Sunday, January 05, 2025

नए साल के संकल्प





आज नया साल शुरू हुए पाँचवा दिन शुरू हो गया। अभी तक नए साल के संकल्प तक नहीं फ़ाइनल किए। ऐसे कहीं होता है?
सोशल मीडिया पर कुछ न कुछ लिखने की आदत ऐसी हो गयी कि जिस दिन न लिखो, उस दिन लगता है आज की दिहाड़ी गयी। कुछ लोग तो दिन में कई-कई बार लिख डालते हैं।
लिखने के साथ पढ़ने का काम भी पिछड़ा हुआ है। रिटायर होने के बाद सोचा था क़ि पढ़ाई तेज़ी से की जाएगी। पुरानी तमाम किताबें नियमित रूप से पढ़ी जाएँगी। किताबें शुरू होती हैं लेकिन अधिकतर आधी-अधूरी रह जाती हैं। Praveen Jha प्रवीण झा की पढ़ने की स्पीड पर ताज्जुब होता है। कल अमित श्रीवास्तव की 'सिराज-ए-जौनपुर' पढ़कर उसके बारे में लिखा, आज अम्बर पांडेय की 'मतलब हिंदू' लगा दी।
किताबों पढ़ने का उधार पटाने के लिए कल तीन किताबें साथ लेकर बैठे थे:
1. एकाकीपन के सौ वर्ष - गाब्रिएल गार्सीया मार्केस (अनुवाद मनीषा तनेजा)
2. सिराज-ए-दिल-जौनपुर - अमित श्रीवास्तव
3. बेहयाई के बहत्तर दिन - प्रमोद सिंह Pramod Singh
सिराज-ए-जौनपुर पुस्तक मेले से ख़रीदी थी। 12 फ़रवरी, 24 को। कई लोगों ने तारीफ़ भी की थी। प्रवीण झा की पोस्ट पढ़कर पढ़ना शुरू किया। कल 63 पेज पढ़ भी डाले। पढ़ते हुए लगा कि इस तरह की किताब कानपुर के बारे में लिखी जानी चाहिए। कनपुरिए हमारे नामराशि Anoop Shukla पास बहुत मसाला है। लेकिन लिखने का काम मेहनत का है। किस्से तो Shambhunath Shukla जी के पास भी बहुत हैं। उन्होंने जितना लिखा है उससे कई किताबें बन सकती हैं। लेकिन उनकी तमाम व्यस्तताएँ हैं। उनसे फ़ुरसत मिलने पर कभी शायद किताबें आएँ ।
पढ़ने के लिए जो किताबें सामने रखीं हैं , उनकी संख्या तक़रीबन पचास होगी। सब थोड़ी-थोड़ी पढ़कर बाद में पढ़ने के लिए रख लीं। किसी के दस पेज पढ़े हैं, किसी के पचास, किसी के सौ किसी के और भी ज़्यादा। एक बार पढ़ना स्थगित हो गया तो फिर रहा ही गया। किताबों के सामने बैठता हूँ तो किताबें कहती होंगी, बेवफ़ा पाठक।
पिछले दिनों नेटफलिक्स पर मार्केस की किताब 'एकाकीपन के सौ वर्ष' पर सीरीज़ शुरू हुई। किताब पिछले साल पढ़ी थी। मनीषा तनेजा Maneesha Taneja जी ने बहुत अच्छा अनुवाद किया है। पाँच साल लगे उनको अनुवाद करने में, बीस साल लगे छपने में। सीरीज़ देखने के पहले फिर से किताब पढ़ना शुरू किया। सौ से ऊपर पेज पढ़कर फिर सीरीज़ देखना शुरू किया। सीरीज़ के दो भाग देखकर लगा कि किताब का कोई विकल्प नहीं। किताब आगे पढ़ना है, सीरीज़ देखना है।
लिखने के अलावा छपाने का काम भी शुरू हुआ पिछले साल। दो किताबें आईं पिछले साल। बाक़ी पर काम जारी है। कविताएँ जमा कर रहे हैं। क्या पता अगले कुछ दिनों में कविताओं के संकलन की किताब आ जाए।
बात शुरू हुई थी नए संकल्प की। पहुँच गयी किताबों तक। सुबह नौ बजे शुरू किया था यह पोस्ट लिखना। अब पूरा करते हुए एक बज गए। ऐसा ही होता है सबके साथ। आपके साथ भी होता होगा।
बाक़ी सब ठीक लेकिन नए संकल्प के बारे में अभी नहीं तय कर पाए।

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