Friday, July 17, 2020

सफलता के बनावटी मिथक

 पिछले दिनों कुछ बोर्ड परीक्षाओं के रिजल्ट आये। बच्चों के 100% नम्बर तक आये। उनके फोटू छपे। इंटरव्यू आये। और भी लोगों ने अपने बच्चों के नम्बर बताए।

न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया नियम के अनुसार शाम होते होते कभी कम नम्बर वालों ने भी मोर्चा संभाल लिया। कभी कम नम्बर पाए जो लोग आज सफल हैं उन्होंने मीडिया को कब्जे में ले लिया। बताया कि किसी इम्तहान में कम नम्बर पाना मतलब सब कुछ खत्म हो जाना नहीं होता। एक राह बन्द होती है, हजार राहें खुलती हैं। जिन्दगी सिर्फ बोर्ड के नम्बर के हिसाब से नहीं हिलती-डुलती।
ये सफल हुए लोग सिविल सर्विसेज घराने के लोग थे। इतने आत्मविश्वास से इन्होंने अपने कम नम्बर के बावजूद सफल होने की कहानी बयान की कि अधिक नम्बर पाए बच्चों के माता-पिता अपने बच्चों के भविष्य के प्रति आशंकित न हो गए हों। यह न सोचने लगे हों कि -'हाय्य बच्चे के जो नम्बर ज्यादा आ गए। अब यह सिविल सेवा में कैसे जाएगा?'
क्या पता कुछ माता-पिता अपने बच्चों की कापियां दुबारा जँचवा कर उनके नम्बर कम करवाने की जुगत में लग गए हों।
मीडिया ने नम्बरों और सफलता के मिथक को तोड़ने के लिए सिविल सर्वेंट से बात कराई। एक नया मिथक पुख्ता किया -'सफलता का मतलब सिविल सेवा में सफल हो जाना होता है।'
इस सिविल सेवा के मिथक ने जितनो की जिंदगी बनाई होगी उससे कई गुना लोगों की जिंदगी बिगाड़ी होगी। अनगिनत नौजवान अपनी पूरी जवानी सिविल सेवा के युध्द में बर्बाद कर देते हैं। कुछ सफल होते हैं, ज्यादातर असफल । सफल लोगों के किस्से तो सुने-सुनाए जाते हैं। असफल लोग अपने तमाम साथियों से अक्सर बहुत पिछड़ जाते हैं।
सिविल सेवा के ताने-बाने ने देश के बड़े हिस्से को बर्बाद भी किया है। सिविल सेवाओं से जुड़ी ताकत, रुतबे जिसका उपयोग जन सेवा के लिए होना चाहिए उसको लोगों ने अपने अतृप्त सपने पूरे करने में किया। सिविल सेवक सर्वज्ञाता माना गया। जबकि ऐसा होता नहीं। देश का बेहरतीन दिमाग सिविल सेवा में चला गया। उत्पादन और अन्य सेवा सेक्टर बाकी लोगों के लिए छूट गए।
हिंदी पट्टी के पिछड़े रह जाने का एक कारण यहां के प्रतिभाशाली युवाओं में सिविल सेवाओं के प्रति बीहड़ ललक और उसके जाल में उलझकर खुद को ट्रांसफर/पोस्टिंग और लाबीईग तक सीमित रह जाना भी रहा। लोग व्यक्तिगत तौर पर सफल हुए लेकिन समाज को इससे बहुत भला नहीं हुआ मेरी समझ में।
वैसे यह भी एक मिथक ही है कि सिविल सेवा में जाने वाले सब लोग बेहतरीन दिमाग के होते हैं। असलियत यह है सिविल सेवा या अन्य किसी भी इम्तहान में सफल होने के लिए लोगों की लगन, मेहनत, समर्पण, आत्मविश्वास, लोगों का उत्साह वर्धन और काफी कुछ संयोग का योगदान भी होता है। ऐसे कई लोग असफल भी रहे जिनके सिखाये लोग सिविल सेवा में चयनित हुए। गुरु रह गए,चेले निकल गए।
कहने का मतलब कि मीडिया ने एक मिथक तोड़ने के लिए दूसरा मिथक पुख्ता किया। सिर्फ नम्बर ही जरूरी नहीं होते के मिथक को तोड़ने के लिए सफलता का मतलब सिविल सेवा में सफल होने के मिथक को पुख्ता किया। बेहतर होता कि अन्य सेवा क्षेत्रों के सफल लोगों से भी बात कराता जिनके बचपन में कम नम्बर आए। ये लोग उत्पादन, समाज सेवा, साहित्य और दीगर क्षेत्रों के लोग हो सकते थे।
