Sunday, July 16, 2017

इतवार को गंगा दर्शन

इतवार की सुबह सुहानी होती है। लखनऊ जाते Ashok भाईसाहब की कार में लिफ़्ट शुक्लागंज पहुंचे। पांच रुपये बचाये। बचत के बाद पईयां-पईयां लौटे। लौटते दौरे की रपट पेश है।
एक दुकानवाला दीवार पर चिपका उसको गले टाइप लगा रहा था। दीवार से अलग हुआ दुकान का पंखा घूमने लगा। पता चला कि दीवार के पास लगे तारों में से एक में अपनी दुकान का तार जोड़कर ’कटिया’ लगा रहा था। कटिया फ़ंसते ही दुकान पर लगा पंखा चलने लगा। इसके बाद इत्मिनान से वह दुकान साफ़ करने लगा। मन किया कटिया का फ़ोटो लेकर लगाते लेकिन डरे की कहीं नाई की दुकान वाला मुफ़्तिया चंपी न कर दे। आगे बढ गये।
सडक पर बैटरी-वाहन खड़ा किये दो लोग बतिया रहे थे। ड्राइवर की सीट पर बैठा आदमी सड़क पर चाय सुड़कते आदमी की बातें ध्यान से सुन रहा था। दूरी होने के कारण उनके विमर्श का विषय पता नहीं चल सका। लेकिन पक्का वह व्यंग्य-विमर्श तो नहीं ही था। होता तो किसी न किसी ग्रुप में उसकी चर्चा हो गयी होती अब तक। हेडलाइट को घूंघट की तरह ढंंके था वाहन वाला।
पास ही गंगा जी बह रही थी। उसके किनारे गये। स्नानार्थी गंगा किनारे जा रहे थे। कुछ लौट भी रहे थे। बगल में 150 साल से भी ज्यादा पुराना गंगापुल अलसाया लेटा था नदी में। नदी भी मजे में धूप में नहाती अलसाई लेटी थी।
रेती में कल तक जहां खरबूजे-तरबूज की खेती थी वहां अब पानी लहलहा रहा था। फ़िर भी अभी नदी घाट से काफ़ी दूर थी। नदी में पानी ज्यादा गहरा नहीं था। घुटनों तक पानी में लोग बैठ-लेटकर नहा रहे थे। नदी में गोल बनाकर बैठी-बतियाती-नहाती महिलायें दिखीं। ऐसा लगा मानों नदी के आंगन में बैठी गप्पाष्टक कर रहीं हों।
एक बीच के उमर के बुजुर्गवार नदी के किनारे मुंडी धरकर ’जलसंसद’ को देरतक प्रणाम करते रहे। प्रणाममुद्रा के बाद सीधे हुये और नदी को मंझाते हुये पानी में बैठकर नहाने लगे।
नहाने के बाद नदी के किनारे ही बालू के बने शिवलिंगों की लोग पूजा कर रहे थे। अलग-अलग बने शिवलिंग पर अगरबत्ती,फ़ूल सटाकर लोग प्रणाम करते दिखे। एक शिवलिंग के पास दो प्रौढा महिलायें घर के किस्से आपस में साझा कर रहीं थीं। हमको पास खड़ा देखकर कुछ रुकीं। इसके बाद फ़िर शुरु हुईं। कुछ देर बाद शंकर जी को भजन सुनाते हुये पूजा-अर्चना में जुट गयीं। भजन के बोल जो थे उनका मतलब था - ’शंकर जी हमारे अज्ञानों का ध्यान मत देना। अपना कृपा बरसाते रहना।’
लोग प्लास्टिक की बोतलों में गंगाजल भरकर ले जा रहे थे। पहले ध्यान रहता तो लखनऊ भेज देते । मिल जाता लखनऊ में शिक्षा द्विवेदी को । उन्होंने एक पोस्ट में गंगाजल भेजने का आग्रह किया है गंगा किनारे रहने वाले साथियों का।
एक महिला तो बोतल में ठूंसकर रेत भी भर रहीं थीं। शायद पूजा के काम आये घर में।
घाट किनारे पंडे भी थे। एक पंडा जी खटिया पर बैठे मंत्र पढते हुये महिलाओं के प्रसाद को ग्रहण कर रहे थे। पास में खड़ा एक लड़का उनके लिये मछली लाने की बात कर रहा था। वे बोले -लाओ तो सही। लड़के ने कहा -पंडा जी गंगा किनारे मछली खाओगे? पंडा जी ने कहा-’अरे तुम लाओ तो सही। चाहे मछली लाओ, चाहे बुकरा। हम खायें चाहे किसी को खिला दें इससे तुमसे क्या मतलब?’
फ़ूल बेंचने वाले पांच रुपये के दोने लगाये फ़ूल बेंच रहे थे। महिलायें और पुरुष दोनों नहाने के बाद घाट पर ही कपड़े बदल रहे थे। नदी के किनारे अपने समाज के खुले स्नानागार हैं। एक महिला नदी में घुसकर नदी के पानी को चट्टान की तरह मानकर उसमें अपनी चद्दर पटककर धोने लगी।
हम खड़े ही थे वहां कि एक गेरुआ बाबा गंगा मैया की जय का हल्ला मचाते हुए आये। इतनी तेजी से नदी में धँसे कि एकबारगी तो गंगा जी भी सहम गईं। उनका किनारे का पानी थरथरा गया। बाद में भक्त कन्फर्म हुआ तो कुछ स्थिर हुईं। हमारा भी मन हुआ नहाने का लेकिन कुछ दूर पानी में अंदर जाकर कुछ देर खड़े रहकर वापस आ गये!
एक नाव वाला बड़े ध्यान से पानी मे नाव खड़ी किये सारे कार्यव्यापार देख रहा था। लौटते हुये हमने दो साइकिलें घाट किनारे 69 मुद्रा में खड़ी आपस में प्रेमालाप मुद्रा में खड़ी बतियाती दिखीं। जोड़ी की छोटी कन्या राशि और बड़ी साइकिल बालक टाइप लग रही थी। जुगुलजोड़ी बढिया लग रही थी।
लौटते में देखा घाट किनारे आये तो देखा एक सांड दो लड़कियों को दौडाता हुआ दूरतक रेती में उछलता रहा। लड़कियां रेत में डरती-गिरती-पड़ती भागीं। सांड पलटकर दूसरी तरफ़ भागा। शायद पुल के ऊपर से गुजरती रेल घबरा गया था या फ़िर बौखला गया था।
घाट किनारे तखत पर बैठे एक बाबा जी चिलम तैयार कर रहे थे। पास ही एक लंगड़ी कुतिया चार पिल्लों को दूध पिला रही थी। कुतिया की एक टांग कट गयी थी। बाबाजी अपने बच्चों को दूध पिलाती कुतिया को देखते उसकी मातृत्व महिमा पर व्याख्यान देते रहे कि लंगड़ी होने के बावजूद अपने बच्चों को दूध पिला रही है।
पास ही एक गुब्बारे वाला गुब्बारे फ़ुलाते हुये सजा रहा था। घाट किनारे बेंचने के लिये जा रहा था। रंग-बिरंगे गुब्बारे आकर्षक लग रहे थे। हम घाट से घर की तरफ़ चल दिये।

