस चीज कि बहुत बड़ा महत्व है कि उसकी शिक्षा का माध्यम क्या रहा है? इस तरह की प्रतियोगी परीक्षाओं की वजह से आज विद्यालयों की खुद की ज़िम्मेदारी कुछ नहीं रह गयी है, और ऊपर से जो कोचिंग और ब्रिलियंट या अग्रवाल जैसे संस्थानों की बाढ़ आयी है उसने तो समस्या को और भी कुरूप कर दिया है। शिक्षा की आढ़ में कुछ पब्लिक व कान्वेंट स्कूल क्या पढ़ा रहे हैं ये किसी नहीं छुपा है। और इन कोचिंगों के माध्यम से आने वाले छात्रों में एक वैज्ञानिक या अच्छा इंजीनियर बनने की कितनी इच्छा होती है वो आप समझ सकते हैं। पहला लक्ष्य है नौकरी कैसे भी मिलना वरना समाज क्या कहेगा। दूसरी बात जो बच्चे आते हैं उनमें ज्यादातर मध्यम वर्ग या उच्च मध्यम वर्ग से ही आते हैं जिनका कि सपना ही होता है या तो अमेरिका जाना या भारत में ही अपना एक अमेरिका बनाना और यहां की गरीब जनता के ऊपर पैसे की राज करना जैसा कि अमेरिका भी कर रहा है। स्कूलों में बच्चों को जितना ध्यान अंग्रेज़ी सिखाने के ऊपर दिया जाता है अगर उतना ही ध्यान बच्चों की नैसर्गिक प्रतिभा को उजागर करने में लगाया जाये तो आज हमारे समाज में विचारकों, वैज्ञानिकों, कलाकारों इत्यादि की कमी नहीं होगी। साथ ही बच्चे भी इस बात से खुश रहेंगे कि कम से कम वे वो काम कर रहे हैं जिसमें कि उनकी दिलचस्पी है। इसमें स्कूल के साथ साथ समाज व मातापिता का भी योगदान है। मातापिता को भी बच्चों को उसी दिशा में प्रेरित करना चाहिये कि जिसमें उसका झुकाव हो व अनावश्यक तुलनाओं से बचना चाहिये। हम चाहें कितने भी आई आई टी या आई आई एम बना लें केलिन जब तक स्कूली शिक्षा का उद्धार नहीं होगा तब तक किसी का कोई मतलब नहीं है।


इनके शनीचरी चिट्ठे पर बनारस,जहाज अपहरण,अनुगूंज तथा ठंड के बारे में लिखा गया.अब तो धूप निकल रही है रोज.शनिवार भी आ रहा है.लिखो कुछ नया.

राम-राम करके देश परदेश की बात कह के रमण ने आतंकवादी समस्या पर अपने विचार रखे.अनुगूंज में आतंकवादियों के प्रति उदार नजरिये से रमणसहमत नहीं हैं.लोगों के विचारों से शायद उनकी प्रतिक्रया-- जाके पांव न फटी बिवाई,सो क्या जाने पीर पराई है.इंतजार है उनके लेख का.

अपनी झंट जिंदगी ले के शांति भंग की की रमन ने.पाप नगरी टहलाया .फिर कविता में पाखाना किया.वैसे इस बारे में रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल)में बताया है:-

आबादी लगभग पचास गज़ पीछे छूट गयी थीऔर वह वीरान इलाका शुरु हो गया था जहां आदमी कविता, रहज़नी और पाखाना तक कर सकता था .परिणामस्वरूप कई एक बच्चे ,कविता और रहज़नी में असमर्थ ,सड़क के दोनो किनारों पर बैठे हुये पाखाना कर रहे थे और एक-दूसरे पर ढेले फेक रहे थे.


तो ऐसी ही किसी सड़क से गुजरे होंगे रमन और कविता भी कर दी होगी.

कालीचरन से हमें भरोसा है कि स्वामीजी की भाषा में उनके यहां टिप्पणी करने वाला मौजूद है. बाजी के बारे में जो कहा वही हुआ.जीवन सफल से इस महीने की शुरुआत की.दुबई चलो की हांक लगाई.सूरमा भोपाली के निठल्लेपन को देखकर आलोक को जुड़वां भाई लगे कालीचरण .अभी इसकी पुष्टि होनी बाकी है.इंद्र की फरमाइस पर लिखा,कालीचरण-विभीषण संवाद मजेदार लगा.चपड़के नाती ने गणित की महिमा बताई.बकझक के बाद बाजी मारी.रविराज और कालीचरण दोनो का गुरुकुल एक(आई.आई.टी.खड़कपुर) हैं.

मुझे कालीचरन,रमन और मत्सु के लिखने का बेलौस अंदाज अच्छा लगता है.मत्सु का रंगीन चिट्ठा मनमोहक लगता है.

अरुण ने बहुत दिन बादकविता लिखी.पढ़कर लगा कि हम हर स्थितिमें दुखी रहने के साधन तलाश सकते हैं बस चाह होनी चाहिये.मुझे आज ही सुना गाना फिर याद आ रहा है:-

बड़ा लुत्फ था जब कुंवारे थे हम-तुम
सुनो जी बड़ा लुत्फ था.


तत्काल एक्प्रेस दनादन दौड़ रही है-बाबा नागार्जुन,अज्ञेय जैसी विभूतियों को साथ लेकर.शोध क्षात्रायें टेलीफुनियाती है तो ठाकुर जीतेन्द्र का नाम नहीं बताते.बहुत नाइंसाफी है.कवितायें विजय ठाकुर जम के लिखते हैं.लोगबाग हाथ भी मांग चुके हैं.कविता चाय हो या वाक्य या फिर सुनामी लहरें ,लगता है कि अच्छी अनुदित कवितायें हैं.अनुदित इसलिये कि कविता में प्रवाह की कमी लगती है.ऐसा शायद तत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रति आग्रह के कारण हो.आगे और अच्छी कविताओं का इंतजार है.

शैलअंग्रेजी ब्लाग की साईट देखने निकले तो अइसा निकले कि अभी तक नहीं लौट पाये.मद्य प्रदेश में फंस गये लगता है

पीयूष ने काफी दिन की खामोशी के बाद बात शुरु की स्पाइडर मैन से.फिर सिगरेट मंदिर का पता दिया.आई.टी.सी.वाले दौड़ पड़े मंदिर को फिल्माने.त्रासदियों के वर्णन के बाद वे बताते हैं ;-

इन दिनों मामला बड़ा अजीब हो गया है। जिसे जो समझो, वो वह नहीं निकलता है । जिसे मॉडल समझो वो कॉल गर्ल निकलती है, जिसे धुरंधर टीम समझो वो फिसड्डी निकलती है, जिसे कहीं न गिनो वो ओलंपिक का राज्यवर्धन सिंह राठौर निकलता है और जिसे हिन्दुस्तानी पुलिस समझो वो चोर का बाप निकलती है.


राजेश पूरे ढाई माह करते रहे भावी जीवन की तैयारी.इस बीच कैसे-कैसे समयगुजारा बताते है कविता के माध्यम से:-

कैसे-कैसे समय गुजारे,
कैसे-कैसे दिन देखे ।

आधे जीते,आधे हारे,
आधी उमर उधार जिये।

आधे तेवर बेचैनी के देखे,
आधे दिखे बीमार के।

प्रश्न नहीं था,तो बस अपना,
चाहत, कभी, नहीं पूजे।

हमने, अपने प्रश्नों के उत्तर,
बस,राम-शलाका में ढूँढे।


कामना है कि राजन जब भी रामशलाका प्रश्नावली की शरण लें तो हर बार उनको पहली चौपाई मिले-

सुनु सिय सत्य असीस हमारी
पूजहिं मनकामना तुम्हारी.


फुरसतिया में कृपया बायें थूकिये मेरा कुछ साल पहले का लेख था.दूसरा लेख अनुगूंज के लिये लिखा गया.तीसरा आपबीती-जगबीती.

इतना लिखने के बाद कुछ और बचता नहीं इस साल.छूट गये चिट्ठों/पोस्टों के लिये भूल-चूक,लेनी-देनी.

नये साल की शुभकामनायें इस खूबसूरत कविता के माध्यम से.



नये साल की देहरी पर मुस्काता सा चाँद नया हो
नये मोतियों से खुशियों के, दीप्त सीप नैनों के तेरे.

हर भोर तेरी हो सिन्दूरी, हर साँझ ढले तेरे चित में
झंकार करे वीणा जैसी, हर पल के तेरे आँगन में.

जगमग रोशन तेरी रातें झिलमिल तारों की बारातों से
सूरज तेरा दमके बागों में और जाग उठे सारी कलियाँ.

रस-प्रेम लबालब से छलके तेरे सागर का पैमाना
तेरी लहरें छू लें मुझको सिक्त जरा हो मन अपना.

महकाये तुझको पुरवाई, पसरे खुशबू हर कोने में
वेणी के फूलों से अपने इक फूल बचाकर तुम रखना.

कोई फफोला उठे जो मन में, बदली काली आये कोई
टीस और बूँदें पलकों की, निर्द्वंद नाम मेरे कर देना.

सजा रहा हूँ इक गुलदस्ता नये साल की सुबह-सुबह मैं
तकती क्या हो, आओ कुछ गुल तुम भी भर लो न !!
--विजय ठाकुर

Saturday, December 18, 2004

भारत एक मीटिंग प्रधान देश है

भारत एक मीटिंग प्रधान देश है.एक आवाज सहसा उछली.अनुगूंज फैल गयी दिगदिगान्तर में.दस आवाजें सहसा झपट पड़ीं.आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? जवाबी आवाज मिमिंयायी--क्योंकि हम हमेशा मींटिंग करते रहते हैं.आवाजें तेज हो गयीं-तो क्या हुआ?हम मींटिंग करते रहते हैं पर दुनिया जानती है कि भारत एक कृषि प्रधान देश है.

इस हल्ले के शिकार हुये तिवारी जी.उनकी नींद उचट गयी.बोले-क्या हल्ला मचा रहे हो? अजब आफत है ससुरी.घर में लौंडे नहीं सोने देते .यहां आफिस में जरा नींद लगी तो तुम लोग महाभारत मचाये हो.मामला अपने आप तिवारी जी की अदालत में पहुंच गया.लोग बोले -तिवारी जी, ये बात ही ऐसी कर रहे हैं .कहते हैं भारत एक मीटिंग प्रधान देश है क्योंकि हम लोग दिन भर मींटिंग करते रहते हैं.कल को ये कहेंगे भारत जनसंख्या प्रधान देश है.परसों ये बोलेंगे घोटाला प्रधान देश है.जबकि यह सबको ,यहां तक कि आप तक को ,पता है कि भारत एक कृषिप्रधान देश है.

