प्रतिदिन दो शेखचिल्लीनुमा आइडियों को चार तरीके से आठ बार अंजाम देकर चहकते रहने वाले जीतेन्दर का चेहरा किसी सोलह साला कन्या की तरह लग रहा था जिसने 'स्मार्ट'लगने के लिये उदासी का मेकअप कर रखा था.अतुल ने कोहनियाते हुये पूछा- आर्यपुत्र आपके मुखमंडल पर उदासी का साम्राज्य किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकार क्षेत्र की तरह फैला हुआ है.मुझे प्रतिपल यह आभास हो रहा है कि कोई कोई दुष्चिंता आपके मानस पटल पर अनुनाद कर रही है.वैसे तो आप कोई बात कहते पहले हैं सोचते बाद में हैं पर आज यह विरोधाभास कैसा ?आप सोच रहे हैं बिना कुछ बोले.आप चिंतित हैं.यह चिंता किस अर्थ अहो,शीघ्र कहें समय व्यर्थ न हो.
थोड़ा देर नखरे के बाद जीतू उवाचे:-यार सारे अंगरेजी ब्लागर हर महीने मीटिंग करते हैं.कोई मुम्बई में कोई बंगलौर में.हमारी कोई मीटिंग नहीं हो पाई अभी तक.यही सोच-सोचकर दुख होता है.दुबला गया हूं.
अतुल:-अरे तो इसमें मुंह लटकाने की क्या बात है?हम हूं न.चलो चलते हैं अभी चौपाल पर.सभी को घसीट के ले आते हैं. होली का मौका है कोई बुरा भी नहीं मान पायेगा.
लोगों को जब कहा गया चलने के लिये चौपाल पर तो लोगों ने नखरे किये.जीतेन्दर को देखकर लोग घबड़ाने लगे.पूछने पर बताया कि हमें डर लग रहा है कहीं ये फिर न कोई योजना उछाल दें.पर अतुल ने दिलासा दिया:-मैं ,इंडीब्लागर अवार्ड का विजेता,आपको भरोसा दिलाता हूं कि आपके साथ कोई ज्यादती नहीं होगी.लोगों ने राहत महसूस की.चौपाल परचलने कीबात पर लोग तैयार हो गये .कुछ लोगों ने बहाना बनाया कि अनुगूंज के लिये लिखना है.पर थोड़ा नखरे के बाद सब आ गये चौपाल पर.
वहां पहली बार लोग जमा हुये थे.बौरे गांव ऊंट का माहौल.भंग की तरंग थी.उमंग अंग-अंग थी.नयी चिट्ठाकारसंगथी.उदासी भंग-भंग थी.भावना अनंग थी.
काफी देर के हो-हल्ले के बाद तय हुआ कि महामूर्ख सम्मेलन की तर्ज पर चुहलबाजी होगी.टाइटिल दिये जायेंगे.कोई रद्दी कविता पढ़ी जायेगी.कविता का नाम सुनते ही विजयठाकुर उचके-तो कौन सी कविता पढूं?उनको तत्काल रोका गया--भाई आप ने तो कुल पांच-सात कवितायें लिखी हैं.रवि रतलामीजी तो बहुत पहले से लिख रहे हैं .हर बार कविता गज़ल लिखते हैं.बुजुर्ग हैं.उनको पहला मौका मिलना चाहिये.
सवाल- जवाब उछलने लगे.पता नहीं लग पा रहा था कि कौन सवाल कर रहा है.पर चूंकि सवाल नाम लेकर पूंछे जा रहे इसलिये लोग अपने सवाल लपककर जवाब उछालते जा रहे थे.
सबसे पहला सवाल बुजुर्गवार रतलामी जी ने लपका-
सवाल:-रतलामीजी,आप अपना ब्लाग लिखने के लिये कविता पहले लिखते हैं या पहले ब्लाग लिखकर कविता लिखते हैं.
जवाब:-मैं खुद तय नहीं कर पाया अभी तक यह.वैसे मैंने एक प्रोग्राम बनाया है गजल लिखने के लिये.इसमें मालिकाना, शगल,मंजर ,आसामी, दरिया,दिल,चोंचले जैसे करीब हजार शब्द फीड हैं.मुझे बस गज़ल के लिये शेर की संख्या तथा एक शेर में कितने शब्द होंगे फीड करना होता है.गजल अपने आप निकल आती है.बाकी चिट्ठा लिखने के लिये अखबार की कटिंग ली तथा चार लाइना लिखकर काम हो जाता है.
सवाल:-पंकज भाई,तुमचिट्ठा विश्व में तो बड़े खिले-खिले दिखते हो.परबसंत में चेहरा उतरा-उतरा क्यों है?