Saturday, July 15, 2017

काम भर का भाईचारा है



आज सबेरे बच्चे को स्टेशन छोड़ने गये। घर से निकलते ही पहले बंदर खौखियाये। बाद इसके कुत्ते दौड़ा लिये। लेकिन कार में होने के चलते हमको कोई चिन्ता थी। कुत्ते भी थोड़ी देर दौड़ाने के बाद रुक गये। प्रतीक भौंकाई थी उनकी भी। विरोध के लिए विरोध टाइप।
सड़क के दोनों ओर लोग अभी सो रहे थे। हीरपैलेस के आगे ओवरब्रिज पर तमाम लोग भागकर इकट्ठा हो रहे थे।पुल के बीच खड़े होकर इधर-उधर देख रहे थे। हमें चूंकि आगे जाना था इसलिये हम सामने देख रहे थे।
एक और ओवरब्रिज पार करके फ़िर फ़ुटपाथ मिला। आम जनता का शयन कक्ष। एक लड़की फ़ुटपाथ पर सड़क की तरफ़ सर किये लेटे हुये अपने मोबाइल पर कुछ देख रही थी। मोबाइल सर्वसुलभ टाइप हो गया है।
एक आदमी सर झुकाये कुछ भन्नाया सा चला जा रहा था। देखने से लगा जैसे अभी किसी व्हाट्सएप ग्रुप में रायता फ़ैलाने में असफ़ल रहने की खीझ के चलते ग्रुप छोड़कर चला आ रहा है। मन में सोच रहा होगा दूसरे मोहल्ले में गदर कट नहीं पायी । अपने यहां ही बवाल किया जाए। कम से कम हलचल तो रहेगी।
प्लेटफ़ार्म टिकट लेने के लिये काउंटर पर गये। टिकट बाबू गोल। कुछ देर इंतजार के बाद दूसरी लाइन में लग लिये। वहां भी भीड़। एक भाई किनारे से घुसकर अपना हाथ खिड़की में घुसा दिये। जब तक साथ के लोग एतराज करते तब तक वो हाथ इतना घुसा चुके थे कि साथ के लोगों को लगा कि अब यह हाथ टिकट लेकर ही निकलेगा। सब लोगों ने अपने पैसे - ’एक टिकट हमारा भी ले लेना भईया’ कहते हुये उसको थमा दिये। उसने सबके पैसे ले भी लिये और अंतत: आठ टिकट लेकर सबको बांट दिये।
उस आदमी का लाइन में बिना नंबर घुसकर टिकट लेने के लिये खड़ा होना और फ़िर बाकी लोगों का उसी से अपना टिकट लेने का अनुरोध करना अपने समाज की कहानी है। गलत लगने पर टोंकने की बजाय जब लग गया है तब उसी से टिकट खरीदवा लें वाला भाव। जैसे चुनाव में जीतने वाली पार्टी के साथ सब खड़े होने लगते हैं भले ही वह कैसी भी हो।
टिकट लेने के बाद बाकी लोगों ने तो उससे लपक कर टिकट लिये लेकिन एक बहनजी को उसने खुद लपककर टिकट दिये। अब इसका आगे मतलब आप खुद लगाइये कि कवि क्या कहना चाहता है।
लेकिन यह बात बिन कहे आपको माननी पड़ेगी कि अपने यहाँ काम भर का भाईचारा है। बहनापा है। दोस्ताना है। सहेलीपना है।
ट्रेन आते ही सब लपककर बैठ गये। महिला टीटी ने अपना सामान एक चेले को थमाया और प्लेटफ़ार्म पर टहलने लगी। लगता है उसको इस बात से काफ़ी दुख हुआ कि भारतीय चलते कम हैं। कुछ कदम चलकर वह भारतीयों के चलने का औसत बढा रही थी।
प्लेटफ़ार्म पर तमाम लोग जमीन से जुड़े हुये थे। एक बच्चा एक बोरे पर सिंहासन की तरह बैठा था। स्टैंड पर गाड़ी कराने वाला रात भर का जगा लग रहा था। एक ने उससे मसाला मांगा। उसने उसे दिया। अगले ने पुडिया सीधे मुंह में उड़ेल ली जैसे लोग सीधे पानी जग से पीते हैं।
एक महिला अपने हाथ को जोर-जोर से हिला रही थी। हमें लगा लकवा मारा है तो कसरत कर रही है। लेकिन कुछ देर बाद उसने मुट्ठी से चुनही तम्बाकू की पुडिया निकाली और खाने लगी। इससे लगा कि शायद वह चूने को तम्बाकू में मिला रही होगी।
हीरपैलेस के सामने सड़क पर दो महिलायें झाडू लगाते हुये रुक गयीं। सड़क की बीच में लगी रेलिंग के आर-पार खड़ी होकर बतियाती रहीं। देर तक। हमारे वहां से गुजरने तक उनकी बातें खत्म नहीं हुईं थीं। उनके बगल में ही एक आदमी उघारे वदन मेहनत से झाडू लगाता रहा।
हम घर आकर सोचे कि कुछ लिखा जाये। कुछ समझ नहीं आया तो जो देखा सो बयान कर दिये। अब दफ़्तर का समय हो गया। इसलिये बाकी फ़िर। आप मजे करिये।

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Thursday, July 13, 2017

पेट्रोल पम्प पर फेसबुक, व्हाट्सऐप

कल दोपहर दफ़्तर से लौटते हुए देखा कि गाड़ी में पेट्राल खत्म हो रहा था। पास ही पेट्रोल पम्प भी मिल गया। पहुंच गए। बोले डालो पेट्रोल। पेमेंट कार्ड से करेंगे।
पेमेंट कार्ड से करने की बात सुनते ही एक बोला -'अबे फेसबुक, मशीन लाओ।' कहने के साथ ही उसने गाड़ी की टँकी में पाइप ठूंस दिया।
फेसबुक जिसको कहकर बुलाया वह मशीन लाया। पता चला उसने चार दिन पहले नया मोबाईल खरीदा है। उसी में घुसा रहता है। फेसबुक इंस्टॉल करने की कोशिश करता रहा। खाता बनाया। अब जाकर सफल हुआ। उसकी फेसबुक तल्लीनता के चलते नाम पड़ गया फेसबुक।
जिसने बताया उसने यह भी बताया कि उसका नाम व्हाट्सऐप है। मतलब एक ही पेट्रॉल पम्प पर फेसबुक-व्हाट्सऐप की जोड़ी।
व्हाट्सऐप का फोटो खींचा तो उसने कहा - 'हमारा और फेसबुक का साथ में खींचिए।' कहने के साथ ही वह फेसबुक को पकड़ लाया। कंधे पर हाथ रखकर खड़ा हो गया। लेकिन फेसबुक मेरे हाथ में मोबाइल कैमरा देखकर व्हाट्सऐप से अपना कन्धा झटककर दूर हो गया। पर्ची काटने लगा, पेट्रॉल भरने लगा। बाद में हमने दूर से फेसबुक का फोटो खींचा।
मुझे अपना फोटो खींचते फेसबुक कनखियों से मुझे देखता रहा। पैसे गिनते हुए। व्हाट्सऐप के साथ फोटो खिंचाने की झिझक अब अकेले में शायद कम हो गयी थी।
कल की घटना याद करते हुए अभी यह जब लिख रहे थे तो सामने सूरज भाई चमकते दिख रहे थे। अभी-अभी बादलों की ओट में चले गए। सूरज भाई का बादलों के पीछे जाना शायद 'चमकना ब्रेक टाइप' है। इस बीच वे फिर से चमकने के लिए तैयार होते होंगे। लेकिन वे तो हमेशा चमकते रहते हैं। बादलों के पीछे छिपने का उनका मकसद शायद बादल का हौसला बढ़ाना होगा कि वह भी सूरज को ढँक सकता है। सामर्थ्यवान अपने से कमजोर को ऐसे ही प्रोत्साहित करता है।
पिछले दिनों ताजा पोस्ट्स नहीं लिखी तो कल हमको मथुरा के नामी वकील और हमारे सारे अदालती मसलों का हिसाब किताब रखने वाले Surendra शर्मा जी ने कल टेलीफोन पर धमकाया कि ये व्यंगयबाजी जो मन आये करते रहो लेकिन हमारे रोजमर्रा के किस्से हमें मिलने चाहिये।
अब एक तो फुरसतिया खुर्राट वकील और ऊपर से सुधी-सजग पाठक जो यह तक नोट करता रहता है कि किस व्यंग्यकार का रुख कैसे पलट रहा है। कौन व्यंग्यकार किसके नजदीक जा रहा है, कौन छिटक रहा है और भी बहुत कुछ । ऐसे पाठक की बात को नजरअंदाज करना मुश्किल। इसलिए यह मुख़्तसर किस्सा।
किस्से भौत सारे हैं। सबको पेश करने की सोचते हैं लेकिन एक बार समय सरक जाता तो किस्सा भी साथ लग लेता है। नखरे करता है। कभी मार्गदर्शक मंडल में शामिल हो जाता है। कहता है- 'हमें बक्शो। अब नयों को मौका दो।'
लेकिन सबको मौका देंगे हम। नयों को भी, पुरानों को भी। हमारी निगाह में सबका महत्व है। हमको कोई किस्सों की सरकार थोड़ी बनानी है।
अभी फिलहाल इतना ही। बकिया फिर कभी। जल्दी ही। आपका दिन चकाचक बीते। ठीक न

