Friday, July 18, 2025

भुल्लकड़ी के बहाने

कल रात देर तक बारिश हुई। तेज बारिश। सुबह -सुबह कालोनी के सारे ब्लॉक धुले-धुले लगे। ऐसा लगा उनको धोकर सुखाने के लिए टाँग दिया गया हो। मकानों के फोटो लेते हुए सोचा कि क्या पता उनको भी बुरा लगता हो कि बिना पूछे उनके फोटो ले लेते हैं लोग। क्या पता कोई ब्लॉक यह सोचकर भी एतराज करता हो कि ख़ुद तो कपड़े पहनकर घूमते हैं , हमको बिना कपड़े खड़ा रखते हैं जालिम इंसान लोग। हो सकता है इस पर कोई दूसरा ब्लॉग उसको समझाता हो -"अरे हमारे ऊपर ये प्लास्टर, पेंटिंग ही तो हमारे कपड़े हैं।" 

बगल के स्कूल में लोग अपने बच्चों को भेजने के लिए आते दिखे। हर दूसरा बच्चा कार से आता दिखा। कारों की भीड़ स्कूल के सामने, गली में हर जगह है। सड़क पर कारों का जाम सा लग गया। 

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार हजारों स्कूल बंद कर दिए। कारण बताया गया कि स्कूल में बच्चे नहीं हैं। क्या पता सरकार आने वाले समय में संभावित जाम से बचने के लिए स्कूल बंद करा रही हो। सरकारें वैसे भी बहुत दूरदर्शी होती हैं। 

टहलते हुए अक्सर दोस्तों, साथ काम करने वालों और सीनियरों से बात हो जाती है। हाल-चाल पता हो जाते हैं। पुराने लोगों से बात करते हुए उनसे पुरानी यादें साझा होती हैं, नयी जुड़ती हैं। जिनसे भी हमारे संबंध रहते हैं उनसे जुड़ी कुछ यादें हमारे ज़ेहन में होती हैं, कुछ अच्छी, कुछ बुरी। जिन लोगों के साथ केवल खराब यादें ही जुड़ी होती हैं आम तौर पर हम उनसे बाद में भी संबंध नहीं रखना चाहते। जिनसे संबंध बने रहते हैं उनसे जुड़ी कोई न कोई याद होती है जिसका जिक्र करके बात आगे बढ़ती है। कई बार दो मित्र एक-दूसरे को अलग-अलग यादों के सहारे याद करते हैं। 

घूमते हुए उसी पैदल ब्रिज पर आए जिस पर रात भी चढ़े थे। उसी जगह पर खड़े होकर आती-जाती गाड़ियाँ देखीं जहाँ से कल देख रहे थे। सड़क वही थी लेकिन सुबह का नजारा रात के नजारे से अलग था। जो गाड़ियाँ कल आती-जाती दिखीं थीं आज वाली उनसे अलग होंगी। कुछ देर गाड़ियों को देखने के बाद नीचे उतर आए।

तिराहे पर जहाँ कबूतर बैठते हैं कुछ लोग दाना डाल रहे थे। लेकिन कबूतर वहाँ नहीं थे। वे वहीं पास ही ऊपर की रेलिंग पर बैठे थे। सुबह का नाश्ता करने के बाद उनका पेट भरा था शायद इसीलिए वे दाने को देखते हुए भी आराम से ऊपर ही बैठे रहे। इंसान और जानवर यही अंतर होता है। कबूतर की जगह इंसान होते तो दाने समेट के अंदर रख लेते। आगे काम आयेंगे, सोचते हुए।

पार्क के पास एक दुकान में हर सब्जी/फल के दाम लिखे दिखे। पहली दुकान देखी जहाँ सब्जियों के दाम लिखे थे। लेकिन कुछ सामानों के  दाम अपडेट नहीं लगे। आम भी 59/- रुपए किलो, धनिया भी इसी तरह भाव। 

पार्क में टहलते हुए उन बुजुर्ग की याद आयी जिनकी मोटरसाइकिल नहीं मिल रही थी। पता नहीं मिली होगी कि अभी तक खोज रहे होगे, गाड़ी को गरियाते हुए। 

आजकल तो हर सामान के साथ चिप का जुगाड़ हो रहा है। भूल जाओ तो पता चल जाएगा कि कहाँ है सामान। नयी गाड़ी खरीदी थी तो कुछ दिन तक यह देखते रहना हमारा शग़ल था कि गाड़ी अभी किधर है ? 

लेकिन ये याददाश्त का भी अजब लफड़ा है। याद आते-आते गुम हो जाती है। दुनिया के तमाम काम आजकल पासवर्ड के सहारे चलते हैं। अक्सर भूल जाते हैं। क्या पता केन्द्रीकरण के समय में आने वाले समय में सारे पासवर्ड की कुंजी किसी एक के पास पहुँच जाये और वो उसे भूल जाते। ऐसा होगा तो दुनिया के तमाम काम-धंधे ठहर जाएँगे। 

क्या पता दुनिया बनाने वाले सर्वशक्तिमान जब दुनिया को देखता हो तो इसमें सुधार के बारे में सोचता हो। लेकिन क्या पता उसको भी अपना पासवर्ड बिसरा गया हो। याद ही न आ रहा हो। इसी के चलते दुनिया के तमाम गरीबों, असहायों की प्रार्थनाओं पर कोई कारवाई न कर पाता हो। अपने सच्चे भक्तों पर दुष्टों की बदमाशियाँ चुपचाप देखता रहता हो। क्या पता इसी किसी चक्कर में कोई नया अवतार न हो पा रहा हो। प्राणियों का उद्धार अटका हुआ हो। क्या पता सर्वशक्तिमान की यह भुलक्कड़ी अस्थायी हो । कुछ दिन बाद उसे सब कुछ याद आ जाये और वह अपनी दुनिया को ठीक कर दे। लेकिन क्या पता सर्वशक्तिमान भी अल्जाइमर जैसी किसी तकलीफ़ के चपेटे  में आ गया हो जिसका कोई इलाज उसके यहाँ भी न हो और वह भी  अपने किसी सर्वशक्तिमान को याद कर रहा हो। 

क्या पता भूलने की बीमारी का आने वाले समय में कोई इलाज निकल आए। इंसान के दिमाग़ का  नियमित अंतराल पर बैकअप लेते रहने का हिसाब बन जाये जैसे कम्प्यूटर नेटवर्क का लिया जाता है। जब किसी इंसान के याददाश्त गड़बड़ाए तो उसके दिमाग़ का मदरबोर्ड बदल दिया जाये। सारी यादें नए मदरबोर्ड में फिट करके याददाश्त का मामला टनाटन कर दिया जाये। 

क्या होगा आने वाले समय में यह तो बाद में पता चलेगा। अभी तो जरा देख लें चश्मा कहाँ रखा है। मोबाइल किधर है? 




