Friday, November 03, 2006

प्रत्यक्षा की कहानी- हनीमून

http://web.archive.org/web/20140419051551/http://hindini.com/fursatiya/archives/207

प्रत्यक्षा की कहानी- हनीमून

[अभी पिछले ही माह एक हफ्ते पहले प्रत्यक्षा ने अपना जन्मदिन मनाया। उसी दिन उनको एक खास उपहार मिला। नया ज्ञानोदय में उनकी छ्पी कहानी 'हनीमून' मय पत्रिका उसी दिन उनको मिली।
हालांकि यह कहानी पहले भी नेट पत्रिका हिंदीनेस्ट में छप चुकी थी लेकिन अपनी छपी कहानी को अपने हाथ से छूने और देश के कोने अतरे में फैले तमाम अनजान-अनाम प्रशंसकों से कहानी पर तारीफ, समीक्षा, क्या लिखा है, ऐसे लिखना था, आपसे यह उम्मीद नहीं थी जैसे संदेश पाने का अलग ही मजा है। अलग ही रोमांच है।
नया ज्ञानोदय में यह कहानी छापते हुये संपादक रवींद्र कालिया जी ने लिखा है- प्रत्यक्षा ने अपनी उम्र नहीं बताई। इससे पता चलता है कि कालिया जी नेट पत्रिकायें नहीं पढ़ते।
अभी पिछ्ले ही माह हमने लिखा था-लिखें तो छपवायें भी। लगता है उस सलाह पर अमल पहले से ही हो रहा था यहां पर और परिणाम सामने है। नया ज्ञानोदय में ही पिछले माह अक्टूबर अंक में रवि रतलामी द्वारा अनुवादित कहानी छपी थी और अब नवंबर अंक में प्रत्यक्षा की कहानी से लगता है और ब्लागर्स की रचनायें अब छपना शुरू हो गया है।
बहरहाल ये कहानी पढ़ें और कयास लगायें कि कितनी हकीकत है और कितना फसाना।
तारीफ का प्रत्यक्षा बुरा नहीं मानतीं इसलिये अगर कहानी अच्छी लगे तो तारीफ करने में संकोच न करें। प्रत्यक्षा से अनुरोध है कि वे कहानी के बारे में आये संदेशों के बारे में एक पोस्ट लिखें।]
प्रत्यक्षा
प्रत्यक्षा
लहरें बार-बार आतीं। पावों को छूकर, दुलराकर फिर लौट जातीं। समुद्र अभी शांत था। रोशनी की कतार के बीच शंख और सीप के समान तली हुई मछ्ली, आइसक्रीम, कैंडी और काफी के स्टाल। लोगों की भीड़ उमड़ती थी बूढ़े़, बच्चे, जवान।
हम दोनों चुपचाप, अलग-थलग भीड़ से धीरे-धीरे एक एक कदम दूर जाते रहे। उसके पांवों के निशान पर मैं अपने पांव एहतियात से रखती उसके पीछे तब तक चलती रही जब तक मेरे इस बचकाने खेल से तंग आकर उसने खींचकर मुझे अपने बाहों के घेरे में ले लिया।
कमर को घेरे उसकी बाहें मुझे कैद कर गई थी।
हम बहुत दूर पानी के किनारे रेत पर चलते आये थे, रोशनी पीछे छूट गयी थी।
इस अजनबी संसार में जैसे हम दो ही प्राणी थे, नश्वर, उस अनश्वर समुद्र की गरजती लहरों और जमीन आसमान के एक होने की परछाई मात्र से सिहरते, अकेले पर फिर भी साथ-साथ।
प्रत्यक्षा: २६ अक्टूबर,गया(बिहार)। स्कूली और कालेज की शिक्षा रांची और पटना में। संप्रति-पावरग्रिड कार्पोरेशन,मुख्य प्रबंधक वित्त के रूप में कार्यरत।संपर्क:फ्लैट नं.बी-१/ ४०२,पी.डब्ल्यू. ओ.हाउसिंग काम्प्लेक्स,प्लाट नं.जी.एच.१ए,सेक्टर-४३ ,गुड़गाँव(हरियाणा) ई मेल: pratyaksha@gmail.com
हम सप्ताहांत मनाने यहां आये थे पर मैं क्समकश में थी कि जो कर रही हूं वो सही है क्या? उसका मेरा परिचय लंबा था। पर अब तक जो मन की परिधि में कैद था उसे शरीर का विस्तार दे पाना क्या संभव था मेरे लिये। हम ऐसे ही मिलते रहें ये भी हो सकता था काफी लाउंज में, रेस्तरां में, कला दीर्घा में। लंबी बातें होतीं जो खत्म नहीं होती और दूसरे दिन बातों का सिरा खोज कर हम फिर नई बातें बुनते।
