Friday, May 11, 2018

तरह तरह की लभेड़े

लभेड़ी स्वीट्स
दफ्तर जाते हुए पोस्टर दिखता है - 'लभेड़ी स्वीट्स।' रोज दिखता था। हमेशा सोचते थे, फोटो खींचेंगे इसका। जब तक सोच पर अमल हो, आगे निकल जाते थे। आगे निकल जाने पर सोचते , कल लेंगे। और कल का तो आप भी जानते हैं, कभी आता नहीं। कब्भी नहीं आता। कम से कम हमारा तो नहीं आता। आपका आता हो आप जाने। चेक करवा लो असली 'कल' है कि कोई डुप्लीकेट 'कल' है।
कल हमने फिर खैंच ही लिया फ़ोटो। झटके से गाड़ी रोकी। सड़क किनारे हुए। पीछे से आते ऑटो ने रुककर गरियाया कि झटके से मुड़कर रुक गए। हमें कोई अपराध बोध नहीं हुआ, हम तो शहर की स्वर्णिम ट्रैफिक परंपरा का पालन कर रहे थे। परम्पराओं के पालन के नाम पर तमाम तरह की अराजकताएँ की जा सकती हैं।
आजकल हरेक चीज का डुप्लीकेट आ रहा है। समय की भी डुप्लीकेट सप्लाई चल रही है। अच्छे और बुरे समय की तो थोक में डुप्लीकेटिंग हो रही है। खोए में आलू की तरह। आपके पास अच्छा समय आये तो खुरच कर देख लो कहीं इसमें खराब समय तो नहीं खपा दिया 'समय सप्लायर' ने। खराब समय आये तो दिखते ही फौरन खोलकर देखिये। आजकल हर खराब समय में अच्छे की वायरस घुसे मिलते हैं। पूरा सिस्टम बैठ जाता है।
हां तो बात हो रही थी 'लभेड़ीं स्वीट्स' की। आकर्षक लगा नाम। कैची टाइप का। नया खुला है। पिछले महीने ही। 'लभेड़ी' अगर किसी नई या स्थापित देवी का नाम नहीं है तो यह 'लभेड़' से बना होगा। लभेड़ मतलब 'बवाल'। बवाल थोड़ा अराजक टाइप का है। लेकिन 'लभेड़' शायद उतना अराजक नहीं। इलाहाबादी 'झाम' के घराने के नजदीक लगता है।
कानपुर और आसपास भी लभेड़ का प्रयोग धड़ल्ले से होता है। क्या लभेड़ पाले हो, अरे इसमें बड़ी लभेड़ है, एक लभेड़ हो तो बताएं, अरे यार वो बड़े लभेड़ी हैं, यह भी एक लभेड़ है। मतलब जहां कोई उलझन फंसे वहां एक लभेड़।
सोचते हैं कि कभी दुकान पर जाकर मिठाई खायें, लभेड़ का मतलब समझाएं। पता नहीं कब जा पाते हैं। अभी तो दफ्तर जाना है। शाम को कई काम निपटाना है। ये कई काम ऐसे हैं जो न जाने कितनों दिनों से 'शाम को' और फिर 'कल' पर निपटने के लिए टलते जा रहे हैं।
काम टालने में महारत है अपन को। आज का काम कल पर, कल का फिर कल पर ऐसे टालते हैं कि बेचारे काम को भी हवा नहीं लगती और वह टल जाता है। हमारे एक सीनियर हमारे इस हुनर के इतने मुरीद हुये कि अंग्रेजी में तारीफ कर बैठे -' you people know how to delay the things' तुम लोग चीजों को देर से करना अच्छे से जानते हो।
सालों पहले की गई तारीफ से अपन आज तक अविभूत हैं। देरी करने का हुनर बड़े अभ्यास से आता है । लेकिन आ जाता है। 'कोई काम नहीं है मुश्किल, जब किया इरादा पक्का।' अब तो इरादा भी नहीं करना पड़ता। 'देरी सहज योग' की तरह साध ली है। दो मिनट में करने वाले काम को घण्टों खींच लेते हैं। घण्टों का महीनों तक लटकाए रहते हैं। महीनों में किये जाने वाला काम कितने दिन तक घसीटते हैं इसका अंदाज लगाया नहीं अपन ने, आपका मन होय तो आप लगा लेव।
शहर ही पूरा इसी लभेड़ का मारा है। सीओडी के पास का ओवरब्रिज दस साल से लटका है। गंगा की सफाई गयी सदी में शुरू हुई थी, अभी तक कायदे से शुरुआत भी नहीं हो पाई। इस मामले में हंसी-मजाक ही चल रहा है अब तक। ऐसे न जाने कितने किस्से हैं, एक हो तो सुनाएं। सुनाने लगेंगे तो आप आरोप लगाओगे,' अपने मुंह तुम अपनी बरनी।'
अपने मुंह से अपनी तारीफ अब शोभा भी नहीं देती। करनी भी नहीं चाहिए। जब आपके बारे में झूठ बोलने वाले आपके आसपास हों तो फिर यह काम उन पर ही छोड़ देना अच्छा। अगर आप किसी भी काम के हुए तो लोग खुद आपकी तारीफ करेंगे। आप उससे इंकार करोगे तो दोगुनी तेजी से करेंगे। किसी को बर्दाश्त नहीं होता कि उसकी तारीफ बेकार जाए औए उसका कोई काम रुके। काम निकालने के लिए गधे को बाप बनाने का चलन तो बहुत पहले से है, किसी निठल्ले की तारीफ क्या चीज है।
देखो लभेड़ी स्वीट्स से शुरू होकर निठल्ले चिंतन तक पहुंच गए। अराजक ट्राफिक की तरह चलता है मन भी। बहुत लभेड़ी है। बदमाश। मन को पकड़कर कुच्च देने का मन करता है। लेकिन बिना पूछे कुच्च देंगे तो कहीं बुरा न मान जाये। पूछकर कुच्चेंगे। ठीक है न।

No comments:

Post a Comment