Thursday, July 17, 2025

पार्क में मोटरसाइकिल

शाम को टहलने निकले। सुबह जो लोग लड़ते-झगड़ते दिखे थे वे आसपास बैठे चाय पी रहे थे। जिसके ऊपर गंदगी का आरोप लगा था उसके दोनों बच्चे नंग-धड़ंग दिगम्बर आपस में खेल रहे थे। दोनों मियाँ बीबी चाय पी रहे थे।

पूछने पर बताया कि वे राजस्थान के भरतपुर के रहने वाले हैं। आते जाते रहते हैं। यहाँ दिहाड़ी पर काम करते हैं। सामने कुछ प्लास्टिक की गाड़ियाँ भी रखी थीं। शायद बेचने के लिहाज़ से। लेकिन बिकती नहीं हैं वे।

अभी बारिश हो रही है। हवा ठंडी बह रही है। पता नहीं फ़ुटपाथ में रहने वाले लोग कहाँ शरण पाये होंगे।

फ़ुटओवर ब्रिज से गाड़ियाँ आती-जाती दिख रहीं थीं। दूर जाती गाड़ियों की लाल लाइट मानो इशारा कर रही हो -“हमारा पीछा मत करो। भिड़ जाओगे।

सड़क पर एक बुजुर्ग मिले। उन्होंने पूछा -“यहाँ कोई पार्क है?” जिस जगह पूछा था वहाँ आगे-पीछे दोनों तरफ़ पार्क थे। हमने बता दिए। वे पास के पार्क की तरफ़ चले गए। हम दूसरे पार्क में आकर टहलने लगे।

कुछ देर बाद वही बुजुर्ग सामने से आते दिखे। हमने पूछा-“पार्क नहीं मिला क्या पीछे ?”

वे बोले-“पार्क तो मिल गया। लेकिन वहाँ मोटरसाइकिल नहीं मिली। मोटरसाइकिल के पहले उन्होंने अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए बहन से जुड़ी गाली भी दी थी।

पता चला किसी पार्क के पास मोटरसाइकिल खड़ी करके भूल गए कि किस पार्क के पास खड़ी की। पार्क दर पार्क खोज रहे हैं मोटरसाइकिल। हमने उनको आसपास के और पार्क बताये। वे उनको खोजने चल दिए।

हमको याद आया हम सुबह अपना चश्मा आधा घंटा खोजते रहे और मोबाइल भी दस मिनट खोजा। हमको तो चश्मा और मोबाइल मिल गए। उन बुजुर्ग को पता नहीं उनकी मोटरसाइकल मिली कि नहीं ?

सबेरे की सैर

लिफ्ट से नीचे उतरे तो नज़र अनायास ऊपर की मंजिल की ओर गई। नजर जाते ही ध्यान आया कि जब हम नीचे होते हैं तो ऊपर देखते हैं। ऊपर होते हैं तो निगाह नीचे जाती है। सामने देखना बाद में शुरू होता है।

ऊपर की मंजिल बालकनी के कोने में एक सुखी टाइप परिवार दिखा। एक गोल-मटोल स्वस्थ सा जवानी की तरफ़ उन्मुख बच्चा बनियाइन पहने अपने दाँये हाथ से हवा में डमरू जैसा बजा रहा था। उनके खड़े उसके माँ-बाप उसको जिन भी निगाहों से निहार रहे थे उनको वात्सल्य की निगाह ही कहाँ जाएगा।
नोयडा सिटी सेंटर के पास का तिराहा।
सामने से एक युवा महिला साइकिल पर चली आ रही थी। देखकर लगा कुछ दिन ही हुए होंगे उसका विवाह हुए। उसके माथे पर सिंदूर और चेहरे पर मुस्कान चमक रही थी। शायद कालोनी के घरों में काम करती होगी। खाना बनाने जैसा कुछ काम। कालोनी के माध्यम वर्गीय परिवारों में खाना बनाने के काम के लिए काम वाली महिलायें लगी हैं। कई घरों में खाना बनाती हैं। कोई-कोई तो छह से सात घरों में काम करती हैं। एक घर में दिन में दो बार खाना बनाती हैं। मतलब दिन भर में बारह-चौदह बार खाना बनाती हैं।

कालोनी से बाहर निकलते ही एक दंपति अपने बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के लिए लपकते दिखे। बच्चे की मम्मी ने भागती हुई आईं थीं बच्चे को बिठाने। शायद देर हो गई थी। बस में चढ़ाकर हाँफते हुए बच्चे से बोली -"बाय करो बेटा।" बच्चे ने बाय किया। तब तक उनकी साँस स्थिर हो गई थी। हाँफना छोड़कर वे भी मुस्कराने लगीं। उनके पति की गाड़ी बस के सामने बीच सड़क पर खड़ी थी। दोनों दरवाज़े डैनों की तरह खुले थे। बस के हार्न बजाने के बाद लपककर उन्होंने कार किनारे की। मियाँ-बीबी गाड़ी में बैठकर चले गए।

आगे एक कालोनी से गुजरते हुए एक घर के बाहर बेंच नुमा चबूतरे पर दो बच्चियाँ दिखीं। बड़ी बच्ची सीधे बैठी थी, छोटी बच्ची बेंच पर अधलेटी थी। शायद उनकी माँ उस घर में काम करती होंगी या क्या पता बच्ची ही साफ़-सफ़ाई का काम करती हो और गेट खुलने का इंतजार कर रही हो



पार्क में एक आदमी लंगड़ाते हुए टहल रहा था। एक पैर एकदम सीधा किए चलते हुए। उस पैर में शायद चोट लगी थी। उसको देखकर लगा -"चोट लगने पर बड़े-बड़े सीधे हो जाते हैं। पैर क्या चीज है।"

