"क्या देह ही है सब कुछ?"
इस सवाल का जवाब पाने के लिये मैं कई बार अपनी देह को घूर निहार चुका हूं-दर्पण में.बेदर्दी आईना हर बार बोला निष्ठुरता से-नहीं,कुछ नहीं है(तुम्हारी)देह.मुझे लगा शायद यह दर्पण पसीजेगा नहीं.मुझे याद आया
वासिफ मियां का शेर:-
साफ आईनों में चेहरे भी नजर आते हैं साफ,
धुंधला चेहरा हो तो धुंधला आईना भी चाहिये.
तो साहब,हम आईना-बदल किये .अधेङ गृहस्थ आईने की शरण ली.यह कुछ दयावान था.पसीज गया.बोला-सब कुछ तो नहीं पर बहुत कुछ है देह.
मुझे लगा कि कमी देह में नहीं ,देह-दर्शन की तरकीब तरीके में है.और बेहतर तरीका अपनाता तो शायद जवाब पूरा हां में मिलता-हां,देह ही सब कुछ है.
दुनिया में पांच अरब देहें विचरती हैं.नखशिख-आवृता से लेकर दिगंबरा तक.मजबूरन नंगी देह से लेकर शौकिया नंगई तक पसरा है देह का साम्राज्य.इन दो पाटों के बीच ब्रिटेनिका(5०:5०)बिस्कुट की तरह बिचरती हैं-मध्यमार्गी देह.यथास्थिति बनाये रखने में अक्षम होने पर ये मध्यमार्गियां शौकिया या मजबूरन नंगई की तरफ अग्रसर होती हैं.कभी-कभी भावुकता का दौरा पङने पर पूंछती हैं-क्या देह ही सब कुछ है!
जैसा कि बताया गया कि युवावर्ग में बढते शारीरिक आकर्षण और सेक्स के सहारे चुनाव जीतने के प्रयासों से आजिज आकर विषय रखा गया.तो भाई इसमें अनहोनी क्या है?युवाओं में शारीरिक आकर्षण तो स्वाभाविक पृवत्ति है.सेक्स का सहारा लेकर चुनाव जीतने का तरीका नौसिखिया अमेरिका हमें क्या सिखायेगा?
जो वहां आज हो रहा है वह हम युगों-युगों से करते आये है.मेनकाओं अप्सराओं की पूरी ब्रिगेड इसी काम में तैनात रहती थी.जहां इन्द्र का सिंहासन हिला नहीं ,दौङ पङती अप्सरायें काबू पाने के लिये खतरे पर.
राजाओं,गृहस्थों की कौन कहे बङे-बङे ऋषि-मुनियों के लंगोट ढीले करते रही हैं ये सुन्दरियां.इनके सामने ये अमेरिकी क्या ठहरेंगे जिनका लंगोट से "हाऊ डु यू डू तक "नहीं हुआ.
सत्ता नियंत्रण का यह अहिंसक तरीका अगर दरोगा जी आतंकवादियों पर अपनाते तो सारे आतंकवादी अमेरिका में बेरोजगारी भत्ते की लाइन में लगे होते और समय पाने पर ब्लागिंग करते.
असम के तमाम आतंकवादी जिनका पुलिस की गोलियां कुछ नहीं बिगा।ङ पायी वो नजरों के तीर से घायल होकर आजीवान कारावास(कुछ दिन जेल,बाकी दिन गृहस्थी) की सजा भुगतने को स्वेच्छा से समर्पणकर चुके हैं.
देह प्रदर्शन की बढती पृवत्ति का कारण वैज्ञानिक है.दुनिया तमाम कारणों से गर्मी (ग्लोबल वार्मिंग)बढ रही है.गर्मी बढेगी तो कपङे उतरेंगे ही.कहां तक झेलेंगे गर्मी?यह प्रदूषण तो बढना ही है.जब शरीर के तत्वों (क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा)में प्रदूषण बढ रहा है तो शरीर बिना प्रदूषित हुये कैसे रहसकता है?
यह भ्रम है कि शारीरिक आकर्षण का हमला केवल युवाओं पर होता है .राजा ययाति अपने चौथेपन में भी कामपीडित रहे.कामाग्नि को पूरा करने के लिये ययाति ने अपने युवा पुत्र से यौवन उधार मांगा और मन की मुराद पूरी की.हर दरोगा उधार पर मजे करता है.
केशव को शिकायत रही कि उनके समय में खिजाब का चलन नहीं था और सुंदरियां उन्हें बाबा कहती थीं:-
केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं,
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि.
इससे पता चलता है मन ज्यादा बदमास है देह के मुकाबले.पर इन कहानियों से शायद लगे कि इसमें सुन्दरी का कोई पक्ष नहीं रखा गया .तो इस विसंगति को दूर करने के लिये एकदम आधुनिक उदाहरण पेश है:-
पिछले दिनों आस्ट्रेलियन विश्वसुन्दरी मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहीं थीं.बेचारी स्कर्ट अपना और सुंदरी के सौंदर्यभार को संभाल न सकी .सरक गयी.संदरी ने पहले शर्म का प्रदर्शन किया फिर समझदारी का.स्टेज से पर्दे के पीछे चली गयी.हफ्तों निम्न बातें चर्चा में रहीं:-
1.संदरी ने बुद्धिमानी से बिना परेसान हुये स्थिति का सामना किया.
2.स्कर्ट भारी थी जो कि सरक गयी.
3.सुंदरी ने जो अंडरवियर पहना था वह सस्ता ,चलताऊ किस्म का था.
4.सुंदरी के शरमाने का कारण स्कर्ट का गिर जाना उतना जितना साधारण , सस्ता अंडरवियर पहने हुये पकङे जाना था.
इस हफ्तों चली चर्चा में देह का जिक्र कहीं नहीं आया.देह ,वह भी विश्वसुंदरी की,नेपथ्य में चली गयी.चर्चित हुयी सुन्दरी की भारी स्कर्ट,साधारण अंडरवियर और उसका दिमाग.
तो इससे साबित होता है कि कुछ नही है देह सिवा माध्यम के.सामान बेचने का माध्यम .उपभोक्तावाद का हथियार.उसकी अहमियत तभी तक है जब तक वह बिक्री में सक्षम है .जहां वह चुकी -वहां फिकी.
आज ऐश्वर्या राय का जन्मदिन है.सबेरे से टीवी पर छायी हैं.दर्शकों का सारा ध्यान उसके गहनों,कपङों, मेकअप पर है.उसका नीर-क्षीर विवेचन कर रहें हैं.सम्पूर्णता में उसका सौंदर्य उपेक्षित हो गया.यह विखंडन कारी दर्शन आदमी को आइटम बना देता है.
युवा का देह के प्रति आर्कषण कतई बुरा नहीं है.बुरा है उसका मजनूपना ,लुच्चई.कमजोर होना.देखा गया है कि साथ जीने मरने वाले कई मजनू दबाव पङने पर राखी बंधवा लेते हैं.
प्रेम संबंध भी आजकल स्टेटस सिंबल हो गये हैं.जिस युवा के जितने ज्यादा प्रेमी प्रेमिका होते हैं वह उतना ही सफल स्मार्ट माना जाता है.प्रेमी प्रेमिका भी आइटम हो चुके हैं.यही उपभोक्तावाद है.
मेरी तो कामना है कि युवाओं में खूब आकर्षण बढे शरीर के प्रति.पर यह आकर्षण लुच्चई में न बदले.यह आकर्षण युवाओं में सपने देखने और उन्हें हकीकत में बदलने का जज्बा पैदा करे.साथी के प्रति आकर्षण उनमें इतनी हिम्मत पैदा कर सके कि उनके साथ जुङने ,शादी करने की बात करने पर ,स्थितियां विपरीत होने पर उनमें
श्रवण कुमार की आत्मा न हावी हो जाये और दहेज के लिये वो मां-बाप के बताये खूंटे से बंधने के लिये न तैयार हो जायें.
फिलहाल तो जिस देह का हल्ला है चारो तरफ वह कुछ नहीं है सिर्फ पैकिंग है.ज्यादा जरूरी है सामान .जब पैकिंग अपने अंदर सबसे ऊपर रखे सामान (दिमाग)पर हावी होती है तो समझिये कि सामान में कुछ गङबङ है.
मेरी पसंद
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
बोल है कि वेद की ऋचायें
सांसों में सूरज उग आयें
आखों में ऋतुपति के छंद तैरने लगे
मन सारा नील गगन हो गया.
गंध गुंथी बाहों का घेरा
जैसे मधुमास का सवेरा
फूलों की भाषा में देह बोलने लगी
पूजा का एक जतन हो गया.
पानी पर खीचकर लकीरें
काट नहीं सकते जंजीरें
आसपास अजनबी अधेरों के डेरे हैं
अग्निबिंदु और सघन हो गया.
एक नाम अधरों पर आया,
अंग-अंग चंदन वन हो गया.
---कन्हैयालाल नंदन
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Sunday, October 31, 2004
Saturday, October 30, 2004
सफल मनोरथ भये हमारे
आखिर हमनें जिता ही दिया आस्ट्रेलिया को रिकार्ड अंतर से.नागपुर टेस्ट की शानदार हार बताती है कि सच्चे मन से जो मांगा जाता है वो मिल के रहता है.भगवान के घर देर है,अंधेर नहीं.
पिछले टेस्ट में हरभजन और पठान की नासमझी के कारण हमरिकार्ड बनाने से चूके थे.इस बार भी जब दुनिया के शानदार बैट्समैनों के शानदार प्रदर्शन के बाद जहीर ,अगरकर ने बहकना शुरु किया तो हमारा जी धङकने लगा कि कहीं ये फिर न गङबङ कर दें.हारने से तो खैर हमें कोई नहीं रोक सकता पर लगा कि कहीं पुछल्ले फिर न हमें कीर्तिमानी हार से वंचित कर दें.पर शुक्र है कोई अनहोनी नहीं हुयी.शायद कहीं गाना भी बजने लगा हो:-
हम लाये हैं तूफानों से किस्ती निकाल के
इस हार को रखना मेरे बच्चों संभाल के.
कुछ सिरफिरे इस हार से दुखी हैं.कोस रहे हैं टीम को.बल्लेबाजी को.अब कैसे बताया जाये कि बल्लेबाजों का समय विज्ञापन,आटोग्राफ,बयानबाजी आदि-इत्यादि में काफी चला जाता है.थक जाते हैं सब में.ठंडा मतलब
कोकाकोला दिन में सैकङों बार बोलना पङता है .तबियत पस्त हो जाती है.इसके बाद इनसे खेलने,टिक कर खेलने, की आशा रखना तो भाई मानवाधिकार उल्लंघन है.