जवाब:-घराड़ी के जाने पे जो खुशी चढ़ी थी उसकी आने पर वो उतर गयी.चेहरा भी साथ लग लिया-उतर गया.वैसे भी जीतू जी कहते हैं पत्नी के फोटो खिचाओ तो हमेशा चेहरा लटका लेना चाहिये.चेहरा चमकने पर लोग समझते हैं कि इनके संबंध नार्मल नहीं है.बीबी भी पचास सवाल पूंछती है.इसीलिये साथ में फोटो खिंचाते समय मैं चेहरा लटका लेता हूं.
सवाल:-अतुल भाई,ये तुम 'फर्स्टएड बाक्स'और डाक्टरी आला लिये काहे घूम रहे हो ?क्या डाक्टर झटका की दुकान में कंपाउन्डरी करने लगे?
जवाब:-नहीं भाई,असल में हमें गुस्सा आता रहता है.डाक्टर झटका ने बताया ब्लडप्रेशर कंट्रोल करो.तबसे पत्नी जी जहां जाता हूं-आला गले में घंटी की तरह लटका देती हैं.कहती हैं नापते रहा करो.जहां कम-ज्यादा हो,बात बंद करके जैनियों की तरह मुंह में टेप चिपका लिया करो ताकि कहीं किसी पर गुस्सा न कर बैठूं.क्योंकि जब हम करेंगे तो अगला छोड़ थोड़ी देगा . 'फर्स्टएड बाक्स' का कारण तो यह है कि पता नहीं कहां से मुन्ना कबाड़ी को शक हो गया कि उसको ईंटा हम मारे थे.सुना है गुम्मा लिये टहलता है.इसी लिये हम लैपटाप छोड़कर 'फर्स्टएड बाक्स 'लटकाये घूमते हैं.मरहम पट्टी के इंतजाम के लिये.पंकज भाई,जरा देखो तो रीडिंग कितनी को गयी?
सवाल:-ये ठेलुहा नरेश,ये तुम अपनी बांयी आंख पर हाथ काहे रखे हो?
जवाब:-यार ये केजी गुरु की संगत जो न कराये.आंख न चाहते हुये भी आदतन दब जाती है.पहली बार मीटिंग हो रही है.सुना है कुछ महिला चिट्ठाकार भी आने को हैं कहीं अनजाने में बेअदबी न हो जाये.कोई बुरा मान गया तो जीतेन्दर ,रवि की मेहनत पर पानी फिर जायेगा.इसीलिये दबाये रहते हैं आंख.
सवाल:-रीतू भाभी,आपको तथा दूसरी महिला चिट्ठाकारों को कैसा लग रहा है ब्लागिंग का अनुभव?
जवाब:-सच पूंछे तो बहुत अच्छा तो नहीं लग रहा है.हमने तो यह सोचकर लिखना शुरु किया था कि हमारी एक पोस्ट पर कम से कम पचीस तीस तारीफ तो मिलेंगी.पर यहां तो संख्या दो अंको तक भी नहीं पहुंची.हम तो ठगे से महसूस कर रहे हैं.खैर ,उम्मीद पर दुनिया कायम है.हो सकता है आगे हालात सुधरे.पर आप मुझे भाभी कैसे कह रहे हैं?
जीतू उवाच:-होली के मौसम में तो बाबा भी भी देवर लगते हैं और अभी तो मैं जवान हूं.आपकी ससुराल कानपुर में है.मेरा मायका वहां है.इस रिश्ते से भी आप मेरी भाभी हुयीं.जहां तक कमेंट की बात है तो आप मेरा कमेंट मैनेजमेंट के तरीके वाली पोस्ट पढ़िये.जरूर फायदा होगा.
सवाल:- फुरसतियाजी,ये बतायें कि वैसे तो आप बड़े पारदर्शी बनते हैं.ये अपनीसहपाठिनी का विवरण लगता है आप कुछ 'शार्टकट'में मार गये.अइसा है तो क्यों?
जवाब:-असल में छिपाने जैसी तो कोई बात नहीं पर हम ज्यादा डिटेल में नहीं गये.डर था जीतू लपक लेंगे.कहेंगे आप भी लिखें ब्लाग.लिखने तक तो ठीक पर फिर ये कहते 'ब्लागनाद'करो.अगर ऐसा होता तो निश्चित जानो कि हमारा पीसी का स्पीकर 'झारखंड'की सोरेन सरकार की तरह बैठ जाता.हम इन्हीं आशंकाओं के चलते बचा गये गैरजरूरी विवरण.