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Sunday, July 09, 2017

घपले-घोटाले बाजार की लीलायें हैं


आजकल घपले-घोटालों के मजे हैं। जिस काम के लिए सरकारों के मुखिया करोड़ों-अरबों फूंकते हैं वह पब्लिसिटी उनको मुफ़्त में मिल जाती है। घपला मीडिया के लिए वी आई पी आइटम होता है।
समाज में कुछ लोग घपलों को हिकारत की नजर से देखते हैं। घपले का नाम सुनते ही नाक और कुछ लोग तो भौं भी सिकोड़ लेते हैं। फिर भी मन न भरा तो नाक और भौं दोनों सिकोड़ लेते हैं। कुछ लोगों का मन इससे भी नहीं मानता तो वो अपना बदन भी सिकोड़ लेते हैं कि कहीँ घपला उनको छू न जाए। ऐसे लोग जाने-अनजाने छुआछूत को बढ़ावा देते हैं।
लोगों को समझना चाहिए कि किसी भी समाज में घपला वस्तुत: उस समाज के सभ्य और विकसित होते जाने की निशानी है। पहले राजा- महाराजे लूटपाट करते थे पैसे के लिए। हजारों लोगों को मार दिया करते थे सम्पत्ति के लिए।इससे उनको बाद में लोग कोसते थे। इतिहास में उनका नाम बर्बर लोगों में शामिल होता था।
समाज के विकास के साथ संपत्ति का स्वरूप बदल है तो उसके हथियाने के तरीके भी।पहले वस्तुओं का लेनदन होता था अब वह पैसे के लेनदेन में बदल गया। उसी हिसाब से सम्पप्ति हथियाने और लूटने के तरीके भी बदले हैं।
इतिहास से पता चलता है कि नादिरशाह ने दिल्ली में बहुत लूटपाट की थी। कई दिन तक लोगों को लूटते मारते रहे उसके सिपाही। बड़ा बदनामी हुई उसकी। जितनी लूट नादिरशाह ने दिल्ली में लाखों लोगों को मारकर की होगी उससे कहीं बड़ी कमाई तो कॉमनवेल्थ घोटाले में कर ली होगी लोगों ने।वह भी बिना किसी को मारे हुए।
जो काम नादिरशाह ने बड़ी सेना की सहायता से किया वह दिल्ली में भाई लोगों ने चंद लोगो को साथ लेकर कर लिया। घपला वस्तुत: रक्तहीन लूटपाट है। समाज के विकसित होते जाने की निशानी है रक्तहीन लूटपाट। नादिरशाह अनाड़ी लुटेरा था। आज के लोग समझदारी से लूटते हैं। लूटते भी हैं और मसीहा भी बने रहते हैं।
अब व्यापम घोटाले का बड़ा हल्ला है। लोग कह रहे हैं कि बहुत गड़बड़ी हुई। अरे भाई गड़बड़ी क्या हुई? जिसके पास पैसा है वह बाजार में बिकती चीज खरीदेगा ही। चीज भी वही खरीदेगा जिसके आगे बढ़िया दाम मिलें। डाक्टर बनने पर अगर कमाई ज्यादा होगी तो उसकी सीट मंहगी बिकेगी ही।
अब जिन लोगों के पास पैसा है वह कोई न कोई तरीका निकालेंगे ही अपने बच्चों के लिए डाक्टर इंजीनियर की सीट खरीदने के लिए। लोगों ने निकाले भी। उसको लोग अगर घपला कहें तो उनकी मर्जी। वस्तुत: तो पैसे वाले लोगों ने अपने बच्चों के प्रति वात्सल्य ही दिखाया। सहज मानवीय भावनाओ के प्रति वशीभूत होकर आचरण किया।
घपले-घोटाले तो बाजार की लीलाएं हैं। अलग-अलग छटाएं हैं। बाजार सब कुछ करवाता है। वही सरकारें बदलवाता है। वही ग्रीस को दीवालिया कराता है। बाजार सब घपलों-घोटालों का मास्टरमाइंड है। उसको पकड़ने की किसी की हिम्मत भी नहीं है क्योकि सब उसके अधीन हैं। सबने उसका नमक खाया है। बाजार किसी समाज से गब्बर सिंह की तरह पूछता भी होगा- तेरा क्या होगा टुम्बकटू? टुम्बकटू कहता होगा- मैंने आपका दिया विकास खाया है मालिक। इस पर बाजार कहता होगा- तो अब घोटाला खा।
सच पूछा जाए तो सब घोटालों की जड़ में आदमी के शरीर में दिमाग की बढ़ती तानाशाही का हाथ है। हाथ पैर की मेहनत के मुकाबले दिमाग की कलाकारी के बढ़ती कीमतें तमाम घपलों की जगत माता हैं। दिन भर मेहनत करने वाले लोग न्यूनतम मजूरी को तरसते हैं जबकि दिमागी काम वाले दिन के लाखों कमाते हैं।
इसीलिये सब घपले हो रहे हैं। घोटाले हो रहे हैं। कुछ लोग देखते-देखते अरबपति हो रहे है वहीं अनगिनत लोग भूख के चलते आत्महत्या कर रहे हैं।
घपले रोकना है तो दिमाग की बढ़ती ताकत पर नियंत्रण करना होगा। लेकिन करेगा कौन? सब तो बाजार की नौकरी बजा रहे हैं जिसके सारे शेयर दिमाग वालों के पास हैं।
करेगा कभी न कभी कोई करेगा। कब करेगा यह कहना मुश्किल है। कोई कुछ बोल भी नहीं रहा। अभी तो अभिव्यक्ति के सब चैनल भी बाजार के कब्जे में हैं।

Saturday, July 08, 2017

जबाबी तुकबंदियां

1. ज़िक्र है फ़िक्र है हादसा है, इश्क़ इसके सिवा और क्या है।
और क्या चाहिए ज़िंदगी में, ख़्वाब हैं दोस्त हैं फलसफ़ा है।
वो मेरा दोस्त पक्का है ये पक्का हुआ अब,
कि उसकी लिस्ट से नाम अपना सफा है।
पटक के मारा नहीं दोस्त को चौराहे पर मैंने,
इस जरा बात पर मेरा दोस्त मुझसे खफ़ा है !
2. लोग सच का बुरा मानते हैं
झूठ की चारसूं वाहवा है।
Sushil Siddharth
·
सच का भाव फ़िर उचक गया भईया,
झूठ के चेहरा फ़क्क पड़ि गवा है।
3. मैं उसे छोड़ना चाहता हूं
आज वह भी यही चाहता है।
छोड़ने को तो मैं आज क्या अभी छोड़ दूं
लेकिन फ़िर बाद में बहुत जोर से डांटता है।
4. किताब छप गयी और देखो वो भी बन गया लेखक
प्रकाशक से दोस्ती रखने का भी अपना नफ़ा है ।
दाबे बैठा है रॉयल्टी जिसे प्रकाशक बना दिया हमने
मासूमियत से पूछता है, यार मेरा किसी से खफ़ा है?
5. तुम्हारी बातको मानू न मानू तुमसे मतलब
तुम गर खफा हो तो क्या इसमें मुझे नफा है
बहुत देर इधर-उधर की हांकता रहा अगला
हड़काया गया तो सर पर पैर रख हुआ दफ़ा है।
6. यही तो जान है हमारी दोस्ती में
ज़िन्दगी के हर ग़म अपने दफा है
गम आये तो साथ आयीं खूब खुशियां भी,
जिन्दगी का यही तो हसीन १. फ़लसफ़ा है।