अक्सर मैं देश में क्रिकेट की लोकप्रियता का कारण तलासने की जहमत उठाता हूं.क्रिकेट हमारे देश का सेफ्टीवाल्व है.एक जीत हमें महीनों मदहोश रखती है.सैकङो अनियमितताओं पर परदा डाल देती है एक अददजीत.राजनीतिक पार्टियां अपनी 'भारत यात्रायें'तय करने में भारतीय क्रिकेट टीम का कार्यक्रम देखती हैं.वे देखती हैं कि यात्रा और मैच तिथियों में टकराव न हो.यह बूता क्रिकेट में ही है कि देश के करोंङो लोग अरबों घण्टे फूंक देते है इसकी आशिकी में.हर हार के बाद जीत का सपना क्रिकेट ही दिखा सकता है.हरबार यही लगता है:-सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है.
कभी मैं यह सोचकर सिहर जाता हूं कि अगर क्रिकेट न होता तो हमारे देश का क्या होता.हम कहीं के न रहते.
हर विदेशी शब्द की तरह इन्टरनेट शब्द का अनुवाद हुआ.अब तक के प्रचलित शब्दानुवादों में जाल शब्द सबसे ज्यादा मान्यता हासिल कर सका है.पर जाल में लगता है कि कहीं फंसने का भी भाव है.एक हिन्दी पत्रिका में इंटरनेट का अनुवाद दिया था-अन्तरताना.वास्तव में नेट (जाल)बनता है ताने-बाने के मेल से.अन्तरताने से तो लगता है जाल को उधेङकर ताना-बाना अलग-अलग कर दिया गया हो.पत्रिका राष्टवादी है -सो इससे अधिक
और कर भी क्या सकती है?
मेरी पसंद
एक बार और जाल फेक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!
सपनों की ओस गूंथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अंधेर में कैसे नेह का निबाह हो!
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चन्दा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो!
गूंजती गुफाओं में पिघली सौगन्ध है
हर चारे में कोई चुम्बकीय गन्ध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बांध रही छांह हो!
कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत कांप रही आज है
यों ही न तोङ अभी बीन रे संपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
---बुद्धिनाथ मिश्र
पिछले टेस्ट में हरभजन और पठान की नासमझी के कारण हमरिकार्ड बनाने से चूके थे.इस बार भी जब दुनिया के शानदार बैट्समैनों के शानदार प्रदर्शन के बाद जहीर ,अगरकर ने बहकना शुरु किया तो हमारा जी धङकने लगा कि कहीं ये फिर न गङबङ कर दें.हारने से तो खैर हमें कोई नहीं रोक सकता पर लगा कि कहीं पुछल्ले फिर न हमें कीर्तिमानी हार से वंचित कर दें.पर शुक्र है कोई अनहोनी नहीं हुयी.शायद कहीं गाना भी बजने लगा हो:-
हम लाये हैं तूफानों से किस्ती निकाल के
इस हार को रखना मेरे बच्चों संभाल के.
कुछ सिरफिरे इस हार से दुखी हैं.कोस रहे हैं टीम को.बल्लेबाजी को.अब कैसे बताया जाये कि बल्लेबाजों का समय विज्ञापन,आटोग्राफ,बयानबाजी आदि-इत्यादि में काफी चला जाता है.थक जाते हैं सब में.ठंडा मतलब
कोकाकोला दिन में सैकङों बार बोलना पङता है .तबियत पस्त हो जाती है.इसके बाद इनसे खेलने,टिक कर खेलने, की आशा रखना तो भाई मानवाधिकार उल्लंघन है.
अक्सर मैं देश में क्रिकेट की लोकप्रियता का कारण तलासने की जहमत उठाता हूं.क्रिकेट हमारे देश का सेफ्टीवाल्व है.एक जीत हमें महीनों मदहोश रखती है.सैकङो अनियमितताओं पर परदा डाल देती है एक अददजीत.राजनीतिक पार्टियां अपनी 'भारत यात्रायें'तय करने में भारतीय क्रिकेट टीम का कार्यक्रम देखती हैं.वे देखती हैं कि यात्रा और मैच तिथियों में टकराव न हो.यह बूता क्रिकेट में ही है कि देश के करोंङो लोग अरबों घण्टे फूंक देते है इसकी आशिकी में.हर हार के बाद जीत का सपना क्रिकेट ही दिखा सकता है.हरबार यही लगता है:-सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है.
कभी मैं यह सोचकर सिहर जाता हूं कि अगर क्रिकेट न होता तो हमारे देश का क्या होता.हम कहीं के न रहते.
हर विदेशी शब्द की तरह इन्टरनेट शब्द का अनुवाद हुआ.अब तक के प्रचलित शब्दानुवादों में जाल शब्द सबसे ज्यादा मान्यता हासिल कर सका है.पर जाल में लगता है कि कहीं फंसने का भी भाव है.एक हिन्दी पत्रिका में इंटरनेट का अनुवाद दिया था-अन्तरताना.वास्तव में नेट (जाल)बनता है ताने-बाने के मेल से.अन्तरताने से तो लगता है जाल को उधेङकर ताना-बाना अलग-अलग कर दिया गया हो.पत्रिका राष्टवादी है -सो इससे अधिक
और कर भी क्या सकती है?
मेरी पसंद
एक बार और जाल फेक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!
सपनों की ओस गूंथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अंधेर में कैसे नेह का निबाह हो!
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चन्दा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो!
गूंजती गुफाओं में पिघली सौगन्ध है
हर चारे में कोई चुम्बकीय गन्ध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बांध रही छांह हो!
कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत कांप रही आज है
यों ही न तोङ अभी बीन रे संपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
---बुद्धिनाथ मिश्र
Tuesday, October 26, 2004
हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे
आजकल मैं देश के तकनीकी विकास के लिये बहुत चिन्तित रहता हूं.इन्टरनेट तकनीकी विकास का महत्वपूर्ण माध्यम है.मैं मानता हूं कि 'पीसी' में रुचि पैदा करने के लिये जो भूमिका कंप्यूटर गेम अदा करते हैं कुछ-कुछ वही भूमिका इंटरनेट में रुचि पैदा करने में चैटिंग और ब्लागिंग की है.
मैं इंटरनेट-प्रसार-यज्ञ में यथासंभव योगदान देने के लिये ब्लाग लिखकर अपने ब्लाग के बारे में मित्रों को अधिकाधिक जानकारी देने का प्रयास करता हूं.फोन करता हूं तो अपने ब्लाग के बारे में जरूर बताता हूं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बताने के लिये फोन करता हूं.यह अलग बात है कि जबसे मेरे इस प्रचार अभियान ने जोर पकङा है तबसे हमारे मित्रों के फोन उठने कम हो गये है.अगर उठते भी हैं तो मित्रगण
के बाथरूम,बाजार,आफिस आदि-इत्यादि निरापद स्थानों में होने की सूचना देकर बैठ जाते हैं.बहरहाल तकनीकी विकास चाहे हो या न हो हमारी दौङधूप में कोई कमी नही आई.
अपने संपर्क के सभी मित्रों का तकनीकी विकास कर चुकने के बाद मैं चैन की सांस लेने की सोच ही रहा था कि
पंकज के खोये हुये बस्ते ने मुझे बेचैन कर दिया.लगा कि मैं उन मित्रों के साथ अन्याय कर रहा हूं जिनके संपर्क-सूत्र जीवन की आपाधापी में छूट गये हैं.उनका भी तकनीकी विकास करके मुख्यधारा में लाना मेरा पुनीत कर्तव्य है.
इसके पहले कि मैं 'मित्र-खोज' शुरू करता , मेरे आलस्य ने मुझे जकङ लिया.जैसे किसी विकास योजना की घोषणा होते ही उसको चौपट करने वाले तत्व उस पर कब्जा कर लेते हैं.मैं भी जङत्व के नियम का आदर करके चुप हो गया.पर पता नहीं कहां से मेरे मित्रप्रेम और न्याय बोध ने मेरे आलस्य का संहार कर दिया.जैसे अक्कू यादव से पीङित महिलाओं ने उसको निपटा दिया हो या फिर कुछ ऐसे जैसे पंचायतों के परंपरागत न्याय को अदालतें खारिज कर दें.बहरहाल मित्र खोज-यात्रा शुरु हुयी.
शुरुआत हमारे अजीज दोस्त राजेश से हुयी.बिना समय बरबाद किये मैंने मतलब की बात शुरु कर दी.उनको ब्लागिंग और अपने ब्लाग के बारे में बताया.पढने को कहा.मैं सोच रहा था कि इसके बाद बात कट जायेगी या फोन.पर जो हुआ वह अप्रत्यासित था.मेरा प्यारा दोस्त मुझसे 16 साल पहले सुनी कविता पंक्तियां दोहरा था:-
1.वो माये काबा से जाके कह दो
अपनी किरणों को चुन के रख लें
मैं अपने पहलू के जर्रे-जर्रे को
खुद चमकना सिखा रहा हूं.
2.......नर्म बिस्तर ,
ऊंची सोंचें
फिर उनींदापन.
इसमें पहली कविता एक चमकदार कवि के मुंह से सुनी थी मैनें.दूसरी मैंने लिखी थी. इन बिछुङी कविताओं को दुबारा पाकर मेरा 'मित्र-मिलन' सुख दूना हो गया.
इतने दिन बाद इन पंक्तियों को मैंने कई बार दोहराया.तुलना की- आपस में इनकी.मुझे लगा -जो आराम मेरी लिखी कविता में है वो चमकदार कविता में नदारद है.किसी को चमकना सिखाना मेहनत का काम है.'माये काबा'से दुश्मनी अलग कि अपनी समान्तर सत्ता चला रहा है.कहीं सद्दाम हुसैन सा हाल न कर दे सर्वशक्तिमान.
पता लगा जर्रे-जर्रे को चमकाने में खुद बुझ गये.इसके मुकाबले मेरी कविता जीवन-सत्य के ज्यादा करीब है.व्यवहारिक नजरिया है--ऊंची सोच के सो जाना.मैं अपनी 'तारीफ में आत्मनिर्भरता' और कालांतर में निद्रा की स्थिति को प्राप्त हुआ.
कुछ देर बाद मैंने पाया कि मैं एक सभा में हूं.मेरे चारो तरफ लटके चेहरों का हुजूम है.मैंने लगभग मान लिया था कि मैं किसी शोकसभा में हूं.पर मंच से लगभग दहाङती हुई ओजपूर्ण आवाज ने मेरा विचार बदला.मुझे लगा कि शायद कोई वीररस का कवि कविता ललकार रहा हो.पर यह विचार भी ज्यादा देर टिक नहीं सका.मैंने कुछ न समझ पाने की स्थिति में यह तय माना कि हो न हो कोई महत्वपूर्ण सभा हो रही हो.
