Monday, May 21, 2018

जिन्दगी के इन्द्रधनुषी रंग


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जब आये थे तब दाढ़ी मूंछ नहीं उगी थी, देखते-देखते दाढ़ी सफेद हो गई।
कल लौटते हुये चटाई मोहाल होते हुये आये। यहां चटाइयां बुनने का काम होता है। झोपड़ियों में रहने वाले लोग सड़क पर बैठे चटाई बिनने का काम करते हैं। बिनने का कच्चा माल बांस मण्डी से मिलता है। बांसमण्डी बगल में ही है।
'खोया पानी' वाले बिशारत की दुकान भी पहले बांसमण्डी और फ़िर कोपरगंज में थी।
लेकिन चटाई मोहाल में बिनाई का काम देंखें इसके पहले ही कुछ पुराने टायरों की दुकानें दिखीं। टायरों से निकाली गयी बेल्टें बन्दनवार की तरह लटक रही थीं। दुकानों में बैठे लोग ग्राहकों का इन्तजार करते हुये आसपास मक्खियों की अनुपस्थिति में ऊंघते हुये अखबार बांच रहे थे।
टायरों और उनसे बनने वाली बेल्टों का गणित समझने की मंशा से हम एक दुकान में रुके। पुराने टायर जो कभी सड़कों के बलात्कार (वहीं एक ट्र्क खड़ा था। उसे देखते ही यकीन हो जाता था, इसका जन्म केवल सड़कों से बलात्कार करने के लिये हुआ है।- रागदरबारी) में सहयोगी होते होंगे, मार्गदर्शक मण्डल के सदस्यों की ढेर हुये पड़े थे। जिन टायरों से बेल्ट्स निकल गयी थीं वे छिलके निकले हुये अंडों सरीखे लग रहे थे। उनका चिकनापन देखकर लगा गोया किसी नवोदित लफ़ंगे को छेड़खानी करते हुये पकड़े जाने पर उसका सर घुटाकर दुकान में डाल दिया गया हो।
दुकान वाले ने बताया कि इन टायरों से तरह-तरह की बेल्ट्स बनती हैं। जरूरत के हिसाब। एक बड़ी बेल्ट को थोड़ा टेढा देखकर हमने पूछा - ’ये तो चलेगी नहीं।’
’जब चलती है तो गरम होकर यह टेढापन ठीक हो जाता है।’- दुकान वाले ने बताया।
“गरम होकर दुनिया के तमाम पदार्थ मनमाफ़िक काम करने लगते हैं। जिसको गरम कर दिया जाता है वह सीधा हो जाता है। तमाम ठहरे हुये काम मुट्ठियां गरम होते ही हो जाते हैं।“- हमने मौका देखकर यह बात सोच ली।
ट्रक के जो नये होने पर 17-18 हजार के मिलते हैं वे पुराने होने पर छह से आठ सौ में मिलते हैं। तीन से चार हजार वाले कार के टायर सौ से दो सौ रुपये में। साइकिल के टायर के दाम हमने पूछे नहीं इस डर से कि कहीं कोई खोलकर यहां ने बेंच जाये।
बुजुर्गवार जिनसे बात हुई पता चला कि वे मुजफ़्फ़रपुर, बिहार से हैं। बीस-पचीस साल पहले जब आये तब दाढी मूछ नहीं थी। कानपुर में ही दाढी मूछ हुई और देखते ही देखते सफ़ेद भी हो गयी। जब आये थे तब आसपास तमाम मिलें चलती थीं। आबादी इतनी घनी नहीं थी। अब मिलें बन्द हो गयी हैं। आबादी का घनत्व बढ गया है। आसपास तमाम मकान पहले कुकुरमुत्तों की तरह और फ़िर डायनासोर वाले अन्दाज में बढ गये हैं।
मुजफ्फरपुर का नाम सुनते ही हमको अपने कई अजीज दोस्त याद आ गए। उनसे जुड़ी यादें तड़तड़ा के मन के बहुत तेज नेटवर्क पर हाइपर लिंक की तरह खुलती चलीं गई।
रहते कानपुर में हैं लेकिन सम्बन्ध मुजफ़्फ़रपुर से बना हुआ है। परिवार वहीं है। आते-जाते हैं। परिवार के बारे में पूछने पर बताया कि पत्नी हैं। एक बेटी है उसकी शादी हो गयी।
हमने पूछा -जब पत्नी अकेली हैं तो यहां क्यों नहीं ले आते। साथ क्यों नहीं रहते।
बोले- ’साथ रहने के लिये खर्चा का जुगाड़ नहीं हो पाता मंहगाई में। इसलिये वहीं रहती हैं वो।’