सवाल:-देबू भाई ,ये निरंतर तो झकास निकली है.पर सुना है कि चिट्ठा विश्व को निरंतर में शामिल करने की बात पर उखड़ गये थे.कहने लगे निरंतर बंद कर देंगे.सच क्या है?
जवाब:-असल में किसी ने मुझसे कह दिया कि गुस्सा करने पर मैं कुछ ज्यादा स्मार्ट लगता हूं.मुझे मन किया मैं भी डायलाग मारूं -ट्राई मारने में क्या जाता है?फिर उन्हीं दिनों मैंने शोले फिर से देखी तो मुझे लगा धर्मेन्द्र का डायलाग फिट रहेगा सो दाग दिया --गांव वालों अगर किसी ने मेरी बसंती को मुझसे अलग करने की कोशिश की तो मैं किताब जला दूंगा. वैसे भी मैं बहुत थक गया था उन दिनों इंडीब्लागर के चुनाव में.बड़ा रिलैक्स मिला डायलाग मार के.
सवाल:-स्वामीजी,आपके लेखों के टाइटिल इतने अण्ड-बण्ड-सण्ड क्यों होते हैं? आपके चिट्ठों में उलटबांसी वाली भाषा क्यों इस्तेमाल होती है?
जवाब:-पेलवानजी,जन्नतनशीं दादाजी बोले थे-बेटा तू शायर और सिंह तो बन नहीं सकता सो सपूत बनने 'ट्राई'मार.अपुन भी खोजे 'शार्टकट' सपूत बनने का.पता चला कि लीक से हटकर चलने से अपने आप सपूत बन जाता है आदमी.इसीलिये अपुन लकीरी अंदाज से घबड़ाते हैं.'समथिंग डिफरेन्ट 'है अपुन का अंदाज.इसीलिये अपुन तोड़-फोड़,उठापटक करते हैं.खराब चीज को सुधारने में मगजमारी से अच्छा है कि पूरी इमारत गिरा दो-मलबे से नयी,झकास इमारत बना दो.टाइटिल का तो ऐसा है कि कुछ नया,अण्ड-बण्ड अंदाज रहता है तो चौंकते हैं लोग.आधा चिट्ठा तो लोग टाइटिल समझने के चक्कर में पढ़ जाते हैं.बाकी जड़त्व में.फिर लोग बार-बार पढ़ते हैं पूरा समझने के लिये.
सवाल-जवाब के बीच ही किसी की नजर पर्दे के पीछे सजे रखे टाइटिलों पर पढ़ गयी.हरेक के लिये एक टाइटिल तय था.लोगों कोने सवाल-जवाब सत्र को बिना सूचना स्थगित कर दिया.गठबंधन सरकार के सांसद जैसे मंत्री पद लपकते है वैसे ही वे टाइटिल लपकने लगे.अफरा-तफरी में टाइटिल हर एक के हाथ में दूसरों के टाइटिल आ गये.बहरहाल जिसने लिखे थे उसको गलती सुधारने के लिये बुलाया गया.वह भी सारे टाइटिल सही नहीं बता पाया.जितने ठीक हो सके वे ठीक करके सारे टाइटिल ऐसे ही बांट दिये गये.अंतिम समाचार मिलने तक टाइटिल इस प्रकार थे:-
देवाशीष:-नुक्ताचीनी ठप्प पड़ी है,ठहर गया है लिखना,
येकरवाना,वो लिखवाना बस बिजी-बिजी ही रहना.
पोस्ट क्या दोस्त लिखेंगे?
मेरा पन्ना:-निसदिन उचकत ख्याल तिहारे,
यहां वाह की,वहां आह की टहलत द्वारे-द्वारे,
इनको लाये,उनको लाये आइडिया उछलत इत्ते सारे,
तुम तो लगता है फ्री रहते हो,सब है काम के मारे.
क्या कमाल की फुर्ती है.
रमण कौल:-इधर चला मैं उधर चला,अपना नहीं अब कहीं भला,
जिसनेबचाया डूबने से मुझे,वही बजातीअब तबला.
नहीं यार ,प्यार में कहीं ऐसा होता है भला?
अतुल:-अभी सो नहीं जाना अभी मेरी कहानी चल रही है,
जो हुयी बदसलूकी मेले में वो बेहद खल रही है,
तेज गली में गाड़ी चलती है.
पंकज:-हम हैं राही प्यार के हम से कुछ न बोलिये,
जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिये.
लड़का दलबदलू है.