मेरा असमंजस अधिक देर तक साथ नहीं दे पाया.पता चला कि देश के शीर्षतम भ्रष्टाचारियों का सम्मेलन हो रहा था.सभी की चिन्ता पिछले वर्ष के दौरान घटते भ्रष्टाचार को लेकर थी.मुख्य वक्ता 'भ्रष्टाचार उन्नयन समिति'का
अध्यक्ष था.वह दहाङ रहा था:-
मित्रों,आज हमारा मस्तक शर्म से झुका है.चेहरे पर लगता है किसी ने कालिख पोत दी .हम कहीं मुंह दिखाने लायक न रहे.हमारे रहते पिछले साल देश में भ्रष्टाचार कम हो गया.कहते हुये बङा दुख होता है कि विश्व के तमाम पिद्दी देश हमसे भ्रष्टाचार में कहीं आगे हैं.दूर क्यों जाते हैं पङोस में बांगलादेश जिसे अभी कल हमने ही आजाद कराया वो आज हमें भ्रष्टाचार में पीछे छोङ कर सरपट आगे दौङ रहा है.
मित्रों ,यह समय आत्ममंथन का है.विश्लेषण का है.आज हमें विचार करना है कि हमारे पतन के बुनियादी कारण क्या हैं ?आखिर हम कहां चूके ?क्या वजह है कि आजादी के पचास वर्ष बाद भी हम भ्रष्टाचार के शिखर तक
नहीं पहुंचे.दुनिया के पचास देश अभी भी हमसे आगे है.क्या मैं यही दिन देखने के लिये जिन्दा हूं?हाय भगवान तू मुझे उठा क्यों नहीं लेता?
कहना न होगा वीर रस से मामला करुण रस पर पहुंच चुका था .वक्ता पर भावुकता का हल्ला हुआ.उसका गला और वह खुद भी बैठ गया.श्रोताओं में तालियों का हाहाकार मच गया.
कहानी कुछ आगे बढती कि संचालक ने कामर्शियल ब्रेक की घोषणा कर दी.बताया कि कार्यक्रम किन-किन लोगों द्घारा प्रायोजित थे.प्रायोजकों में व्यक्तियों नहीं वरन् घोटालों का जलवा था.स्टैम्प घोटाला,यू टी आई घोटाला आदि
युवा घोटालों के बैनरों में आत्मविश्वास की चमक थी.पुराने,कम कीमत के घोटाले हीनभावना से ग्रस्त लग रहे थे.अकेले दम पर सरकार पलट देने वाले निस्तेज बोफोर्स घोटाले को देखकर लगा कि किस्मत भी क्या-क्या गुल खिलाती है.
कामर्शियल ब्रेक लंबा खिंचता पर 'भ्रष्टाचार कार्यशाला'का समय हो चुका था.कार्यशाला में जिज्ञासुओं कि शंकाओं का समाधान होना था.शंका समाधान प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ.कुछ शंकायें और उनके समाधान निम्नवत हैं:-
सवाल:गतवर्ष की अपेक्षा भ्रष्टाचार में पिछङने के क्या कारण हैं?आपकी नजरों में कौन इस पतन के लिये जिम्मेंदार है?
जवाब:अति आत्म विश्वास,अकर्मण्यता,लक्ष्य के प्रति समर्पणका अभाव मुख्य कारण रहे पिछङने के.इस पतन के लिये हम सभी दोषी हैं.
सवाल:आपका लक्ष्य क्या है?
जवाब: देश को भ्रष्टाचार के शिखर पर स्थापित करना.
सवाल:कैसे प्राप्त करेंगे यह लक्ष्य?
जवाब:हम जनता को जागरूक बनायेंगे.इस भ्रम ,दुष्प्रचार को दूर करेंगे कि भ्रष्टाचार अनैतिक,अधार्मिक है.जब भगवान खुद चढावा स्वीकार करते हैं तो भक्तों के लिये यह अनैतिक कैसे होगा?
सवाल: तो क्या भ्रष्टाचार का कोई धर्म से संबंध है?
जवाब:एकदम है.बिना धर्म के भ्रष्टाचारी का कहां गुजारा?जो जितना बडा भ्रष्टाचारी है वो उतना बडा धर्मपारायण है.मैं रोज पांच घंटे पूजा करता हूं.कोई देवी-देवता ऐसा नहीं जिसकी मैं पूजा न करता हूं.भ्रष्टाचार भी एक तपस्या है.
सवाल:तो क्या सारे धार्मिक लोग भ्रष्ट होते हैं?
जवाब:काश ऐसा होता!मेरा कहने का मतलब है कि धर्मपारायण व्यक्ति का भ्रष्ट होना कतई जरूरी नहीं है .परन्तु एक भ्रष्टाचारी का धर्मपारायणहोना अपरिहार्य है.
सवाल:कुछ प्रशिक्षण भी देते हैं आप?
जवाब:हां नवंबर माह में देश भर में जोर-शोर से आयोजित होने वाले सतर्कता सप्ताह में हर सरकारी विभाग में अपने स्वयंसेवकों को भेजते हैं.
सवाल:सो किसलिए?
जवाब:असल में वहां भ्रष्टाचार उन्मूलन के उपाय बताये जाने का रिवाज है,सारे पुराने उपाय तो हमें पता हैं पर कभी कोई नया उपाय बताया जाये तो उसके लागू होने के पहले ही हम उसकी काट खोज लेते हैं.गफलत में नहीं रहते हम.कुछ नये तरीके भी पता चलते हैं घपले करने के.
सवाल:आपके सहयोगी कौन हैं?
जवाब:वर्तमान व्यवस्था.नेता,अपराधी,कानून का तो हमें सक्रिय सहयोग काफी पहले से मिलता रहा है.इधर अदालतों का रुख भी आशातीत सहयोगत्मक हुआ है.कुल मिलाकर माहौल भ्रष्टाचार के अनुकूल है.
सवाल:जो बीच-बीच में आपके कर्मठ,समर्पित भ्रष्टाचारी पकङे जाते हैं उससे आपके अभियान को झटका नहींलगता?
जवाब:झटका कैसा?यह तो हमारे प्रचार अभियान का हिस्सा एक है.इसके माध्यम से हम लोगों को बताते हैं कि देखो कितनी संभावनायें हैं इस काम में.लोग जो पकङे जाते हैंवो लोगों के रोल माडल बनते हैं.हमारा विजय अभियान आगे बढता है.
सवाल:आपकी राह में सबसे बडा अवरोध क्या है भ्रष्टाचार के उत्थान की राह में?
जवाब: जनता .अक्सर जनता नासमझी में यह समझने लगती कि हम कोई गलत काम कर रहे हैं.हालांकि आज तस्वीर उतनी बुरी नहीं जितनी आज से बीस साल पहले थी.आज लोग इसे सहज रूप में लेते हैं.यह अपने आप में उपलब्धि है.
सवाल: क्या आपको लगता है कि आप अपने जीवन काल में भ्रष्टाचार के शिखर तक देश को पहुंचा पायेंगे?
जवाब:उम्मीद पर दुनिया कायम है.मेरा रोम-रोम समर्पित है भ्रष्टाचार के उत्थान के लिये.मुझे पूरी आशा कि हम जल्द ही तमाम बाधाओं को पार करके मंजिल तक पहुंचेंगे.
अभी कार्यशाला चल ही रही थी कि शोर सुनायी दिया.आम जनता जूते,चप्पल,झाङू-पंजा आदि परंपरागत हथियारों से लैस भ्रष्टाचारियों की तरफ आक्रोश पूर्ण मुद्रा में बढी आ रही थी.कार्यशाला का तंबू उखङ चुका था.बंबू बाकी था.हमने शंका समाधान करने वाले महानुभाव की प्रतिक्रिया जानने के लिये उनकी तरफ देखा पर तब तक देर हो चुकी थी. वो महानुभाव जनता का नेतृत्व संभाल चुके थे.'मारो ससुरे भ्रष्टाचारियों 'को
चिल्लाते हुये भ्रष्टाचारियों को पीटने में जुट गये थे.
हल्ले से मेरी नींद टूट गयी.मुझे लगा शिखर बहुत दूर नहीं है.
मेरी पसंद
आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते.
संबध सभी ने तोङ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोङे,
सब हाथ जोङ कर चले गये,
पीङा ने हाथ नहीं जोङे.
सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते.
मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकङे,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकङे.
जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते.
--कन्हैयालाल बाजपेयी
मैं इंटरनेट-प्रसार-यज्ञ में यथासंभव योगदान देने के लिये ब्लाग लिखकर अपने ब्लाग के बारे में मित्रों को अधिकाधिक जानकारी देने का प्रयास करता हूं.फोन करता हूं तो अपने ब्लाग के बारे में जरूर बताता हूं बल्कि यह कहना ज्यादा उचित होगा कि बताने के लिये फोन करता हूं.यह अलग बात है कि जबसे मेरे इस प्रचार अभियान ने जोर पकङा है तबसे हमारे मित्रों के फोन उठने कम हो गये है.अगर उठते भी हैं तो मित्रगण
के बाथरूम,बाजार,आफिस आदि-इत्यादि निरापद स्थानों में होने की सूचना देकर बैठ जाते हैं.बहरहाल तकनीकी विकास चाहे हो या न हो हमारी दौङधूप में कोई कमी नही आई.
अपने संपर्क के सभी मित्रों का तकनीकी विकास कर चुकने के बाद मैं चैन की सांस लेने की सोच ही रहा था कि
पंकज के खोये हुये बस्ते ने मुझे बेचैन कर दिया.लगा कि मैं उन मित्रों के साथ अन्याय कर रहा हूं जिनके संपर्क-सूत्र जीवन की आपाधापी में छूट गये हैं.उनका भी तकनीकी विकास करके मुख्यधारा में लाना मेरा पुनीत कर्तव्य है.
इसके पहले कि मैं 'मित्र-खोज' शुरू करता , मेरे आलस्य ने मुझे जकङ लिया.जैसे किसी विकास योजना की घोषणा होते ही उसको चौपट करने वाले तत्व उस पर कब्जा कर लेते हैं.मैं भी जङत्व के नियम का आदर करके चुप हो गया.पर पता नहीं कहां से मेरे मित्रप्रेम और न्याय बोध ने मेरे आलस्य का संहार कर दिया.जैसे अक्कू यादव से पीङित महिलाओं ने उसको निपटा दिया हो या फिर कुछ ऐसे जैसे पंचायतों के परंपरागत न्याय को अदालतें खारिज कर दें.बहरहाल मित्र खोज-यात्रा शुरु हुयी.
