Wednesday, March 23, 2005

शिक्षा :आज के परिप्रेक्ष्य में

HPIM0007

मैं स्कूल से घर लौट आया


हमारे एक दोस्त हैं.उनके एक लड़का है.१८ साल का.लड़का मेधावी है.इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ता है.हास्टल में रहता है.अच्छी बात है लड़का आज्ञाकारी है.पिता की हर बात मानता है.सब कुछ ठीक रहा तो बच्चा सिविल सर्विसेस में या एम.बी.ए. में निकल जायेगा.कुछ नहीं तो इंजीनियरिंग तो कहीं नहीं गयी-जहां वह पढ़ रहा है.

एक दिन बालक ने पिताजी को 'मोबाइलियाया'.वे मींटिगरत थे.उचक के,लपक के फिर भाग के बाहर आये.कान,कंधा तथा
आवाज उचका के बात की.पांच सौ किमी दूर बालक पूछ रहा था कि हास्टल से दो किमी दूर शहर वह साइकिल से जाये या
रिक्शे से .पिताजी ने मौसम,माहौल ,जरूरत आदि के बारे में तथ्य जमा किये.फिर तर्कपूर्ण निर्णय देकर बच्चे का कष्ट निवारण किया.यही बच्चा आगे चल के देश का नीतिनिर्धारण करेगा.मोबाइल से सलाह लेते हुये.मेधा बची रहेगी जरूरी कामों के लिये.हमारी शिक्षा व्यवस्था साल में लाखों ऐसे मेधावी पैदा कर रही है.पर ससुरा देश अंगद का पांव हो गया है.

लोग कहते हैं अकबर १३ साल की उमर में गद्दी पर बैठा.वह पढ़ा ज्यादा नहीं था.अगर हो भी तो आज की तुलना में तो अनपढ़ कहा जायेगा.लोग कहते हैं वह पढ़ा नहीं कढ़ा था.पचास साल तक शासन किया.बिना पढ़े लिखे.इतिहास के सफलतम शासकों में से एक किसी शिक्षा व्यवस्था का मोहताज नहीं रहा.
Akshargram Anugunj


दुनिया के तमाम महापुरुषों के नाम गिनाना फिजूल है जो कभी औपचारिक शिक्षा नहीं पाये.महान लोग महान होते है-आम लोग आम होते हैं.उनके लिये शिक्षा की आवश्यकता होती है, रहेगी -हमेशा.

शिक्षा यानि कि विद्या के बारे में मशहूर है--विद्या विनय देती है,विनय से पात्रता आती है,पात्रता से धन,धन से
धर्म तथा धर्म से सुख मिलता है.फ्लोचार्ट बनायें तो कुछ यों बनेगा:
विद्या->विनय->पात्रता->धन->धर्म->सुख
बहुत दिन तक चलता रहा काम इस प्रोग्राम से.फिर पता नहीं कुछ वायरस आ गये बीच की कड़ियों का तालमेल गड़बड़ा गया.
फ्लोचार्ट भी करप्ट हो गये.कहीं वे विद्या->धन->सुख हो गये .कहीं विद्या->विनय->पात्रता->धर्म हो गये.कहीं विद्या->अविनय->अपात्रता->धन->अधर्म->सुख हो गये.अधिकांश मामलों में यह समीकरण पाया गया विद्या->धन हो गया.विद्या की धन से हाट लाइन जुड़ गयी.

विद्या की शार्टशर्किटिंग हो गयी.जंपिग प्रमोशन मिला.विनय तथा पात्रता को सुपरसीड करके धन तक पहुंच गयी.पर उछलकूद
में ढेर हो गयी.आगे नहीं जा पायी.लब्बोलुआब कि जिसके पास विद्या है उसके पास धन है.जिसके पास धन है उसके पास विद्या.विद्या अब फ्री सस्ते साफ्टवेयर की स्थिति को छोड़ती जा रही है.

शिक्षा का उद्देश्य हमेशा से मानव का परिष्कार करना रहा है.यह परिष्कार रुढ़िग्रस्त होने पर अरुचिकर होता जाता है तथा शिक्षा
बोझिल होती जाती है.तभी स्कूलों में किसी अचानक हुयी छुट्टी की घंटी के मुकाबले बच्चे की हुर्रे हमेशा ऊंची होती है.

शिक्षासमाज की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिये.मुझे लगता है हमेशा होती भी है-हर समाज में.आज हमारी जरूरत पिछलग्गू विकासशील बने रहने की है तो हम अपने आला वर्ग के लिये आला देशों से आला दर्जे की शिक्षा आयात कर लेते हैं -जस की तस(बाकियों के लिये शाला है ही).अमेरिका की जरूरत दूसरे देशों को बरवाद करके उनको सभ्य बनाने की है तो वहां वैसी व्यवस्था है समाज स्कूलों में.तभी वहां हाईस्कूल का छात्र नौ लोगों को मुस्कारते हुये गोलियों से भून कर कर खुदकशी कर लेता है.कुछ चूक हो गयी होगी नहीं तो यह जवान होकर हजारों पर बम बरसाता.

हम भी कोई लकीरी नहीं हैं कि जोंक की तरह एक ही शिक्षा नीति से जुड़े रहें.हर साल बदल देते हैं अपनी प्राथमिकतायें.आज ज्योतिष पर जोर कल गणित पर परसों वैदिक गणित.आज गणित का प्रैक्टिकल शुरु किया बोर्ड में तो अगले साल साइंस में भी प्रैक्टिकल गोल.

बकौल श्रीलाल शुक्ल -वर्तमान शिक्षापद्धति रास्ते में पड़ी कुतिया है,जिसे कोई भी लात मार सकता है.

यह लतखोर शिक्षा व्यवस्था दिन पर दिन मंहगी होती जा रही है.सरकार कल्याणकारी कामों से उदासीन होती जा रही है.सरकारी
स्कूलों की शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है.प्राइमरी शिक्षक गुटबंदी,जनगणना,चुनाव,पोलियो उन्मूलन आदि के अलावा
दोपहर भोजन योजना के इंतजाम में लगे रहते हैं.मंहगे स्कूलों में फीस ज्यादा है पर उसका अध्यापक सरकारी मास्टर के मुकाबले कम तनख्वाह पाता ज्यादा असुरक्षित है.यह असुरक्षाबोध वह कुंठा में बदलता है.येन-केन-प्रकारेण वह बच्चों को सौंप देता है.जिस वर्ग से जो मिला लौटा दिया-त्वदीयं वस्तु गोविंदम,तुभ्यमेव समर्पयामि.



सार्थक शिक्षा के लिये जरूरी है कि ,बच्चों को स्कूलों में घर जैसा माहौल मिले.उनको जो कुछ पढ़ाया जाये उसका रोजमर्रा के जीवन से सहज संबंध हो.शिक्षा बच्चे की नैसर्गिक मानसिक क्षमताओं के विकास में योगदान करे तथा उसे समाज के लिये उपयोगी और मजबूत नागरिक के रूप में तैयार कर सके.

यह जरूरतें हर समाज की हैं .जरूरत है समाज के अनुरूप इस जरूरत को पूरा करने की.

मेरी पसंद

हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था.

उधर-उधर --उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी

मैं स्वीकार करूं
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!

--केदारनाथसिंह

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