आशीष गर्ग :- एक दिन ऐसा आयेगा न देश रहेगा और न भाषा,
फिर सोचेंगे हम कि क्या यही थी हमारी अभिलाषा ।
जल्दी आगे बढ़ने के चक्कर में रह गये ग़ुलाम
और अब हाथ मलने के अलावा और क्या है काम।
बात बड़ी बुनियादी है.
विजय ठाकुर:-होठों से छू लो तुम,खुद के गीत अमर कर दो,
वैसे तो चलेंगे लेकिन कुछ और मधुर कर दो.
यादों मेंफूल महकते हैं
प्रारंभ:-मन में है विश्वास,पूरा है विश्वास,
हम होंगे कामयाब,एक दिन,एक दिन.
हम चलेंगे साथ-साथ,डाले हाथों में हाथ,
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन.
रति सक्सेना:-तुमको देखा तो ये खयाल आया,
बगीचे में फिर कोई हौले से मुस्काया,
हमने सोचा था एकाध फूल दिख जायेंगे,
यहां देखा तो सारा उपवन ही खिल आया.
रमनबी:-जाड़े की लंबी रातों में जब सारी दुनिया सोती थी,
तब फोन हमारा जगता था बातें दर बातें होती थीं,
जेब हमारी लुटती थी दिल की झोली भर जाती थी,
जो बातें अब बचकानी लगती वे कभी बहुत मदमाती थीं.
अनुनाद सिंह:-निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल,
लिख मेरे भइया जल्दी-जल्दी वर्ना लोग जायेंगे भूल.
सिर्फ टिप्पणी काम न देगी.
आशीष तिवारी:-है नहीं कोई सांचा मेरा,न मेरा कोई तरीका है,
जो होता है वह लिखते हैं ,बस अपना यही सलीका है,
इहै हमार इस्टाइल बा.
आलोक:-कम शब्दों में कहने की आदत मेरी लाचारी है,
गागर में सागर भरने की आदत सब चर्चाओं पर भारी है.
थोड़ा कहा बहुत समझना.
रवि रतलामी:-नेट बीच चौकड़ी भर-भर कर,रतलामी बन गये निराले हैं,
गज़लों,ब्लागों के दंगल से, पड़ गये हमारे पाले हैं.
लिखने में न कभी थकते हैं ये,पढ़ने वाले थक जाते हैं,
पढ़कर बिना टिप्पणी के, पतली गली भग जाते हैं.
अरुण कुलकर्णी:-अरुण यह मधुमय ब्लाग तुम्हारा,
जहां पहुंच अनजान व्यक्ति भी पाता कवित्त तुम्हारा.
नीरवता:-पहला खत लिखने में वक्त लगता है-पता है,
महीनों से देह पे ही टिके हो, क्या अजब खता है
हवाओं के साथ चलने की बातें तो बहुत करते हो,
चिट्ठों की तो बाढ़ आ गयी है अब क्यों डूबने से डरते हो?
भोलाराम मीणा:-हमका अइसा वइसा न समझो हम बड़े काम की चीज,
सबको कंप्यूटर सिखलाने को हम डाल दिया है बीज,
तनिक हिंदी में भी समझाओ.
स्वामीजी:-चाह नहीं किसी लाला की गद्दी में ,मैं लग जाऊं,
चाह नहीं सामान्य बनूं,अच्छा बच्चा कहलाऊं,
चाह नहीं कोई मेरी तारीफों से पीठ खुजाये,
चाह नहीं सब कुछ तजकर,मैं हीरो ही बन जाऊं
मुझे पकड़ लेना तुन साथी,उस प्रोजेक्ट में देना झोक,
निज भाषा,निज देश हेतु लगे हों, जहां पर मेरे दोस्त अनेक.
दीपशिखा:-अल्पविराम,पूर्णविराम माने कामा ,फुलस्टाप,
संगी,प्रेमी सब मिलेगें ,बस लिखती रहो आप.
मरुभूमि में फूल खिलेंगे.
शैल:- शैल की गैल में रंग चले,वे भाजि गये लंदन
बच्चे आये हैलोवीन में इनका मामला ठनठन,
आग कुछ तेज करो भाई.
राजेश:-बड़े-बडे ठाकुर देखे हमने,देखे बड़े-बडे कविराज,
शत्रु बनाते,मित्र बनाते तुमको और नहीं कुछ काज?
मुबारक होली हो.
मानोशी :- ख्वाब शरारती होते हैं,खुद-ब-खुद पल जाते हैं,
खत न जाने कैसे बेसाख्ता लिख जाते हैं,
चिट्ठियां लिखती रहें जवाब भी आ जायेंगे,
दुश्मन बने जो दोस्त वो फिर करीब आयेंगे.