शुरुआत हमारे अजीज दोस्त राजेश से हुयी.बिना समय बरबाद किये मैंने मतलब की बात शुरु कर दी.उनको ब्लागिंग और अपने ब्लाग के बारे में बताया.पढने को कहा.मैं सोच रहा था कि इसके बाद बात कट जायेगी या फोन.पर जो हुआ वह अप्रत्यासित था.मेरा प्यारा दोस्त मुझसे 16 साल पहले सुनी कविता पंक्तियां दोहरा था:-
1.वो माये काबा से जाके कह दो
अपनी किरणों को चुन के रख लें
मैं अपने पहलू के जर्रे-जर्रे को
खुद चमकना सिखा रहा हूं.
2.......नर्म बिस्तर ,
ऊंची सोंचें
फिर उनींदापन.
इसमें पहली कविता एक चमकदार कवि के मुंह से सुनी थी मैनें.दूसरी मैंने लिखी थी. इन बिछुङी कविताओं को दुबारा पाकर मेरा 'मित्र-मिलन' सुख दूना हो गया.
इतने दिन बाद इन पंक्तियों को मैंने कई बार दोहराया.तुलना की- आपस में इनकी.मुझे लगा -जो आराम मेरी लिखी कविता में है वो चमकदार कविता में नदारद है.किसी को चमकना सिखाना मेहनत का काम है.'माये काबा'से दुश्मनी अलग कि अपनी समान्तर सत्ता चला रहा है.कहीं सद्दाम हुसैन सा हाल न कर दे सर्वशक्तिमान.
पता लगा जर्रे-जर्रे को चमकाने में खुद बुझ गये.इसके मुकाबले मेरी कविता जीवन-सत्य के ज्यादा करीब है.व्यवहारिक नजरिया है--ऊंची सोच के सो जाना.मैं अपनी 'तारीफ में आत्मनिर्भरता' और कालांतर में निद्रा की स्थिति को प्राप्त हुआ.
कुछ देर बाद मैंने पाया कि मैं एक सभा में हूं.मेरे चारो तरफ लटके चेहरों का हुजूम है.मैंने लगभग मान लिया था कि मैं किसी शोकसभा में हूं.पर मंच से लगभग दहाङती हुई ओजपूर्ण आवाज ने मेरा विचार बदला.मुझे लगा कि शायद कोई वीररस का कवि कविता ललकार रहा हो.पर यह विचार भी ज्यादा देर टिक नहीं सका.मैंने कुछ न समझ पाने की स्थिति में यह तय माना कि हो न हो कोई महत्वपूर्ण सभा हो रही हो.
मेरा असमंजस अधिक देर तक साथ नहीं दे पाया.पता चला कि देश के शीर्षतम भ्रष्टाचारियों का सम्मेलन हो रहा था.सभी की चिन्ता पिछले वर्ष के दौरान घटते भ्रष्टाचार को लेकर थी.मुख्य वक्ता 'भ्रष्टाचार उन्नयन समिति'का
अध्यक्ष था.वह दहाङ रहा था:-
मित्रों,आज हमारा मस्तक शर्म से झुका है.चेहरे पर लगता है किसी ने कालिख पोत दी .हम कहीं मुंह दिखाने लायक न रहे.हमारे रहते पिछले साल देश में भ्रष्टाचार कम हो गया.कहते हुये बङा दुख होता है कि विश्व के तमाम पिद्दी देश हमसे भ्रष्टाचार में कहीं आगे हैं.दूर क्यों जाते हैं पङोस में बांगलादेश जिसे अभी कल हमने ही आजाद कराया वो आज हमें भ्रष्टाचार में पीछे छोङ कर सरपट आगे दौङ रहा है.
मित्रों ,यह समय आत्ममंथन का है.विश्लेषण का है.आज हमें विचार करना है कि हमारे पतन के बुनियादी कारण क्या हैं ?आखिर हम कहां चूके ?क्या वजह है कि आजादी के पचास वर्ष बाद भी हम भ्रष्टाचार के शिखर तक
नहीं पहुंचे.दुनिया के पचास देश अभी भी हमसे आगे है.क्या मैं यही दिन देखने के लिये जिन्दा हूं?हाय भगवान तू मुझे उठा क्यों नहीं लेता?
कहना न होगा वीर रस से मामला करुण रस पर पहुंच चुका था .वक्ता पर भावुकता का हल्ला हुआ.उसका गला और वह खुद भी बैठ गया.श्रोताओं में तालियों का हाहाकार मच गया.
कहानी कुछ आगे बढती कि संचालक ने कामर्शियल ब्रेक की घोषणा कर दी.बताया कि कार्यक्रम किन-किन लोगों द्घारा प्रायोजित थे.प्रायोजकों में व्यक्तियों नहीं वरन् घोटालों का जलवा था.स्टैम्प घोटाला,यू टी आई घोटाला आदि
युवा घोटालों के बैनरों में आत्मविश्वास की चमक थी.पुराने,कम कीमत के घोटाले हीनभावना से ग्रस्त लग रहे थे.अकेले दम पर सरकार पलट देने वाले निस्तेज बोफोर्स घोटाले को देखकर लगा कि किस्मत भी क्या-क्या गुल खिलाती है.
कामर्शियल ब्रेक लंबा खिंचता पर 'भ्रष्टाचार कार्यशाला'का समय हो चुका था.कार्यशाला में जिज्ञासुओं कि शंकाओं का समाधान होना था.शंका समाधान प्रश्नोत्तर के रूप में हुआ.कुछ शंकायें और उनके समाधान निम्नवत हैं:-
सवाल:गतवर्ष की अपेक्षा भ्रष्टाचार में पिछङने के क्या कारण हैं?आपकी नजरों में कौन इस पतन के लिये जिम्मेंदार है?
जवाब:अति आत्म विश्वास,अकर्मण्यता,लक्ष्य के प्रति समर्पणका अभाव मुख्य कारण रहे पिछङने के.इस पतन के लिये हम सभी दोषी हैं.
सवाल:आपका लक्ष्य क्या है?
जवाब: देश को भ्रष्टाचार के शिखर पर स्थापित करना.
सवाल:कैसे प्राप्त करेंगे यह लक्ष्य?
जवाब:हम जनता को जागरूक बनायेंगे.इस भ्रम ,दुष्प्रचार को दूर करेंगे कि भ्रष्टाचार अनैतिक,अधार्मिक है.जब भगवान खुद चढावा स्वीकार करते हैं तो भक्तों के लिये यह अनैतिक कैसे होगा?
सवाल: तो क्या भ्रष्टाचार का कोई धर्म से संबंध है?
जवाब:एकदम है.बिना धर्म के भ्रष्टाचारी का कहां गुजारा?जो जितना बडा भ्रष्टाचारी है वो उतना बडा धर्मपारायण है.मैं रोज पांच घंटे पूजा करता हूं.कोई देवी-देवता ऐसा नहीं जिसकी मैं पूजा न करता हूं.भ्रष्टाचार भी एक तपस्या है.
सवाल:तो क्या सारे धार्मिक लोग भ्रष्ट होते हैं?
जवाब:काश ऐसा होता!मेरा कहने का मतलब है कि धर्मपारायण व्यक्ति का भ्रष्ट होना कतई जरूरी नहीं है .परन्तु एक भ्रष्टाचारी का धर्मपारायणहोना अपरिहार्य है.
सवाल:कुछ प्रशिक्षण भी देते हैं आप?
जवाब:हां नवंबर माह में देश भर में जोर-शोर से आयोजित होने वाले सतर्कता सप्ताह में हर सरकारी विभाग में अपने स्वयंसेवकों को भेजते हैं.
सवाल:सो किसलिए?
जवाब:असल में वहां भ्रष्टाचार उन्मूलन के उपाय बताये जाने का रिवाज है,सारे पुराने उपाय तो हमें पता हैं पर कभी कोई नया उपाय बताया जाये तो उसके लागू होने के पहले ही हम उसकी काट खोज लेते हैं.गफलत में नहीं रहते हम.कुछ नये तरीके भी पता चलते हैं घपले करने के.
सवाल:आपके सहयोगी कौन हैं?
जवाब:वर्तमान व्यवस्था.नेता,अपराधी,कानून का तो हमें सक्रिय सहयोग काफी पहले से मिलता रहा है.इधर अदालतों का रुख भी आशातीत सहयोगत्मक हुआ है.कुल मिलाकर माहौल भ्रष्टाचार के अनुकूल है.
सवाल:जो बीच-बीच में आपके कर्मठ,समर्पित भ्रष्टाचारी पकङे जाते हैं उससे आपके अभियान को झटका नहींलगता?
जवाब:झटका कैसा?यह तो हमारे प्रचार अभियान का हिस्सा एक है.इसके माध्यम से हम लोगों को बताते हैं कि देखो कितनी संभावनायें हैं इस काम में.लोग जो पकङे जाते हैंवो लोगों के रोल माडल बनते हैं.हमारा विजय अभियान आगे बढता है.
सवाल:आपकी राह में सबसे बडा अवरोध क्या है भ्रष्टाचार के उत्थान की राह में?
जवाब: जनता .अक्सर जनता नासमझी में यह समझने लगती कि हम कोई गलत काम कर रहे हैं.हालांकि आज तस्वीर उतनी बुरी नहीं जितनी आज से बीस साल पहले थी.आज लोग इसे सहज रूप में लेते हैं.यह अपने आप में उपलब्धि है.
सवाल: क्या आपको लगता है कि आप अपने जीवन काल में भ्रष्टाचार के शिखर तक देश को पहुंचा पायेंगे?
जवाब:उम्मीद पर दुनिया कायम है.मेरा रोम-रोम समर्पित है भ्रष्टाचार के उत्थान के लिये.मुझे पूरी आशा कि हम जल्द ही तमाम बाधाओं को पार करके मंजिल तक पहुंचेंगे.
अभी कार्यशाला चल ही रही थी कि शोर सुनायी दिया.आम जनता जूते,चप्पल,झाङू-पंजा आदि परंपरागत हथियारों से लैस भ्रष्टाचारियों की तरफ आक्रोश पूर्ण मुद्रा में बढी आ रही थी.कार्यशाला का तंबू उखङ चुका था.बंबू बाकी था.हमने शंका समाधान करने वाले महानुभाव की प्रतिक्रिया जानने के लिये उनकी तरफ देखा पर तब तक देर हो चुकी थी. वो महानुभाव जनता का नेतृत्व संभाल चुके थे.'मारो ससुरे भ्रष्टाचारियों 'को
चिल्लाते हुये भ्रष्टाचारियों को पीटने में जुट गये थे.
हल्ले से मेरी नींद टूट गयी.मुझे लगा शिखर बहुत दूर नहीं है.
मेरी पसंद
आधा जीवन जब बीत गया
वनवासी सा गाते रोते,
अब पता चला इस दुनिया में,
सोने के हिरन नहीं होते.
संबध सभी ने तोङ लिये,
चिंता ने कभी नहीं तोङे,
सब हाथ जोङ कर चले गये,
पीङा ने हाथ नहीं जोङे.
