Saturday, January 14, 2017

किशोरीलाल चतुर्वेदी युवा पुरस्कार एवं व्यंग्य की चौपाल


आज नई दिल्ली के 'हिंदी भवन' सभागार में हमारे प्रिय साथी अनूपमणि त्रिपाठी को प्रथम 'किशोरीलाल चतुर्वेदी युवा पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार अर्चना चतुर्वेदीने अपने पिताजी स्व. पिता की स्मृति में प्रारम्भ किया है। अनूपमणि इस पुरस्कार के सर्वथा योग्य लेखक हैं।
पुरस्कार प्रदान करने का कार्य Harish Naval जी anup, Anup Srivastava Subhash Chander Arvind Tiwari श्रवण कुमार उर्मिलिया, Kamlesh Pandey संतोष त्रिवेदीRamesh Tiwariअनूप शुक्ल, गिरीश पंकज, आदि इत्यादि बुजुर्गों, साथियों की उपस्थिति में हुआ।
पुरस्कार समारोह की शुरुआत में अर्चना चतुर्वेदी ने अपने पिताजी को याद करते हुए अपने जीवननिर्माण में उनके महत्व का उल्लेख करते उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की।
पुरस्कार मिलने के बाद जब अनूपमणि से अपने उदगार व्यक्त करने को कहा गया तो उन्होंने भावुक/नर्वस होने की बात कहते हुए कहा - 'यह पुरस्कार मिलने के बाद अब मैं प्रयास करूँगा कि आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतर सकूं। आलस्य को त्यागकर बेहतर लेखन कर सकूं।'
पुरस्कार स्थल पर उपस्थित लोगों द्वारा एक मत से दिए प्रस्ताव पर अमल करते हुए पुरस्कार की राशि अनूपमणि की गृहस्वामिनी को सौंप दी गयी।
पुरस्कार समारोह के बाद ’व्यंग्य की चौपाल’ की शुरुआत हुई। वहां उपस्थित सभी लोगों ने अपनेअपने परिचय दिए। परिचय देने में लोग सहज ही विस्तार से अपना बखान करने लगे तो अध्यक्ष हरीश नवल जी और सुभाष चन्दर ने भी लोगों को संक्षेप में अपनी बात कहने की बात कहते हुए टोंका। इसके बाद लोग कम शब्दों में लेकिन विस्तार से ही अपना परिचय देने लगे।
बाद में पता लगा कि हरीश जी को और सुभाष जी को भी पुस्तक मेला के किसी कार्यक्रम में भी मंच पर बैठकर लोगों को संक्षेप में अपनी बात कहने का निर्देश देना था। इस चक्कर में उन्होंने वहां बैठे अन्य लोगों पर समझदार होने का आरोप भी लगाते हुए यह कहा--'यहां बैठे सभी लोग समझदार हैं। आप अपनी बात कहते हुए दोहराव से बचें।'
लोगों ने वाकई समझदारी का परिचय दिया और हरीशजी के इस आरोप का कोई जबाब नहीं दिया।
सुभाष चन्दर जी ने विषय प्रवर्तन किया और यह चिंता व्यक्त करते हुए बात शुरू की कि व्यंग्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। अख़बार में उसकी जगह सिकुड़ती जा रही है।व्यंग्य के कालमों की शब्द संख्या कम होती जा रही है। उन्होंने कहा- "हमको इस पर विचार करना करना है कि व्यंग्य कैसे लिखा जाए ताकि सार्थक व्यंग्य रचा जा सके।"
इसके बाद के संचालन का जिम्मा अनूप शुक्ल को दे दिया गया। अनूप शुक्ल ने कुछ उलटा सीधा बोलते हुए एकाध लोगों को मंच पर बुलवाया। संयोग कि जिसको भी बुलवाया उसको भी लगा कि माइक फिर मिले या मिले इसलिए व्यंग्य के बहाने जो भी बोलना है अभी ही बोल लिया जाए।
माइक के यह हाल देखकर अध्यक्ष को फिर अपना अगला कार्यक्रम याद आया। यह भी याद आया कि बाहर खड़ी टैक्सी का बढ़ता बिल भी उनको ही चुकाना है। अत: उन्होंने संचालक की व्यवस्था ही खत्म कर दी। कहा -'सब लोग एक-एक करके फटाफट व्यंग्य के बारे में चिंतित होते जाओ।'
संचालक बेचारा चुपचाप यह सोचते हुए अपनी जगह पर बैठ गया कि किसी समारोह को बिना कतर ब्योंत के चलाने के लिए आवश्यक होना चाहिये कि:
1. समारोह का अध्यक्ष तय करते समय उनसे इस बात का शपथपत्र ले लिया जाए कि समारोह के साथ लगा हुआ कोई और कार्यक्रम नहीं है उनका।
2. अध्यक्ष के टैक्सी का बिल आयोजकों द्वारा ही चुकाया जाये।
इसके बाद सभी साथियों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। तात्कालिक बनाम सार्वकालिक व्यंग्य का राग बजा, सरोकारी व्यंग्य बनाम सपाट लेखन, राजनितिक लेखन बनाम सामाजिक व्यंग्य, कूड़ा लेखन बनाम अच्छे लेखन की खूब चर्चा हुई।
संतोष त्रिवेदी तो व्यंग्य के कूड़ा लेखन पर जिले के स्वास्थ्य अधिकारी की तरह भन्नाए हुए थे। उनका कहना था कि अखबारी स्तम्भ का लेखन और किताब में छपने वाला लेखन अलग रखा जाना चाहिए। कमलेश पांडेय का कहना था कि स्तम्भ का लेखन खराब होगा और पत्रिकाओं का अच्छा यह कहना ठीक नहीं। उनका कहने का मतलब शायद यह रहा होगा कि हुनरमंद लेखक अपनी प्रतिभा से पत्रिकाओं में भी चौपट व्यंग्य लेख लिख सकता है।
कमलेश ने यह भी कहा कि हर व्यंग्य अमूमन तात्कालिक घटनाओं पर ही प्रतिक्रिया होती है। बाद में यह समय तय करता है कि वह कैसा बना।
इस पर अरविन्द तिवारी जी ने सन्तोष त्रिवेदी की बात का मतलब समझाते हुए बताया कि संतोष के कहने का मतलब यह था कि जब छपे हुए लेखों का संकलन किया जाये तो तात्कालिक प्रवृत्ति वाले लेखन को छाँट दिया जाना चाहिए। अरविन्द जी ने सुरजीत और संतोष के कुछ लेखों का जिक्र करते हुएउनकी तारीफ़ भी की।
अरविन्द जी ने शरद जोशी और हरिशंकर परसाई के उदाहरण देते हुये कहा कि अब ऐसे स्तम्भ कम लिखे जा रहे हैं जो आम आदमी के सरोकार से जुड़े हों।सरोकार के कारण ही परसाई जी की रचना 'हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं 'आज भी प्रासंगिक है ।
खराब व्यंग्य को ख़ारिज करने की बात पर अपनी बात रखते हुये रमेश तिवारी ने हाल में मौजूद कई व्यंग्यकारों की अच्छी-अच्छी रचनाओं के नाम एक एक की तरफ ऊँगली के इशारे से गिनाते हुए बताते हुए कहा -'जब ऐसी रचना की जाती है तब वह यादगार रचना बनती है। कालजयी रचना बनती है।'
रमेश भाई की आवाज इतनी बुलन्द थी और बात कहने का अंदाज पिच पर खड़े और बैठे के बीच वाली मुद्रा में एलबी डब्ल्यू की अपील करते हुए तेज गेंदबाज वाला था कि किसी की हिम्मत अपनी रचना की तारीफ़ का विरोध करने की न हुई। हमारी कोई अच्छी रचना उनको उस समय याद नहीं आई। हमने इस पर जिस तरह की सांस ली उसको लोग सुकून की सांस कहते हैं।
पाठकों में सुधी पाठक Pramod Kumar और Pawan Kumar भी थे। प्रमोद जी ने लेखकों को चुनौती सी देते हुए कहां- ' हम आपकी कदर करने को बेताब हैं लेकिन आप वैसा लिखें तो सही। पवन मिश्रा ने सवाल उठाया कि अच्छी रचना और खराब रचना का पैमाना क्या होता है इसको कैसे तय किया जाए। एक और श्रोता जो प्रकाशन से जुड़ी हैं उन्होंने यह सवाल उठाया कि प्रकाशन के लिए अच्छी रचनाओं का चयन कैसे किया जाए।
हरीश जी ने इस पर व्यंग्य के समझने वाले लेखकों को अपने सम्पादन पैनल में रखने का सुझाव दिया।
लेखिका एवम् प्रकाशक डॉ Neeraj Sharma ने जानकारी देते हुए बताया कि आजकल व्यंग्य लेखन की किताबें बहुत मांग में हैं। हम लोगों को बच्चों के लिए भी व्यंग्य लेखन करना चाहिए। सहज भाषा में बच्चों के लिए साहित्य की बहुत जरूरत है।