Wednesday, July 05, 2017

नय़ी-पुरानी पीढी के अन्तर्विरोध



[एम.एम. चन्द्रा के संपादन में अट्टहास के जुलाई,17 के अंक में छपा लेख। जुलाई अंक व्यंग्य के अंतर्विरोध पर केन्द्रित है। ]
लिखत-पढत की दुनिया में नयी-पुराने की बातें होती रहती हैं। नये पुराने की परिभाषा लोगों के हिसाब से बदलती है। उमर के हिसाब से तय करने चलें उम्रदराज लोग पुरानी पीढी में आयेंगे। लेकिन बुजुर्गवार जो देर से लिखना शुरु करते हैं वे लेखन में नवागत कहलायेंगे। जिन लोगों ने जवान होने के पहले ही लिखना शुरु कर दिया वे बुजुर्ग होने के पहले ही पुरानी पीढी में धंस जायेंगे। Om Varma, नीरज दहिया जैसे लोग बुजुर्ग लेखक जो लिखते-छपते वरिष्ठ नागरिक हुये उनकी किताबें देरी से छपी वे किस खाते में आयेंगे? किताबें अगर पैमाना होंगी तो ’व्यंग्य के नींव की ईंट’ Anup Srivastava श्रीवास्तव का एडमिशन किसी पीढी में नहीं हो पायेगा। खुद के व्यंग्य और संकलन मिलाकर 40 के ऊपर किताबें छपाने का Subhash Chander को अगर बुजुर्ग लेखक कहा जायेगा तो कल्लू मामा पिनक जायेंगे। निरन्तर छपने के विकट रिकार्ड के आधार पर Alok Puranik को जब ’व्यंग्य बाबा’ कहा जाता है तो वे इसका इतनी जोरदारी से खंडन करते हैं जितनी जोरदारी से तो पाकिस्तान भारत द्वारा की गई सर्जिकल स्ट्राइक की खबर का भी खंडन नहीं करता है।
मेरी समझ में कोई सर्वमान्य पीढीगत वर्गीकरण करना उतना ही मुश्किल काम है जितना किसी भी विधा के दस-पांच सबसे अच्छे लेखक तय करना।
नयी पीढ़ी-पुरानी पीढ़ी का वरिष्ठता के आधार पर गुणवत्ता तय करने का मसला भी खासा पेचीदा है। 2008 में एक फिल्म आयी थी-टशन। इसमें अक्षय कुमार और अनिल कपूर थे। अनिल कपूर को इस फिल्म के पोस्टर खास अहमियत न मिलने पर उन्होने कुछ वैसा भाव जताया था, जैसा हिंदी का आम लेखक लगभग रोज या कहें रोज चार बार जताता है-मेरी उपेक्षा हो रही है मैं तो अक्षय कुमार से बहुत सीनियर हूं। डिबेट उठी कि भाई पोस्टर पर बड़ा फोटो सीनियर अनिल कपूर का जाये या अक्षय कुमार का जाये। डिबेट में एक तर्क यह आया कि 2008 में पब्लिक अनिल कपूर का फोटो देखकर फिल्म देखने आ रही है या अक्षय कुमार का फोटो देखकर। इसका जवाब आसान था-अक्षय कुमार का फोटो देखकर आ रही है। यानी अनिल कपूर उपेक्षित महसूस न करें, बदलते हालात के हिसाब से समायोजित कर लें, या घर बैठें।
गुणवत्ता बहुत ही सब्जेक्टिव कंसेप्ट है आम तौर पर। किसी सर्वसम्मानित लेखक को कोई लेखक कूड़ा घोषित कर सकता है। गुणवत्ता का गणित सबका अलग है। गुणवत्ता का ताल्लुक काल से भी है। कालातीत गुणवत्ता बहुत ही दुर्लभ है, गालिब, मीर, शेक्सपियर, श्रीलाल शुक्ल इस तरह के लोगों को हासिल है। कोई सत्तर के दशक के दो साल सुपर स्टार रहा है, उन सालों को याद करके उसका दिल हुड़कता है और वह कहता है कि हम जब धर्मयुग में छपते थे, तो ये आज का ये व्यंग्यकार नेकर पहनकर अपनी मम्मी से दो रुपये मांगता था आइसक्रीम खाने के लिए। बदतमीज नवोदित जवाब देता है-धर्मयुग बंद हो गयी, आप न बंद हुए, यह दुर्भाग्य है हिंदी साहित्य और हिंदी व्यंग्य का। आप भी धर्मयुग की तरह बंद हो जाओ। एक कहता है कि मैं जो लिखता हूं वही व्यंग्य है। दूसरे कूड़ा कर रहे हैं। कुल मिलाकर एक कोलाहल सा मचा हुआ व्यंग्य के बाजार में वरिष्ठ उपेक्षित हैं, कनिष्ठ अपनी धुन में हैं। बवाल मारकाट सघन इसलिए दिख रही है कि सोशल मीडिया नामक भोंपू सबके पास हैं।
हम परमश्रेष्ठ हैं-ऐसा भाव बुजुर्गों में आता जाता है, क्योंकि इस भाव के अलावा उनके पास कम ही बचता है। नये इसकी अब परवाह बिलकुल नहीं कर रहे है क्योंकि मठाधीशी की दीवारें नये मीडिया ने हिला दी हैं।
तो नयी-पुरानी पीढी को लेखन में सक्रियता के आधार पर देखा जाये तो एक वर्गीकरण यह किया जा सकता है जिसमें लम्बे से समय से लिख रहे लोग पुरानी पीढी के और हाल में लिखना शुरु किये लोग नयी पीढी में शामिल माने जायेंगे। लेखक जिस पीढी में शामिल होना चाहते हैं वे उस लिहाज खुद तय कर सकते हैं कि वे लम्बे समय से लिख रहे हैं या हाल में लिखना शुरु किया।
पुरानी पीढी और नयी पीढी में अंतर्विरोध अलग-अलग लोगों को अलग-अलग दिखेंगे। मेरी समझ में लिखने के अनेक प्लेटफ़ार्म उपलब्ध होने के चलते नयी पीढी के लेखकों की संख्या बहुत तेजी से बढी है। अभिव्यक्ति की सहजता के चलते नित-नये लेखक सामने आ रहे हैं। चमत्कृत कर रहे हैं। रोज लिख रहे हैं। दिन में कई बार लिख रहे हैं। बिना किसी गुरु से गंडा बंधाये। उनके लेखन में तमाम अनगढपन है। कमियां हैं। त्रुटिया हैं। पुरानी पीढी के कुछ लोग इनमें से कुछ को पकड़कर सारे नये लेखन को खारिज कर रही है।