सूनी घाटी में अपनी ही
प्रतिध्वनियों ने यों छला हमें,
हम समझ गये पाषाणों में,
वाणी,मन,नयन नहीं होते.
मंदिर-मंदिर भटके लेकर
खंडित विश्वासों के टुकङे,
उसने ही हाथ जलाये-जिस
प्रतिमा के चरण युगल पकङे.
जग जो कहना चाहे कहले
अविरल द्रग जल धारा बह ले,
पर जले हुये इन हाथों से
हमसे अब हवन नहीं होते.
--कन्हैयालाल बाजपेयी
Thursday, October 14, 2004
आधे हाथ की लोमडी,ढाई हाथ की पूंछ
मेरी पत्नी का नाम आशा नहीं है और एक पत्नीशुदा व्यक्ति होने के कारण मेरा 'आशा'से फिलहाल कोई संबंध नहीं है.पर इस देश का यारों क्या कहना - तमाम आशायें पालता है. आस्ट्रेलिया की क्रिकेट टीम से हम हारने की आशा लगाये बैठे थे सो पूरी हुयी.'अतिथि देवो भव'की स्वर्णिम परंपरा का निर्वाह किया हमने पहले टेस्ट मैच में.देवताओं को जीत समर्पित की.शानदार तरीके से हारे.दुनिया की सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाजी के सहयोग से हमने शानदार हार हासिल की.
वो तो बुरा हो इन कम्बख्त, नामुराद पुछल्लों -पठान और हरभजन का जिनकी अनुभवहीन बल्लेबाजी की वजह से हम रिकार्ड अंतर की हार से वंचित रह गये.
हमने बीच में टोंका भी पठान-भज्जी को --अरे जब हारना ही है तो काहे नहीं रिकार्ड बना के हारते.पर कोई सुने तब ना.आजकल के बच्चे बुजर्गों की कहां सुनते हैं.
मैच खतम होने पर किसी ने सिद्दू से पूछा -पाजी,अपने टाप बल्लेबाज तो टापते रहे पर पुछल्लों ने उनकी गेंदबाजी को पटरा कर दिया .इस बारे में आपका क्या कहना है?पाजी बोले ---इसे कहते हैं आधे हाथ की लोमडी,ढाई हाथ की पूछ.शिखर धडाम -जमीन आसमान.जब मैंने सिद्दू को सुना तो मन किया कि देखें अपने शरीर के पांच गुना पूंछ वाली लोमडी कैसी होती है.
लोमडी मिलती है जंगल में .जंगल पर विनम्रता पूर्वक वीरप्पन,ददुआ और लकडी के ठेकेदारों आदि-इत्यादि का कब्जा है.उनसे पूछा तो पता चला कि सारी लोमडियां महाराष्ट्र चुनाव में लगीं हैं सो मिलना मुमकिन नही है.सरकार बनवाकर ही वापस आयेंगी.
मैं प्रत्यक्षत:लोमडी देख नहीं पाया.पर -'जहां न जाये रवि वहां जाये कवि'.अवस्थी को पता नहीं कहां से मेरी लोमड-दर्शन इच्छा का सुराग लग गया.ये -'जेन मित्र दुख होंहि दुखारी,तिनहिं बिलोकत पातक भारी' के झांसे में आ गये.कविता लिखना ये तभी छोङ चुके थे जब से अपना नाम लिखना सीख लिया.पातक से बचने के लिये इन्होंने चार लाइन कीकविता लिखी.कहा लोमडी हम बना दिये.पूछ खुद बनेगी.इस चार लाइन की लोमङ कविता में अभी तक पचास लाइन की टिप्पणी(पूंछ)जुङ चुकी है.शरीर के मुकाबले १२ गुना से ज्यादा लंबी पूंछ.
यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी सक्षम अधिकारी का मूल वेतन अंगद के पांव की तरह स्थिर रहे पर कमाई की पूंछ धूमकेतु की तरह बढती रहे.क्या करे इसमें उसका कोई बस तो है नहीं.सामाजिक नियमों-परंपराओं का पालन करने से खुद को व दूसरों को कैसे रोक दे?वो बेचारा असहाय अपनी पूंछ को बढते देखता है-आबादी की तरह.इतने त्याग के बावजूद लोग तमाम तरह तरह से तंग करते हैं.कभी-कभी पूछ नापकर फिजूल के सवाल करते हैं.शरीर- पूंछ की तुलना करते है.कहां जायेगी दुनिया.भले आदमी का कहीं गुजारा नहीं.
हम आंख मूंद के सबके चिट्ठे पढ रहे थे.अच्छे पाठक की तरह.एक दिन हमारे प्रवासी मित्र ने हमें टोंक दिया-का परेसानी है ?कुछ लिखते काहे नहीं?.अब हमारे तो काटो तो खून नहीं.सन्न.हमारी हालत पचास साला सर्वत्र उपेक्षिता उस षोडसी सी हो गयी जिससे अचानक कोई पूंछ ले-आप कैसी हैं?इस पर उसके गाल शर्म से लाल हों जायें और वह कहे-आप बडे वैसे हैं.कही ऐसे पूछा जाता है.पर वह ससुरा दोस्त ही क्या जो सिर्फ न पूछने वाली बातें ही न पूछे.कहा भी है:-
हमारे सहन में उस तरफ से पत्थर आये
जिस तरफ मेरे दोस्तों की महफिल थी.
पहले भी हमारा भला चाहने वाले साथी ने हमें सुझाया था.कहा-आपके कमेंट बढिया हैं.पर आप अपना ब्लाग बंद कर दें तथा प्रति शब्द पैसा लेकर कमेंट सर्विस(टिप्पणी सेवा)चालू करें.हम झांसे में आते-आते रह गये.ऐन मौके पर हमने सोचा-अभी तो तुलना करने को मेरा ब्लाग है.सो इनको मेरे कमेंट बेहतर लगते हैं.ब्लाग बंद कर देने पर बताया जायेगा-आप पाठक अच्छे हैं,बशर्ते कमेंट करना बंद कर दें.हम तो कहीं के न रहेंगे(अभी भी कहां है?).लिहाजा हम लालच में फंसते-फंसते बाल-बाल बचे.
टिप्पणी का भी शाष्त्र होता है.टिप्पणी करना मतलब टिपियाना--बिना टिप्पणी का चिट्ठा चिट्ठाकार के लिये जवान लडकी की तरह बोझ सा लगता है.टिप्पणी होने पर लगता है लडकी की मांग भर गयी.पोस्टिंग को सुहाग मिल गया.जिसको जितने अधिक सुहाग मिलते हैं वह उतना अधिक चर्चित होता है-दौपद्री और एलिजाबेथ टेलर की तरह.
टिप्पणी का आम नियम है.आंख मूंद के आपका ब्लाग पढा.वाह-वाह,आह-आह लिखा.जहां तारीफ हुई नहीं कि गया लेखक काम से.तारीफ ऐसा ब्रम्हास्त्र है जिसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.तारीफ के बाद भाग के अपना ब्लाग पूरा किया.झक मार के आयेगा वो आपका ब्लाग पढने.खुद भले आप कतरायें,अपना लिखा पढने में.
जबसे हमने अपने चिट्ठे में काउंटर(गणक)लगाया है,तबसे हम बहुत हिसाबी हो गये हैं.जैसे किसान अपनी लहलहाती खेती देखता है वैसे हम अपने काउंटर को निहारते है.दिन में कई बार.कितने लोगों ने हमारा ब्लाग देखा यह हम बार-बार देखते हैं .जाहिर है सबसे ज्रयादा बार हम ही देखते हैं इसे.हमारे गणक में १२ अक्टूबर का ग्राफ हमें एफिल टावर की तरह लगता है.ठेलहा काउंटर में ८ अक्टूबर के पहले की खाली जगह देख के लगता है कि यहीं कहीं 'ट्रिवन टावर'रहे होंगे जो आज जमींदोज हैं.हमारा अभी तक का एक दिन सर्वाधिक हिट का आंकङा ६२ का है.पहले यह ६० था.एक दिन रात १२ बजे के कुछ पहले हमने देखा कि हमारे ब्लाग में उस दिन ६० हिट हो चुकी थीं.मामला'टाई'पर था.ऐतिहासिक क्षण से हम मात्र एक हिट दूर थे.मन किया कि दन्न से दुबारा फिर देख लूं ब्लाग.रिकार्ड खुद ही तोड लूं.क्या किसी का भरोसा करूं.पर पता नहीं क्यों हम भावुक नैतिकता के शिकार हो गये.हम ठिठक गये.लगा कि यह गलत है.वैसे मुझे बाद में लगा कि यह एहसास कुछ ऐसा ही है जैसे करोडों का घपला करने वाले किसी खुर्राट पर अचानक नैतिकता हमला कर दे और वह घर जाने से पहले सोचे कि आफिस का पेन घर ले जाना गलत है और वह पेन निकालकर वापस ड्रार में रख दे तथा सोंचे कि मैं पतन से बच गया.
हम परेशान थे कि अचानक मेरे एक मित्र का नेट पर अवतार हुआ.वो बोला -हेलो.हम बोले -पहले हमारा ब्लाग देखो तब बात करते हैं.वो बोला -ब्लाग ? ये क्या होता है? हम बोले ये सब बाद में पूंछना पहले 'फुरसतिया'ब्लाग देखो.१० मिनट हम इन्तजार किये.हिट ६० पर अटकी थी.हमारा धैर्य जवाब दे रहा था.हम 'बजर'पर 'बजर'मार रहे थे उधर से कोई जवाब नहीं.हम मोबाइल पर फोन किये उसको.पूछा -देखा?वो बोला -कहीं दिखा ही नहीं.'गूगल'सर्च में भी कोई रिजल्ट नहीं मिला.हमने सोचा-दुनिया का सारा अज्ञान लगता है मेरे मित्र के संरक्षण में है.पर वो लिक्खाङ भी क्या जो अपना लिखा दूसरे को पङा न दे?हमने अंधे को सङक पार कराने वाले अंदाज में उसको अपना ब्लाग देखने पर मजबूर किया.वो देख के बोला-इसमें लिखा क्या है? कुछ दिख नहीं रहा है.सिर्फ लाइनें हैंं.हम बोले- कोई बात नहीं छोङ दो. फिर देखना.हमारा काम हो चुका था.हमारे '६२'हिट हो चुके थे.पुराना रिकार्ड टूट चुका था.नया बन चुका था.मुझे नहीं लगता कि राजा जनक को 'शिव-धनुष'टूटने पर इतनी खुशी हुयी होगी जितनी मुझे अपने ब्लाग के हिट का पुराना रिकर्ाड टूटने पर हुयी.मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाये.