तिवारी जी ने पूंछा -काहे भाई रामदयाल ई का ऊट-पटांग बोलते रहते हो नेता लोग कि तरह.का अब तुम ई कहोगे कि हम अइसा नहीं बोला या ई बोलोगे कि हमारे कहने का मतलब गलत लगाया गया.रामदयाल की चुप्पी ने तिवारी को चौकाया.इस बीच चायपान से उनकी चेतना जाग गयी थी .रामदयाल की चुप्पी से उनकी शरणागतवत्सलता ने भी कार्यभार ग्रहण किया वे तत्पर हो गये रामदयाल की रक्षा के लिये.

उन्होने पूंछा--आप लोग में से जितने लोग खेती करते हों वो हाथ उठा दें.कोई हाथ नहीं उठा. फिर तिवारी जी ने पूंछा-अब वो लोग हाथ ऊपर करें जो अभी भी जनसंख्या वृद्घि में लगे हैं.सब निगाहें झुक गयीं.यही घोटाले के सवाल पर भी हुआ.अब तिवारी जी उवाचे-अब वो लोग हाथ उठायें जो लोग मींटिंग करते हैं.सभी लोगों ने अपने हाथ के साथ खुद को भी खड़ा कर लिया. अब तिवारी जी ने पूंछा-भाई तुम लोग जो करते हो वही तो ये रामदयाल कह रहा है.खेती तुम करते नहीं.बच्चा पैदा करने लायक रहे नहीं.घोटाला लायक अकल ,बेशरमी है नहीं.ले देके मींटिंग कर सकते हो.करते हो.वही तो कह रहा है रामदयालवा. तो का गलत कह रहा है?काहे उस पर चढ़ाई कर रहे हो?

अब मिमियाने की बारी बहुमत की थी.लोग बोले सब सही कह रहे हैं आप .पर जो हम आज तक पढ़ते आये उसे कैसे नकार दें?तिवारी जी को भी बहुमत के विश्वास को ठेस पहुंचाना अनुचित लगा.बोले-अच्छा तो भाई बीच का रास्ता निकाला जाये.तय हुआ--भारत एक कृषिप्रधान देश है जहां मीटिंगों की खेती होती है.दोनो पक्ष संतुष्ट होकर चाय की दुकान की तरफ गम्यमान हुये.

चाय की दुकान पर मामला सौहार्दपूर्ण हो गया.तय हुआ कि कृषि की महिमा पर तो बहुत कुछ कहा जा चुका है.कुछ मींटिंग के बारे में भी लिखा जाये.किसी ने यह भी उछाला सारा मामलायूनीकोडित होना चाहिये.ताकि किसी को टोकने का मौका न मिले.पता नहीं कितना लिखा गया इसके बाद .पर जो कुछ जानकारी कुछ खास लोगों से मिली वह यहां दी जा रही है.

जब एक से अधिक जीवधारी किसी विषय पर विचार करने को इकट्ठा होते है तो इस प्रकिया को मींटिंग कहते हैं.यहां जीवधारी से तात्पर्य फिलहाल दोपायों से है(चौपायों भी अपने को जीवधारी कहलाने को आतुर,आंदोलनरत है)जब किसी को कुछ समझ नहीं आता तो तड़ से मींटिंग बुला लेता है.कुछ लोग उल्टा भी करते हैं.जब उनको कुछ समझ आ जाती है तो वे अपनी समझ का प्रसाद बांटने के लिये मींटिंग बुलाते हैं.पर ऐसे लोगों के साथ अक्सर दो समस्यायें आती हैं:-

1.कभी कुछ न समझ आने की हालत में ये लोग बिना मींटिंग के ही जीवन गुजार देते हैं.

2.जिस समझ के बलबूते ये मींटिंग बुलाते हैं वह समझ ऐन टाइम पर छलावा साबित होती है.ज्ञान का बल्ब फ्यूज हो जाता है.जिसे रस्सी समझा था वह सांप निकलता है.

लिहाजा सुरक्षा के हिसाब से कुछ समझ न आने पर मींटिंग बुलाने का तरीका ही चलन में है.

मींटिंग का फायदा लोग बताते हैं कि विचार विमर्श से मतभेद दूर हो जाते हैं.लोगों में सहयोग की भावना जाग्रत होती है.नयी समझ पैदा होती है. कुछ जानकार यह भी कहते हैं-- मींटिंग से लोगों में मतभेद पैदा होते हैं. कंधे से कंधा मिलकर काम करने वाले पंजा लड़ाने लगते हैं.६३ के आंकड़े ३६ में उलट जाते हैं.

मींटिंग विरोधी लोग हिकारत से कहते हैं--जो लोग किसी लायक नहीं,जो लोग कुछ नहीं करते वे केवल मींटिग करते हैं.जबकि मींटिंग समर्थक समुदाय के लोग ('हे भगवान इन्हें पता नहीं ये क्या कह रहे हैं 'की उदार भावना धारण करके करके)मानते है जीवन में मींटिंग न की तो क्या किया.मींटिंग के बिना जीवन उसी तरह कोई पुछवैया नहीं है जिस तरह बिना घपले के स्कोप की सरकारी योजना को कोई हाथ नहीं लगाता.ऐसे ही एक मींटिंगवीर को दिल का दौरा पड़ा.डाक्टरों ने हाथ खड़े कर दिये.मींटिंगवीर के मित्र बैठ गये.उनके कान में फुसफुसाया -जल्दी चलो साहब मींटिंग में बुला रहे हैं.वो उठ खड़े हुये.चल दिये वीरतापूर्वक मींटिंग करने.यमदूत बैरंग लौट गये.मींटिंग उनकी सावित्री साबित हुयी.खींच लायी सत्यवान(उनको)मौत के मुंह से.

झणभंगुर मींटिंगें वे होती हैं जिनमें आम सहमति से तुरत-फुरत निर्णय हो जाते हैं.ये आम सहमतियां पूर्वनिर्धारित होती है. इन अल्पायु, झणभंगुर मींटिंगों का हाल कुछ-कुछ वैसा ही होता है:-

लेत ,चढावत,खैंचत गाढ़े,काहु न लखा देखि सब ठाढ़े.
(राम ने धनुष लिया,चढ़ाया व खींच दिया कब किया को जान न पाया)

कालजयी मींटिंगों में लोग धुंआधार बहस करते हैं.दिनों,हफ्तों,महीनों यथास्थिति बनी रहती है.काल ठहर जाता है(कालान्तर में सो जाता है)और उजबक की तरह सुनता रहता है-तर्क,कुतर्क.कार्यवाही नोट होती रहती है-हर्फ-ब-हर्फ.

चंचला मींटिंगें नखरीली होती हैं.इनमें मींटिंग के विषय को छोड़कर दुनिया भर की बातें होती हैं.जहां किसी ने विषय को पटरी पर लाने की कोशिस की मींटिंग का समय समाप्त हो जाता है.लोग अगली मींटिंग के लिये लपकते हैं.उनकी रनिंग बिटवीन द मींटिंग देख कर कैफ की रनिंग बिटवीन द विकेट याद आती है.

हर काम सोचसमझ कर आमसहमति से काम करने वाले बिना समझे बूझे रोज मींटिंग करते हैं.शुरुआत वहीं से जहां सेकल की थी.खात्मा वहीं जहां कल किया था.बीच का रास्ता वही.सब कुछ वही.केवल कैलेंडर की तारीख बदल गयी.ऐसी ही एक मींटिंग का एक हफ्ते का ब्योरा साहब को दिखाया गया.साहब उखड़ गये हत्थे से.बोले--एक ही बात सात बार लिख लाये. इतना कागज बरबाद किया.लेखक उवाचा--साहब जब आप सातों दिन एक ही बात करोगे तो हम विवरण कैसे अलग लिखें?रही बरवादी तो कागज तो केवल पांच रुपये का बरवाद हुआ.वह नुकसान तो भरा जा सकता है.पर जो समय नुकसान होता है रोज एक ही बात अलापने से उसका नुकसान कैसे पूरा होगा.साहब भावुक हो गये .बोले -अब से रोज एक ही बातें नहीं करूंगा.पर शाम को मींटिंग की शुरुआत,बीच और अंत रोज की ही तरह हुआ.

कुछ बीहड़ मींटिंगबाज होते है.उनका अस्तित्व मींटिंग के लिये,मींटिंग के द्वारा ,मींटिंग के हित में होता है.ऐसे लोग मींटिंग भीरु जीवों को धमकाते हैं:-जादा अंग्रेजी बोलोगे तो रोज शाम की मींटिंग में बैठा देंगे साहब से कह के.सारी स्मार्टनेस हवा हो जायेगी.सारी खेलबकड़ी भूल जाओगे.

संसार में हर जगह कुछ मध्यम मार्गी (आदतन बाई डिफाल्ट)पाये जाते हैं.ऐसे लोग मानते हैं अति हर चीज की बुरी होती है.चाहे वो मींटिंग ही क्यों न हो.ऐसे ही कुछ भावुक लोग करबद्द निवेदनी अंदाज में साहब के पास गये.जान हथेली और दिमाग जेब में रखकर. कोरस में बोले--साहब हम दिन भर मींटिग करते -करते थक जाते हैं.दिन भर कुछ कर नहीं कर पाते .फिर कुछ करने लायक नहीं रहते.हम हर मामले में पिछड़ रहे हैं.क्या ऐसा नहीं हो सकता कि मींटिंगों की संख्या , अवधि कुछ कम की जाये ताकि हम काम पर भी कुछ ध्यान दे सकें.

साहब पसीज गये कामनिष्ठा देखकर लोगों की.बोले--आपका सुझाव अच्छा है.ऐसा करते हैं हम आज ही से रोज शाम की मींटिंग के बाद एक मींटिंग बुला लेते हैं.उसी में सब लोगों के साथ तय कर लेगें. इस विषय पर रोज एक मींटिंग करके मामले को तय कर लेंगे.

साहब के कमरे आकर ही लोग आफिस में जमा हुये .वहीं नारा उछला भारत एक मींटिंग प्रधान देश है.आगे की कथा बताई जा चुकी है.

आप का भी कोई मत है क्या इस बारे में?

मेरी पसंद

सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है जोर कितना बाजुए कातिल में है.

रहबरे राहे मुहब्बत,रह न जाना राह में
लज्जते-सेहरा नवदीं दूरिये-मंजिल में हैं

वक्त आने दे बता देंगे तुझे देंगे तुझे ऐ आसमां
हम अभी से क्या बतायें,क्या हमारे दिल में है.