नोयडा सिटी सेंटर तिराहे पर खड़े होकर कुछ देर ट्रैफिक देखा। गाड़ियाँ दिल्ली की तरफ़ भागती हुई चली जा रहीं थीं। कोई भी ठहरकर, तसल्ली से जाते हुए नहीं दिखा। सब हड़बड़ाये हुए भागते जाते दिखे। शायद उनको इस बात का डर होगा कि तसल्ली से चलने पर कहीं जिला बदर न कर दिए जाएँ।

मोड़ के आगे एक आदमी अपनी मोटरसाइकिल पर, उसकी लंबाई के लंबवत दिशा में, आलिंगन मुद्रा में लेटा हुआ अपने मोबाइल पर झुका हुआ था। मोटरसाइकिल चुपचाप उसकी छाती के नीचे दबी खड़ी थी। उसकी चाबी सवार के हाथ में थी इसलिए कुछ बोल भी नहीं सकती थी। पेट्रोल भी तो वही डलवाता था।

आगे दो लोग सड़क किनारे अपनी-अपनी स्कूटी खड़ी किए फुटपाथ पर बैठे अपने-अपने मोबाइल में डूबे हुए था। मन किया कि उनसे कुछ बात करें। लेकिन उनकी मोबाइल तल्लीनता देखकर उनको डिस्टर्ब करने की हिम्मत नहीं पड़ी। उनकी 'मोबाइल तपस्या' भंग होने पर क्या पता वो नाराज होकर कोई श्राप जारी कर देते।
मोबाइल तपस्या में डूबे लोग।


बगल से एक कूड़ा गाड़ी निकली। गाड़ी के डब्बों में गीला कूड़ा/सूखा कूड़ा देखकर मुझे लगा कूड़ा गाड़ी किसी लोकतांत्रिक देश की राजनीतिक पार्टियों को लिए जा रही है। गीला कूड़ा मतलब सत्ता धारी पार्टी, सूखा कूड़ा मतलब विपक्षी पार्टी। यह विचार आते ही मुझे लगा कोई राजनीतिक पार्टी मेरे विचार से बुरा न मान जाये। यह सोचते ही मैंने अपने विचार को उसी कूड़ा गाड़ी में फेंक दिया। पता नहीं मेरा विचार गीले कूड़े में गिरा या सूखे में। पता नहीं उन कूड़ों ने मेरे विचार के साथ क्या सुलूक किया हो। मुझे डर है उसकी बेहूदगी पर रीझकर किसी ने उसे अपनी संसद में न भेज दिया हो।

फुटपाथ किनारे के लोग आपस में तेज-तेज आवाज में लड़ रहे थे। एक महिला दूसरी को इस बात के लिए डाँट  रही थी कि उसके बच्चे फुटपाथ में गंदगी करते हैं। दूसरी महिला क़सम खाते हुए कह रही थी -"हमारे बच्चे ने गंदगी नहीं की।" अपनी सफ़ाई को मजबूती देने के लिहाज से उसने कहा -" उसके बच्चे मर जायें जिसने यहाँ गंदगी की।" 

हम थोड़ा ठहरकर उनका झगड़ा सुनने लगे। दोनों अपनी-अपनी बात हमसे कहने लगे। "अंकल जी, ये गंदगी करती है", "अंकलजी, ये झूठ बोलती है"। हमको लगा हम थोड़ा देर और रुककर उनकी लड़ाई में अंकल सैम की तरह सीजफायर कराकर ट्वीट करें। लेकिन हमको अपने विचार बेहूदा लगा। हम उनको लड़ता हुआ छोड़कर आगे बढ़ गए। 

उनके बगल में ही पिंक ट्वायलेट था। महिलाओं के लिए मुफ्त। शायद महिलाएं उनका उपयोग करती हों लेकिन शायद वहाँ बच्चे नहीं जाते होंगे। या कोई और कारण रहा होगा। लेकिन उनके लड़ने की आवाज़ें दूर तक पीछा करती रहीं। 

नुक्कड़ पर पान की दुकान पर एक नौजवान  सिगरेट पीते हुए धुआँ उड़ा रहा था। धुँआ ऊपर की और लहराते हुए नागिन डांस जैसा करते हुए हवा में गुम हो गया । धुएँ का कालापन ऐसे हवा में  घुल गया  जैसे कोई भ्रष्टाचारी किसी राजनीतिक पार्टी में विलीन हो गया हो। 

पार्क में पेड़-पौधे-हरी घास बहुत खूबसूरत लग रहे थे। हमने उनकी फ़ोटो लेने की सोची लेकिन फिर नहीं ली। सोचा कि पेड़-पौधों की भी निजता होती है। कहीं किसी पेड़ को बुरा लग गया तो उनका मन दुखी होगा। 

लौटते हुए एक आदमी गाड़ी साफ़ करते हुए दिखी। पैर के पंजे में प्लास्टर चढ़ा हुआ था। बताया उसने -"चोट लग गई थी। दफ़्तर में खोलकर बैठें इसे।" 

थोड़ा और बात होने पर उसने बताया वह ड्राइवर है। उसके साहब रिटायर्ड ब्रिगेडियर हैं। डाक्टर हैं। जो लोग विदेश जाने वाले होते हैं उनका मेडिकल करते हैं। बताते-बताते उसकी आवाज में अपने साहब का रुतबा भी मिल गया। हम उसको गाड़ी पोंछता छोड़कर घर आ गए। 






Friday, July 04, 2025

टहलते हुए मास्टर स्ट्रोक

 टहलने निकलते समय हर बार ज़ेहन में सवाल उठता है -'किधर चलें?' हर बार की तरह आज भी उठा यह सवाल। पहले हमने  पार्क में जाकर टहलने की सोची। चल भी दिए उस तरफ़। लेकिन  पार्क की तरफ़ जाने वाले गेट तक पहुंचकर अचानक दूसरी तरफ़ मुड़ गए और सड़क पर आकर टहलने लगे। 