पर जब इन्दर बोले-कुछ लिखते काहे नहीं तो हम सही में अचकचा गये.भावुक हो गये.जबसे जितेन्दर भइया ने बताया कि लोग उनसे मेल लिख के तमाम ऐसी-वैसी बातें भी पूंछते हैं तबसे हमे बडी शरम आ रही थी कि हाय हमसे कोई कुछ पूंछता क्यों नहीं?मेल लिखकर अलग से पूछता तो दूर यहां खुले में भि कोई कुछ नहीं पूछता नहीं.पर जिस दिन से हमसे पूंछा गया-लिखते क्यों नहीं?तब से हमें लगा कि दुनिया में कदरदानों की कमी नहीं है.हमारा सारा हीन भाव गायब हो गया.अवस्थी ,आओगे अबकी तो तुमको चाय पिलायेंगे बनाके.
पिछले दिनों कईप्रवासियओं द्दारा प्रवासियओं के बारे में काफी कुछ लिखा गया.लिटमस टेस्ट भी आ गया .सबके फटे में टांग अङाने की पवित्र परंपरा का निर्वाह करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूं.लिहाजा हम भी कुछ हालते-बयां करेंगे.
जब परदेश जाता है पहली बार प्रवासी तो कहता है:-
उस शहर में कोई बेल ऐसी नहीं
जो देहाती परिंदे के पर बांध ले,
जंगली आम की जानलेवा महक
जब बुलायेगी वापस चला आऊंगा.
घर वाले भी कहते है:-
चाहे जितने दूर रहो तुम
कितने ही मजबूर रहो तुम,
जब मेरी आवाज सुनोगे-
सब कुछ छोङ चले आओगे.
कुछ दिन-साल रहने के बाद की स्थिति स्व.रमानाथ अवस्थी के बताते हैं:-
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते.
जिन्दगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते.
समय की नदी में लोग मन माफिक तैर सकें यही कामना है.
मेरी पसंद
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
-कन्हैयालाल नंदन
वो तो बुरा हो इन कम्बख्त, नामुराद पुछल्लों -पठान और हरभजन का जिनकी अनुभवहीन बल्लेबाजी की वजह से हम रिकार्ड अंतर की हार से वंचित रह गये.
हमने बीच में टोंका भी पठान-भज्जी को --अरे जब हारना ही है तो काहे नहीं रिकार्ड बना के हारते.पर कोई सुने तब ना.आजकल के बच्चे बुजर्गों की कहां सुनते हैं.
मैच खतम होने पर किसी ने सिद्दू से पूछा -पाजी,अपने टाप बल्लेबाज तो टापते रहे पर पुछल्लों ने उनकी गेंदबाजी को पटरा कर दिया .इस बारे में आपका क्या कहना है?पाजी बोले ---इसे कहते हैं आधे हाथ की लोमडी,ढाई हाथ की पूछ.शिखर धडाम -जमीन आसमान.जब मैंने सिद्दू को सुना तो मन किया कि देखें अपने शरीर के पांच गुना पूंछ वाली लोमडी कैसी होती है.
लोमडी मिलती है जंगल में .जंगल पर विनम्रता पूर्वक वीरप्पन,ददुआ और लकडी के ठेकेदारों आदि-इत्यादि का कब्जा है.उनसे पूछा तो पता चला कि सारी लोमडियां महाराष्ट्र चुनाव में लगीं हैं सो मिलना मुमकिन नही है.सरकार बनवाकर ही वापस आयेंगी.
मैं प्रत्यक्षत:लोमडी देख नहीं पाया.पर -'जहां न जाये रवि वहां जाये कवि'.अवस्थी को पता नहीं कहां से मेरी लोमड-दर्शन इच्छा का सुराग लग गया.ये -'जेन मित्र दुख होंहि दुखारी,तिनहिं बिलोकत पातक भारी' के झांसे में आ गये.कविता लिखना ये तभी छोङ चुके थे जब से अपना नाम लिखना सीख लिया.पातक से बचने के लिये इन्होंने चार लाइन कीकविता लिखी.कहा लोमडी हम बना दिये.पूछ खुद बनेगी.इस चार लाइन की लोमङ कविता में अभी तक पचास लाइन की टिप्पणी(पूंछ)जुङ चुकी है.शरीर के मुकाबले १२ गुना से ज्यादा लंबी पूंछ.
यह कुछ ऐसा ही है जैसे किसी सक्षम अधिकारी का मूल वेतन अंगद के पांव की तरह स्थिर रहे पर कमाई की पूंछ धूमकेतु की तरह बढती रहे.क्या करे इसमें उसका कोई बस तो है नहीं.सामाजिक नियमों-परंपराओं का पालन करने से खुद को व दूसरों को कैसे रोक दे?वो बेचारा असहाय अपनी पूंछ को बढते देखता है-आबादी की तरह.इतने त्याग के बावजूद लोग तमाम तरह तरह से तंग करते हैं.कभी-कभी पूछ नापकर फिजूल के सवाल करते हैं.शरीर- पूंछ की तुलना करते है.कहां जायेगी दुनिया.भले आदमी का कहीं गुजारा नहीं.
हम आंख मूंद के सबके चिट्ठे पढ रहे थे.अच्छे पाठक की तरह.एक दिन हमारे प्रवासी मित्र ने हमें टोंक दिया-का परेसानी है ?कुछ लिखते काहे नहीं?.अब हमारे तो काटो तो खून नहीं.सन्न.हमारी हालत पचास साला सर्वत्र उपेक्षिता उस षोडसी सी हो गयी जिससे अचानक कोई पूंछ ले-आप कैसी हैं?इस पर उसके गाल शर्म से लाल हों जायें और वह कहे-आप बडे वैसे हैं.कही ऐसे पूछा जाता है.पर वह ससुरा दोस्त ही क्या जो सिर्फ न पूछने वाली बातें ही न पूछे.कहा भी है:-
हमारे सहन में उस तरफ से पत्थर आये
जिस तरफ मेरे दोस्तों की महफिल थी.
पहले भी हमारा भला चाहने वाले साथी ने हमें सुझाया था.कहा-आपके कमेंट बढिया हैं.पर आप अपना ब्लाग बंद कर दें तथा प्रति शब्द पैसा लेकर कमेंट सर्विस(टिप्पणी सेवा)चालू करें.हम झांसे में आते-आते रह गये.ऐन मौके पर हमने सोचा-अभी तो तुलना करने को मेरा ब्लाग है.सो इनको मेरे कमेंट बेहतर लगते हैं.ब्लाग बंद कर देने पर बताया जायेगा-आप पाठक अच्छे हैं,बशर्ते कमेंट करना बंद कर दें.हम तो कहीं के न रहेंगे(अभी भी कहां है?).लिहाजा हम लालच में फंसते-फंसते बाल-बाल बचे.
टिप्पणी का भी शाष्त्र होता है.टिप्पणी करना मतलब टिपियाना--बिना टिप्पणी का चिट्ठा चिट्ठाकार के लिये जवान लडकी की तरह बोझ सा लगता है.टिप्पणी होने पर लगता है लडकी की मांग भर गयी.पोस्टिंग को सुहाग मिल गया.जिसको जितने अधिक सुहाग मिलते हैं वह उतना अधिक चर्चित होता है-दौपद्री और एलिजाबेथ टेलर की तरह.
टिप्पणी का आम नियम है.आंख मूंद के आपका ब्लाग पढा.वाह-वाह,आह-आह लिखा.जहां तारीफ हुई नहीं कि गया लेखक काम से.तारीफ ऐसा ब्रम्हास्त्र है जिसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.तारीफ के बाद भाग के अपना ब्लाग पूरा किया.झक मार के आयेगा वो आपका ब्लाग पढने.खुद भले आप कतरायें,अपना लिखा पढने में.
जबसे हमने अपने चिट्ठे में काउंटर(गणक)लगाया है,तबसे हम बहुत हिसाबी हो गये हैं.जैसे किसान अपनी लहलहाती खेती देखता है वैसे हम अपने काउंटर को निहारते है.दिन में कई बार.कितने लोगों ने हमारा ब्लाग देखा यह हम बार-बार देखते हैं .जाहिर है सबसे ज्रयादा बार हम ही देखते हैं इसे.हमारे गणक में १२ अक्टूबर का ग्राफ हमें एफिल टावर की तरह लगता है.ठेलहा काउंटर में ८ अक्टूबर के पहले की खाली जगह देख के लगता है कि यहीं कहीं 'ट्रिवन टावर'रहे होंगे जो आज जमींदोज हैं.हमारा अभी तक का एक दिन सर्वाधिक हिट का आंकङा ६२ का है.पहले यह ६० था.एक दिन रात १२ बजे के कुछ पहले हमने देखा कि हमारे ब्लाग में उस दिन ६० हिट हो चुकी थीं.मामला'टाई'पर था.ऐतिहासिक क्षण से हम मात्र एक हिट दूर थे.मन किया कि दन्न से दुबारा फिर देख लूं ब्लाग.रिकार्ड खुद ही तोड लूं.क्या किसी का भरोसा करूं.पर पता नहीं क्यों हम भावुक नैतिकता के शिकार हो गये.हम ठिठक गये.लगा कि यह गलत है.वैसे मुझे बाद में लगा कि यह एहसास कुछ ऐसा ही है जैसे करोडों का घपला करने वाले किसी खुर्राट पर अचानक नैतिकता हमला कर दे और वह घर जाने से पहले सोचे कि आफिस का पेन घर ले जाना गलत है और वह पेन निकालकर वापस ड्रार में रख दे तथा सोंचे कि मैं पतन से बच गया.
हम परेशान थे कि अचानक मेरे एक मित्र का नेट पर अवतार हुआ.वो बोला -हेलो.हम बोले -पहले हमारा ब्लाग देखो तब बात करते हैं.वो बोला -ब्लाग ? ये क्या होता है? हम बोले ये सब बाद में पूंछना पहले 'फुरसतिया'ब्लाग देखो.१० मिनट हम इन्तजार किये.हिट ६० पर अटकी थी.हमारा धैर्य जवाब दे रहा था.हम 'बजर'पर 'बजर'मार रहे थे उधर से कोई जवाब नहीं.हम मोबाइल पर फोन किये उसको.पूछा -देखा?वो बोला -कहीं दिखा ही नहीं.'गूगल'सर्च में भी कोई रिजल्ट नहीं मिला.हमने सोचा-दुनिया का सारा अज्ञान लगता है मेरे मित्र के संरक्षण में है.पर वो लिक्खाङ भी क्या जो अपना लिखा दूसरे को पङा न दे?हमने अंधे को सङक पार कराने वाले अंदाज में उसको अपना ब्लाग देखने पर मजबूर किया.वो देख के बोला-इसमें लिखा क्या है? कुछ दिख नहीं रहा है.सिर्फ लाइनें हैंं.हम बोले- कोई बात नहीं छोङ दो. फिर देखना.हमारा काम हो चुका था.हमारे '६२'हिट हो चुके थे.पुराना रिकार्ड टूट चुका था.नया बन चुका था.मुझे नहीं लगता कि राजा जनक को 'शिव-धनुष'टूटने पर इतनी खुशी हुयी होगी जितनी मुझे अपने ब्लाग के हिट का पुराना रिकर्ाड टूटने पर हुयी.मुझे खुशी मिली इतनी कि मन में न समाये.