अब न अगले बलेबले हैं और न अरमानों की भीड़
एक मिट जाने की हरसत,अब दिले-बिस्मिल में है.

आज मकतल में ये कातिल कह रहा है बार-बार
क्या तमन्ना -ए-शहादत भी किसी के दिल में है

ऐ शहीदे-मुल्को-मिल्लत!तेरे जज़बों के निसार
तेरी कुर्बानी की चर्चा ,ग़ैर की महफिल में है.


--- रामप्रसाद बिस्मिल
(शहीद रामप्रसाद बिस्मिल व अशफ़ाक उल्ला को १९ दिसम्बर को फांसी हुयी थी)


Tuesday, December 14, 2004

आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?

Akshargram Anugunj

आतंक से मुख्यधारा की राह क्या हो?मतलब भूलभुलैया से राजपथ का रास्ता किधर को होकर जाये?मैं इस निर्णय प्रकिया के बारे में चूंकि कुछ नहीं जानता लिहाजा अधिक आत्मविश्वास से अपनी राय जाहिर कर सकता हूं.वैसे भी अज्ञानी का आत्मविश्वास तगड़ा होता है.

कुछ और लिखने के पहले दो घटनाक्रमों पर गौर करें:-

1.मेरा छोटा बच्चा अनन्य स्कूल से आकर स्कूल ड्रेस में ही खेलने लगता है(जाहिर बात है क्रिकेट ही खेलेगा इसके अलावा खेल क्या सकता है).मेरी माताजी उससे कहती हैं -बेटा ,ड्रेस बदल लो तब खेलो.कई बार कहने पर वह लगभग झुंझलाकर बोला--बदल लेंगे.आप बार-बार टोंक क्यों रही हो? आप 6.30 घंटे स्कूल में पढ़ के आओ तब पता चले कितना थक जाते हैं .आप तो दिन भर घर में रहती हो.आपको तो पता नहीं कितना थक जाते हैं स्कूल में.

2.अक्सर शाम को उत्पादन समीक्षा बैठक में मेरे एक मित्र को उसके अधिकारी ने बताया (जैसा वो अक्सर बताते हैं)ये काम ऐसे नहीं वैसे करना चाहिये.अपनी सौम्यता और विनम्रता के लिये जाने वाले मेरे मित्र के मुंह से अचानक निकला --सर,यहां बैठ के ज्ञान मत दीजिये.कल शाप में आइयेगा तब वहीं बताइयेगा.यहां बैठ के तो मैं भी पचासो तरीके बता सकता हूं.

ये वाकये यह बताने के लिये कि जब हम दूर बैठ किसी समस्या के बारे में राय जाहिर करते हैं तो अक्सर समस्या से सीधे प्रभावित व्यक्ति को वह सुझाव अफलातूनी लगते हैं.मेरे सुझाव भी ऐसे ही साबित हो सकते हैं.


पहली बात तो आतंकवादियों को प्रशिक्षित करके उनका उपयोग आतंकवादियों के सफाये में करने को लेकर.जैसा कहा गया कि कुछ लोगों ने टेरीटेरियल आर्मी की प्रवेश परीक्षा पास कर ली. बहस उठी कि क्या यह मुनासिब है कि पूर्व आतंकवादियों को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण पद सोंपे जाएँ या नहीं.तो भइये मेरा तो यह मानना है कि कतई न लिया जाये. क्योंकि यह कुछ इसी तरह है जैसे अपराध की दुनिया में झंडा फहराने केबाद लोगों को देशसेवा का बुखार चढ़ता है.और जनता उनसे अभिशप्त होती है सेवा कराने के लिये.इस तरह लोगों को सेना में भर्ती से एक नया रास्ता खुल जायेगा बेरोजगारों के लिये.वे कहेंगे--यार कुछ काम तो मिला नहीं .सोच रहा हूं कुछ दिन आतंकवाद करके सरेंडर करूं.फिर टेरीटेरियल आर्मी ट्राय करूं.उधर मेरे अंकल के फ्रेंड हैं .वो सब मैनेज कर देंगे.

किसी व्यक्ति की काबिलियत एक पहलू है .किसी अपराध की सजा दूसरा पहलू .दोनो में घालमेल नहीं होना चाहिये.नहीं लो लोग कहेंगे अरे भाई हम अपराध किये हैं मानते हैं पर हमारी काबिलियत भी तो देखो. काबिलियत के हिसाब से तो हमको सजा मिलनी ही नहीं चाहिये.पहले भी हुआ है ऐसा.स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पेंशन पाने वालों में बहुत सारे लुटियाचोर भी थे .किसी अपराध में पकड़े गये .प्रमाणपत्र जेल का ले आये और दरख्रास्त दे दी .स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पेशन पाकर मौज की.जबकि बहुत से लोग जो सही में बलिदानी थे उन्होंने यह माना यह तो हमारा कर्तव्य था.इसके लिये पेंशन कैसी ?

अब सवाल यह उठता है कि आतंकवाद से मुख्यधारा से रास्ता क्या हो.तो रास्ता तो वही है जो कानून सम्मत है. हां ,हमारा रवैया मानवीय होना चाहिये.सजा में अपराध और परिस्थिति के अनुसार विचार किया जा सकता है. भूतपूर्व आतंकवादियों के पुनर्वास के लिये रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जायें.उनकी क्षमता का सम्मानजनक उपयोग किया जाये.बदले की भावना से कोई कार्रवाई न की जाये.न्याय में देर न हो.उनके साथ यथासंभव अच्छा व्यवहार किया जाये.ऐसी स्थिति न आये कि वे सोचें इससे अच्छे तो तभी थे जब आतंकवादी थे.

अपराध , दंड और पुरस्कार के बारे में जयशंकर प्रसाद की कहानी 'पुरस्कार' आज भीसमीचीन है.कोशल राज्य की कन्या मधूलिका शत्रु देश, मगध, के राजकुमार अरूण के प्रेम के वशीभूत होकर महाराज से सामरिक महत्व की जमीन मांग लेती है.वह जमीन किले की पास की होती थी जहां से आसानी से किले में प्रवेशपाया जा सकताथा.
अरुण उसे कोशल पर कब्जा करने की अपनी योजना के बारे में बताता है.वह कहता है कि कोशल पर कब्जा करने के बाद वह मधूलिका को अपनी रानी बनायेगा.मधूलिका भविष्य की मधुर कल्पनाओं में खो जाती है.फिर उसे याद आता है कि वह राजभक्त सिंहमित्र की कन्या है जिसकी वीरता का सम्मान कोशल नरेश भी करते हैं.यह सोचकर वह व्याकुल हो उठती है कि वह शत्रु देश के राजकुमार के प्रेम में अंधी होकर अपने देश को विदेशी के अधिकार में देने सहायक हो रही है.कर्तव्य बोध जाग्रत होने पर वह अपने शत्रु देश के राजकुमार के अभियान की सूचना अपने राजा को दे देती है. अरुण पकड़ा जाता है. प्रजाजनों की राय से अरुण को प्राणदंड की सजा तय की जाती है.इसके बाद मधूलिका बुलाई गई.वह पगली सी आकर खड़ी हो गई.कोशल नरेश ने पूछा-मधूलिका, तुझे जो पुरस्कार लेना हो,मांग.वह चुप रही.राजा ने कहा --मेरी निज की जितनी खेती है,मैं सब तुझे देता हूं.मधूलिका ने एक बार बंदी अरुण को देखा.कहा-मुझे कुछ न चाहिये. अरुण हंस पड़ा. राजा ने कहा--नहीं,मैं तुझे अवश्य दूंगा.मांग ले.तो मुझे भी प्राणदंड मिले.कहती हुई वह बंदी अरुण के जा खड़ी हुई.

यह कहानी एक आदर्श की बात कहती है.इसमें देश की सेवा के लिय किसी प्रतिदान की अपेक्षा नहीं है.देश के लिये अपने प्रेमी को बंदी बनवाने के बाद मधूलिका को प्रेमी के प्रति अपने कर्तव्य का बोध होता है तब वह पुरस्कार में अपने लिये भी प्राणदंड मांगती है.

पूर्व आतंकवादियों को मुख्यधारा में लाने के उपाय खोजते समय यह देखने की जरूरत है कि कहीं हम इतने उदार न बन जायें कि लोग सोंचे --यार काश हम भी पूर्व आतंकवादी होते.ये पूर्व आतंकवादी बहके हुये लोग रहे हैं कभी.तब अपनी जान हथेली पर लेकर आतंक की दुनिया में कूदे होंगे जब मौत उसका एकमात्र अंजाम रहा होगा. अब जब इनको सामरिक महत्व के पद सौंपे जायेंगे तब वे नहीं बहकेंगे इसकी कोई गारंटी नहीं.कुछ लोग होंगे जो वास्तव में अपवाद होंगे और कभी नहीं बहकेंगे.पर कुछ लोग अपवाद ही हो सकते हैं और अपवाद का सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता.

आतंकवाद के कारण बहुस्तरीय होते हैं.हर समाज के लिये अलग कारण.इसका कोई गणितीय समाधान नहीं हो सकता.समाज,समस्या,साधन,परिस्थिति के अनुसार इसका हल तय किया जा सकता है.पर सबसे जरूरी चीज है समाधान में शामिल भागीदारों के इरादों में ईमानदारी.समस्या को हल करने के इरादों में ईमानदारी व परस्पर विश्वास होगा तो सब हल निकल आयेंगे.

मेरी पसंद

एक बैरागी आया
उसने कान में मंत्र फूंका
तुम कमजोर हो
मेरे साथ आओ
मैं तुम्हें ताकत दूंगा.

दूसरा बैरागी आया
उसने कान में मंत्र फूंका
तुम पिछड़े हो
तुम मेरे साथ आओ
मैं तुम्हें शिखर पर ले जाऊँगा.

तीसरा बैरागी आया
उसने कान में मंत्र फूंका
तुम संख्या में कम हो
तुम मेरे साथ आओ
मैं तुम्हारी तरफ से बोलूंगा

आखिरकार सब बैरागी रागी बन गये
और तुम्हारा आँगन अखाड़ा बन गया.