पार्क जाने की जगह सड़क पर आ जाना एक सामान्य इंसान के लिए  सामान्य घटना है। लेकिन किसी असामान्य इंसान के साथ यह घटना होती तो उसके भक्त लोग इसे उसका 'मास्टर स्ट्रोक' बताते। क्या 'मास्टर स्ट्रोक' मारा है कहते हुए उसकी वंदना के स्वरों में अपना सुर मिलाने के आह्वान करते। जो न मानता उसे सामान्य नागरिक के पद  से बर्खास्त करके विधर्मी, देशद्रोही के खाते में डाल देते। 


श्रीलाल शुक्ल जी अपने उपन्यास 'रागदरबारी ' में लिखते हैं : "उत्तम कोटि का सरकारी आदमी, कार्य के अधीन दौरा नहीं करता। वह जिधर निकल जाता है उधर ही उसका दौरा हो जाता है।" इसी तर्ज पर बड़े लोगों से  जो भी काम हो जाता  वह उनका 'मास्टर स्ट्रोक' होता हैं।बड़े लोग किसी के सामने मुर्गा बनते हुए घिघियाते भी हैं तो उनके भक्त लोग कहते हैं -"वाह, क्या मास्टर स्ट्रोक मारा है। अगले के सामने मुर्गा बनकर दिखा दिया और उसकी हिम्मत नहीं हुई कुछ बोल सके। 


सड़क पर लोग आने-जाने लगे थे। बच्चे स्कूल जा रहे थे, बड़े लोग काम पर। हम न स्कूल जाने वालों में, न काम पर जाने वालों में बेमतलब सड़क पर टहल रहे थे। 

पहले ही मोड़ पर नुक्कड़ पर एक पंचर वाले की दुकान पर पंचर के रेट लिखे थे। 'मशरूम पंचर'  दाम   300 रुपए लिखे थे। हमें मशरूम के बारे में पता था, पंचर के बारे में पता था लेकिन  'मशरूम पंचर' के बारे में नहीं पता था। दुकान बंद थी वरना पूछ लेते। अगली बार पूछेंगे अगर याद रहा। 

लेकिन यहाँ 'मशरूम पंचर' रिपेयर रेट  बताकर मुझे डर लग रहा है कि कहीं कोई अगले चुनाव में देश की महँगाई का ठीकरा पंचर बनाने वालों पर न फोड़ दे। कहे -"भाइयों और बहनों, ये पंचर बनाने वाले लोग 300 रुपये में पंचर बनाते हैं। मंहगाई बढ़ने का कारण ये पंचर बनाने वाले हैं।"

सड़क के सामने से जिला अस्पताल का बोर्ड दिख रहा था। 'अस्पताल' के बोर्ड से 'स्प' ग़ायब था। हालांकि यह कोई बड़ी बात नहीं  अस्पताल जब बिना जरूरी दवाओं और मेडिकल स्टाफ के काम कर सकते हैं तो बोर्ड में  डेढ़ अक्षर न होना कोई बड़ी बात नहीं। 

सामने सड़क अभी चलने को काफ़ी उपलब्ध थी लेकिन हम अचानक बिना हाथ दिए बायीं तरफ़ मुड़ गई। इससे एक बार फिर तय हुआ कि आदतें दूर तक पीछा करती हैं।  गाड़ी चलाते अक्सर बिना हाथ/इंडीकेटर  दिए मुड़ जाने वाली आदत पैदल चलते समय भी हावी है। गाड़ी चलाते समय तो अक्सर मुड़ने के बाद हाथ दे देते हैं लेकिन पैदल चलते हुए वह ज़हमत भी नहीं उठाई हमने। मुड़ गए तो मुड़ गए। जो होगा देखा जाएगा। 

आगे एक सीवर सफाई गाड़ी नाली के पानी में पाइप डाले उसको साफ़ कर रही थी। गाड़ी के पीछे रोमन में लिखा था -चकाचक।  हमसे कोई हालचाल पूछता है तो बिना सोचे आदतन कहते हैं -'चकाचक।' हमको लगा कि हमारी बातचीत सुनकर गाड़ी वाले ने नक़ल कर ली है। 

तिराहे पर कबूतर दाना चुगकर शायद अपने-अपने ठीहे पर जा चुके थे। कोई किसी दफ़्तर के मुंडेर पर, कोई किसी धार्मिक स्थल पर, कोई वीराने में, कोई कहीं बाग-बगीचे में। अब कबूतरों की दुनिया का मुझे पता नहीं लेकिन क्या पता वहाँ भी कोई वर्गीकरण होता हो। दफ़्तरों के कोटरों में बैठने वाले कबूतर कामकाजी कबूतर कहलाते होने,  बाग-बग़ीचों , वीरानों में घूमने वाले कबूतर आवारा/ बेरोजगार/मजनू कबूतर, धर्मस्थलों में घूमने वाले धार्मिक कबूतर। और भी तमाम  श्रेणियाँ होंगी। 

क्या पता कबूतरों के यहाँ भी चुनाव होते हों, उनके भी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति होते हों, उनका भी  कोई 'गुटरगूँ मीडिया' होता हो जो अपने नायक के कसीदे काढ़ता हो, उसके हर स्ट्रोक को 'मास्टर स्ट्रोक' बताता हो। उनके यहाँ भी कबूतरों के दो गुटों में लड़ाई होती हो जिसके रुकने पर कोई तीसरा  कबूतर कहता हो -"हमने सीज फायर करवा दिया।"

आगे और भी तमाम बातें सोचीं कबूतरों के बारे में लेकिन यह सोचकर नहीं लिख रहे कि न जाने कौन कबूतर बुरा मान जाए और मान मानहानि का मुकदमा कर दे। पापुलर मेरठी का शेर भी या आ गया :

"अजब नहीं जो तुक्का भी तीर हो जाए, फटे जो दूध तो पनीर हो जाए

मवालियों को  देखो हिकारत से, न जाने कौन सा गुंडा वजीर हो जाए।"

तुक्का-तीर, दूध-पनीर वाली बातें तो न जाने कब से होती आई हैं। लेकिन गुंडों के वजीर बनने वाली बात जो पहले अपवाद होती थीं अब वे आम होती हैं। हमें डर है कि कहीं इसके लिए भी पापुलर मेरठी साहब को दोषी न ठहरा दिया जाये। 