धनंजय:-नदी पार जाने को नाव बहुत जरूरी है,
जिंदगी जीने को तनाव भी जरूरी है.
सिर्फ मेहनत ही काम नहीं आती आफिस में,
बास को खुश रखने के बरताव बहुत जरूरी हैं
महावीर शर्मा:-रूप की जब उजास लगती है,जिंदगी आसपास लगती है,
तुमको पढ़ने की चाह कुछ ऐसे,जैसे खुशबू को प्यास लगती है.
जापानी मत्सु:-हमारा दोस्त ये जापानी,लगता पक्का हिंदुस्तानी,
कभी होली मुबारक होती,कभी चाय की कहानी,
कही-अनकही:-किसीको महसूस न होने दिया,यूं कहानी को हमने मोड़ दिया,
लिखने में कमी की पहले,फिर एकदम लिखना छोड़ दिया.
ठेलुहा:- केजी बोले सुन मेरी ए जी ,लपकत इंद्र रहे हैं आय,
जल्दी जाओ तुम अंदर को ,चाय का पानी देव चड़ाय,
ये तो हांकेंगे अब लंबी,अपनी बांयी आंख दबाय,
हुयी प्राब्लम यह डेली की एनीबाडी हमको लेव बचाय.
दोस्ती जंजाल हो गयी.
प्रेमपीयूष:-भइया यह घर प्रेम का ,खाला का घर नाय
जिसको जिसको चाहिये,मुफ्त पीयूष लै जाय.
गारण्टी जिंदगी भर की है.
राजकुमार:-मामाजी मामाजी फिर से तुमने आंख दिखाई,
ब्लागिंग में ठेला काहे,जबकि मैं हूं व्यवसायी,
बड़ा कठिन है लिखना.
आनंद जैन:- हर लम्हा ज़िंदगी का एक कोरा सफहा है,
कूची ख्वाहिशों की लेकर तुम इसमें रंग भर लो.
प्रसंग:-आंगन में कुटी छवाकर,वैभव तुम किधर निकल गये?
दर्द ठहरा है बहुत दिन से,कैसे इसके चक्कर में फंस गये?
कुछ दर्द निवारक ले लो.
संजय:-चरर-मरर कर अच्छी खासी जा रही थी भैंसा गाड़ी,
उसको छोड़ के कोल्हू में जुत गया मैं भी बड़ा अनाड़ी.
कालीचरण:-जिंदगी इम्तहान लेती है,मरते पर छप्पर तान देती है,
फुरसत के दिन हों तो अच्छा है,जाने क्यों इतना काम देती है.
काश कुछ छुट्टी मिलती.
हिंदी चिट्ठा:-उलट-पुलट सब हो गया पूरा कारोबार,
थाने में जन्माष्टमी,आश्रम में हथियार,
मामला गड़बड़ है.
पूर्णिमा वर्मन:- जल की बूंदों को हौले से,सूरज ने जब सहलाया
रंगों को विस्तार मिला,इन्द्रधनुष सा मुस्काया,
नजारा मनमोहक है.
फुरसतिया:-जब ये फुरसत में मिलें ,इनसे कुछ न बोलिये
जो भी ये लिखें उसे ,खुशी-खुशी से झेलिये
गर पसंद आये न तो आप भी तो बोलिये
कमेंट है खुला हुआ खुल के दिल से तोलिये,
इनके ऊपर लोग लिखेंगे.
टाइटिल से तमाम लोग नाखुश हो गये.कहने लगे ये क्या लिखा है-कुछ बढ़िया मिलना चाहिये.सबसे कहा गया आपसे में
बदल लो पर उसमें भी सर्वसम्मति नहीं बन पायी.अंत में यह कहा गया कि आप लोग इसे स्वीकार कर लें.घर में पूंछ लें.पसंद न आने पर साल भर में कभी भी वापस करके मनपसंद टाइटिल मुफ्त मिल जायेंगे.यह सुविधा भी बतायी गयी कि जो लोग वापस करेंगे टाइटिल उनको दो टाइटिल मिलेंगे.एक उनके मन का दूसरा देने वाले की तरफ से.दोनो फ्री.सारे लोग मुफ्त की बात सुनते ही खुश हो गये.