अनूप शुक्ल को मौका मिला तो उन्होंने परसाई जी के लेखन की विराट सम्वेदना की बात कहते हुए कहा -" आज का अधिकांश लेखन कुंजी लेखन टाइप हो रहा है। शिल्प, फार्मेट , शैली आदि तो पहले के लेखकों को पढ़कर सीखा जा सकता है लेकिन व्यंग्य का कच्चा माल जो लोक अनुभव से आता है वह कम है। दिन-प्रतिदिन जटिल होते जीवन के अनुभव लेकर लिखने की बजाय पहले से स्थापित मान्यताओं पर अधिकतर लेखन हो रहा है। इसीलिये वह लोगों तक पहुंच नहीं रहा। प्रभावित नहीं कर रहा।"
खराब लेखन और कूड़ा लेखन की बात करते हुए अनूप शुक्ल ने कहा कि आज व्यंग्य की मांग है तो बहुतायत में लिखा जा रहा है व्यंग्य। यह कुछ इस तरह जैसे सन 2000 में वाई टू के की समस्या के समय जिसको भी की बोर्ड चलाना आता था उसको कम्प्यूटर विशेषज्ञ मानकर अमेरिका जाने का मौका मिल गया। आज व्यंग्य बहुतायत में लिखा जा रहा है। उसका अधिकांश अगर कूड़ा है तो उसके पीछे हलकान होने की बजाय बढ़िया लिखा जाय। कूड़ा लेखन का स्यापा करने की बजाय बढ़िया लेखन क्या होता है यह लिखकर बताया जाये।
सन्तोष त्रिवेदी ने इस पर कहा कि आप लोगों ट्रेनिग दीजिये। अनूप शुक्ल ने कहा कोई किसी को लिखना नहीं सिखा सकता। लोग लिखते-लिखते सीखते हैं।
तब तक रमेश तिवारी ने कूड़ा लेखन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए बुलन्द आवाज में कहा-'बाजार की मांग पर लिखा जाने वाले लेखन को मैं साहित्य मानने से इनकार करता हूँ।'
अनूप शुक्ल ने माइक हाथ में होने का फायदा उठाते हुए उतनी ही बल्कि और माइक का सहारा मिल जाने के कारण और बुलन्द आवाज में कहा -'मत मानिए।' इसके बाद अपनी बात के समर्थन में तर्क देते हुए कहा कि लोग लिखते-लिखते सीखते हैं। आप जब सबसे पहले लिखते-बोलते होंगे तब के और आज की गुणवत्ता में बहुत फर्क आया होगा।
बुलन्द आवाजों की जुगलबन्दी देखकर सुभाष चन्दर जी चहके -'यह हैं असली चौपाल के तेवर।'
सुधी पाठक प्रमोद कुमार ने लोगों के सीखने के दौर के लेखन को कूड़ा लेख्नन की बजाय अपरिपक्व लेखन कहने का सुझाव दिया। अपाहिज को दिव्यांग कहने की तर्ज पर कूड़ा लेखन को अपरिपकव लेखन कहने का सुझाव अध्यक्ष जी को पसंद आया। इस पर किसी ने पूछा-'अगर कोई ताजिंदगी कूड़ा लेखन करता रहे तो उसको कबतक अपरिपक्व लेखन कहते रहेंगे। लेकिन इस पर आगे चर्चा नहीँ हुई।
इस बीच व्यंग्यकार आलोक पुराणिक आ गए। उनको बोलने के लिए बुलाया गया तो समय सीमा की बन्दिश हटा ली गयी। उनकी तारीफ़ करते हुए अनूपमणि ने कहा-'आलोक पुराणिक जी ने अपने नियमित लेखन द्वारा उस समय पाठकों को व्यंग्य से जोड़ा जब व्यंग्य के पाठक कम हो रहे थे।
आलोक पूराणिक ने विस्तार से अपनी बात रखी। उनका कहना था कि किसी के लिखे को खारिज करने, कूड़ा बताने में समय गंवाने की बजाय हम अच्छा काम करके बताएं। उनका मानना यह था कि जैसे-जैसे कोई रचनाकार बेहतर काम करता जाता है वैसे वैसे उसके भीतर अपने काम को अच्छा मानने का संकोच बढ़ता जाता है।
आलोक जी ने सुझाव दिया व्यंग्य में नए प्रयोग होने चाहिए। 'पंच बैंक' पर काम होना चाहिए, ’फोटो व्यंग्य’ लिखे जाने चाहिए, व्यंग्य का अन्य विधाओं से फ्यूजन होना चाहिए। इनाम-विनाम , गुटबाजी , मठाधीशी की परवाह किये बगैर काम करना चाहिए। बढ़िया काम ही आगे जाता है । बाकी सब यहीं धरा रह जाता है।
इसी समय अनूप मणि ने सवाल किया -'जब हम समाज से सवाल करते हैं , नेताओं के आचरण पर ऊँगली उठाते हैं तो क्या हमको व्यंग्यजगत की विसंगतियों पर सवाल नहीं उठाने चाहिए?'