नयी-पीढी और पुरानी पीढी में अगर कोई अन्तर्विरोध है तो सिर्फ़ इतना कि कुछ नये लोगों को शिकायत है कि पुरानी पीढी उनका नोटिस नहीं लेती, उनको आशीर्वाद नहीं देती। वहीं पुरानी पीढी के कुछ लोगों से शिकायत है कि नये लोग उनके लेखन अपरिचित है, उनसे आशीर्वाद नहीं लेती, उनको महान लेखक नहीं मानती।
पुरानी पीढी और नयी पीढी में एक अंतर मठाधीशी के भाव में है। पुराने लोगों पर मठाधीशी के आरोप ज्यादा लगते हैं। नये लोग कचरा लेखन, अपरिपक्व लेखन , प्रसिद्ध होने की हड़बड़ी, छपने की लिप्सा से युक्त, मेहनत से जी चुराने वाले माने जाते हैं। देखा जाये तो पुरानी पीढी का नये पीढी के बारे में यह आरोप शाश्वत है। Harish Naval जी के एक संस्मरण के अनुसार रवीन्द्रनाथ त्यागी जी ने हरीश नवल जी और प्रेम जनमेजय जी की इस ’लेखन अलाली’ की पर नाराजगी व्यक्त की थी। अगर आज की पुरानी पीढी यही बात नये लेखकों के बारे में कहती है तो इसमें Gyan ज्ञानजी के शब्दों में पुरानी पीढी के लोग नयी पीढी के बारे में एक ही धारणा के आसपास ’कदमताल’ कर रहे हैं।
मठाधीशी की बात चलती है तो मठाधीश वही होगा जिसके पास कोई मठ हो। मठ का मतलब इनाम दिलाने की क्षमता रखने वाला, किसी के लेखन को चमकाने की क्षमता रखने वाला और लोगों को लिखना सिखाने और मार्गदर्शन करने की क्षमता रखने वाला। एक बार मठ बन जाता है तो फ़िर चलता रहता है। बकौल आलोक पुराणिक - मठाधीश बनने के दो ही उपाय हैं या तो वर्क या नेटवर्क। वर्क और नेटवर्क दोनों में विकट मेहनत लगती है। मठाधीशी आसान काम नहीं है। जो लोग किसी को मठाधीश मान कर उनकी निन्दा करते हैं वे उसकी मेहनत का असम्मान करते हैं। पसीने की बेइज्जती करते हैं। मठाधीश बनना आसान नहीं है, रोज बीस फोन सुनते होते हैं। खिचियापुर से कोई व्यंग्यकार मठाधीशजी को फोन करता है-भाई साहब खिचियापुर गोलगप्पा एसोसियेशन आपको सम्मानित करने की सोच रही है, और हां आपने मेरी किताब का रिव्यू तो आपने छपवाया नहीं है। ऐसे रोज बीस फोन झेलने ताकत वाला ही मठाधीशी कर सकता है। मठाधीशी सबकी नहीं चलती।
नयी पीढी के लोग तो ज्यादातर लिखत-पढत में लगे रहते हैं। पुरानी पीढी के लोगों से अक्सर उपदेश, आशीष और व्यंग्य के गर्त में जाने की बचाने की जिम्मेदारी की बात सुनते रहते हैं। उनकी देखा-देखी हाल ही में लिखना शुरु हुये लोग भी व्यंग्य की दशा पर आंसू बहाते हुये उसको बचाने के लिये हल्ला मचाने लगते हैं।गोया व्यंग्य न हुआ आई.सी.यू. में पड़ा कोई मरीज हो गया। जिसका तुरन्त आपरेशन न हुआ तो मर जायेगा। व्यंग्य के बारे में दिन-रात चिन्तित दीखना भी व्यंग्य के मठाधीशों में शामिल होने का नया रास्ता है
व्यंग्य में नयी पीढी और पुरानी पीढी में जितने अन्तर्विरोध नहीं हैं उससे ज्यादा अन्तर्विरोध पीढी के अन्दर के लोगों में हैं। नयी पीढी में लोगों में आमतौर पर कोई आपसी मतभेद नहीं हैं। नये लोग अच्छा-खराब, कूड़ा-बेहतरीन लिखते हुये पुरानी पीढी के ’आशीष-काउंटरी’ पर खड़ी है। जिसको आशीष मिल जाता है वो निहाल हो जाता है। ’आशीष वंचित’ थोड़ा दुखी हो जाता है। कभी खिलाफ़ भी हो जाता है। पुरानी पीढी के लोगों के आशीष पैटर्न में इधर विकट बदलाव आया है। वह अपने आशीर्वाद की ’रिस्क एनालिसिस’ करवाने लगी है। आशीर्वाद का रिटर्न कैलकुलेशन करके आशीर्वाद देती है।
पुरानी पीढी के लोगों में आपस के अन्तर्विरोध ज्यादा हैं। हर पुराने लेखक के अपनी उपेक्षा के घाव हैं। किसी को शिकायत है कि दूसरों ने सब इनामों पर कब्जा कर लिया। कोई किसी के उपन्यास फ़ॉंट की छोटेपन के कारण नहीं पढता। कोई किसी के पुराने पाप गिनवाते हुये हुंकारी भरते हुये ’अदालत में नोट’ करवा रहा है। व्यंग्य के स्वर्णिम अतीत के कूड़े के साथ सेल्फ़ी लिये दीखते हैं कई बुजुर्गवार। पुरानी पीढी के लोग अपनी पीढी के लेखन के प्रति काम भर के अनुदार हैं।
नयी पीढी और पुरानी पीढी में तकनीक के प्रयोग का अन्तर भी है। नये लोग नये औजार प्रयोग कर रहे हैं। पुराने लोग कागज-कलम-दवात वाले हैं। इसी चक्कर में पुराने लोगों का तमाम लेखन नये लोगों ने पढा नहीं। पुराने लोग नयों का पढते नहीं।
समय के साथ नया पुराना हो जाता है और अगर अच्छा न हुआ तो नजरों से ओझल भी। पुराने कई अच्छे , बेहतरीन लेखक होंगे जिनका अब नाम ही सुनाई देता है। काम दिखाई नहीं देता। या तो वह इतना बेहतर नहीं रहा होगा कि आगे अपने आप पहुंचे या फ़िर इस तरह रखा नहीं गया कि आगे भी पहुंचे।
पीढियों के चक्कर और अन्तर्विरोध छोड़कर हम लोग खुले मन से खूब नये अनुभव ग्रहण करें।, खूब पढे। खूब लिखें। अच्छे को मुक्त मन से सराहें और आगे बढें। जो रचेगा वही बचेगा। यह याद रखें और इस पर अमल करें। काम ही सत्य है बाकी सब फ़र्जी। आप मानो ठीक न मानो तो आपकी मर्जी।
-अनूप शुक्ल