रद्दी कविता पर काफी विवाद हुआ.आखिर में तय हुआ कि सब बुनोकहानी की तरह कविता बुने.एक-एक लाइन लिखते जायें .सबकी लाइनें मिलाकर जो बनेगा उसे कविता कहा जायेगा.जो बनी कविता वो ये है:-
आज होली का त्योहार है,
हम सबकी खुशियों का विस्तार है
हर हाल में हंसने का आधार है
हंसी का भी बहुत बड़ा परिवार है
कई बहने है जिनके नाम है-
सजीली,कंटीली,चटकीली,मटकीली
नखरीली और ये देखो आ गई टिलीलिली,
हंसी का सिर्फ एक भाई है
जिसका नाम है ठहाका
टनाटन हेल्थ है छोरा है बांका
हंसी के मां-बाप ने
एक लड़के की चाह में
इतनी लड़कियां पैदा की
परिवार नियोजन कार्यक्रम की
ऐसी-तैसी कर दी.
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है
अब यह अलग बात कि उसमें
हंसी से कहीं ज्यादा जान है.
एक बार हमने सोचा -
देंखे दुनिया में कौन
किस तरह हंसता है
इस हसीना के चक्कर में
कौन सबसे ज्यादा फंसता है
मैंने एक साथी कहा
यार जरा हंसकर दिखाओ
वो बोला -पहले आप
मैं बोला मैं तो हंस लेता हंसता ही रहता
पर डरता हूं लोग बेहया कहेंगे
-बीबी घर गयी है ,फिर भी हंस रहा है
लगता है फिर कोई चक्कर चल रहा है
इस बात को सब काम छोड़कर
वे मेरी बीबी को बतायेंगे
तलाक तो खैर क्या होगा
वो मुझे हफ्तों डंटवायेंगे
सो दादा यह वीरता आप ही दिखाइये
ज्यादा नहीं सिर्फ दो मिनट हंसकर बताइये
इतने में दादा के ढेर सारे आंसू निकल आये
पहले वो ठिठके ,शरमाये,हकलाये फिर मिनमिनाये
-हंसूंगा तो तुम्हारी भाभी भी सुन लेगी
बिना कुछ पूंछे वह मेरा खून पी लेगी
कहेगी-मैं हूं घर में फिर यह खुश किस बात पर है
बीबी का डर,लाजो शरम सब रख दिया ताक पर है
वहां से निकला पहुंचा मैं आफिस,साहब से बोला
साहब ने मुझको था आंखो-आंखो में तोला
मैंने कहा -साहब जरा हंसने का तरीका बताइये
साहब लभभग चीखकर बोले
हमको ऊ सब लफड़ा में मत फंसाइये
हंसना है तो अपने दस्तखत में
हंसने का प्रपोजल बनाइये
बड़का साहब से अप्रूव कराइये
फिर जेतना मन करे हंसिये-हंसाइये
पर हमको तो बक्स दीजिये-जाइये
बड़का साहब से पूंछा
साहब आप गुनी है,ज्ञानी हैं
अनुभव विज्ञानी है
खाये हैं खेले हैं
जिंदगी के देखे बहुत मेले हैं
हमको भी कुछ अनुभव लाभ बताइये
हंसने का सबसे मुफीद तरीका बताइये
साहब बोले अब तुम्ही लोग हंसो यार
हमारी तो उमर निकल गई
अब हंसना है बिल्कुल बेकार
तुम्हारे इत्ते थे तो हम भीं बहुत हंसते थे
पूरी दुनिया को अंगूठे पे रखते थे
तुम ऐसा करो पुरानी फाइलें पलट डालो
उनमें हंसी के रिकार्ड मिल जायेंगे
नमूने तो पुराने हैं पर ट्रेंड मिल जायेंगे
फाइलें में कुछ न मिला सब दे गई गयीं धोका
सोचा भाभियों से पूछ लें होली का भी है मौका
हमने पूंछा भाभी जी जरा हंस कर दिखाइये
वे बोली भाई साहब ये तो बाहर गये हैं
आप ऐसा करें कि तीन दिन बाद आइये
मैंने कहा अरे उसमें भाई साहब कि क्या जरूरत
आप कैसे हंसती हैं जरा बेझिझक बताइये
वे बोली नहीं भाई साहब अब हम
हरकाम प्लानिंग से करते हैं
सिर्फ संडे को हंसते है
आप उसी दिन आइये नास्ता कीजिये
हमारी हंसी के नमूने ले जाइये
अगर जल्दी है तोचौपाल चले जाइये
वहां लोग हंसते हैं खिलखिलाते हैं
बात-बेबात ठहाके लगाते हैं
आप अगर जायें तो मेरे लिये भी
चुटकुले नोट कर लाइयेगा
क्योंकि अब तो ये पिटी-पिटाई सुनाते हैं
हंसाते हैं कम ज्यादा खिझाते हैं
इस सब से मैं काफी निराश फिर भी आशावान था थोड़ा
सोच -समझ कर मैंने स्कूटर अस्पताल को मोड़ा
डा.झटका से मिला हेलो-हाय की ,सीधे-सीधे पूंछा
यहां अस्पाताल में लोग किस तरह हंसते है
डा. लगभग चीख कर बोले -क्या बकते हैं?