बात नम्बरों की चली तो अपन भी बताते चलें किस्सा। अपन पढ़ने में ठीक-ठाक रहे। अच्छे नम्बर से पास होते रहे। लोग हमको होशियार समझते रहे। लेकिन हमको लगता है होशियारी से ज्यादा इसमें भूमिका मेहनत की होती है। अपने यहां शिक्षा मेहनत प्रधान है।
पांचवी में स्कूल से निकले। सबसे अच्छे नम्बर थे स्कूल में। शायद 147/150. भर्ती के लिए जीआईसी में इम्तहान दिया तो नीचे से 3-4 में नम्बर था। हाई स्कूल में जब निकले तो स्कूल में सबसे ज्यादा नम्बर थे। सबसे ज्यादा नम्बर संस्कृत में थे- 85/100 । हिंदी छोड़ सबमें डिस्टिंक्शन थी। आज हाल यह कि संस्कृत में -' अयम निज: परोवेति, गणना लघुचेतशाम....' वाले श्लोक को छोड़कर कुछ नहीं आता। बाकी डिस्टिंक्शन वाले विषयों ने भी समय के साथ समर्थन वापस ले लिया। अब थोड़ी बहुत जो आती है वह वही हिंदी है जिसमें सबसे कम नम्बर आये थे।
हाईस्कूल के बाद बीएनएसडी गए। एफ-1 सेक्शन। पढ़ाई का माध्यम बदल गया। हिंदी से अंग्रेजी। पहली तिमाही में फिजिक्स की कॉपी मिली। नम्बर आये 09/40 मतलब फेल। जीआईसी का टॉपर बीएनएसडी में फेल। वो तो कहो एक सवाल अनजंचा रह गया था। दिखाने पर गुरु जी ने भुनभुनाते हुए 4 नम्बर जोड़ दिए। नम्बर हुए 13/40 । मतलब पास।
बाद में पता चला गुरु जी ऐसे ही बच्चों को कठिन पर्चा देकर फेल करते हुए ट्यूशन के लिए घेरते थे। हमारी आर्थिक स्थिति में ट्यूशन सम्भव नहीं थी। लिहाजा हमने मेहनत की राह पकड़ी। ऐसी कोई किताब नहीं छोड़ी अभ्यास के लिए जो उस समय उपलब्ध थी। कोई भी किताब हो, उसके सब सवाल हमने आजमा डाले। नतीजा हम बाकी सब विषय में अच्छे नम्बर लाने लगे। लेकिन अंग्रेजी हौवा बनी रही।
अंग्रेजी ऐसा हौवा रही कि लगता था पास कैसे होंगे। संयोग कि हमको इसी समय बाजपेयी सर मिले। उन्होंने हमको पढ़ाया नहीं , अभ्यास कराया। लेकिन उसी अभ्यास के दौरान हममें यह विश्वास भर दिया कि दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं जिसको अगर चाहो तो तुम नहीं कर सकते।
गुरु जी के बढ़ाये हुए हौसले से हमने भयंकर मेहनत की। अभ्यास की बदौलत जो इम्तहान दिए उसके चलते इंटर के जिस इम्तहान में हम पास होने के लिये चिंतित थे, उसमें मेरिट में उत्तर प्रदेश में 9 वां स्थान पाए।
आगे के भी ऐसे तमाम किस्से हैं जिंदगी के। जिनसे हमेशा यह लगता है मेहनत और सच्ची लगन से हर काम पूरा किया जा सकता है। सफलता/असफलता संयोग भी होती है लेकिन जब पूरे मन से मेहनत होती है तो सफलता झक मार कर आपके पास आती है।
जिंदगी बहुरंगी होती है । अनगिनत रंग वाली इस जिंदगी में एक असफलता मात्र एक रंग होती है। जिंदगी बहुत खूबसूरत होती है। एक असफलता इसको बेरंग कभी नहीं कर सकती।
किसी इम्तहान में किसी के नम्बर सिर्फ नम्बर होते हैं। सफलताओं के गढ़े मिथकों में नम्बर भी जुगाड़ से घुस गया है। इसको जितनी जल्दी पहचान लिया जाए उतना अच्छा।

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