----विनोद दास


Monday, December 06, 2004

कृपया बांये थूकिये

मैं स्कूटर पर हङबङाया सा चला जा रहा था .रोज के पन्द्रह-बीस मिनट के बजाय आज मैं करीब एक घन्टा लेट था.पर हङबङी का कारण देरी नहीं वरन् स्पीड थी.स्पीड से हङबङी और हङबङी से चेहरे पर व्यस्तता और तनाव झलकता है.अक्सर लोग यह सोचकर तनावग्रस्त रहते हैं कि उनके चेहरे पर तनाव के कोई लझण नहीं दिखते.लोहे को लोहा काटता है.तनाव जरूरी है तनाव से बचने के लिये.तेज चाल में आफिस पहुंचकर एक गिलास पानी गटागट पीकर गिलास मेज पर पटककर टाई ढीली करके कुर्सी पर ढुलक जाने से मातहत समझ जाते हैं कि साहब तनाव के मूड में है.इनका देर से आना देश,समाज के हित में हो या न हो ,दफ्तर के हित में है.

मेरे आगे एक साइकिल सवार था.उसे साइकिल शायद खुद 'मैकमिलन'ने दी थी.उसके दांयी तरफ एक शिववाहन 'नंदी' पूरी मस्ती और बेफिक्री से चहलकदमी कर रहे थे.उनकी ,मृदु मंद-मंद मंथर-मंथर,चाल ऐसी थी मानों धनुषभंग के बाद सिया सुकुमारी राम के जयमाल हेतु जा रहीं हों.

जब साधनसम्पन्न और साधनहीन एक ही राह पर जा रहे हों तो सम्पन्न ,'हीन' के पीछे रहे, यह उसकी बेइज्जती है.मैंने साइकिल वाले को ओवरटेक किया.दायें से ओवरटेक करने में ज्यादा समय लगता.लिहाजा मैंने शार्टकट अपनाया.टैफिकनियम को ताकपर रखकर उसे बांये से ओवरटेक किया.जैसे ही मैं उसके बगल से गुजरा,उसने'चैतन्य चूर्ण'(तम्बाकू)की पूरी पीक अपने बांयी ओर थूक दी.कुछ छींटे मेरे ऊपर भी पङे.पहले तो जङत्व के कारण मैं आगे निकल गया.फिर मेरा नागरिक बोध चैतन्य हुआ--यह तो सभ्यता के खिलाफ है.सङक पर थूकना मना है.मुझे उसे हङकाना चाहिये.

मैं पहले ही देख चुका था कि साइकिल सवार आजादी के पहले की डिलीवरी है.फटेहाल.अंग्रेजी जानता नहीं होगा.डांटूगा तो 'सारी'भी नहीं बोल पायेगा.वह 'बाबूजी,गलती हो गयी' कहते हुये अपनी सफाई में कुछ अइली-गइली बतियायेगा.मैं उसे शटअप ,नानसेन्स, जाहिल देखकर नहीं थूकते कहकर हङका दूंगा.जहां एक घंटा देर वहां पांच मिनट और सही.पांच महीने की अफसरी ने बुजुर्गों को खाली उमर के चलते आदर देने की भावुकता से मुझे मुक्ति दिला दी थी.मैंने चेहरे पर रोब और आत्म विश्वासलाने के लिये धूप वाला चश्मा लगा लिया.

मैंने उसे रोका.शुरु किया-बुढऊ,देखकर नहीं थूकते.पूरी शर्ट खराब हो गयी.हद है.वह बोला,"बेटा ,तुमका खुदै तमीज नहीं है.पढे-लिखे लागत हो.तुम्हैं बायें ते काटैहै क न चहिये.नियम के खिलाफ है.एक्सीडेन्ट हुइ सकत है.चोट चपेट लागि सकत है.यही लिये हम हमेशा
सङक पर बांयें थूकिति है.कम से कम आगे ते तौ तुम गलत ओवरटेक न करिहौ.

मैं कट कर रह गया.लौट पङा .मुझे लगा,बांये से ओवरटेक रोकने का सबसे सरल उपाय है--"कृपया बायें थूकिये " का प्रचार.थू है बांये से ओवरटेक करने वालों पर.थू है गलत ढंग से छलांग लगाकर आगे निकलने वालों पर.जहां इस तरह का प्रचार हुआ,लोग हिचकेंगे बायेंसे ओवरटेक करने में.खतरा है.खाली थूक हो तो कोई बात नहीं.दाग नहीं पङेगा.पान की पीक,तम्बाकू की पीक,मसाले की पीक का दाग भी नहीं छूटेगा.एक गलत ओवरटेक का दण्ड-एक शर्ट-पैंट.ग्लानि अलग से कि साइकिल ने स्कूटर पर थूका.एक रुपये का नोट सौ रुपये पर थूके.लोग पहले लाखों पर थूकते थे .तो क्या लाखों उन्हें बायें से ओवरटेक करते थे?

'थूककर चाटना'हमारा राष्ट्रीय चरित्र हो या न हो पर ऐसा होने की बात लिखना मेरी भावुक मजबूरी है.राष्ट्र से नीचे किसी अन्य चीज पर मैं कुछ लिख ही नहीं पाता.हर अगले को शिकायत है कि फलाने ने थूक कर चाट लिया. अपने कहे से मुकर गया.वायदा पूरा नहीं किया.

कब्र में लटकाये पीढी और पुराने जमाने के जानकार लोग बताते हैं कि आदमी की बात में वजन नहीं रहा.पहले लोग अपनी बात की आन
रखते थे.भावुक थे.कहकर मुकरना नहीं जानते थे.'आई क्यू' लो था.जिन्दगी भर दुनिया के मदरसे मेंपढकर भी चालाकी का ककहरा न सीख पाते.लोग मर तक जाते थे अपने कहे को पूरा करने के लिये.अब मरना दूर रहा ,कोई बेहोश तक नहीं होता.किसी की जबान का कोई भरोसा नहीं .आज किसी नेता ने कुछ कहा,कल उसका खंडन कर दिया.जरूरत पङी तो खंडन का भी खंडन कर दिया.एक नेताजी ने चुनाव के दौरान वायदा किया कि अगर वह हार गये तो राजनीति छोङ देंगे.हार गये वह.वे मुकर गये अपनी बात से और जनता मजबूरन(बलात)उनसे अपनी सेवा कराने को अभिशप्त है.

कुछ विद्वानों का मत है कि 'थूककर चाटना'वैज्ञानिक प्रगति का परिचायक है.नैतिकता और चरित्र जैसी संक्रामक बीमारियों के डर
से लोग थूककर चाटने से डरते थे.अब वैज्ञानिक प्रगति के कारण इन संक्रामक बीमारियों पर काबू पाना संभव हो गया है.

विकास की हङबङी में सब सर पर पैर रख कर भाग रहे हैं.कोई शानदार स्पोर्ट्स शू में तो कोई चमरौधा में.कोई झकाझक रिन की सफेदी मेंतो कोई पैबंदी धोती समेटते.कोई 'थ्रू प्रापर चैनेल' तो कोई वाया 'इंगलिश चैनेल'.न्यूट्रामूल खाने वाले हेलो-हाय,चिट-चैट करते फुदकते हुये आगे बढ रहे है-विथ स्माइलिंग फेस.सतुआ खाने वाले गिरते,पङते -कौनिउ तरन ते निबाहते .

इसके अलावा एक बहुत बङी भीङ ऐसी भीहै जिसे यह भी नहीं पता कि उसे जाना किधर है.वह हकबकाई सी खङी है,अपनी जगह. इस 'जाहिल 'भीङ को आयोजक मंजिल की तरफ ढकेलते हैं.पर वह वहीं खङी है .आयोजक उसे मवेशी की तरह डिब्बों में ढंूसकर मंजिल तक पहुंचाते हैं.प्रथम आने वाले सम्मान ,पुरुस्कार पा रहे हैं.बाकी को क्रान्तिकारी आयोजन में भागेदारी का संयुक्त प्रमाणपत्र.प्रथम आने वाले वेलडन,कान्ग्रेचुलेशन वगैरह कर रहे हैं. संयुक्त प्रमाणपत्र वाले यहां भी चौंधियाये खङे हैं.उन्हें कुछ पता नहीं कि हुआ क्या है.अपने आसपास उन्हें वही नजार,लोग दिखते हैं जो पहले थे.कुछ नया नहीं मिला उन्हे सिवाय एक संयुक्त सर्टिफिकेट के.भीङ में कुछ लोग प्रतीक्षा में हैं कि कब ये लोग दांत किटकिटा कर बांये से ओवरटेक करने वालों पर थूकते हैं.ये 'कुछलोग' खुद अपना थूक गटक रहे हैं -पता नहीं किस प्रतीक्षा में.

देर काफी हो चुकी है.मेरे पास आफिस की तरफ बढने के अलावा कोई बेहतर विकल्प नहीं है.

Sunday, November 28, 2004

मेरा पन्ना मतलब सबका पन्ना

मैं काफी दिनों से विभिन्न चिट्ठाकारों के चिट्ठों के बारे में लिखने की सोच रहा था.ठेलुहा ,हां भाई, रोजनामचा,मेरा पन्ना.पंकज की मोहनी सूरत और मुस्कान देखकर कौन न मर जाये.इनकी जालिम मुस्कान देखने हम बार-बार चिट्ठाविश्व पर जाते हैं.रोजनामचा में अतुल की फोटो देखकर लगता है किसी फास्ट बालर का बाऊंसर फेकने के तुरंत बाद का पोज है .अवस्थी,जिनका लिखा पढने के लिये हम सबसे ज्यादा उतावले रहते हैं पर जो आलस्य को अपना आभूषण मानते हुये सबसे कम लिखते हैं,के बारे में लिखने को बहुत कुछ है .पर इन महानुभावों को छोङकर मैं शुरुआत मेरा पन्ना के जीतेन्द्र चौधरी से करता हूं .इनकी चाहत भी है कि कोई बंधु इनके लेखों का उल्लेख करके इनके दिन तार दे.हालांकि यह पढकर जब अतुल ने धीरज रखने का उपदेश दिया तो फटाक से अच्छे बच्चों की तरह मान गये.ऐसे अनुशासित बंधुओं की जायज मांगें पूरी होनी चाहिये इस कर्तव्य भावना से पीङित होकर मैं जीतेन्द्र और उनके पन्ने के बारे में लिखने का प्रयास करता हूं.

गोरे ,गोल ,सुदर्शन चेहरे वाले जीतेन्द्र के दोनों गालों में लगता है पान की गिलौरियां दबी हैं.इनके चमकते गाल और उनमें दबी गिलौरी के आभास से मुझे अनायास अमृतलाल नागर जी का चेहरा याद आ गया.आखें आधी मुंदी हैं या आधी खुली यह शोध का विषय हो सकता है.इनकी मूछों के बारे में मेरी माताजी और मेरे विचारों में मतभेद है.वो कहती हैं कि मूछें नत्थू लाल जैसी हैं जबकि मुझे ये किसी खूबसूरत काली हवाई पट्टी या किसी पिच पर ढंके मखमली तिरपाल जैसी लगती हैं.नाक के बारे में क्या कहें ये खुद ही हिन्दी ब्लाग बिरादरी की नाक हैं.