यहां अभी तक मैंने ऐसा कोई केस नहीं देखा
आपको किसी और बीमारी का हुआ होगा धोखा
क्योंकि हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है
एक से दस,दस से सौ तक फैलती इसकी क्यारी है
एक बार फैलने पर इसका कोई इलाज नहीं होता
यह हर एक को अपनी गिरफ्त में ले लेती है
सारा वातावरण गुंजायमान होता है
मैं बोला फिर भी हंसी का कोई मरीज आया तो
आप उसका इसका कैसे करेंगे?
इस लाइलाज समस्या से कैसे निपटेंगे?
डा.बोले -रोग कोई हो इलाज एक ही तरीके से करते है
शुरु हम कुनैन के तीन डोज से करते हैं
फिर हम अपने यहां हर उपलब्ध खिलाते हैं
दवायें खत्म हो जाने के बाद
हम मरीज को सिविल हास्पिटल भिजवाते हैं
कुछ दिनों में मरीज की इच्छा शक्ति लौट आती है
उसकी तबियत अपने आप ठीक हो जाती है
सो आप चिंता मत कीजिये घर जाइये
भगवान का नाम जपिये चैन की बंशी बजाइये
इसके बाद मैंने सोचा बच्चे तो मासूम होते हैं
कम से कम वे तो अंगूठा नहीं दिखायेंगे
न हंस पर कहने पर जरूर मुस्करायेंगे
मैंने एक बच्चे को पकड़ा गुदगुदाया
लेकिन यह क्या उसकी तो आंख से आंसू निकल आया
बोला-अंकल आजकल हम छिपकर,बहुत किफायत से हंसते हैं
क्योंकि हम अपने नंबर कटने से बहुत डरते हैं
हर हंसी पर 'सरजी'प्रोजेक्ट वर्क बढ़ा देते हैं
ठहाके पर तो टेस्ट के नंबर घटा देते हैं
इससे मम्मी-पापा अलग परेशान होते हैं
कुछ देर स्कूल को कोसते हैं फिर गुस्सा हम पर उतार देते हैं
इसीलिये हम अपनी हंसी का पूरा हिसाब रखते हैं
दिन भर में दो बार मुस्कराते हैं,एक बार हंसते हैं
ठहाका तो हफ्ते में सिर्फ एक बार लगाते हैं
इतना सब सुनकर हंसने के लिये मैं खुद गुदगुदी करता हूं
हंसी गले तक आती है फिर लौट जाती है
हंसी का कोई प्रायोजक नहीं मिलता है
अपने आप हंसना घाटे का सौदा लगता है
ऐसे में कौन किसे हंसाये ,किसे गुदगुदाये
सब अपने में व्यस्त हैं परेशान -हड़बड़ाये,
यही सब सोचकर मैंने अपनी कलम उठायी
होली का मौका मुफीद समझा और यह कविता सुनायी.
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जमाने की हँसी कहीं खो गयी लगती है
ReplyDeleteहर शख्स अपने गम से बोझल है
हर शै परेशान सा क्यूँ है
दिन हो जाये छत्तीस घंटो का यह सब मनाते हैं
पर जो चौबीस है उन्हे भी अपने ही बनाये चक्करों मे उलझ कर बरबाद कर डालते हैं
और फिर पूछते हैं हँसने का टाईम किसके पास है
पर यह आईटम पड़ के लगता है कि हँसी किसी की जरखरीद गुलाम नहीं
समय नही मिले तो समय से समय को चुरा डालिए और जम कर हँसिए और हँसाईये
जनाब होली है तो इस बार कुछ नया कर डालिए
सबसे पहले तो एनिमेटेड ग्रीटिंग भेजने वाली साईट पर खाक डालिऐ
जिन्हें आप वक्त बचाने की खातिर अपना नाम चस्पां करके सेन्ड आल का बटन दबा देते है
और मान लेते हैं कि आपके सामाजिक दायित्व की ईतिश्री हो गई
साल दर साल औपचारिकता का चोला कब तक पहने रहेगें
आज यह लेख पड़ कर लगा कि होली हो तो शुकुल जैसी हो वरना न हो
बिल्कुल वैसे ही जैसे मूँछे हो तो नत्थू लाल जी जैसी हो वरना न हो
हँसते हँसते हालत दोहरी हो गई शुकुल जी, यहाँ तक की बगल की डेस्क से लैरी अँकल आ गये पूछने की क्या आईटम है?