हमें लगा कि एक बार अलग रहने पर अलग ही रहने ऐसी आदत पड़ जाती है कि साथ रहने की दिक्कतें ज्यादा बड़ी लगने लगती हैं। न्यूटन का जड़त्व का नियम बहुत दूर तक काम करता है।
जब कानपुर आये थे और आज की हालत में क्या बदलाव आये हैं आपकी समझ में? जिन्दगी आसान हुई है कि कठिन? - मैंने उनसे सवाल पूछा।
वो बोले-’ सुविधायें तो बढी हैं लेकिन तकलीफ़ें भी साथ-साथ आईं हैं।’
तकलीफ़ों की तफ़सील पूंछने पर बताया बुजुर्गवार ने- ’ अब देखिये पेशाब के लिये दूर सुलभ शौचालय तक जाना पड़ता है। लेटरीन के पांच रुपये लगते हैं सुलभ शौचालय में। पेशाब के लिये जाओ तो हर बार टोंकता है पहले पांच रुपये जमा करो। पहले यहां गहरी नालियां थीं। पानी चलता था उनमें। यहीं बैठकर आड़ में पेशाब कर लेते थे। अब बताओ इत्ती गर्मी में पेशाब के लिये चलकर मील भर जाओ तब तक किसी की पेशाब के पहले जान ही निकल जाये।’
चलते हुये नाम पूछने पर बताया - ’मोहम्मह हसन।’
मोहम्मद हसन जिनके लिये कहा जाता है - ’हाय हुसैन हम न भये?’- हमने अपना अधकचरा ज्ञान छांट दिया।
वो हुसैन थे। हसन और हुसैन दोनों भाई थे। - मोहम्मद हसन ने बताया।
चित्र में ये शामिल हो सकता है: 2 लोग, मुस्कुराते लोग
साहब ने हमारी तमाम फ़ोटो ली हैं
हम वहां से चलकर घर के पास पहुंचे। घर के बाहर फ़ुटपाथ पर खरबूजे -तरबूज की दुकान लगाये मोहम्मद इस्लाम से दोनों फ़ल लिये। उनकी पत्नी अमीना बेगन साथ में थीं। उनसे बतियाये। इस्लाम ने अपनी पत्नी को बताया - ’साहब ने हमारी तमाम फ़ोटो ली हैं।’
बतियाते हुये पता चला कि उनके दस बच्चे हैं। छह लड़कियां, चार लड़के। सब अपने-अपने काम से लग गये। लड़कियों की शादी हो गयी।(एक को छोड़कर) बच्चे गुजरात, मुम्बई, सऊदी और कानपुर में अलग-अलग काम करते हैं।
बच्चों की बात पर हमने पूछा - ’इत्ते बच्चे पैदा किये?’ मन में सोचा भी तीन और कर लेते तो मुमताज महल की बराबरी हो जाती। यह भी कि अभी एक बेटी के बाप से मिलकर आये। यहां दूसरे के दस बच्चे हो गये।
इस पर बोली अमीना- ’पहले लड़के के चक्कर में हुये। फ़िर सास ने आपरेशन कराने नहीं दिया। बुढिया के चक्कर में होते गये बच्चे। अब सब ठीक है। खुदा के मेहरबानी से सब बच्चे पल-बढ गये। हम सुकून से हैं।’
मियां के बारे में पूछने पर बोली- ’हमारा आदमी लाखों में एक है। जो कमाता है सब हाथ में रखता है। कभी हाथ नहीं उठाया। हम बहुत खुश हैं अपने आदमी से।’
हमने मजे लिये - ’तुम तो इनके ही साथ रही। एक के साथ रहकर तुमको क्या पता कि बाकी के कैसे हैं जो तुम इनको लाखों में एक बता रही हो?’
इस पर हंसते हुये बोली- ’अपना आदमी अपना ही होता है। उसको हम खराब कैसे कह सकते हैं?’
चलते हुये साथ में फ़ोटो ली। मियां-बीबी दोनों सावधान मुद्रा वाले पोज में। फ़िर हमने कहा -’ जरा पास आओ एक-दूसरे के। कन्धे पर हाथ रखो।’
पास आने और कन्धे पर हाथ रखने की बात इस्लाम शरमा गये। और सिकुड़कर खड़े हो गये। लेकिन अमीना ने उसको अपनी तरफ़ घसीट लिया और कन्धे पर हाथ धरकर मुस्कराते हुये फ़ोटो खिंचाया।
इतनी देर की बातचीत की बाद खरबूजे और तरबूज जो लाये उनकी मिठास पता नहीं कितनी बढी लेकिन पैसे अलबत्ता काफ़ी कम पड़े उनके।
हमारे आसपास की जिन्दगीं में अनगिनत इन्द्रधनुषी रंग होते हैं। हम अपने में डूबे हुये इनको देख नहीं पाते।

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