जनसंख्या का समाधान तब तक नही हो सकता, जब तक हम अपनी जिम्मेदारी नही समझेंगे.अभी भी समय है, हम चेते, अन्यथा आने वाली पीढी हमे कभी माफ नही करेगी.(20 सितंबर)से अपने लिखने की शुरुआत की जीतेंन्द्र ने.नियंत्रण जनसंख्या पर होना चाहिये लिखने पर नहीं यह जताते हुये उसी दिन राजनीति पर भी नजर दौङाई और लिखा

इस सरकार मे चार चार PM है....
PM: मनमोहन सिंह जी : जो सिर्फ सुनते है
Super PM: मैडम सोनिया :जो सिर्फ हुक्म सुनाती है
Virtual PM: CPM :जो जल्दी ही सुनाने वाले है.
Ultra PM :ळालू यादव :जो किसी की नही सुनता


अचानक इनको लगा कि अरे हम तो पोस्ट चपका दिये और कारण बताया नहीं सो इन्होंने बताया कि ये लिखते क्यो हैं .

मेरे कुछ मित्रो ने पूछा है कि मेरे को चिट्ठा(Blog) लिखने का शौक क्यो चर्राया, क्या पहले से चिट्ठा लिखने वाले कम थे जो आप भी कूद गये. मेरा उनसे निवेदन है कि इस कहानी को जरूर पढे.ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, जिससे मुझे चिट्ठा लिखने की प्रेरणा मिली.अब मै कहाँ तक सफल हो पाया हूँ, आप ही बता सकते है(21 सितंबर).21 सितंबर का दिन मंगलवार का था. हनुमान की फुर्ती से ये दौङ-दौङ के सबके ब्लाग में गये .तारीफ का तीर चलाया और अपने पन्ने पर आने की सुपारी बांट आये.नये ब्लाग के जन्म से खुश लोग इनके यहां सोहर (नवजात के आगमान पर गाये जाने वाले गीत)गाने इनके पन्ने पर पहुंचे.

1. Welcome to hindi blogdom. Der Aayad durast aayad :)देबाशीष

2.बधाई स्वीकार करो धुंआधार लिखाई के लिये.लिखते रहो .पढने के और तारीफ करने के लिये तो हम हइयैं है.अनूप शुक्ला

3.जीतेंद्र जी,आपके ब्लाग की भाषा तो खालिस कनपुरिया है. बधाई. एक छोटा सी धृष्टता करने के लिए क्षमा कीजियेगा, जनाब आप अपने पुराने अँक वाले लिंक का समायोजन कुछ बेहतर करे , काफी भटकना पड़ता है.महीनेवार क्रम या जैसा मैनें कर रखा है वैसा कर दीजिए|अतुल अरोरा

यहां से शुरु हुआ इनका धुंआधार सफर जारी है यह बात अलग है कि अतुल की चाह पूरी करने का मौका नहीं मिला अभी इन्हें.

खाङी में प्रवासियों की हालत के बाद राजेश प्रियदर्शी के लेख पर नजरें इनायत की इन्होंने.राजेश प्रियदर्शी का लेख सपने,संताप और सवालकाफी चर्चा में रहा.हर चर्चित चीज को किसी फार्मूले में बांधने की अमेरिकी आदत का मुजाहिरा हुआ अतुल के लिटमस टेस्ट में.एक टेस्ट चला तो इन्होंने लगे हाथ दूसराटेस्ट भीउतार दिया बाजार में.कुछ लोग उस टेस्ट से असहमत थे.पर हिट्स के नक्कारखानें में असहमतियां तूतियों की आवाज की तरह पिट गयीं.


कोई भी नही सोचता जो बच्चे स्कूल मे बात कर रहे थे, वो आपके बच्चे भी हो सकते है.कहकर फिर राजनीति, क्रिकेट और कुछ तकनीकी पोस्ट लिखी.सबसे बढिया पोस्ट पहले माह की आयी इनकी आखिरी दिन.क्रिकेट बोर्ड की राजनीति का बयान किया सटीक तरीके से.

अक्टूबर में धुंआधार बैटिंग की गयी.अभी तक स्वागत की कुंकुम रोली के अलावा एक अज्ञात वाह(Exellent) के अलावा टिप्पणी
के स्थान पर सन्नाटा पसरा था.हालात को काबू में लाने कि तमाम सवाल-जवाब जो इनके शर्मीले दोस्त इनसे अकेले में पूंछते हैं वो इन्होने बताये.यौन विषयों के बारे में न लिखने की मजबूरियां भी बतायीं.फिर तोसिलसिला चल निकला.मिर्जा,छुट्टन ,पप्पू,स्वामी के आने से इनके ब्लाग पर चहल-पहल बढी.

अक्टूबर माह में जितेन्दर जी ब्लाग मशीन हो गये.अइसा थोक में लिखा अगर थोङी जहमत उठाई जाये तो अक्टूबर माह में दुनिया में हिन्दी ब्लाग में सबसे ज्यादा शब्द लिखने के लिये गिनीज बुक में नाम छप सकता है.खाली मात्रा ही नहीं पठनीयता की नजर से सारे पोस्ट धांसू रहे.मिर्जा का अवतार हुआ.उनका, गुस्सा दिखा.पंडों की हकीकतबयान की.मिर्जा का हीरोइनों से लगाव पता चला:-

अब जहाँ तक मिर्जा का फिल्मी प्रेम की बात है, वैसे तो मिर्जा की वफादारी किसी एक हिरोइन मे कभी नही रही.. बाकायदा नर्गिस,मीनाकुमारी से लेकर ऐश्वर्या राय,अम्रता राव तक को समान रूप से चाहते रहे , उनके खुशी गम मे हँसे रोय े, ....सिन्सीरियली सब पर पूरा मालिकाना हक जताते रहे,मजाल थी जो हीरो किसी हिरोइन को छू ले..तुरन्त चैनल बदल देते ....शायद मिर्जा की बदौलत ही ऐश्वर्या और सलमान का इश्क परवान नही चढ पाया...

यह पढकर मुझे हास्टल का एक वाकया याद आ गया.एक दिन चित्रहार के दौरान कोई पुराना फिल्मी गाना आ रहा था.किसी जिज्ञासु ने हवा में सवाल उछाला- अबे ये कौन हीरोइन है.एक ने बङी मासूमियत से बताया-पता नहीं यार आजकल हम हीरोइनों के टच में नहीं रहते.

अपने प्रवासी होने को लेकर मिर्जा भावुक हो गये.बोले :-
हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता.

उधर मिर्जा आंखें गीली कर रहे थे इधर मेरे दिमाग में भगवती चरण वर्मा की कविता गूंज रही थी और जिसे मैं चाहता था कि मिर्जा सुन सकें:-

हम दीवानों का हस्ती ,हम आज यहां कल वहां चले,
मस्ती का आलम साथ चला हम धूल उङाते जहां चले.

आंसू पोछने के बाद मिर्जा दावतनामें मे मसगूल हो गये.फिर छुट्टन की शानदार पार्टी हुयी.इसके बाद आया सवाल-जवाब का झांसा.बतया गया:-

जीवन मे हास्य हमारे आस पास फैला रहता है, जरूरत है तो बस उसे देखने की.सुबह सुबह जब नित्य क्रिया मे होते है,तेब आइडिया मिलते है

यहां पर आकर रहा नहीं गया इनसे और सामने आयी बचपन की कुटेव-छुटकी कविता:-

अश्क आखिर अश्क है,शबनम नही
दर्द आखिर दर्द है सरगम नही,
उम्र के त्यौहार मे रोना मना है,
जिन्दगी है जिन्दगी मातम नही


स्वामी का क्रिकेट प्रम और महाराष्ट चुनाव विश्लेषण के लिये ज्यादा सोचना नहीं पङा होगा इनको.कल्पना में किसी पनवाङी क ेयहां खङे हो गये होंगे थोङी देर और दो धांसू पोस्ट चिपका दी.

पप्पू भइया की इन्डिया ट्रिप के बहाने बताये प्रवासियों के वो कष्ट जो वे झेलते हैं वतन आने पर.इन कष्टों का मुझे तो अन्दाज नहीं पर जब सीसामऊ मोहल्ले में पप्पू के घर वालों से बात की तो उनके भी कुछ कष्ट पता चलेे.कुछ निम्न हैं:-

1.पप्पू के घर वाले अभी तक उस जनरेटर और एअर कंडीशनर का किराया किस्तों में चुका रहे है जो उन्होने पप्पू के आने पर लगवायेथे.

2.पप्पू के दोस्त अभी भी इस आशा में है कि पप्पू से उनको वो पैसे वापस मिल जायेंगे जो उन्होंने भारतीय मुद्रा उपलब्ध न होने के बहाने
मासूमियत से लिये थे तथा बाद में उसी तरह भूल गये जैसे दुश्यंत शकुन्तला को भूल गये थे.यह सुनकर उन मित्रों का जी और धुक-पुक कर रहा है जिनको यह पता चल चुका है कि पप्पू भइया को दूसरों से लिये पैसे के बारे में याद नहीं रहता .

३.पप्पू भइया के घर के बाहर चाय वाला अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि उनके आने पर जो चाय पिलाईं उसने उनको वो पप्पू के
शाश्वत खाते में डाले या बट्टे खाते में.

इसके अलावा भी कुछ बातें वो बताने जा रहे थे तब तक किसी बुजुर्ग ने टोंक दिया -क्या फायदा रोने-गाने से ? लङका जब प्रवासी हो गया तो यह सब तो झेलना ही पङेगा.

आह क्रिकेट-वाह क्रिकेट के बाद लिखा गया मोहल्ले का रावण.यह मेरे ख्याल से मेरा पन्ना की सबसे बेहतरीन पोस्ट है.चुस्त कथानक,
सटीक अंदाज .पर यहां भी जितेन्दर बेदर्द लेखक रहे.वर्मा जी की बिटिया को कुंवारा छोङ दिया.मैंने पूंछा तब भी अभी तक कहीं गठबंधन नहीं कराया अभी तक.अतुल ने बताया कि सबसे हंसोङ ब्लाग है यह.