अनूप मणि का सवाल आलोक पुराणिक से था। वे जबाब दें तब तक सुभाष जी ने दिनकर का पंच मार दिया:
'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।'
लेकिन अनूपमणि को जबाब चाहिए था। उन्होंने फिर सवाल उठाया। आलोक ने जबाब देने की अनुमति मांगी।लेकिन अध्यक्ष जी को अचानक फिर अगला प्रोग्राम और इन्तजार करती टैक्सी याद आ गई। उन्होंने कार्यक्रम छोड़कर चले जाने की धमकी दी। जाने के लिए खड़े भी हो गए। लेकिन फिर रुक गए। उनको याद आ गया होगा कि अभी अध्यक्षीय भाषण तो रह ही गया।
और कोई मौका होता तो अनूपमणि शायद पसड़ जाते लेकिन इनाम मिलने के फौरन बाद खाई जिम्मेदारी की कसम याद आ गई। अपने सवाल को पुचकार के शांत कर दिया यह कहते हुये--'बैठ जाओ बेटा , तुमको जल्दी ही बढ़िया वाला जबाब दिलवायेंगे।'
वहीं पर गिरीश पंकज जी की किताब का विमोचन भी हुआ। गिरीश जी ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा-
'मैंने जब से लिखना शुरू किया तबसे लगातार हरीशजी के पीछे लगा हूँ।मैं अधिक समय नहीं लूँगा । बस एक मिनट में..."
"हरीश जी को ठिकाने लगा दूंगा"--जब तक गिरीश जी कुछ बोले तब तक सन्तोष त्रिवेदी ने उनका वाक्य पूरा कर दिया।
ठहाकेदार सामूहिक हँसी के बाद गिरीश जी बिना किसी की परवाह किये सार्थक लेखन करने की बात कही।
हरीशजी ने अपनी बात कहते खूब मजे लिए, समझाइश दी और नकारात्मक पृवृत्तियो से बचने की सलाह दी। उन्होंने बताया- "व्हाट्सऐप पर दो ग्रुप हैं।एक वलेस दूसरा व्यंग्ययात्रा। एक में ज्ञानमार्गी धारा बहती है, दूसरे में प्रेममार्गी। मैने दोनों से बचने के लिए व्हाट्सऐप हटा दिया है। मतलब- ’न रहेगा व्हाट्सएप न बहेगी कोई धारा।’
आलोक पुराणिक ने तीसरी 'नवलमार्गी धारा ' चलाने का आह्वान किया जिसमें व्यंग्य के नए प्रयोग हों।
हरीशजी ने अनूपमणि के सवाल पर विस्तार से बात करते हुए बुजुर्ग होने का पूरा लुत्फ़ उठाते हुये समझाइश दी -'हमको दूसरे का आचरण देखने से पहले खुद का आचरण देखना चाहिए। किसी के प्रति खराब भाव कोयले की तरह होते हैं। जिस तरह कोयला जल जाने पर भी अंगीठी सुलगती रहती है उसी तरह खराब भाव खत्म होने के बाद भी मन दुःखी रहता है।
अच्छे लेखन के बारे में बताते हुए हरीश जी ने लेखन में असमान तुलनाओं के रोचक उदाहरण देते हुए इनसे बचने की सलाह दी। किसी के जैसा लेखक बनने की बजाय खुद की तरह लिखने की सलाह दी।
अंत में सुभाष जी ने सबको धन्यवाद दिया। अनूप श्रीवास्तव जी भी बोले।
बाद में सभी बचे हुए लोग पास की चाय की दूकान पहुंचे। वहां चाय के कई दौर चले। उससे ज्यादा ठहाकों के। उसमें भाग लेने के लिए ही हरीश जी अगले कार्यक्रम की अध्यक्षता छोड़कर वापस आ गए।
चाय की दूकान पर बतकही का जो दौर चला उसको देखकर सुभाष जी बोले -यह है असली चौपाल।
असली चौपाल किस्से फिर कभी। फिलहाल अनूपमणि त्रिपाठी को बधाई।अर्चना चतुर्वेदी को साधुवाद।

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