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Monday, July 03, 2017

विलेज में बदलते गांव


[कादम्बिनी पत्रिका का जुलाई अंक गांव -शहर पर केन्द्रित है। ’वीरान गांव-बदहाल शहर’ थीम के अन्तर्गत लेख, कवितायें संकलित हैं इसमें। Subhash Chander जी ने हमारा (और शशिकांत सिंह का भी , उनका लेख भी छपा है हमारे साथी Govind Upadhyay की कहानी भी है ) नाम सुझाया तो कादम्बिनी के अरुण जैमिनी जी ने लेख मांगा। हमने लिख मारा। इसके बाद फ़ेसियल के लिये Alok Puranik के पास भेज दिया। आलोक जी ने ’सनी लियोनी जी को लेख में जगह देने ’ की शर्त के साथ मुफ़्त में लेख पर अपने सुझाव दिये। सभी को आभार देना पड़ेगा इसलिये ये अन्दर की बातें किसी को बता नहीं रहे। अब जब लेख छप ही गया तो आप भी बांच ही लीजिये। क्या पता मजा आ जाये! ]

शहरी सभ्यता फर्जी है, यह बयान एक लाख बार दिया जा चुका है, पर गांव जिनकी कल्पना में मोहक हरियाली और पनघट युक्त नदी का कोलाज है, वो भी पचास के दशक में दिलीप कुमार की फिल्म नया दौर में ही अटके हुए हैं। गांव में वैजयंती माला जैसी सुंदरी अगर जरा भी स्मार्ट है, तो किसी न किसी ब्यूटी कांटेस्ट में शहर आकर फिर वापस ना गयी होगी।
लेकिन कुछ साल पहले तक सीन अलग था। तब गांव शहर से जुड़े नहीं थे। रास्ते कच्चे थे। गांव के लोग गांवों में रहते थे। शहर कम आते थे। धीरे-धीरे गांवों तक सड़कें पहुंची। गांव शहर से जुड़े। योजना थी कि गांव तक सुविधायें पहुंचेंगी। उनका विकास होगा। लेकिन सुविधायें फ़ाइलों की भूलभुलैया में ही फ़ंस कर रह गयीं। जो कुछ फ़ाइलों से निकल भी पायीं वे शहर की भीड़ और जाम में फ़ंस गयीं। जो सुविधायें गांव तक पहुंची भी वे रहजनों से लुटकर गांवों तक पहुंचते-पहुंचते बदरंग और बेहाल हो गयीं। इस बीच गांवों में रहने वाला हिन्दुस्तान भूखा-प्यासा बेचैन होने लगा तो वह खुद भागकर जान बचाने के लिये शहर पहुंचा।
शहर पहुंचकर खाने-पीने का जुगाड़ तो हुआ गांव वाले हिन्दुस्तानी का। लेकिन सुकून नसीब में नहीं मिला। सुकून वह गांव में ही छोड़ आया था। अपने गांव को हमेशा यादों में लादे-लादे जीने की जद्दो जहद में जुटा रहा। शहर में किसी स्लम या अंधेरी दुछत्ती में दिन गुजारते हुये भी ’इस देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे मोती’ गुनगुनाता रहता।
गांव से शहर आया आदमी गांव की यादों को ओढता है, बिछाता है। सुख में गांव याद करता है। दुख में गांव का मरहम लगाता है। शरीर से भले शहर में रहता हो लेकिन मन का लंगर गांव में ही पड़ा होता है। गांव की यादें गुल्लक के सिक्कों की तरह खनखनाता रहता है। गांव के आदमी के साथ यादों की गठरी खोलता है। घर, परिवार और प्रेम किस्सों के थान खड़े-खड़े खोलकर फ़ैला देता है।
युसुफ़ी साहब के उपन्यास खोया पानी के नायक मिर्जा जी परदेश गये तो उनके जेहन में उनकी पीछे छोड़ी हुई हवेली बसी रही। कभी किसी से उलझते तो मारपीट करके ढेर करने के बाद फ़ाइनल हमला करने के लिये हवेली की तस्वीर दिखाकर कहते - ’ये छोड़कर आये हैं।’ छूटी हुई हवेली को हथियार की तरह इस्तेमाल करते।
लेकिन सही मायने में गांव के मतलब बहुत तेजी से बदले हैं। गांव मतलब कि विलेज अब एक बहुत फर्जी शब्द है, बल्कि जेबकट शब्द है। गांव मतलब किसानों की आत्महत्या है, कर्जमाफ़ी है, सूखे और बाढ की चपेट में फ़ंसा देश है। भुखमरी की चपेट में फ़ंसा अन्नदाता है। गांव मतलब विकास की दौड़ में भागते देश की पीठ पर लदा बोझ है।
गांव उजड़ रहे हैं। एंटीक आइटम हो रहे हैं। शहर वाले लोगों के लिये पिकनिक के साधन हैं। शहरों में कई-कई सौ रुपये लिये जाते हैं एक-एक बंदे से गांव की सैर कराने के। विलेज बना रखा है भाई लोगों ने ऊंट की सवारी, गायों को दिखाने के इंतजाम के कई सौ वसूलने की जुगाड़ कर रखी है।
संदेश साफ है सचमुच के गांव में आफत आ रही हो, तो फिर गांव दिखाने का इंतजाम कर लो। ज्यादा कमा लोगे। इस दौर ए इश्तिहार में कमा वही रहा है जिसके पास दिखाने के इंतजाम हैं। नयी जनरेशन के पास पैसा है, कैमरा है, सेल्फी-आकांक्षाएं हैं, बैल के साथ भी सेल्फी खिंचानी है उसे, खेत में रखे कद्दू के साथ भी सेल्फी खिंचानी है उसे। ऐसे सेल्फीबाज विलेज के धंधे के बहुत कारगर हैं। ऐसे कूल विलेज में 100 रुपये की पानी की एक बोतल बेची जा सकती है।
गांव बदल रहे हैं, विलेज बन रहे हैं, सौ रुपये के पानी की बोतल वाले विलेज बन रहे हैं। शहर बहुत तेजी से गांव पर कब्जा करता जा रहा है।
सचमुच के गांव से शहर आया आदमी डरा-डरा सा आता है शहर में। लेकिन शहर आते ही बंदा बहादुर हो जाता है। बहुधंधी हो जाता है। गांव में केवल खेती मजूरी करने वाला आदमी शहर में जिन्दा रहने के लिये हर तरह धंधे सीख जाता है । शुरुआत मेहनत मजूरी से करता है। फ़िर शहर उसको शातिर बनाता है। शार्टकट सिखाता है। वह मेहनत से जी चुराने लगता है। तमाम शहरी चोंचले आत्मसात करके पक्का शहरी बन जाता है।
सचमुच के गांव से शहर आया आदमी एक आइटम की तरह होता है। शहर इस आइटम को छील-छालकर तराशता है। अमूमन आइटम उपयोगी और खूबसूरत हो जाता है। कभी-कभी आइटम खराब भी हो जाता है। कबाड़ बन जाता है। गलती भले ही शहर की हो लेकिन आइटम के कबाड़ बनने का दोष आइटम पर ही जाता है।
अखबारों और टीवी में गांव के लिये इस्कीमें देखता है तो सोचता है ये इस्कीमें वहां लागू होतीं तो मैं भागकर शहर क्यों आता?
सचमुच के गांव का आदमी जब शहर पहुंचता है तो शहर की हर चीज की तुलना गांव से करता है। हर मोड़ पर उसे अपना गांव याद आता है। शहर की ऊंची इमारत देखते हुये सोचता होगा अगर मवेशियों के साथ रहने की परमीशन हो तो एक बिल्डिंग में पूरा गांव बस जाये। जित्ते में यहां जन्मदिन मनाते हैं उत्ते में गांव में दस घर की बेटियों के हाथ पीले हो जायें। मानहानि के दस करोड़ के मुकदमे के किस्से सुनकर सोचता होगा कि पहले पता होता तो घर बैठे मानहानि का मुकदमा कर देते। मजे से सात पुश्त खाते-पीते।

हाई प्रोफ़ाइल मर्डरों के किस्से अखबार में पढते हुये गांव का आदमी सोचता है जितने की सुपारी में यहां एक मर्डर हुआ उत्ते में तो पूरा गांव निपट जाता।
बच्चे के एडमिशन के समय गांव से शहर आया आदमी सोचता है जित्ते में बच्चे का एडमिशन हुआ उत्ते में तो खानदान पढ़ जाता गांव में। उदयप्रकाश की एक कहानी का नायक एक शहराती के जूते देखकर सोचता है -’ये तो पांव में दो बोरा गेहूं पहने घूम रहा है।’
शहर की बुराइयों से ऊबकर जब आदमी वापस गांव जाता है तो उसकी यादों का गांव उजड़ा हुआ मिलता है। जहां घनी अमराइयां होती थी वह जगह किसी कंपनी के गोदाम के लिये बिक गयी है। अमराई वाले चाचा अपना पैसा फ़ूंक तापकर एक कोने में बैठे चिलम फ़ूंक रहे हैं। गांव के चारो तरफ़ पेडों की जगह मोबाइल टावर उग आये हैं। बिजली आने के साथ लोग कटिया लगाना भी सीख गये हैं। कभी स्वादिष्ट पकौड़ी बेचने वाले हलवाई चाचा चाऊमीन का पैकेट कड़ाही में खोल रहे है।
गांवों में चौपालें अब भी आबाद हैं। जगहें अलबत्ता बदल गयी हैं। चबूतरों पर लगने वाली चौपालें अब वहां लगती हैं जहां मोबाइल का सिग्नल आता है। जिसके घर के पास टावर है उसने कटीले तार से जगह घिरवा दी है। चौपाल पर बैठे लोग हाथ में मोबाइल लिये अगल-बगल के लोगों से नहीं, दूर-दराज के बंदों से चैटिंग कर रहे हैं। रामसिंह चचा कैलीफ़ोर्नियां की सुकन्या सोफ़िया से हाल-ए-दिल बता रहे हैं। अपनी भैंसों के तबेले दिखा रहे हैं। कैलीफ़ोर्निया जाने का प्लान बना रहे हैं। शाम को है पडोस वाले श्यामसिंह जब उनको कैलीफ़ोर्नियां का सस्ता टूर प्लान बताते हैं तो सनाका खाते हैं। पता चला श्यामसिंह सोफ़िया बनकर रामसिंह से चैटियाते हैं। रामसिंह श्यामसिंह को कच्चा चबा जाने की धमकी देते हुये घर में घुस जाते हैं।
गांवों में मोहब्बत के मामले में भयंकर क्रांति हुई है। स्वप्नसुन्दरी ’मार्गदर्शक सुन्दरी’ हो गयीं हैं। दिल के मामले में फ़ुल एफ़डीआई एफ़डीआई लागू हो गयी है। सारे लीड रोल विदेशी सुन्दरियों को दे दिये गये हैं। सनीलियोनी को ’दिल मंत्री’ की शपथ दिला दी गयी है।
नुक्कड़ पर पान की दुकान पर चरस, अफ़ीम, गांजे के साथ मोबाइल में पोर्न फ़िल्में भी सहज उपलब्ध हैं। गांव बहुत तेज स्पीड से शहर में बदलने के लिये उतावला हुआ जा रहा है।
तो सचमुच का गांव तो ये हुआ जा रहा है- महानगर का सस्ता संस्करण, पर फर्जी विलेज संपन्न हो रहा है सौ रुपये में पानी की एक बोतल बेचकर।
अनूप शुक्ल
अपडेट : [लेख के डिजिटल संस्करण संतोष त्रिवेदी ने मुहैया करवाये। इसके लिये उनको धन्यवाद !  कल ही सबसे पहले लेख छपने की सूचना Rachana Tripathi एवं Skand Shukla जी से मिली। बहुत-बहुत आभार ! ]
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Sunday, July 02, 2017