पर जब इन्दर बोले-कुछ लिखते काहे नहीं तो हम सही में अचकचा गये.भावुक हो गये.जबसे जितेन्दर भइया ने बताया कि लोग उनसे मेल लिख के तमाम ऐसी-वैसी बातें भी पूंछते हैं तबसे हमे बडी शरम आ रही थी कि हाय हमसे कोई कुछ पूंछता क्यों नहीं?मेल लिखकर अलग से पूछता तो दूर यहां खुले में भि कोई कुछ नहीं पूछता नहीं.पर जिस दिन से हमसे पूंछा गया-लिखते क्यों नहीं?तब से हमें लगा कि दुनिया में कदरदानों की कमी नहीं है.हमारा सारा हीन भाव गायब हो गया.अवस्थी ,आओगे अबकी तो तुमको चाय पिलायेंगे बनाके.
पिछले दिनों कईप्रवासियओं द्दारा प्रवासियओं के बारे में काफी कुछ लिखा गया.लिटमस टेस्ट भी आ गया .सबके फटे में टांग अङाने की पवित्र परंपरा का निर्वाह करने से मैं अपने को रोक नहीं पा रहा हूं.लिहाजा हम भी कुछ हालते-बयां करेंगे.
जब परदेश जाता है पहली बार प्रवासी तो कहता है:-
उस शहर में कोई बेल ऐसी नहीं
जो देहाती परिंदे के पर बांध ले,
जंगली आम की जानलेवा महक
जब बुलायेगी वापस चला आऊंगा.
घर वाले भी कहते है:-
चाहे जितने दूर रहो तुम
कितने ही मजबूर रहो तुम,
जब मेरी आवाज सुनोगे-
सब कुछ छोङ चले आओगे.
कुछ दिन-साल रहने के बाद की स्थिति स्व.रमानाथ अवस्थी के बताते हैं:-
आज आप हैं हम हैं लेकिन
कल कहां होंगे कह नहीं सकते.
जिन्दगी ऐसी नदी है जिसमें
देर तक साथ बह नहीं सकते.
समय की नदी में लोग मन माफिक तैर सकें यही कामना है.
मेरी पसंद
अजब सी छटपटाहट,
घुटन,कसकन ,है असह पीङा
समझ लो
साधना की अवधि पूरी है
अरे घबरा न मन
चुपचाप सहता जा
सृजन में दर्द का होना जरूरी है.
-कन्हैयालाल नंदन
Wednesday, October 06, 2004
गुडिया जो मेले में कल दुकान पर थी
जब इश्क की बात चलती है तो मुझे 'वाली असी' का शेर याद आता है:-
अगर तू इश्क में बरवाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता.
सैकडों उदाहरण मिल जायेंगे जहां प्रेमी ने प्रेमिका की खुशी के लिये बलिदान दिये.बर्बाद हुये.उसने कहा थाके लहनासिंह की प्रेमकथा 'तेरी कुडमाई हो गयी?' के जवाब-'धत्त' में पूरी जाती है.पर इसका निर्वाह लहनासिंह अपनी कुर्बानी देते हुये प्रेमिका के पति की जान बचाकर करता है.
जयशंकर प्रसाद की कहानी 'गुंडा'के बाबू नन्हकू सिंह की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती है पर गंडासा तब तक चलता रहता है जब तक राजा-रानी सकुशल नहीं हो जाते.कारण- वो कभी रानी को चाहते थे(जब वो कुंवारी थीं) .शादी नहीं हो पायी पर प्रेमपरीक्षा में पास हुये-अव्वल.
प्रेम परीक्षा में पतियों का मामला काफी ढीला रहा.चाहे वो राम रहे हों या पांडव.जब उनकी पत्नी को सबसे ज्यादा उनकी जरूरत थी तब ये महान लोग धर्मपालन,नीतिगत आचरण में लगे थे.
गुडिया,आरिफ, तौफीक का मामला कोई अलग नहीं है.शरीयत इस्लाम कानून सब कुछ आरिफ के पक्षमें है.पर बहुत से लोग हैं जो मानते कि शरीयत कानून का पालन कुर्बानी से नहीं रोकता.
मशहूर शायर मुनव्वर राना का भी यही मानना है.अमर उजाला प्रकाशित एक बातचीत में उन्होने बताया है कि
अगर वो आरिफ की जगह होते तो क्या करते.बातचीत जस की तस यहां प्रस्तुत है(काश इसे आरिफ भी पडता):-
"आरिफ होने की सूरत में मैं इस्लाम का सच्चा नुमांइदा होने का सुबूत देता.इस्लाम की बुनियाद है कुर्बानी.जो कुर्बानी से पीछे हट जाये,वह मुसलमान नहीं है.गुडिया तौफीक को सौंपकर मैं इस्लाम का मान बढाता.शरीयत के सच से कोई मुसलमान इंकार नहीं कर सकता .लेकिन ,शरीयत तलाक देने से नहीं रोकती है.इस विवाद की
शुरुआत से पहले ही गुडिया को तलाक देकर दोराहे पर पहंचने वाली स्थिति से बचा लेता.अपने घर की गुडिया को बाजार में तमाशा न बनने देता .मुझे अपना बीस बरस पुराना एक शेर याद आ रहा है:-
वो एक गुडिया जो मेले में कल दुकान पर थी,
दिनों की बात है पहले मेरे मकान पर थी.
मैं अपनी जिंदगी तो नए सिरे से शुरु कर सकता था.लेकिन गुडिया आज जहां है,वहां उसे तौफीक से अलग करना मुझे कभी गवारा न होता.ऐसा करके मैंतलाक की विचारधारा पर उंगली उठाने वालों को करारा जवाब भी देता. तलाक का इस्तेमाल अपने हक में करने वाले तो लाखों मिल जायेंगे.तलाक का इस्तेमाल दूसरे के हक में करके मैं एक अनोखा उदाहरण पेश करने का अवसर कभी न गवांता .गुडिया से जुदा होने को मैं कुछ इस तरह लेता:-
बिछडते वक्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों,
किसी ने मुड के किसी की तरफ नहीं देखा.
आरिफ के तौर पर मैं उस जिम्मेंदारी को भी निभाता कि घर की दहलीज के भीतर लिये जाने वाले फैसले को टेलीविजन के स्टूडियो तक न ले जायाजाये.मेरा इससे बडा गुनाह और क्या होता कि जो फैसला मदरसों और खानकाहों में होनाचाहिये,उसे मेरी वजह से टेलीविजन स्टूडियो में तक ले जाया जाये.इस्लाम की प्रतिनिधि संस्थाओं और प्रमुख व्यक्तियों को भी यह चाहिये था कि टेलीविजनस्टूडियो में बहस करने के बजाय सब देवबंद में मिल-जुलकर बैठते और मसले का हल ढूंढते.आज तो सबने पूरे मामले का मजाक बना दिया है.गुडिया का हाल मुस्तफा जैदी के शब्दों में कुछ इस तरह हो गया है:-
और वो नन्हीं सी मासूम सी भोली सी गुडिया,
अपने कुनबे की शराफत के लिये बिक भी गई.
जो समझती है थी कि जश्न-ए-वफा कैसा है,
जिसने लुटकर भी न पूंछा कि खुदा कैसा है.
लखनऊ में एक किस्सा चलता है.दो दोस्त आपस में हंसी-मजाक की बातें कर रहे थे.एक दोस्त दूसरे की बीबी की तारीफ करने लगा दूसरे ने कहा--क्योंकि तुझे पसंद है तो मैं तलाक दिये दे रहा हूं,तुम निकाह कर लो.जो दोस्त को पसंद आ गई ,वह मेरी नहीं रही.
इस वाकये का इस्तेमाल लखनवी तहजीब के हवाले से होता है.लेकिन मैं बतौर आरिफ ,गुडिया को भी दोस्त की हैसियत से देखते हुये,उसे उसकी पसंद-तौफीक को सौंप देता.गुडिया मेरी थी,तौफीक की है वाले सच पर ही यकीन करता.बतौर आरिफ मैं गुडिया के हिस्से से पसंद-नापसंद का अधिकार तो न ही छीनता.साहिरलुधियानवी के शब्दों में कुछ यूं कहता:-
तू मेरी जान मुझे हैरत-ओ-हसरत से न देख,
हममें कोई भी जहांनूर-जहांगीर नहीं.
तू मुझे छोड के ठुकरा के भी जा सकती है,
तेरे हाथों में हाथ है ,जंजीर नहीं."
अगर तू इश्क में बरवाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता.
सैकडों उदाहरण मिल जायेंगे जहां प्रेमी ने प्रेमिका की खुशी के लिये बलिदान दिये.बर्बाद हुये.उसने कहा थाके लहनासिंह की प्रेमकथा 'तेरी कुडमाई हो गयी?' के जवाब-'धत्त' में पूरी जाती है.पर इसका निर्वाह लहनासिंह अपनी कुर्बानी देते हुये प्रेमिका के पति की जान बचाकर करता है.
जयशंकर प्रसाद की कहानी 'गुंडा'के बाबू नन्हकू सिंह की बोटी-बोटी कटकर गिरती रहती है पर गंडासा तब तक चलता रहता है जब तक राजा-रानी सकुशल नहीं हो जाते.कारण- वो कभी रानी को चाहते थे(जब वो कुंवारी थीं) .शादी नहीं हो पायी पर प्रेमपरीक्षा में पास हुये-अव्वल.
प्रेम परीक्षा में पतियों का मामला काफी ढीला रहा.चाहे वो राम रहे हों या पांडव.जब उनकी पत्नी को सबसे ज्यादा उनकी जरूरत थी तब ये महान लोग धर्मपालन,नीतिगत आचरण में लगे थे.
गुडिया,आरिफ, तौफीक का मामला कोई अलग नहीं है.शरीयत इस्लाम कानून सब कुछ आरिफ के पक्षमें है.पर बहुत से लोग हैं जो मानते कि शरीयत कानून का पालन कुर्बानी से नहीं रोकता.