कबूतर कथा को पीछे छोड़कर आगे बढ़े तो फुटपाथ पर ही गुजारा करने कुछ महिलाएं, बच्चे, पुरुष दिखे। एक महिला अपने बच्चे को सड़क किनारे बैठाये पेशाब करा रहा थी, दूसरी महिला अपने बच्चे की सड़क पर की हुई टट्टी को सड़क पर पड़ी एक पालीथीन से पोंछते हुए साफ़ कर रही थी। उनसे कुछ दूरी पर बना गुलाबी शौचालय (Pink Toilet) शायद उनके लिए नहीं था। आज के समय में  कोई सुविधा   होना लेकिन सबके लिए न होना सभ्य समाज की निशानी हैं। बुनियादी सुविधाएं भी इससे अलग नहीं है।

उन लोगों में से कुछ बच्चे और कुछ बड़े एक बोतल से कोई पेय निकालकर ग्लास में डालकर चुस्की लेते हुए पी रहे थे। पास से गुजरते हुए देखा बोतल पर स्प्राइट लिखा था। कोई इसे भी अपने समाज की संपन्नता से जोड़कर देख सकता है -"हमारे यहाँ बेघर और फुटपाथ पर रहने वाले तक स्प्राइट पीते हैं।" 

स्प्राइट पीने वालों से थोड़ा दूर एक कोने में बैठी बच्ची सर झुकाये एक आम से कुश्ती सी लड़ती हुई आम से गूदा निकालकर खा रही थी। गुठली चूस रही थी। सौ रुपए किलो से ऊपर का आम बच्ची को चूसते देखकर मुझे लगा कि कोई इसके ख़िलाफ़ केस न कर दे कि यह आम बच्ची के पास आया कैसे? पाँच किलो राशन में फल तो शामिल नहीं हैं।

घूमते हुए उसी पार्क की तरफ़ आ गए जहाँ टहलने के लिए जाने की बात हमने सबसे सोची थी। हम पार्क में घुसकर टहलने लगे। टहलते हुए सोचा कि कोई देखेगा तो इसे हमारा यू टर्न बताएगा। कहेगा जहाँ न जाने को हम अपना 'मास्टर स्ट्रोक' बता रहे थे अब उसी जगह पर आकर टहल रहे हैं। लेकिन किसी के कहने से क्या? हमारा 'मास्टर स्ट्रोक' हम तय करेंगे। किसी दूसरे को क्या हक कि हमारा मास्टर स्ट्रोक तय करे? 

यह निर्णय पर पहुंचते ही हमें लगा -"अरे यार यह तो एक और 'मास्टर स्ट्रोक' हो गया।" सुबह-सुबह टहलते हुए तीन मास्टर स्ट्रोक हो जायें इससे ज़्यादा और किसी को क्या चाहिए?  है कि नहीं? 







Saturday, June 14, 2025

मरता गरीब इंसान ही है

 आज सुबह टहलने निकले। सोसाइटी की तमाम कारों के वाइपर झंडे के डंडे की तरह सलामी मुद्रा में उठे थे। । कार की सफ़ाई करने वाले सामने का शीशा साफ़ करके वाइपर उठा देते हैं। यह इस बात का भी संकेत है कि कार साफ़ की जा चुकी है ।

मेन गेट पर नेकचंद मिले। हाल ही में उनकी पत्नी का निधन हुआ है। पीलिया से। देर में पता लगा इसलिए गंभीर हो गया रोग। बहुत इलाज कराया। देखभाल के लिए बेटे ने नौकरी भी छोड़  दी।इलाज में खर्चे के लिए कर्ज लिया , खेत गिरवी रखें।  लेकिन बची नहीं। बेटे की शादी अगले महीने होने वाली थे। पत्नी के न रहने पर स्थगित हो गई। 

पारिवारिक स्थिति बयान करते हुए नेकचंद ने बताया -"चार बिटिया हतीं। सबकों निकार दओ। बेटा बचो है, उसऊ कि शादी हती  अगले महीना। लेकिन बे रहीं नहीं। आख़िर तक कहती रहीं , बहुरिया क मुँह नाईं देख पाए।" (चार बेटियां थीं। सबकी शादी कर दी। बेटा है , उसकी भी शादी थी अगले महीने। लेकिन वे (पत्नी)  रही नहीं। आख़िरी तक कहती रहीं , बहू का मुँह नहीं देख पाये)। समाज के बड़े वर्ग में अभी भी बेटियों-बेटों की शादी करना सबसे बड़ा पुरुषार्थ माना जाता है। बेटियों की शादी मतलब उनको घर से निकालना , समाज में लड़कियों के हाल बयान करता है।

22 साल का बेटा अभी घर पर ही रहता है। नौकरी दुबारा मिली नहीं है ।  वह खाना-वाना, चाय तक नहीं बना पता। नेकचंद ही उल्टा-सीधा बनाते हैं। चार बहनों के बीच अकेला भाई वैसे भी दुलारा होता है। कुछ सिखाया नहीं जाता उसको। 

नेकचंद से विदा लेकर आगे बढ़े। सड़क किनारे के झोपड़ियों की दुकानें लगने लगीं थीं। सड़क के दोनों तरफ़ सोसाइटियों की कतार है। एक स्कूल में समर कैंप लगा है। कारों से उतरे बच्चे नेकर-बनियाईन में बेफिक्री से स्कूल की तरफ़ जा रहे हैं। कुछ के माता-पिता भी साथ में हैं। 

सामने से इस्कान संकीर्तन रथ आते दिखा। रथ के साथ कुछ लोगों का जुलूस राम-राम , हरे - हरे  बोलते हुए चल रहा था। सड़क पर आते-जाते लोगों को प्रसाद वितरित करते जा रहे थे। हमें भी ज़बरियन थमा दिया प्रसाद।  रवा का हलवा था प्रसाद में। पीला प्रसाद दोने में । पहले मन किया कि खा लें। लेकिन मीठे से परहेज सोचकर प्रसाद को इज्जत के साथ हाथ में थामे आगे बढ़ गए। सोचा किसी को दे देंगे। 