बारिशों में पतंगे उड़ाया करो

सबेरे निकले। साइकिल निकाली। ताला खुल ही नहीं रहा था। कुनमुनाता रहा। शायद कह रहा था -'अभी सुबह नहीं हुई। सोने दो जरा।'
थोड़ी देर प्यार से खोलते रहे। नहीं खुला तो कस के दबाया। तड़ से खुल गया। बदमाश कहीं का। वैसे ताले की भी क्या गलती? जब रोज खोला नहीं जाएगा तो उसको लगेगा कि बन्द रहना ही उसका काम है।
गेट तक पहुंचे ही थे कि बूंदे गिरने लगीं। मन किया लौट ले। लौटने को हुए तब तक राहत इंदौरी का शेर याद आ गया:
जिंदगी क्या होती है खुद ही जान जाओगे,
बारिशों में पतंगे उड़ाया करो।
अब पतंग तो खैर क्या उड़ाते। वो सलमान खान का काम। हम साइकिल पर निकल ही लिए। निकलने के पहले मोबाइल मोमिया में लपेटकर जेब में 'धल्लीये'।
गेट के बाहर ही कुछ बन्दर, बंदरिया सड़क पर बने तालाब के पानी के किनारे बैठे थे। एक बंदरिया बच्चे को पेट से चिपकाए पानी को हिलाते हुए साफ़ करती पानी पीने लगी। हमको देखकर सब हमको घेर लिए। हमारे हाथ में मोबाइल देखकर शायद इंटरव्यू देने के मूड में आ गए। हम उनको नजरंदाज्ज करके आगे बढ़ लिए।
चाय की दुकान तक पहुँचते हुए पानी बहुत तेज हो गया। मोबाइल हम चाय की दुकान पर धर दिए। चाय वाला बोला- भीग जाएंगे। हम बोले-'भीगना ही है।' निकल लिए।
शुक्लागंज की तरफ निकले। सड़क के दोनों तरफ झुग्गी-झोपड़ियों में लोग सोये हुए थे। एक महिला झोपडी के अंदर से बाहर बरसते पानी को देख रही थी।
एक बुजुर्ग सड़क पर खरामा-खरामा चलते हुए जा रहे थे। पैंट को घुटनों के ऊपर से पकड़े हुए उठाये थे। ऐसे जैसे शादी-व्याह की पार्टियों में लड़कियां घाघरा जमीन पर लिथड़ने से बचाने के लिए पकड़े रहती हैं।
शुक्लागंज पुल के मुहाने पर कई दुपहिया सवार पुल की आड़ में बारिश खत्म होने का इन्तजार कर रहे थे। हम भीगते हुए पैडलियाते हुए पुल पर चलते चले गए। बीच पुल पर खड़े गंगा जी को देखा। अलमस्त पसरी हुई लेटी थीं। पानी बरसते हुए नदी में जमा हो रहा था। नदी बेपरवाह उस पानी को आगे भेजती जा रही थी।
एक ट्रेन बीच पुल पर खड़ी थी। शायद सिग्नल के इन्तजार में। हमने जैसे ही उसके इंजन को पार किया वह सीटी बजाते हुए चल दी। हमको लगा हमारी इज्जत में रुकी हुई थी। हम भावविभोर टाइप हुए। आलोक धन्वा की कविता भी याद आई सीटी सुनते ही:
हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो उसकी माँ के घर की और जाती है
धुंआ उड़ाती हुई,
सीटी बजाती हुई।
पुल के पार चाय की दुकान पर लोग चाय के इंतजार में बैठे थे। हम भी बैठ गए। एक जन बोले -' लखनऊ से चले तो पता ही नहीँ चला कब उन्नाव आ गए। जरा सा चूकते तो कानपुर ही पहुँचते।'
पानी बरसते देखते हुए एक बोला - 'बहुत देर हो गयी पानी में इस बार।'
दूसरा बोला-'अब लस्सी, कोल्डड्रिंक की बिक्री बंद हो जाएंगी।'
चाय वाला बड़े भगौने में चाय बना रहा था। लोग अच्छे दिनों की तरह चाय के इन्तजार में थे। अनुशासित खड़े थे। चाय बन गयी तो लोग लेने के लिए लपके। पहले से खड़े कुछ लोग पीछे ही खड़े रहे। बोले-'बोहनी का मामला है।' पता चला वे उधारी वाले ग्राहक थे। पहले नकद वाले ले लें तब वे लेंगे।
अखबार वाले बाजपेयी जी आ गए। चाय वाले की दूकान पर चढ़कर मग्घे के पानी से कुल्ला करके मुंह के मसाले को बाहर सड़क पर खदेड़ा। चाय के लिए मुंह तैयार किया। चाय लपकी। पीने लगे।
हमने कहा/पूछा-' बारिश में तो भीग जाते होंगे अखबार बांटने में।'
बोले-'यही माँ तो मजा है। ग्राहक को पता है आराम से आयेगा अख़बार। हम भी मजे-मजे में बांटते है।'
फिर बोले-'दुई-चार दिन की बात होय तौ छुट्टी कर लेई। लेकिन यह तौ चार महीना का खटराग है। मजबूरी है।'
दुकान पर बैठे हुए पानी की बूंदे पैन्ट पर गिरकर अंदर समा रहीं थीं। पैन्ट पर गिरते ही किधर चली गयीं पता ही नहीँ चल रहा था। एक दम राहत राशि जैसा मामला।किधर खप गयी , कोई हिसाब नहीं।
हाथ में गिरती बूंदे नरम-ठण्डी खुशनुमा लग एहसास दे रही थीं। हमने गिनती नहीं की कि कितनी बूंदे हाथ में गिरते हुए जमीन पर सरक गयीं। कौन इस पर अभी जीएसटी लगा है। लगेगा तब देखा जाएगा।
एक आदमी बीड़ी का बंडल और माचिश जिंदगी की जमापूंजी की तरह हाथ में लिए बैठा था। दो बंडल बीड़ी रोज पी जाता है। पता है नुकसान करती है लेकिन पीता है।
लौटते में बीच पुल पर एक जूता दिखा। सड़क पर पड़ा था। नदी की तरफ मुंह किये।मन किया पूछें -'जोड़ीदार किधर है भाई?' लेकिन पूछा नहीं। क्या पता हड़का दे -'हमारा आपस का मामला है। तुमसे क्या मतलब!' लेकिन जूता उदास था। क्या पता उसका जोड़ीदार नही में कूद गया हो। आजकल लोग जरा-जरा सी बात पर तो भन्ना जाते हैं।
पुल के मुहाने पर अभी भी कुछ लोग बारिश के रुकने के इन्तजार में खड़े थे। यकीनन ये लोग वही नहीं थे जो आते समय मिले थे।
वापस चाय की दूकान से मोबाइल लिया। कुछ लड़के मोटरसाईकल पर धड़ धड़ाते हुये। चाय पर टूट पड़े। पता चला सफीपुर जा रहे हैं। घूमने और आम खरीदने।मण्डी लगती है वहां। शहर में 50 रूपये किलो मिलते हैं तो वहाँ 25 में। 50 किलोमीटर होगा सफीपुर।
लड़के कर्नल गंज में रहते हैं। कपड़ा बाजार में काम करते हैं। बताया -ठण्डा है बाजार अभी। दस पन्द्रह दिन ऐसे ही चलेगा। फिर सब ठण्डा हो जाएगा।
परेशानी के नाम पर बोला -'हम तो लेबर हैं। हमको जीएसटी से क्या मतलब? लोग लेबरों से सब काम फ्री में कराना चाहते हैं। पैसा बढ़ाते हुए हवा खिसकती है।'
चाय पीकर लड़के लोग गाड़ी स्टार्ट करके निकल लिए सफीपुर। हम भी खिसक लिए घर की तरफ।
बहुत दिन बाद मन भर भीगे। मजा आ गया। आप भी न हो एक बार भीग लीजिए बारिश में। कोई टैक्स नहीँ है फिलहाल। बाद में न जाने कब क्या हो जाए। कोई ठिकाना नहीँ किसी बात का भाई।
पानी बरस रहा है। बरामदे से बरसते पानी को निहारते हुए यह पोस्ट लिख रहे थे। कहीं गाना बज रहा होगा:
बरखा रानी जरा जम के बरसो
मेरा दिल बरसा न पाये, झूमकर बरसो।
मने आदमी खुद कुछ नहीं करना चाहता। सब काम दुसरे से ही करवाना चाहता है। काहिली पसरी चहुं ओर।
चलिए आपका दिन मंगलमय हो। हम चलते हैं अपने काम पर। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे हैं। इंकलाब जिंदाबाद। वन्देमातरम। भारतमाता की जय।