मशहूर शायर मुनव्वर राना का भी यही मानना है.अमर उजाला प्रकाशित एक बातचीत में उन्होने बताया है कि
अगर वो आरिफ की जगह होते तो क्या करते.बातचीत जस की तस यहां प्रस्तुत है(काश इसे आरिफ भी पडता):-
"आरिफ होने की सूरत में मैं इस्लाम का सच्चा नुमांइदा होने का सुबूत देता.इस्लाम की बुनियाद है कुर्बानी.जो कुर्बानी से पीछे हट जाये,वह मुसलमान नहीं है.गुडिया तौफीक को सौंपकर मैं इस्लाम का मान बढाता.शरीयत के सच से कोई मुसलमान इंकार नहीं कर सकता .लेकिन ,शरीयत तलाक देने से नहीं रोकती है.इस विवाद की
शुरुआत से पहले ही गुडिया को तलाक देकर दोराहे पर पहंचने वाली स्थिति से बचा लेता.अपने घर की गुडिया को बाजार में तमाशा न बनने देता .मुझे अपना बीस बरस पुराना एक शेर याद आ रहा है:-
वो एक गुडिया जो मेले में कल दुकान पर थी,
दिनों की बात है पहले मेरे मकान पर थी.
मैं अपनी जिंदगी तो नए सिरे से शुरु कर सकता था.लेकिन गुडिया आज जहां है,वहां उसे तौफीक से अलग करना मुझे कभी गवारा न होता.ऐसा करके मैंतलाक की विचारधारा पर उंगली उठाने वालों को करारा जवाब भी देता. तलाक का इस्तेमाल अपने हक में करने वाले तो लाखों मिल जायेंगे.तलाक का इस्तेमाल दूसरे के हक में करके मैं एक अनोखा उदाहरण पेश करने का अवसर कभी न गवांता .गुडिया से जुदा होने को मैं कुछ इस तरह लेता:-
बिछडते वक्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों,
किसी ने मुड के किसी की तरफ नहीं देखा.
आरिफ के तौर पर मैं उस जिम्मेंदारी को भी निभाता कि घर की दहलीज के भीतर लिये जाने वाले फैसले को टेलीविजन के स्टूडियो तक न ले जायाजाये.मेरा इससे बडा गुनाह और क्या होता कि जो फैसला मदरसों और खानकाहों में होनाचाहिये,उसे मेरी वजह से टेलीविजन स्टूडियो में तक ले जाया जाये.इस्लाम की प्रतिनिधि संस्थाओं और प्रमुख व्यक्तियों को भी यह चाहिये था कि टेलीविजनस्टूडियो में बहस करने के बजाय सब देवबंद में मिल-जुलकर बैठते और मसले का हल ढूंढते.आज तो सबने पूरे मामले का मजाक बना दिया है.गुडिया का हाल मुस्तफा जैदी के शब्दों में कुछ इस तरह हो गया है:-
और वो नन्हीं सी मासूम सी भोली सी गुडिया,
अपने कुनबे की शराफत के लिये बिक भी गई.
जो समझती है थी कि जश्न-ए-वफा कैसा है,
जिसने लुटकर भी न पूंछा कि खुदा कैसा है.
लखनऊ में एक किस्सा चलता है.दो दोस्त आपस में हंसी-मजाक की बातें कर रहे थे.एक दोस्त दूसरे की बीबी की तारीफ करने लगा दूसरे ने कहा--क्योंकि तुझे पसंद है तो मैं तलाक दिये दे रहा हूं,तुम निकाह कर लो.जो दोस्त को पसंद आ गई ,वह मेरी नहीं रही.
इस वाकये का इस्तेमाल लखनवी तहजीब के हवाले से होता है.लेकिन मैं बतौर आरिफ ,गुडिया को भी दोस्त की हैसियत से देखते हुये,उसे उसकी पसंद-तौफीक को सौंप देता.गुडिया मेरी थी,तौफीक की है वाले सच पर ही यकीन करता.बतौर आरिफ मैं गुडिया के हिस्से से पसंद-नापसंद का अधिकार तो न ही छीनता.साहिरलुधियानवी के शब्दों में कुछ यूं कहता:-
तू मेरी जान मुझे हैरत-ओ-हसरत से न देख,
हममें कोई भी जहांनूर-जहांगीर नहीं.
तू मुझे छोड के ठुकरा के भी जा सकती है,
तेरे हाथों में हाथ है ,जंजीर नहीं."
Sunday, October 03, 2004
विकल्पहीन नहीं है दुनिया
कल गांधी जयंती थी.कुल ६१ लोगों की बलि दी गयी-नागालैंड और असम में.शान्ति और अहिंसा के पुजारी का जन्मदिन इससे बेहतर और धमाकेदार तरीके से कैसे मनाया जा सकता है?
बहुत पहले मैंने एक कार्टून देखा था.गांधीजी एक आतंकवादी को अपनी लाठी फेंककर मार रहे हैं कहते हुये--दुष्ट हिंसा करते हो.वह भी विदेशी हथियारों से!
इस अवसर पर एक किताब छपी है-'मीरा और महात्मा'.इसके लेखक ने बडी मेहनत से तथ्य जुटाके बताया है कि मीराबेन गांधीजी को एक तरफा प्यार करतीं थीं.एक बार गांधीजी के तलुओं की मालिश करते हुये मीराबेन ने
आसुओं से गांधीजी के तलुये भिगो दिये थे.इसपर गांधीजी ने मीराबेन को अपने कमरे में जाने को कहा( मीराबेन से प्यार का एक और दावा हुआ है).
मुझे लगता है कि अपने कमरे में जाके मीराबेन ने जिस तौलिये से आंसू पोछे होंगे वह ले खक के हाथ लग गया होगा.उसी को निचोड के'मीरा औरमहात्मा'लिख मारा.
गांधीजी 'सत्य केप्रयोग'में वो सब लिख चुके हैं जो आज भी सनसनीखेज लगता है.उनका तो खैर क्या कुछ बिगडेगा.विदेशी लोग जरूर सोचेंगे अपनी बिटिया ऐसे देश भेजने के पहले 55-60 साल पुरानी घटनाओं के हवाले से इज्जत उछाल दी जाये.
कोई मेरठ-मुजफ्फरपुर का जाट बाप होता तो पंचायत बुला के सरेआम फूंक देता बिटिया को----चाहे जितना मंहगा हो पेट्रोल,मिट्टी का तेल.
लोग कहते हैं कि आखिरी दिनों में गांधीजी की स्थिति उस बुजुर्ग की तरह हो गयी थी जिसके जवान लडके कहते हैं-बप्पा तुम चुपचाप रामनाम जपौ.ई दुनियादारी के चक्कर मां तबियत न खराब करौ.
अक्सर बात उठती--आज के समय गांधी की प्रासंगिकता क्या है?गांधी हर हाल में विकल्प के प्रतीक हैं.यह बात बहुत खूबसूरती से स्व.किशन पटनायक ने अपनी पुस्तक- 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया' में कही है.
गांधीजी जन्मना महान नहीं थे.तमाम मानवीय कमजोरियों के साथ उन्होंने अपना उद्दातीकरण किया.आज स्थितियां शायद उतनी जटिल न हों कि किसी को इतनी प्रेरणा दे सकें कि वो विकल्प सुझा सके.मेरी एक कविता है:-
हीरामन,
तुम फडफडाते ही रहोगे-
बाज के चंगुल में
तुम्हें बचाने कोई
परीक्षित न आयेगा.
परीक्षित आता है
इतिहास के निमंत्रण पर
किसी की बेबसी से पसीजकर नहीं.
लगता है कि इतिहास का निमंत्रणपत्र अभी छपा नहीं.
मेरी पसंद
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.
हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.
हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड आये.
फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड आये.
ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.
--शाहिद रजा
बहुत पहले मैंने एक कार्टून देखा था.गांधीजी एक आतंकवादी को अपनी लाठी फेंककर मार रहे हैं कहते हुये--दुष्ट हिंसा करते हो.वह भी विदेशी हथियारों से!
इस अवसर पर एक किताब छपी है-'मीरा और महात्मा'.इसके लेखक ने बडी मेहनत से तथ्य जुटाके बताया है कि मीराबेन गांधीजी को एक तरफा प्यार करतीं थीं.एक बार गांधीजी के तलुओं की मालिश करते हुये मीराबेन ने
आसुओं से गांधीजी के तलुये भिगो दिये थे.इसपर गांधीजी ने मीराबेन को अपने कमरे में जाने को कहा( मीराबेन से प्यार का एक और दावा हुआ है).
मुझे लगता है कि अपने कमरे में जाके मीराबेन ने जिस तौलिये से आंसू पोछे होंगे वह ले खक के हाथ लग गया होगा.उसी को निचोड के'मीरा औरमहात्मा'लिख मारा.
गांधीजी 'सत्य केप्रयोग'में वो सब लिख चुके हैं जो आज भी सनसनीखेज लगता है.उनका तो खैर क्या कुछ बिगडेगा.विदेशी लोग जरूर सोचेंगे अपनी बिटिया ऐसे देश भेजने के पहले 55-60 साल पुरानी घटनाओं के हवाले से इज्जत उछाल दी जाये.
कोई मेरठ-मुजफ्फरपुर का जाट बाप होता तो पंचायत बुला के सरेआम फूंक देता बिटिया को----चाहे जितना मंहगा हो पेट्रोल,मिट्टी का तेल.
लोग कहते हैं कि आखिरी दिनों में गांधीजी की स्थिति उस बुजुर्ग की तरह हो गयी थी जिसके जवान लडके कहते हैं-बप्पा तुम चुपचाप रामनाम जपौ.ई दुनियादारी के चक्कर मां तबियत न खराब करौ.
अक्सर बात उठती--आज के समय गांधी की प्रासंगिकता क्या है?गांधी हर हाल में विकल्प के प्रतीक हैं.यह बात बहुत खूबसूरती से स्व.किशन पटनायक ने अपनी पुस्तक- 'विकल्पहीन नहीं है दुनिया' में कही है.
गांधीजी जन्मना महान नहीं थे.तमाम मानवीय कमजोरियों के साथ उन्होंने अपना उद्दातीकरण किया.आज स्थितियां शायद उतनी जटिल न हों कि किसी को इतनी प्रेरणा दे सकें कि वो विकल्प सुझा सके.मेरी एक कविता है:-
हीरामन,
तुम फडफडाते ही रहोगे-
बाज के चंगुल में
तुम्हें बचाने कोई
परीक्षित न आयेगा.
परीक्षित आता है
इतिहास के निमंत्रण पर
किसी की बेबसी से पसीजकर नहीं.
लगता है कि इतिहास का निमंत्रणपत्र अभी छपा नहीं.
मेरी पसंद
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.
हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये.
हमारे घर के दरो-बाम रात भर जागे,
अधूरी आप जो वो दास्तान छोड आये.
फजा में जहर हवाओं ने ऐसे घोल दिया,
कई परिन्दे तो अबके उडान छोड आये.
ख्यालों-ख्वाब की दुनिया उजड गयी 'शाहिद'
बुरा हुआ जो उन्हें बदगुमान छोड आये.
--शाहिद रजा
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