आगे बढ़ने पर याद आया कि सड़क पर कुत्ता टहलाते हुए एक बच्चा अपने कुत्ते को दोना चटा रहा था। शायद इस्कान समूह के लोगों के द्वारा मिला प्रसाद ही उसने कुत्ते को खिला दिया होगा। इस्कान समूह के बड़े-बड़े मंदिर और सम्पति है दुनिया भर में। तमाम कल्याणकारी काम करते रहते हैं। लेकिन उनके मंदिर और संस्थान संपन्न इलाक़ों में ही मिलते हैं। गरीब बस्तियों में नहीं मिलते इस्कान के मंदिर। 

आगे कई पार्क दिखे। शहरों में जब पार्क ग़ायब होते जा रहे हैं , तब नोयडा में आसपास अच्छे, मेंटेन पार्क देखकर अच्छा लगा। एक जगह सामने से नेकचंद  आते दिखे। अपनी ड्यूटी पूरी करके वे घर वापस जा रहे थे। इस्कान वालों का प्रसाद उनको दे दिया। उन्होंने ख़ुशी-ख़ुशी ले भी लिया। प्रसाद मुक्त होकर हम  टहलते हुए सोसाइटी के पीछे वाले पार्क में पहुँच गए। टहलना शुरू कर दिया। 

पार्क में बने ट्रैक में तमाम लोग टहलते दिखे। कुछ लोग पार्क कसरत करते , बतियाते, गपियाते दिखे। बच्चे उछल-कूद करते  , झूला झूलते दिखे। 

ट्रैक पर  टहलते हुए सामने से एक रोआबदार चेहरे वाले बुजुर्ग फुर्ती से आते दिखे। हमारे बगल से गुजरते हुए उन्होंने अपना  हाथ, जिसमें उन्होंने मोबाइल पकड़ा  था, हमसे दूर कर लिया। शायद उनको लगा होगा , हमारे बगल से गुज़रते हुए कहीं उनके मोबाइल को हमारा मोबाइल छेड़ न दे। 

आगे पार्क में बैठी दो लड़कियां पार्क के पेड़ पर ढेला मारकर कुछ तोड़ते दिखीं। अपने असफल प्रयास पर खिलखिलाते हुए वापस बेंच पर बैठ गयीं। 

चक्कर पूरा होने पर सामने से फिर वही मोबाइल धारी रोआब वाले बुजुर्ग दिखे। इस बार उन्होंने अपना मोबाइल वाला हाथ दूर नहीं किया। शायद इतनी देर में वे आश्वस्त हो गए होंगे कि हमारा मोबाइल शरीफ मोबाइल है। छेड़छाड़ में विश्वास नहीं उसका। 

तीसरे चक्कर में बुजुर्ग के हाथ में मोबाइल की जगह उनका रुमाल था। मोबाइल शायद उन्होंने जेब में रख लिया था। बगल से गुजरते हुए उन्होंने रुमाल वाला हाथ हमसे दूर कर लिया। अब  शायद उनको अपने रुमाल के छेड़ने की चिंता हो रही हो। मुझे लगा अगले चक्कर में शायद वे रूमाल वाले हाथ को हमसे दूर न करें। लेकिन अगले चक्कर में वे दिखे नहीं। शायद अपना टहलने का कोटा पूरा करके घर चले गए हों। 

बगल से गुजरते हुए हाथ दूर कर लेने की बात से लेव टालस्टाय  के संबंध में वर्णित किसी का संस्मरण याद आया । जीने से उतरते हुए सामने से आते किसी को देखकर वे किनारे होकर रुक गए जबकि सीढ़ियों में दोनों के गुजरने की पर्याप्त जगह थी। लेव उस समय 'अन्ना कारनिना' उपन्यास लिख रहे थे। अपने पात्रों के बारे में सोचते रहते। सीढ़ियों से उतरते हुए उनको लगता अन्ना उनके साथ में हैं। दोनों के साथ चलते हुए सामने से आते हुए को रुककर रास्ता दे देते। 

टहलते हुए हमको भी अपना उर्दू का क़ायदा याद आ गया। हम मन ही मन उर्दू के हर्फ़ दोहराते हुए टहलते रहे। 

पार्क में एक आदमी हाथ में चाकू लिए पेड़ के पास टहलता दिखा। मुझे लगा शायद किसी पेड़ की  छाल ले जाने के लिए चाकू लाए हैं। लेकिन थोड़ी देर में  देखा कि वे अपने पास के डब्बे से आटा  चाकू से निकालकर पेड़ों के जड़ों के पास डाल रहे हैं। चाकू को वे चम्मच के तरह प्रयोग कर रहे थे।  आटा चीटियों के लिए डाल रहे थे। याद आया कुछ देर पहले वे कबूतरों के लिए दाना भी डाल रहे थे। 

बुजुर्ग इंसान द्वारा कबूतरों और चीटियों के लिए भोजन का इंतजाम करते देखकर मुझे   इजरायल, गाजा, ईरान, रूस, यूक्रेन में छिड़ी लड़ाइयों के याद आ गई। एक तरफ़ इंसान जानवरों के लिए भोजन का इंतजाम कर रहा है। दूसरी तरफ़ इंसान अपनी ही प्रजाति के लोगों को बर्बाद करने पर आमादा है। दुनिया के बड़े-बड़े देशों के कर्णधार गली-मोहल्ले के लोगों गुंडों की तरह टपोरी टाइप भाषा बोलते हुए गुण्डागिरी पर आमादा हैं। दुनिया एक बड़े शर्मनाक दौर से गुज़र रही है। 

पार्क के  बाहर जूस बेचता  दुकानदार जूस पेरता हुआ अपने ग्राहक से बतियाता हुआ कह रहा था -"लड़ाई कहीं हो लेकिन मरता  गरीब इंसान ही है।"

 एक आदमी चाय की  दुकान पर बैठा अपने मोबाइल को मुँह के आगे ऐसे लगाए था मानों उससे निकलने वाली किसी चीज को पी रहा हो। फिर याद आया मोबाइल का आवाज वाला हिस्सा है वह जिसे मुँह में लगाए हुए वह बात कर रहा था। आगे एक नाला साफ़ करते हुए दो आदमी नाले का कूड़ा निकाल रहे थे। सामने से मोटर साइकिल से पास आकर बोला -"अब शेर और चीता लग गए तो साफ़ ही होकर रहेगा नाला।" हमें लगा बताओ , शेर और चीते अब नाले साफ़ करने में लगे हैं। वैसे कोई बड़ी बात नहीं। ऐसा देश में तमाम जगह हो रहा है। बड़े-बड़े बुद्धिजीवी शेर  राजनीति  से जुड़े सियारों की शादी में बैंड बजाते घूम रहे हैं। 