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Saturday, July 01, 2017

ब्लॉगिंग दिवस बरस्ते जीएसटी

तख़्त पर गप्पाष्टक योग
सबेरे उठे तो पता लगा जीएसटी लागू हो गया था। सूरज भाई वैसे ही चमक रहे थे। नमस्ते किया तो थोड़ा और चमक गए। हमने कहा -'शुक्र है भाई जी आपने उजाले और किरणों पर टैक्स नहीँ लगाया अभी तक।'

सूरज भाई हमको चमकाते हुए बोले-'हमेशा लेटलतीफ रहते हो। शनीचर के दिन शुक्र मानते हो।'

घरैतिन को स्कूल छोड़ना था। घर का नेट कल से ही गोल। लगता है जीएसटी की लागू होने की खबर से घबरा गया। घर से बाहर निकलकर मोबाईल वाले नेट की शरण में आये। नेट 'कंचनमृग' हो गया। कहीं मिला और फिर वहीँ नहीं मिला। अभी था और अभी-अभी गोल। फाटक के बाहर सड़क पर जाकर मिला। उससे ओला गाड़ियां बुक कराने की कोशिश की। सब फेल। सुबह-सुबह पांच बार माफ़ करना पड़ा ओला वालों को।

'सैंट्रो सुंदरी' की शरण में गए। हमेशा की तरह सेवा में हाजिर सुंदरी की बन्दरों ने भी खूब सेवा कर रखी है। जो भी पार्ट ज़रा सा बाहर निकला उसको नोचकर एकदम बाहर निकाल दिया है।

चाय की दूकान पर लोग
सड़क पर जिंदगी गुलजार दिखी। लोग उंघते हुए टहलते दिखे। एक कूड़ेदान में तमाम सूअर गन्दगी का बंटवारा और छीना-झपटी करते दिखे। वहीं एक सूअर जोड़ा बिना 'सूअर काम पर लगे हैं' का बोर्ड लगाए ' कामरत' थे। सूअरों में कोई 'एंट्री रोमियो पुलिस' की व्यवस्था का अभाव साफ़ दिखा। शायद इसीलिए वे अभी तक सूअर बने हुए हैं।

परेड चौराहे के पास एक रिक्शा ठेला पर चार मजदूर सरिया लादे जा रहे थे। सुबह-सुबह पसीने से भीगे थे। चौराहे पर कुछ बुजुर्ग एक तख़्त पर बैठे चाय पीते हुए गपिया रहे थे। बगल में दो रिक्शेवाले गम्भीर बातों में मशगूल थे गोया कंफर्म कर रहे हों कि यार ये हमको भी जीएसटी में रजिस्ट्रेशन करना होगा क्या। एक जागरूक नागरिक बीच सड़क से कुछ फ़ीट किनारे हटकर सड़क पर खड़े-खड़े अख़बार बांच रहा था। अखबार को किसी पक्षी के डैनों की तरह फैलाये हुए अखबार पढ़ते आदमी को देखकर लगा कि शायद सड़क पर खड़े होकर 'अखबार योग' करने पर कोई टैक्स नहीँ लगा जीएसटी में।

मेस्टन रोड चौराहे पर एक चाय की दूकान पर लोग चाय पी रहे थे। हम भी रुक गए। खम्बे के पीछे सैयद इब्राहिम रोड का बोर्ड इस तरह लगा था कि सड़क से किसी को दिख न जाए। एक आदमी सड़क पर बैठे चाय पी रहा था।

सड़क पर बिकती सब्जी को दुपहिया पर झुककर खरीदते लोग।

वही एक महिला भी सड़क किनारे फसक्का मारे बैठी चाय पी रही थी। उसके अंदाज-ए-बैठकी से लगा मानो अपने घर के आँगन में बैठी हो। बैठे-बैठे सड़क पर झाड़ू लगाते एक आदमी पर चिल्लाते हुए कूड़ा गाड़ी में भरने का निर्देश दिया। सड़क पार खड़े दूसरे आदमी को बुलाया-'आओ मुन्ना चाय पी लो।'

मुन्ना ने एक बार मना करने के लिए मना किया । दूसरी बार बुलाने पर आ गया। महिला ने अपनी चाय से आधी चाय निकाल कर मुन्ना को दी। मुन्ना ने उस आधी चाय में से ज़रा सी चाय को सड़क पर छिड़ककर 'सड़क भोग' लगाया। बाकी चाय पीते हुए महिला से बतियाने के बाद चाय पीकर प्लास्टिक का ग्लास वहीँ सड़क पर फेंक दिया जहाँ चाय का भोग लगाया था। चाय पीकर महिला झाड़ू उठाकर काम पर लग गयी। सड़क झाड़ने लगी। मुन्ना फिर सड़क पर टहलने लगे।

सड़क पर सब्जी की और दूध की दुकाने गुलजार हो गयीं थीं।एक आदमी स्कूटी पर बैठे-बैठे झुककर सब्जी खरीदते दिखे। शायद उसको डर हो कि उतरते ही सब्जी के भाव बढ़ जाएंगे।

हमने चाय वाले से पूछा -'चाय पर जीएसटी लगा कि नहीं?'

चाय वाले ने मेरे मजाक का बुरा नहीं माना। बोला-'लगेगा तब देखा जायेगा।'

बड़े चौराहे पर आज रिक्शे की जगह ऑटो वालों का कब्ज़ा था। लोग लालबत्ती होने पर भी धड़ल्ले से चौराहा पार कर रहे थे। स्मार्ट शहर है भाई कानपुर । कोई मजाक थोड़ी है। हमने आहिस्ते से पार की सड़क। इतना ध्यान से पार किये सड़क कि देख ही नहीं पाये कि उस समय बत्ती हरी थी कि लाल या पीली।

आज जीएसटी शुरू हो गया। लोग बता रहे थे कि लिखने पर भी जीएसटी लगेगा। हमें कुछ पता नहीँ इस बारे में। आपको पता हो तो बताना। चूके तो 'पेलानटी' पड़ेगी।

आज ही ब्लॉग दिवस मनाने की घोषणा भी हुई है। ब्लॉगिंग ने हमारे लिखने-पढ़ने के लिए अवसर दिया। 2004 में शुरू की थी ब्लॉगिंग। मजाक-मजाक में 13 साल गुजर गए और लगता है कल की बात है जब हमने लिखना शुरू किया था।

चलिए आप मजे करिये। आपको आज का मुबारक हो। जीएसटी मुबारक हो। ब्लागिंग दिवस मुबारक हो। वीकेंड वालों को वीकेंड मुबारक हो। मंगलमय हो।

मस्त रहा जाए। और कुछ धरा नहीँ है दुनिया में।