अंग्रेजी,हिंन्दी के बाद फिर हुआ सिन्धी ब्लाग का पदार्पण.अब फोटो ब्लाग भी आ गया है.जितेन्दर की लिखने इस क्षमता देखकर मुझे
जलन होती है उनसे.इसी दौङधूप नुमा अंदाज के लिये मनोहर श्याम जोशी ने लिखा है-ये मे ले ,वो मे ले वोहू मे ले(इसमें लो,उसमें लो उसमें भी लो)

नवंबर माह में कुवैत में जाम और बिजली गुल के वावजूद लिखा.देह के बारे में फिर भारतीय संस्कृति के बारे में.चौपाल पर चर्चा हो चुकी
है इनकी.क्रिकेट के बारे में तो मेरा पन्ना बहुत उदार है.अक्सर कृपा कर देते हैं.विधानसभा में चप्पलबाजी पर जब लिखा तो मुझे लगा कि
शायद ये नेताओं की पीङा नहीं समझ पा रहे हैं.आखिर कब तक नेतागुंडे के भरोसे रहेगा? गुंडागर्दी में आत्मनिर्भरता की तरफ कदम है यह मारपीट.

मुझे धूमिल की कविता अनायास याद आ गयी:-

हमारे देश की संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
आधा पानी है.

मेरा पन्ना में जब धुंआधार बैटिंग शुरु हुयी तो अंग्रेजी के वो शब्द मुझे अखरते थे जिनके प्रचलित हिंदी शब्द मौजूद हैं.इसके अलावा हर दूसरे वाक्य के बाद की बिन्दियां(.....)मुझे अखरती थीं.अब जब मैं सोचता हूं लो लगता है कि ये बिन्दियां उन तिलों की तरह हैं जो खूबसूरती में इजाफा करते हैं.पर यह सोच के डर भी लग रहा है कि ं यह पढकर चौधरी जी कहीं ज्यादा खूबसूरती के लालच में न पङ जायें.

मेरा पन्ना के लेखक की टिप्पणियों का रोचक इतिहास है.टिप्पणी को इन्वेस्टमेंट मानने वाले जीतू तारीफ में कंजूस नहीं है.शुरुआत में जो उदासीन टिप्पणी शून्य दौर झेला है इन्होंने ये नहीं चाहते कि कोई नया चिट्ठाकार वैसा अकेलापन झेले.अक्सर यह भी हुआ कि ब्लाग अभी मसौदा स्थिति (Draft Stage)में है पर उधर से जीतेन्द्र की वाह-वाह चली आ रही है.कई बार ऐसा हुआ टिप्पणी के मामले में कि
क्रिकेट कमेंन्टेटर की भाषा में कहें तो उसमें उत्साह अधिक और विश्वास कम था.अइसी जगहों में ये मेरा मतलब यह था या यह नहीं था कहकर
बचने की कोशिश करते हैं पर अम्पायर कब तक संदेह का लाभ देगा.

हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह सलाह उछाल दो कि ब्लाग लिखने मे भले दिमाग का इस्तेमाल न करें पर टिप्पणी करते समय ध्यान रखना चाहिये.पर जब हमें याद आया कि ये महाराज तो ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व जैसा कुछ लिख चुके हैं तब लगा बूढे तोते को राम-राम सिखाना ठीक न होगा.

यहां तक मामला ठीक था अब हमें लग रहा है कि थोङा ब्रम्हास्त्र का उपयोग जरूरी हो गया है.हिंदी चिटठा संसार में जीतेन्द्र के पन्ने का उदय धूमकेतु की तरह हुआ और छा गया.नयी चीजों को सीखने और अपनाने की ललक काबिले तारीफ है.जितेन्द्र का मेरा पन्ना हमारा ऐसा ही एक खूबसूरत पन्ना है .आशा है कि जीतेन्द्र तारीफ का बुरा नहीं मानेंगे.

लगातार अच्छा लिखते रहने के लिये जीतेन्द्र को मेरी मंगलकामनायें.













Thursday, November 25, 2004

आत्मनिर्भरता की ओर

लिखने के तमाम बहानों का इस बीच खुलासा हो चुका है.एक और कारण श्रीलाल शुक्ल जी ने अपने एक लेख(मैं लिखता हूं इसलिये कि...)में बताया है:-

"लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है.आपने गांव की सुंदरी की कहानी सुनी होगी .उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फटकार लगाई तो उसने धीरे से समझाया-'क्या करूं बहन,जब लोग इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकङ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे नहीं नहीं करते बनती.तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है.सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं तो कागज पर अच्छी रचना भले न उतरे ,वहां मुरव्वत की स्याही तो फैलती ही है."

अब जब मैंने यह पढा तो मेरी इस शंका का समाधान भी हो गया कि ठेलुहा नरेश तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के बहाने केजी गुरु की तरफ काहे लपकते हैं.तथाकथित इसलिये लिखा क्योंकि जितना ज्ञान केजी गुरु से ये पाने की बात करते हैं उतना तो ये गुरुग्रह की तरफ लपकते हुये हर सांस में बाहर फेंक देते हैं प्रकृति की गोद में बिना पावती रसीद (acknowledgement)लिये.

हम अड्डेबाजी की असलियत जानने के लिये अपने उन आदमियों को लगा दिये जो वैसे तो किसी के नहीं होते पर लफङा अनुसंधान के लिये सारी दुनिया के होते हैं.जो रिपोर्ट मिली उसके अनुसार दो कारण समझ में आये अड्डेबाजी के:-

1.गुरुपत्नी का गुरु के साथ व्यवहार से उनको (ठेलुहा नरेश को)यह सुकून मिलता है कि ऐसा दुनिया मे सब पतियों के साथ होता है अकेले उन्हीं के साथ नहीं.

2.गुरुपत्नी से मिली तारीफ उनको यह खुशफहमी पालने का मौका देती है कि उनमें कुछ खास है जो दूसरों में नहीं.

दुनिया के सारे पति बराबर होते हैं पर कुछ पति ज्यादा बराबर होते हैं का झुनझुना थमा देती है केजी गुरु के घर की हर विजट इन्हें .इस मुरव्वत की चाहना में अपने मन की आवाज को अनसुना करके लपकते हैं ये तथाकथित ज्ञान की तलाश में.

हम भी मुरव्वत के मारे हैं.लोगों की तारीफ को सच मानकर या फिर जवाबी कीर्तन के फेर में पङकर हम जो लिख गये उसको जितनी बार हम पढते हैं उतनी बार गलतफहमी का शिकार होते हैं.हर बार मुग्धा नायिका की स्थिति को प्राप्त होते हैं जो अपने सौंदर्य पर खुद रीझती है. मुग्ध होती है खुद अपनी खूबसूरती के ऊपर .मेरे लिखे की तारीफ जब कोई करता है तो लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितना लोग बताते हैं.अभी भी दुनिया में गुणग्राहकों की कमी नही है.

मेरे मित्र नीरज केला के पिताजी कहते हैं -" तारीफ दुनिया का सबसे बङा ब्रम्हास्त्र है.इसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.इसका वार कभी बेकार नहीं जाता सिर्फ आपको इसके प्रयोग की सही विधि पता होना चाहिये."

इस सूत्र वाक्य की सत्यता मैं कई बार परख चुका हूं.हर बार यह खरा उतरा.जिन अवसरों पर यह विफल रहा वहां खोज करने पर पता चला कि प्रयोगविधि में दोष था.सही विधि वैसे तो 'गूंगे का गुङ' है फिर भी बताने का प्रयास करता हूं.

आमतौर पर जिन गुणों की समाज में प्रतिष्ठा है वे आंख मींच कर किसी पर भी आरोपित कर दिये जायें तो उस 'किसी भी' का प्रभावित होना लाजिमी है.किसी भी महिला को खूबसूरत ,बुद्धिमती, पुरुष को स्मार्ट ,बुद्धिमान आदि कह दें तो काम भर का काम तो हो ही जाता है.कुछ लोग दूसरे गुणों की तारीफ भी चाहते हैं.इसमें सारी कलाकारी इस बात पर निर्भर करती है कि आप यह जान सकें कि तारीफ किस चीज की चाही जा रही है.चाहने और करने में जितना साम्य होगा ब्रम्हास्त्र का असर उतना ही सटीक होगा.जितना अंतर होगा मांग और पूर्ति में उतना ही कम असर होगा तारीफ का.

गङबङी तब होती है जब आप किसी सुंदरी की तारीफ में कसीदे काढ रहे होते हैं और वह चातक की तरह आपके मुंह की तरफ इस आशा से ताकती रहती है कि आप उसकी उस बुद्धि की तारीफ करें जिसने उस पर स्पर्श रेखा(Tangent) तक नहीं डाली.किसी कूढमगज व्यक्ति की स्मार्टनेस के बारे में कहे हजारों शब्द बेकार हैं अगर आपको उसकी इस इच्छा का पता नहीं कि वह अपनी त्वरित निर्णय क्षमता को अपना खास गुण मानता है.

देखा गया है कि लोग अपने उन गुणों की तारीफ के किये ज्यादा हुङकते हैं जो उनमें कम होता है या कभी-कभी होता ही नहीं.

तारीफ के इस हथियार की मारक क्षमता दोगुनी करने भी तरीके हैं.एक राजा के दरबार में एक कवि के किसी जघन्य अपराध की सजा मौत सुनायी गयी.राजा के मंत्री ने कहा-महाराज इसके अपराध की तुलना में मौत की सजा कम है.इसे और बङी सजा मिलनी चाहिये.राजा बोला-मौत से बङी और क्या सजा हो सकती है?मंत्री ने कहा -महाराज, हो सकती है.इस कवि के सामने दूसरे कवि कीतारीफ की जाये .यह सजा मौत की सजा से भी बङी सजा है किसी कवि के लिये.

आज का समय आत्म निर्भरता का है.हर समझदार अपने कार्यक्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करता है.नेता अब चुनाव जीतने के लिये गुंडे के भरोसे नहीं बैठा रहता.खुद गुंडागर्दी सीखता है ताकि किसी के सहारे न रहे. नेतागिरी केविश्वविद्धालयमें प्रवेश के लिये गुंडागर्दी के किंडरगार्डन की शिक्षा जरूरी हो गयी है.