आगे हमारी सोसाइटी का गेट आ गया। गेट में घुसकर हम अपने घर आ गए। घर  दुनिया में सबसे सुकून की जगह होती है। 











Tuesday, June 03, 2025

साइकिल दिवस

 आज साइकिल दिवस है। साइकिल से जुड़ी तमाम यादें हैं। बचपन में साइकिल तब सीखी जब चौथी-पाँचवीं में पढ़ते थे। घर के पास स्कूल के सामने रहने वाले दोस्त श्रीकृष्ण के पास साइकिल से पहले कैंची चलानी सीखे फिर उचक-उचक कर गद्दी पर बैठ कर चलाना सीखा। 

बचपन से अब तक कई साइकिलें रही साथ में। एक साइकिल में ब्रेक एक ही तरफ़ था। दूसरा ग़ायब। हमारे नाना जी हैलट अस्पताल में भर्ती थे। उनको खाना देने जाते थे। गांधीनगर से हैलट। करीब तीन किलोमीटर की दूरी बहुत लगती थे उन दिनों। एक बार की याद है जब बारिश में गए थे अस्पताल। ब्रेक लग नहीं रहे थे। आहिस्ते-आहिस्ते गए। 

हाईस्कूल तक पैदल ही जाते रहे स्कूल। इंटर में दोस्तों के साथ जाते थे। लक्ष्मी बाजपेयी के साथ जाने की याद सबसे ज़्यादा है। इंटर के बाद इलाहाबाद चले गए इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए। वहाँ किराए की साइकिल से घूमते रहे। तीस पैसे घंटे के हिसाब से मिलती थी साइकिल। कमरा नंबर नोट करा कर ले जाते। घूमते । वापस जमा करा देते। 

इंजीनियरिंग के दूसरे साल के इम्तहान के बाद साइकिल से भारत यात्रा के लिए गए। हीरो साइकिल वालों को लिखा तो उन्होंने

275/-  प्रति साइकिल रुपए के हिसाब से दी। अब याद नहीं कितने रुपए की छूट दी थी। तीन महीनों के यात्रा में एक टायर खराब हुआ था। करीब सात-आठ  हज़ार किलोमीटर चलाने के बाद। कालेज के बाद ध्यान नहीं वह साइकिल कहाँ चली गई। 

कालेज के बाद नौकरी के दौरान कुछ दिन साइकिल चलाई। मुझे याद है आर्डनेंस फैक्ट्री की नौकरी ज्वाइन करने साइकिल से गए थे। इसके बाद साइकिल का साथ बहुत दिन छूटा रहा। करीब तीस साल। तीस साल बाद जब जबलपुर पोस्टिंग हुई तब फिर साइकिल की सवारी शुरू हुई। जबलपुर रहने के दौरान खूब साइकिल चलाई। इसके बाद कानपुर , शाहजहांपुर फिर कानपुर में साइकिल का साथ बना रहा। 

शाहजहांपुर रहने के दौरान हमारे और श्रीमती जी के लिए एक नयी साइकिल का जोड़ा बच्चों ने भेंट किया। हमारी श्रीमती जी के लिए तो ठीक थे साइकिल। लेकिन हमारे  क़द से काफ़ी छोटी थी। नतीजतन एक साइकिल अभी खुली तक नहीं है। हम पुरानी साइकिल ही चलाते रहे कानपुर वापस आने तक। 

कानपुर में हमारी जबलपुर वाली साइकिल पर हमारे आउटहाउस में रहने वालों का क़ब्ज़ा हो गया। वो आने -जाने के काम में हमारी साइकिल का प्रयोग करने लगे।  हम अपने घर में रखी साइकिल चलाने को तरस गए। 

हम पर तरस खाकर हमारे बेटे ने हमारे जन्मदिन पर नयी साइकिल कसवाई। बढ़िया , मोटे टायर वाली साइकिल जिसमें  पानी के बोतल रखने का स्टैंड , बत्ती और बिजली वाली घंटी थी। हम चलाते रहे साइकिल कानपुर में लेकिन साइकिल कुछ ज़्यादा जमी नहीं । हमको पुरानी साइकिल ही बढ़िया लगती रही। 

बाद में साइकिल से चलना कम हो गया। पैदल चलना बढ़ गया। फ़िलहाल तो साइकिल लखनऊ के घर में इंतजार कर रही है हमारा है। हम भी उस पर सवारी करने का इंतजार कर रहे हैं। 

साइकिल से जुड़े अनगिनत किससे हैं यादों में । काफ़ी पहले हमारे पास प्रसिद्ध  इतालवी उपन्यास 'साइकिल चोर' का हिंदी अनुवाद  था । आधा पढ़ा था । फिर ग़ायब हो गया। आज अभी देखा किताब का अंग्रेजी अनुवाद नेट पर उपलब्ध है। पूरा पढ़ेंगे अब इसे । 

साइकिल से कई यात्राएँ भी प्लान की थीं। एक साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करना भी प्लान में था। और भी कई प्लान थे लेकिन अमल में कोई नहीं आ पाया अभी तक। क्या पता आगे कभी किसी प्लान पर अमल हो जाये। 

एक सर्वे के अनुसार देश की आधी आबादी के पास साइकिल है। लेकिन साइकिल  चलाने वाले कम  होते जा रहे हैं। बाइक और कार का चालान बढ़ रहा है। 

साइकिल सेहत और पर्यावरण के लिहाज से सबसे अच्छी सवारी है। क्या पता आने वाले समय में जब ऊर्जा के किल्लत बढ़े तब शायद दुनिया में फिर से साइकिल का जलवा क़ायम हो। 

