Wednesday, November 18, 2015

हम तो बस प्राणपंथी हैं, जानपंथी हैं

चाय की दुकान से तालाब की तरफ चले आज। रास्ते में एक उजाड़ सी जगह पर उगी घास को गाय और सांड ब्रेकफास्ट की तरह चर रहे थे। वहीँ के रहवासी एक लडके को गोवंश का यह सुख देखा नहीं गया। उसने घटनास्थल से ही एक पत्थर उठाकर चरते हुए जानवरों की तरफ फेंका। विकसित देशों के ड्रोन हमलों की तरह उसका भी निशाना चूका और पत्थर दूर जाकर सुस्ताने लगा।

पत्थर लगा भले न हो लेकिन गोवंश के लोग वहां से हड़बड़ाकर फूट लिये जैसे लाठीचार्ज के समय पुलिस के लाठी सड़क पर पटकते ही सड़क की भीड़ तितर-बितर हो जाती है। जवान सांड़ तेजी से भागा तो उसकी पीठ पर का तिकोना मांस दायें-बाएं हिलने लगा। मांस का त्रिभुज इतनी तेजी से हिल रहा था कि पता लगाना मुश्किल कि वास्तव में वह वामपंथी है या दक्षिणपंथी।अगर कोई उसको रोककर उस समय पूंछता कि बताओ तुम्हारी आस्था वामपंथ में है या दक्षिणपंथ में तो शायद वह कहता कि भैये हमारी आस्था न वामपन्थ में है न दक्षिणपन्थ में। हमारी आस्था तो 'प्राणपंथ' में हैं।जिस पंथ पर चलने में हमारे प्राण बचे उसी पंथ के अनुगामी हैं हम। हम न वामपंथी हैं न दक्षिणपंथी। हम तो बस प्राणपंथी हैं, जानपंथी हैं।


सांड के आगे ही एक बछिया भी, जो जल्दी ही गाय कहलाने लायक बड़ी हो जायेगी, तेजी से भागते हुए पीछे देखती जा रही थी। युवा सांड उसके पीछे अब ब्रिस्क वाक सा करता हुआ जा रहा था। जिन लोगों ने इन लोगों का घास चरना और इन पर पत्थर से हमला नहीं देखा वे अभी इनको आगे- पीछे भागते-चलते देखें तो शायद कहें कि देखो ससुरा सांड जवान बछिया के पीछे लगा है दिन दहाड़े। क्या पता कोई इसी बात पर सांड को गरियाते हुए पत्थर न मारने लगे। हो तो यह भी सकता है कि कोई बछिया को ही गरियाये -बहुत गर्मी चढ़ी गई है इसको सुबह-सुबह।

यह सब इस बात का बस एक उदाहरण है कि किसी घटना पर आपकी प्रतिक्रिया इस बात पर निर्भर करती है कि आप उससे कब और कैसे जुड़े। कोई जान बचाकर भागते जानवरों को सहज कामुक इरादे से सड़क पर भागता समझ सकता है। कोई अपने घर के पीछे उगी घास की रक्षा करने के लिए लड़के द्वारा आवारा पशुओ पर चलाये ठेले को गोवंश पर खुलेआम अत्याचार मानते हुए उसे थपड़िया सकता है। है कि नही?

मैदान पर एक आदमी सामने उगे सूरज की सीधे आराधना करता हुआ ऐसी मुद्रा में खड़ा हो जिसे देखकर लगा मानो वह सूरज भाई से विडियोचैट कर रहा हो।

तालाब किनारे पहुंचे तो देखा कि लोग तालाब खेलने के लिए तैयार हो रहे थे। कुछ लोग ट्यूब में मुंह से हवा भर रहे थे। कुछ नाव से पानी उलीचकर बाहर कर रहे थे। उलीचने के लिए स्टील की प्लेट का इस्तेमाल कर रहे थे लोग। लोग अपने पैंट उतारकर किनारे रखकर पटरा वाले जांघिये या अंडरवियर में 'ट्यूबनाव' पर सवार होकर लकड़ी की छोटी-छोटी डंडियों को चप्पू बनाये पानी में उतर गए।


नाव वाले चप्पू लिए हुए थे। एक नाव वाले के पास शायद चप्पू नहीं था तो वह जिस प्लेट से वह नाव का पानी उलीच रहा था उसी से तालाब का पानी इधर-उधर करते हुए प्लेट को चप्पू की तरह चलाते हुए उधर की तरफ चल दिया जिधर बाकी साथी गए थे।

तालाब में आज छोटे जाल डाले गये हैं क्योंकि बाजार में मछली की खपत कम है। मछली भी कम हैं तालाब में। जब बड़ा जाल डाला जाता है तो ज्यादा लोग आते हैं 'तालाब खेलने'। कुल 80 लोगों में आज 26 लोग आये थे।
किनारे कुछ लोग थे। वे मछली पकड़ने नहीँ गए। वे व्यवस्था देखते हैं। मछली पकड़कर लाने पर 30/- किलो मिलता है मछुआरों को। अगर कोई मछुआरा मछली खरीदना चाहें तो 80/- किलो मिलती है। कोई ग्राहक चाहे तो 120/- किलो। जो पैसा बचता है सोसाइटी में उसको तालाब में ही लगा दिया जाता है।

तरह-तरह की मछलियाँ हैं तालाब में। कोई मौरम में फलती है तो किसी को कीचड़ रास आता है। तालाब दिन पर दिन देखते-देखते सिकुड़ गया। तालाब किनारे के तमाम मकान तालाब को पाटकर बनाये गए हैं।
तालाब किनारे कई जगह घाट पर छठ पूजा का कार्यक्रम चल रहा था। भजन आरती की आवाज सुनाई दे रही थी।

इतने में दो पुलिस वाले मौका मुआइना के लिए आये फटफटिया पर वहां। हमने पूछा कि इनको भी कुछ देना पड़ता है क्या मछुआरों की तरफ से? वो बोले- नहीं।

तालाब से लौटते हुए साइकिल में हवा भरवाई एक जगह। दीपा से मिलने गए। उसका घर बंद था। शायद स्कूल चली गयी हो। अब शाम को या कल जाएंगे।

कमरे पर आकर चाय पीते हुए पहला हिस्सा पोस्ट किया आज के रोजनामचे का। बाकी का हिस्सा यह रहा। आज छठ की छुट्टी है।अब आप मजे कीजिये। मस्त रहिये। आपका दिन शुभ हो मंगलमय हो। जय हो। विजय हो।।
 

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