Wednesday, May 09, 2018

कास्टिंग काउच


पिछले दिनों कास्टिंग काउच पर बड़ी बयानबाजी हुई। कोई बोला -’यह सिनेमा में होता है।’
अगला बोला-’ कहां नहीं होता।’
हम इंतजार करते रहे कोई बोलेगा -’ कास्टिंग काउच तो महाभारत के समय से हो रहा है।’
अगर यह बयान आता तो पक्का यह भी बोलता-’ महाभारत हुआ ही कास्टिंग काउच के लिये था। हर महाभारत की जड़ में एक कास्टिंग काउच होता है।हर कास्टिंग काउच आगे चलकर महाभारत में बदलता है। ’
हमारे रामायण, महाभारत इस मामले में दादी, नानी की संदूकची टाइप हैं। कुछ भी सामान चाहिए, टटोलकर निकाल देंगी। दुनिया में आज किसी भी नई चीज की मुंहदिखाई हुई नहीं कि अपन रामायण, महाभारत से निकाल कर दिखा देते हैं -'जे तो हमारे पास भौत पहले से है।'
और ये जो इंटरनेट, फिन्टर्नेट, गूगल, फूगल, एटम बम, फेंटम बम , आधुनिकता, फाधुनिकता, विकास, फिकास के चोंचले हैं न वो हम कब के करके छोड़ चुके हमको खुद याद नहीं। आजकल हरामखोरी, बाबागिरी, काहिली, पिछड़ेपन का लुत्फ उठा रहे हैं।इसी में मन रमा हुआ है। मजा आ रहा है। जितना मजा लेते हैं उतना और लेने का मन करता है। ये दिल मांगे मोर टाइप हो रहा है।
बड़ी बात नहीं कि महाभारत में कास्टिंग काउच के बाद खोज पीछे चलते हुये आदम और हौव्वा तक जाती। कोई साबित कर देता कि जिस बगीचे में आदम और हौव्वा ने मिलकर सेब खाया था उसके मालिक ने हौव्वा से पेशकश की होगी-’ हमारे साथ भी सेव खाओ।’ शायद हौव्वा ने मना कर दिया होगा और बगीचे के मालिक ने उसे आदम के साथ निकाल बाहर किया हो।
लेकिन कोई बयान आये नहीं। देश के सारे बयानवीर जिन्ना पर बयान जारी कर रहे थे। जिन्ना पर बयान देते हुए एक तरह से पाकिस्तान को चिढ़ा रहे थे - 'तुम हमारे यहां आतंक वाद मचाओगे, हम तुम्हारे कायदे आजम को चुनाव की ड्यूटी पर लगवाएंगे। दमे के मरीज को चैनल,चैनल दौड़ाएंगे। अखबार, अखबार में छाप कर उसमें समोसा , कचौड़ी खाएंगे। फ्री फंड में कौड़ी का तीन बनाएंगे।
कास्टिंग काउच मतलब शरीर के बदले सुविधा। शरीर सुख देव, सुविधा साधन लेव।
इस लिहाज से देखा जाए तो पूरी दुनिया ही कास्टिंग काउच है। साधन संपन्न, साधन हीन से मजे ले रहा है। बदले में उसको कुछ साधन थमा दे रहा है। अविकसित देश विकसित देशों के बिस्तर सरीखे हैं। वो पिछड़े देशों का बिस्तरों की तरह उपयोग करते हैं, बदले में कुछ ग्रांट, कुछ सुविधा , कुछ कूड़ा तकनीक थमा देते हैं। पिछड़े देश विकसित देशों की तकनीक और बाजार के कूड़े दान हैं।
पूरी दुनिया की राजनीति कास्टिंग काउच ही तो है। जनता को नेता जनसेवक का बाना बनकर पटाता है। सुविधा का लालच देकर बहलाता है, फुसलाता है। वोट का मजा लेकर आगे बढ़ जाता है। अब तो वह इस काम को बेहतर तरीके से अंजाम देने के अपने साथ गुर्गे भी लाता है।
साहित्य और कला के क्षेत्र में भी खूब कास्टिंग काऊच दिखती है। कुछ कुछ सम्मान समारोह तो आपसी सहमति वाले 'कास्टिंग काउच' सरीखे नजर आते हैं। जमे हुए लोग नयों को जमाते हैं। उनसे फायदा लेते हैं, उनको आगे बढाते हैं। दुरुस्त आंखों वाले धृतराष्ट बन जाते हैं। समर्थ, साधन संपन्न चेलों को अपाहिजों की तरह गोद में लेकर ईनाम के मंच पर चढ़ाते हैं। बदले में मंचों की अध्यक्षी, विदेश यात्रा और पथ प्रदर्शक का रुतबा पाते हैं मुक्तिबोध के हिसाब से व्यभिचार का बिस्तर बन जाते हैं।
'उदरम्भरि अनात्म बन गए
भूतों की शादी में कनात से तन गए
किसी व्यभिचार के बन गए बिस्तर।'
मुक्तिबोध की यह कविता बहुत गड़बड़ करती है। हमसे ही सवाल पूछने लगती है:
अब तक क्या किया
जीवन क्या जिया?
हम कविता को क्या जबाब दें समझ नहीं आ रहा। इसलिए फूट लेना सबसे अच्छा। वैसे भी मीडिया मंच से 'कास्टिंग काउच' अब सिमट गया है। जिन्ना के बाद नया तूफान आ रहा है। इसके बाद चुनाव का हल्ला है। सब से बच के रहना है। बचे रहे तो सब होता रहेगा।
सामने से सूरज भाई अपनी किरणों को दुलराते हुए हमसे मजे ले रहे हैं- ' देखो कास्टिंग काउच पर लिख रहा है। जिसके बारे में कुछ पता नहीं उसका विशेषज्ञ बना फिर रहा है।'
हमारे पास सूरज भाई की बात का कोई जबाब नहीं है। हम तो उनको 100 करोड़ के मानहानि का नोटिस भी नहीं दे सकते।
इसलिए मजबूरी में मुस्करा रहे हैं।
लेकिन आप मजे में मुस्कराइए। 'कास्टिंग काउच' के किस्से भूल जाइए। जिंदगी के साथ सुर मिलाकर सुरीली/बेसुरी आवाज में ही सही गुनगुनाइए:
'छोरेंगे दम मगर
तेरा साथ न छोरेंगे।'

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