 आपको साइकिल दिवस की  बधाई।





Wednesday, January 22, 2025

व्हाट्सएप स्टार्ट न हुआ




आज सुबह मोबाइल आन करते ही कुछ नोटोफ़िकेशन दिखे । उनमें कुछ व्हॉट्सएप के भी थे। अधिकतर गुडमार्निंग वाले। संदेश देखने के लिए व्हाट्सएप देखने के क्लिक किया तो खुला नहीं। क्लिक करते ही बाहर हो जा रहा था। कई बार कोशिश की लेकिन मेसेज दिखे नहीं।
मोबाइल को रिस्टार्ट करके भी देखा। कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। एकाध लोगों से पूछा। किसी ने कहा व्हाट्सएप फिर से इंस्टॉल करो, किसी ने कुछ और सुझाव दिए। मैंने व्हॉट्सप डिलीट किया। फिर से डाउनलोड किया। पहली बार में बिजनेस वाला हुआ। उसने कुछ और विवरण पूछे तो लगा गड़बड़ है। फिर से दूसरा बातचीत वाला डाउनलोड किया।
व्हाट्सएप शुरू करते हुए उसने पूछा चैट और डाटा रिस्टोर करना है ? हमको लगा कि बाद में व्हाट्सएप अलग से भी पूछेगा तब हाँ कहेंगे। बिना डाटा रिस्टोर किए आगे बढ़ गए। व्हाट्सएप फौरन शुरू हो गया।
शुरू तो हो गया लेकिन सारा डाटा ग़ायब हो गया। मोबाइल की पूरी मेमोरी का आधे से अधिक हिस्सा इसी डाटा का था। मेसेज, फ़ोटो, वीडियो सब गायब। व्हाट्सएप एकदम नए पैदा हुए बच्चे सरीखा एकदम साफ़ सुथरा दिख रहा था। ढाई सौ जीबी से ऊपर की मेमोरी पर झाड़ू लग चुका था। पूरा व्हाट्सएप किसी नए चिकने फर्श की तरह चमक रहा था।
महीनों से जमा डाटा, चैट, फ़ोटो, वीडियो ग़ायब हो गए। अपने में अफ़सोस करने लायक बात। लेकिन याद करने पर ऐसा कोई डाटा याद नहीं आया जिसके डिलीट हो जाने का शिद्दत से अफ़सोस हुआ हो। कुछ निमंत्रण पत्र थे उनके से जो याद थे वो दुबारा मंगा लिए कुछ मंगा लेंगे। इसी बहाने तमाम ग्रुप देखे जिनके हम सदस्य थे। महीनों से कोई हलचल नहीं थी उनमें। सबसे बाहर आए। अभी तक बीस-पच्चीस से बाहर आए। आगे और से निकलेंगे।
आज के समय दुनिया में करीब तीन अरब व्हाट्सएप खाते हैं। मतलब दुनिया की आधी-आबादी के बराबर। हमारा खाता खत्म हुआ। पुराने का सारा नाम-ओ-निशान कम से कम हमारे लिए खत्म हो गया। हमारे खाते का पुनर्जन्म हुआ आज। हमारा खाता कह रहा होगा , फिर से इसी नाशुक्रे के नंबर पर आना था। हमको भी पुराने खाते की याद कुछ दिन में बिसरा जाएगी।
दुनिया में इंसान के साथ भी कुछ ऐसा ही होता होगा। दुनिया में कुछ साल , सदी बिताने के बाद अपने-अपने हिसाब से इंसान डिलीट हो जाता होगा। उससे जुड़ी यादें कुछ लोगों को कुछ समय तक कुछ लोगों के ज़ेहन में रहती होंगी। कोई अच्छा कहता होगा, कोई बुरा। कोई बहुत अच्छा, कोई बहुत बुरा। इतना बुरा भी नहीं था, इतना भला भी नहीं था कहते हुए याद रखने वाले लोग भी होंगे। तमाम लोगों की सही तस्वीर लोगों तक पहुँचती भी नहीं होगी और वे लोग दुनिया से विदा हो जाते होंगे। दुनिया के मोबाइल से उनका खाता डिलीट हो जाता होगा। Alok Puranik जी के लेख और इसी नाम से किताब पापा रीस्टार्ट न हुए’ की तरह।
हम सब भी ऐसे ही जी रहे हैं। एक क्लिक में खत्म हो जाने और किसी और रूप में रीइंस्टाल हो जाने वाले। हाहा, हुती जलवे और चुपचाप, निस्पंद जीने वाले सभी के हाल कमोबेश एक जैसे ही होने हैं। कोई गाजे-बाजे के साथ डिलीट होगा , कोई चुपचाप बिना किसी को डिस्टर्ब किए ओ हेनरी की कहानी ‘आख़िरी पत्ती’ के नायक की तरह।
यह लिखते हुए ख्याल आया कि पढ़ने वाले दोस्त यह न समझें कि कहीं तबियत खराबी या अवसाद के चपेटे में तो नहीं आ गए अनूप शुक्ल। तो डिस्क्लेमर यह कि ऐसा कुछ नहीं। अपन मस्त, धूप सेंकते, सूरज भाई के प्रसाद की विटामिन डी पंजीरी फाँकते मजे में हैं। आप भी मजे में रहिए। जो होगा देखा जाएगा। आप भी धूप खा लीजिए फ़ोटो में ।

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Tuesday, January 21, 2025

अनूप जी को विनम्र श्रद्धांजलि



कल रात वरिष्ठ व्यंग्यकार , पत्रकार अनूप श्रीवास्तव जी के न रहने का समाचार मिला। अट्टहास पत्रिका और अट्टहास सम्मान के माध्यम से हिंदी हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अनूप जी का यादगार योगदान रहा। बातचीत होने पर अपने पत्रकार जीवन और साहित्य से जुड़े अनगिनत किस्से सुनाते थे। हर किस्से से जुड़ा कोई दूसरा किस्सा था उनके पास। पुरानी और नई पीढ़ी से लगातार संवाद , संपर्क में रहते थे।

मेरे लेखन के लिए कहते थे, “महिलाओं के स्वेटर बुनने की तरह अनूप अपना लेखन बुनता है।” अद्भुत जिजीविषा थी उनके भीतर। बीमार होने, चोट लगने के बावजूद जरा सा ठीक होते ही सक्रिय हो जाते।
उनके न रहने से हास्य-व्यंग्य के क्षेत्र में अपूरणीय क्षति हुई है। अनूप जी को विनम्र श्रद्धांजलि ।

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