अब होली हास्य तो समझ में आने से रहा उनके सो उनके मुँह में गुझिया ठूँस के फिर दुबारा पड़ रहा हूँ और इस बार किसी बकवास आनलाईन ग्रीटिंग के सबको आपका यह होली का तोहफा भेज रहा हूँ
हास्य रंग की महा-देगची में एक - एक को ला ला कर पटका है. व्यंग्य से मुखडा पोता है. बहुत ही मजेदार लेख है - आपके लेख का इंतज़ार था, फाईनली में प्यास बुझी!
ReplyDeleteये हुई ना बात,
ReplyDeleteपहले पहल तो हम अपना नाम पढकर चौंके फिर देखा गया, समझा,जाना और बूझा गया, कि पन्डित जी होरी की चिकाई कर रहे है. भई मजा आ गया, सचमुच, हास्य हो तो शुकुल जैसा, नही तो ना हो. अब हमरी दुखड़ी भी सुन लो,अपने हिन्दी चिटठाजगत मे तो एक से एक धुरन्धर मौजूद है, लेकिन होली के लिये लिखने के लिये किसी पर भी टाइम नही मिल पाया. हम तो बहुत ही कोशिश किये, इसलिये होली के महीना भर पहले से ही माहौल बनाने के लिये लिख मारे, फिर सबको चिट्ठी डाली कि चलो लिख नही सके कोउनो प्राबलम नही,अब कुछ गुनगुना ही दो, कोशिश की कि सब इकट्ठा होकर एक सुर मे अलापे, अब का बतायें किसी का गला बैठा है और किसी का माइक्रोफोन ही नही मिल रहा है, किसी की आवाज का कापीराइट ही किसी और के पास है, ऊपर से इस्वामी जी वैसे तो बहुत ही उचकते रहते है और हर बात पर बकबियाते है लेकिन जबसे अपनी एमपीथ्री फाइल भेजने को बोला है तो अन्तर्राध्यान हो गये है. लगभग वैसा ही हाल दूसरों का भी है.चलो ठीक है, तुम्हारे चिट्ठे ने वो कमी पूरी कर दी. भई मजा आ गया, सब कुछ भूल भालकर आज तो होली के रंग मे डूब जाया जाय. बुरा ना मानो होली है. सभी लोगो को होली की हार्दिक बधाइयाँ.
शुक्ला जी,
ReplyDeleteआप होली के लड्डूओं में कुछ भाँग अफीम वगैरहा मिलाए थे क्या? अभी आके पढ़ा तो पता लगा कि कुछ अलग ही बतिया गए। तो भाई बात ऐसी है कि चिट्ठा विश्व वाली फोटू, एक फोटू का कट आउट है जिस में मेरे वाम अंग में अभी की बंसत वाली फोटू की तरह श्रीमती जी बाकायदा मौजूद हैं। पर ऐसा है तो फिर तो जीतेन्द्र जी का नियम गलत साबित होता दिखता है। पर ऐसा भी नहीं है। दरअसल यह फरक है शादी के दो दिन बाद और शादी के दो साल बाद का। शादी के फौरन बाद आदमी को नई नई मलाई खाने को मिलती है तो हंसी तो ही जाती है।
पंकज
बडे फ़ुरसत से रंग घोला है , बनाया है ।
ReplyDeleteकिसी पर गुलाबी , किसी पर काला, किसी पर कीचड लगाया है ॥
अतुल,स्वामीजी,जितेन्दर को पढ़ने-प्रढ़ाने के लिये शुक्रिया.
ReplyDeleteपंकज भाई,अब हम क्या जाने किसके साथ पहली फोटो खिंची थी.अगर पहली फोटो भी श्रीमतीजी
के साथ खिंची थी तो यह तो जीतू के नियम का विस्तार हुआ.कहा जा सकता है कि जैसे ही पंकज की फोटो अलग हुयी वैसे ही चहकने लगी. अनुनादजी ,रंग तो हम जरूर खेले पर कीचड़ नहीं लगाये.निराश न हों कोई न कोई लगा देगा.
भईया अनूप,
ReplyDeleteहोरी के मौके पर रंग भीगा गमछा जो भिगो भिगो मारे हो, मजा आ गया ;)
आपका ये लेख ये होली के सबसे अच्छे रंगों में से एक था। बहुत खूब।
ReplyDelete"बुरा मान लो , होली है" के जवाब में "नहीं बुरा मानते...." कह रहे हैं ,ब्लागरगण,बेलाग हो कर।होली है,तो रहा करे...।
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