आत्मनिर्भरता की इसी श्रंखला की एक कङी है-अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता(self reliance in self praise).लोग अब गुणग्राहक की प्रतीक्षा में अहिल्या की तरह राम का इंतजार नहीं करते.अपनी तारीफ खुद करना आज के सक्षम व्यक्ति का सबसे बङा हथियार है. मेरे एक मित्र अपना सारा समय यह बताने में गुजारते हैं कि उन्होने अपनी जिंदगी में कितने तीर मारे.चालीस साल का आदमी अपने पांच साल के कुछ कामों का बखान पूरे साठ साल करता है.खाली आत्मप्रसंशा को अपना पराक्रम समझता है.मैं डरने लगा हूं उसके पास जाने में.पर वह भी चालाक हो गया है.देखता हूं कि अपनी तारीफ का मंगलाचरण (शुरुआत)अब वह मेरी तारीफ से करता है.मैं मुरव्वत का मारा फिर सुनने पर मजबूर हो जाता हूं उसकी आत्मप्रसंशा.

किसी व्यक्ति की अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की मात्रा उसके नाकारेपन की मात्रा की समानुपाती होती है.जो जितना बङा नाकारा होगा वह अपनी तारीफ में उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होगा.

इस कङी में तमाम बातें उदाहरण हैं.देखा गया है कि गंुडे अपनी शराफत की,बेईमान अपनी ईमानदारी की , हरामखोर अपनी कर्तव्य निष्ठा की तारीफ करते रंगे हाथ पकङे जाते है. सच्चा ज्ञानी अपने ज्ञान की ध्वजा नहीं फहराता .लोग खुद उसके मुरीद होते जाते हैं.बुद्धिमान अपनी बुद्धि की तारीफ में बुद्धि नहीं खराब करता.जब इन गुणों का अभाव होता है तो लोग क्षतिपूर्ति के लिये तारीफ में आत्मनिर्भरता की डगर पर कदम रखते हैं.जैसे बुढापे में लोग वियाग्रा का प्रयोग करने लगते हैं.जवान लोगों को वियाग्रा की जरूरत नहीं पङती.

आज जब मैं यह लिख रहा था तो एक मित्र का फोन आ गया.मैंने उनको अपने सारे पुराने लेख पढ कर सुनाने शुरु किये.कुछ देर बाद मेरे लङके ने टोका -पापा आप फोन हाथ में किये क्यों पढ रहे है ? मैंने बताया फोन पर अपने दोस्त को अपना लिखा सुना रहा हूं.उसके पास पीसी नहीं है.मेरे लङके ने बताया -पर फोन तो मेरे दोस्त का आया था.आधा घंटा पहले.मैंने पैरालल(समातंर)लाइन पर बात करके फोन रख दिया था.मैंने देखा फोन जिसको मैं हाथ में पकङे था उसमें डायलटोन बज रही थी.

मुझे लगा हम मुग्धानायिका की स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं.

मेरी पसंद

आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.

बहके हुये समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पङे हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकङे.


अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊंचे भाव चढे.

नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुये मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगङे

आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भारी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.

कन्हैयालाल नंदन

Thursday, November 18, 2004

कविता का जहाज और उसका कुतुबनुमा

हम कल से अपराध बोध के शिकार हैं.अलका जी की कविता जहाज पर हमारी टिप्पणी के कारण पंकज भाई जैसा शरीफ इंसान चिट्ठा दर चिट्ठा टहल रहा है.कहीं माफी मांग रहा है.कहीं अपने कहे का मतलब समझा रहा है. हमें लगा काश यह धरती फट जाती .हम उसमें समा जाते.पर अफसोस ऐसा कुछ न हुआ.हो भी जाता तो कुछ फायदा न होता काहे से कि जब यह सुविचार मेरे मन में आया तब हम पांचवीं मंजिल पर थे.फर्श फटता भी तो अधिक से अधिक चौथी मंजिल तक आ पाते.धरती में समाने तमन्ना न पूरी होती.

अपराध बोध दूर करने का एक तरीका तो यह है कि क्षमायाचना करके मामला रफा-दफा कर लिया जाये.शरीफों के अपराधबोध दूर करने का यह शर्तिया इलाज है.पर यह सरल-सुगम रास्ता हमारे जैसे ठेलुहा स्कूल आफ थाट घराने के लोगों को रास नहीं आता.जहां किसी भी अपराधबोध से मुक्ति का एक ही उपाय है,वह है किसी बङे अपराधबोध की शरण में जाना(जैसे छुटभैये गुंडे से बचाव के लिये बङे गुंडे की शरण में जाना) ताकि छोटा अपराधबोध हीनभावना का शिकार होकर दम तोङ दे.

चूंकि सारा लफङा कविता के अनुवाद में कमी बताने को लेकर रहा सो अपराधबोध से मुक्ति के उपाय भी कविता के आसपास ही मिलने की संभावना नजर आयी.कुछ उपाय जो मुझे सूझे :-

1.कविता का और बेहतर अनुवाद किया जाये.

2.एक धांसू कविता अंग्रजी में लिखी जाये.

3.एक और धांसू तारीफ की टिप्पणी कविता के बारे में की जाये.

4.कविता के दोष खोजे-बताये जायें.

पहले तीनों उपाय हमें तुरन्त खारिज कर देने पङे.दीपक जी ने कविता के अनुवाद को बेहतर करने की कोई गुंजाइश छोङी नहीं हमारे लिये. अंग्रेजी हमारी हमीं को नहीं समझ आती तो दूसरे क्या बूझेंगे हमारी अंग्रजी कविता. टिप्पणी वैसे ही 29 हो चुकीं कविता पर अब 30 वीं करने से क्या फायदा?सिवाय संख्या वृद्धि के.इसलिये कविता में कमी बताने का विकल्प हमें सबसे बेहतर लगा.चूंकि कविता की तारीफ काफी हो चुकी इसलिये संतुलन के लियेआलोचना भी जरूरी है.(जैसा मकबूल पिक्चर में ओमपुरी कहते हैं).'द शिप' कविता एक प्रेम कविता है.इसकी पहली दो लाइने हैं:-

बाहों के उसके दायरे में
लगती हूँ,ज्यूँ मोती सीप में

इसके अलावा कविता में कश्ती,साहिल,सीना,धङकन,जलते होंठ,अनंत यात्रा जैसे बिम्ब हैं जो यह बताते हैं कि यह एक प्रेम कविता है.अब चूंकि इसकी तारीफ बहुत लोग कर चुके हैं सो हम भी करते हैं(खासतौर पर यात्रा ही मंजिल है वाले भाव की).आलोचना की शुरुआत करने का यह सबसे मुफीद तरीका है.

कविता की दूसरी पंक्ति का भाव पूरी कविता के भाव से मेल नहीं खाता.बेमेल है यह.पूरी कविता प्रेम की बात कहती है.प्रेम ,जिसमें सीना,धङकन,जलते होंठ हैं ,दो युवा नर-नारी के बीच की बात है.जबकि दूसरी पंक्ति (सीप में मोती)में मां-बेटी के संबंध हैं.सीप से मोती पैदा होता है.यह संबंध वात्सल्य का होता है.हालांकि प्रेमी -प्रेमिका के बीच वात्सल्य पूर्ण संबंधपर कोई अदालती स्टे तो नहीं है पर बाहों के घेरे में जाकर वात्सल्य की बात करना समय का दुरुपयोग लगता है.खासकर तब और जब आगे सीना,साहिल,गर्म होंठ जैसे जरूरी काम बाकी हों.

चूंकि अलका जी ने यह कविता जो मन में आया वैसा लिख दिया वाले अंदाज में लिखी है.स्वत:स्फूर्त है यह.ऐसे में ये अपेक्षा रखना ठीक नहीं कि सारे बिम्ब ठोक बजाकर देखे जायें.पर यह कविता एक दूसरे नजरिये से भी विचारणीय है.अलका जी की कविता के माध्यम से यह पता चलता है कि आज की नारी अपने प्रेमी में क्या खोजती है.वह आज भी बाहों के घेरे रहना चाहती है और सीप की मोती बनी रहना चाहती है. पुरुष का संरक्षण चाहती है.उसकी छाया में रहना चाहती है.यह अनुगामिनी प्रवृत्ति है.सहयोगी, बराबरी की प्रवृत्ति नहीं है.

इस संबंध में यह उल्लेख जरूरी है आम प्रेमी भी यह चाहता है कि वह अपनी प्रेमिका को संरक्षण दे सके.इस चाहत के कारण उन नायिकाओं की पूंछ बढ जाती जो बात-बात पर प्रेमी के बाहों के घेरे में आ जायें और फिर सीने में मुंह छिपा लें.अगर थोङी अल्हङ बेवकूफी भी हो तो सोने में सुहागा.अनगिनत किस्से हैं इस पर. फिल्म मुगलेआजम में अनारकली एक कबूतर उङा देती है.सलीम पूछता है-कैसे उङ गया कबूतर ?इस पर वह दूसरा कबूतर भी उङाकर कहती है -ऐसे.अब सलीम के पास कोई चारा नहीं बचता सिवाय अनारकली की अल्हङता पर फिदा होने के.

मेरे यह मत सिर्फ कविता 'द शिप' के संदर्भ में हैं.अलका जी के बारे में या उनकी दूसरी कविताओं के संबंध में नहीं हैं.आशा है मेरे विचार सही संदर्भ में लिये जायेंगे.

यह लिख कर मैं पंकज जी के प्रति अपराध बोध से अपने को मुक्त पा रहा हूं.बङा अपराध कर दिया .बोध की प्रतीक्षा है.

मेरी पसंद

(कच-देवयानी प्रसंग)

असुरों के गुरु शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती आती थी.इसके प्रयोग से वे देवता-असुर युद्ध में मरे असुरों को जिला देते थे.इस तरह असुरों की स्थिति मजबूत हो रही थी .देवताओं की कमजोर.देवताओं ने अपने यहां से कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिये भेजा.कच नेअपने आचरण से शुक्राचार्य को प्रभावित किया और काफी विद्यायें सीख लीं.

असुरों को भय लगा कि कहीं शुक्राचार्य कच को संजीवनी विद्या भी न सिखा दें.इसलिये असुरों ने कच को मार डाला. इस बीच शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी कच को प्यार करने लगी थी .सो उसके अनुरोध पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को जीवित कर दिया.असुरों ने कच से छुटकारे का नया उपाय खोजा. शुक्राचार्य को शराब बहुत प्रिय थी.असुरों ने कच को मार कर जला दिया और राख को शराब में मिलाकर शुक्राचार्य को पिलादिया.कच ने शुक्राचार्य के मर्म में स्थित संजीवनी विद्या ग्रहण कर ली और पुन: जीवित हो गया.

जीवित होने के बाद देवयानी ने अपने प्रेम प्रसंग को आगे बढाना चाहा.पर कच ने यह कहकर इंकार कर दिया --मैं तुम्हारे पिता के उदर(पेट) में रहा अत: हम तुम भाई-बहन हुये .इसलिये यह प्रेम संबंध अब अनुचित है.यह कहकर कच संजीवनी विद्या के ज्ञान के साथ देवताओं के पास चला गया.

बाद में देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ.

(संदर्भ-ययाति.लेखक-विष्णु सखाराम खाण्डेकर)










































































































































Sunday, November 14, 2004

`भारतीय संस्कृति क्या है

Akshargram Anugunj


जबसे पंकज ने पूंछा-भारतीय संस्कृति क्या है तबसे हम जुट गये पढने में.सभ्यता,संस्कृति क्या है .भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में जितना इन दो दिनों में हम पढ गये उतना अगर हम समय पर पढ लिये होते तो शायद आज किसी वातानुकूलित मठ में बैठे अपना लोक और भक्तों का परलोक सुधार रहे होते.पर क्या करें जब भक्तों का परलोक सुधरना नहीं बदा है उनके भाग्य में तो हम क्या कर सकते हैं?

संस्कृति की बात करें तो सभ्यता का भी जिक्र आ ही जाता है.सभ्यता और संस्कृति की परस्पर क्रिया -प्रतिक्रिया होती है और दोनो एक-दूसरे को प्रभावित भी करती हैं.

यह माना जाता है कि सभ्यता बाहरी उपलब्धि है और संस्कृति आन्तरिक.मनुष्य ने अपने सुख-साधन के लिये जो निर्मित किया वह सभ्यता है.इसमें मकान से लेकर महल और बैलगाङी से लेकर हवाईजहाज हैं.सुख की सामग्री है.

परंतु मनुष्य केवल बाहरी सुख-साधनों से संतुष्ट नहीं होता.वह मंगलमय जीवन मूल्यों को ग्रहण करना चाहता है.दया,प्रेम,सहानुभूति तथा दूसरे की मंगलकामना है.यह उदात्त है .इसमें सौन्दर्य की चाह है.यह संस्कृति है.

नेहरूजीने लिखा है-संस्कृति की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती.संस्कृति के लक्षण देखे जा सकते हैं.हर जाति अपनी संस्कृति को विशिष्ट मानती है.संस्कृति एक अनवरत मूल्यधारा है.यह जातियों के आत्मबोध से शुरु होती है और इस मुख्यधारा में संस्कृति की दूसरी धारायें मिलती जाती हैं.उनका समन्वय होता जाता है.इसलिये किसी जाति या देश की संस्कृति उसी मूल रूप में नहीं रहती बल्कि समन्वय से वह और अधिक संपन्न और व्यापक हो जाती है.

भारतीय संस्कृति के बारे में जब बात होती है तो उसकी प्रस्तावना काफी कुछ इस श्लोक में मिलती है:-

सर्वे भवन्ति सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत्.

सब सुखी हों,सभी निरोग हों,किसी को कोई कष्ट न हो.यह लोककल्याण की भावना भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व है.पर देखा जाये तो सभी संस्कृतियां किसी न किसी रूप में लोककल्याण की बात करती हैं.फिर ऐसी क्या विशेष बात है भारतीय संस्कृति में?नेहरूजी अनुसार -समन्वय की भीतरी उत्सुकता भारतीय संस्कृति की खास विशेषता रही है.

आर्य जब भारत आये तो वे विजेता थे.तब यहां द्रविङ(उन्नत सभ्यता)और आदिवासी (आदिम अवस्था)थे.समय लगा पर आर्यों-द्रविङों में समन्वय हुआ .दोनों ने एक दूसरे के देवताओं और अनेक दूसरे तत्वों को अपना लिया.समन्वय की यह परंपरा तब से लगातार कायम है.तब से अनेक जातियां भारत आईं.कुछ हमला करने और लूटने और कुछ यहीं बस जाने.कुछ व्यापार के बहाने आये तो कुछ ज्ञान की खोज में. ग्रीक, शक, हूण, तुर्क, मुसलमान,अंग्रेज आदि -इत्यादि आये.रहे.कुछ लिया,कुछ दिया.कुछ सीखा कुछ सिखाया.जो आये वे यहीं रह गये.किसी जाति में समा गये.

जिस समय मारकाट चरम पर था उसी समय सूफी-संत प्रेम की अलख जगा रहे थे.धार्मिक कट्टरता को मेलजोल, भाईचारे,मानवतावाद , सदाचरण में बदलने की कोशिश की.अमीर खुसरो ने फारसी के साथ भारतीय लोक भाषा में लिखा:-

खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग,
तन मेरो मन पीउ को दोऊ भये एक रंग.

यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.यह वास्तव में लोक संस्कृति है.वह लोक में पैदा होती है और लोक में व्याप्त होती है.यह सामान्य जन की संस्कृति होती है-मुट्ठी भर अभिजात वर्ग की दिखावट नहीं.

जब संस्कृतियों की बात चलती है तो उनके लक्षणों की तुलना होती है.कहते हैं भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति है जबकि पश्चिमी संस्कृति भोग की संस्कृति है.लोककल्याण की भावना हमारी विशेषता है, आत्मकल्याण की भावना उनकी आदत.यह सरलीकरण करके हम अपनी संस्कृति के और अपने को महान साबित कर लेते हैं. स्वतंत्रता,समानता और खुलापन पश्चिमी संस्कृति के मूल तत्व है.हमारे लिये ये तत्व भले नये न हों पर जिस मात्रा में वहां खुलापन है वह हमें चकाचौंध और नये लोगों को शर्मिन्दगी का अहसास कराता है-क्या घटिया हरकतें करते हैं ये ससुरे.फिर कालान्तर में वही घटिया हरकतें पता नही कैसे हमारी जीवन पद्धति बन जाती है ,पता नहीं चलता.इस आत्मसात होने में कुछ तत्वों का रूप परिवर्तन होता है.यही समन्वय है.तो देखा जाये तो हर संस्कृति में समन्वय की भावना रहती है.

अमेरिका की तो सारी संस्कृति समन्वय की है.पर मूल तत्व की बात करें तो यह दूसरों के प्रति असहिष्णुता की संस्कृति है.अमेरिका में जब अंग्रेज आये तो यहां के मूल निवासियों (रेड इंडियन) को मारा,बरबाद कर दिया. रेड इंडियन उतने सक्षम ,उन्नत नहीं थे कि मुकाबला कर पाते (जैसा भारत में द्रविङों ने आर्यों का किया होगा). मिट गये.यह दूसरों के प्रति सहिष्णुता का भाव अमेरिकी संस्कृति का मूल भाव हो गया. जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है यह अपने विरोध सहन न कर पाने की कमजोरी है.यह डरे की संस्कृति है .जो डरता है वही डराता है.

यह छुई-मुई संस्कृति है.हजारों परमाणु बम रखे होने बाद भी जो देश किसी दूसरे के यहां रखे बारूद से होने के डर से हमला करके उसे बरबाद कर दे.उससे अधिक छुई-मुई संस्कृति और क्या हो सकती है?

भोग की प्रवत्ति के बारे में तो लोग कहते हैं भोग की बातें वही करेंगे जिनका पेट भरा हो.जो सभ्यतायें उन्नत हैं .रोटी-पानी की चिन्ता से मुक्त है जो समाज वो भोग की तरफ रुख करेगा.रोमन सभ्यता जब चरम पर थी तो वहां लोग गुलामों(ग्लैडियेटर्स)को तब तक लङाते थे जब तक दो गुलामों में से एक की मौत नहीं हो जाती थी. रोमन महिलायें नंगे गुलामों को लङते मरते देखती थीं.इससे यौन तुष्टि ,आनन्द प्राप्त करती थीं.सभ्यता के चरम पर यह रोम की संस्कृति के पतनशील तत्व थे.बाद में उन्हीं गुलामों ने रोम साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया.

खुलेपन के नामपर नंगापन बढने की प्रवत्ति के बारे में रसेल महोदय ने कहा है:-जब कोई देश सभ्यता के शिखर पर पहुंच जाता है तब उस देश की स्त्रियों की काम- लिप्सा में वृद्धि होती है और इसके साथ ही राष्ट्र का अध:पतन प्रारम्भ हो जाता है.इस समय अमेरिकन स्त्रियों में यह काम-लोलुपता अधिक दृष्टिगोचर होती है और 35 से 40 वर्ष की अवस्था की अमेरिकन स्त्री वेश्या का जीवन ग्रहण करना चाहती है ,जिससे उसकी कामपिपासा शान्त हो सके.

हम खुश हो के सारे विकसित देशों के लिये कह सकते हैं- इसकी तो गई.पर हम अपने यहां देखें क्या हो रहा है.हम पुराने आदर्शों को नये चश्में से देख रहे है.तुलसीदास ने उत्तम नारी के गुण बताये हैं:-

उत्तम कर अस बस मन माहीं,
सपनेंहु आन पुरुष जग नाहीं .

उत्तम नारी सपने में भी पराये पुरुष के बारे में नहीं सोचती. आज की जरूरतें बदली हैं.लिहाजा हमने इस चौपाई का नया अर्थ ले लिया(उत्तम नारी के लिये सपने में भी कोई पुरुष पराया नहीं होता).पंजाब में लोगों ने इस समस्या का और बेहतर उपाय खोजा.महिलाओं की संख्या ही कम कर दी.न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. महिलायें रहेंगी ही नहीं तो व्यभिचार कहां से होगा.प्रिवेन्शन इज बेटर दैन क्योर.

रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी कविता भरत तीर्थ में कहा है-भारत देश महामानवता का पारावार है.यहां आर्य हैं,अनार्य हैं,द्रविङ हैं और चीनी वंश के लोग भी हैं.शक,हूण,पठान और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आये और सब के सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गये.

यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.


मेरी पसंद

आधे रोते हैं ,आधे हंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं

कृपा है ,महाकाल की

आधे मानते हैं,आधा
होना उतना ही
सार्थक है,जितना पूरा होना,

आधों का दावा है,उतना ही
निरर्थक है पूरा
होना,जितना आधा होना

आधे निरुत्तर हैं,आधे बहसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं

कृपा है ,महाकाल की


आधे कहते हैं अवन्ती
उसी तरह आधी है
जिस तरह काशी,

आधे का कहना है
दोनों में रहते हैं
केवल प्रवासी
दोनों तर्कजाल में फंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं

हंसते हैं
काशी के पण्डित अवन्ती के ज्ञान पर
अवन्ती के लोग काशी के अनुमान पर

कृपा है ,महाकाल की.

--श्रीकान्त वर्मा