शुरुआत तो ऐसी ही हुयी थी। उसकी भूरी आखॊं में अजीब सी शरारत कौंधती। कभी मुझे देखते-देखते गहरा जाती। उसके बाल जिद्दी बच्चे की तरह माथे पार गिर जाते। पर कभी एक नट्खट शैतान बच्चा उसके अंदर से बाहर निकलने को बेकाबू हो उठता जैसे एक शैतान बच्चा जो मेहमानों के आने पार मां के मना करने के बावजूद बार बार शरारत कर बैठता है। उसके व्यक्तित्व का यह मिश्रण मुझे पहले तो उकसाता रहा और फिर कब यह चाहना में बदल गया ये पता ही नहीं चला।
उसके बाल जिद्दी बच्चे की तरह माथे पार गिर जाते। पर कभी एक नट्खट शैतान बच्चा उसके अंदर से बाहर निकलने को बेकाबू हो उठता जैसे एक शैतान बच्चा जो मेहमानों के आने पार मां के मना करने के बावजूद बार बार शरारत कर बैठता है।
पर यह जो भी था एकदम प्लैटोनिक था। उसने कभी मुझे गलती से भी छुआ नहीं था। ऐसा नहीं था कि मौके नहीं थे। कई बार घर भी आता। टेरेस पर बैठकर काफी के अनगिनत प्यालों के दौरान हमारी बातचीत चलती।
मैं अकेली अपने स्टूडियो अपार्टमेंट में… पर कभी एहसास नहीं होता कि हम यानि एक औरत और एक मर्द अकेले में मिल रहे हैं। इसकी वजह मैं थी या वो, ये भी पता नहीं। वैसे मैं काफी आकर्षक थी। अच्छी नौकरी, अपनी गाड़ी, अपना घर। अकेली रहती थी, कोई रोकटोक नहीं। मर्द कई बार मुझे अवलेबल समझ प्रताव दे चुके थे जिन्हें मैं बड़ी निर्ममता से उनके मुंह पर वापस फेंक दिया करती थी। ऐसा करने में अजीब सा सुख मिलता।
और तब अचानक ही उसने एकदम सरलता से अपने साथ सप्ताहांत बिताने का प्रस्ताव रखा था-”चलोगी, अगले वीकएंड ?”
मैंन चौंककर देखा था उसे। टटोलने की कोशिश की थी। क्या था उस प्रस्ताव के पीछे। चेहरे की मासूमियत के पीछे कोई और वक्र भाव भंगिमा।
“कहाँ ?”
मैंने अनजान बनते हुये कहा था। मेरा चेहरा पढ़ न ले इस भय से मुड़ गयी थी। उसके लाये फूलों को वास में डालने बहाने।
मैं क्या चाहती थी?
इस रिश्ते का ये विकास, शायद स्वाभाविक ही था।
अपना मन टटोला तो लगा कि कहीं से उसकी ऒर से किसी ऐसे प्रस्ताव का इंतजार ही कर रही थी। दैहिक अनुभूतियां सनसना गई थी। उसने जगह का नाम लिया था । मुड़कर उसकी ऒर देखा तो उसकी आंखें हंस रहीं थीं। चेहरा जरूर बेलौस था।
“हाँ ,व्हाई नाट। ”
एक जिद के स्वर में मैंने कहा।
“फिर पलट मत जाना। ”
” मैं उनमे से नहीं। ”
” तो तय रहा! ”
जाने के पहले मंथन करती रही। अगर हमारा रिश्ता शरीर की हदों को छूने लगे तो संतुलन मुझमें शायद न रहे। मुझे उससे नहीं अपने आप से डर लगने लगा था। उसने एक बार फिर बीच में कभी टोका था।
“अभी भी सोच लो। ”
“मैं ने एकबार हाँ कह दी है न। ” अब मैं बंध गयी थी अपने ही बनाये बंधन में। पर अहम प्रश्न ये था कि क्या छूटना चाहती थी।
उस जैसे सुदर्शन युवक का साथ और उसकी मेरे साथ की चाहना क्या मुझे भी बेकरार नहीं कर रही थी। मैं अपने को नैतिकता के सवालों से पृथक रख रही थी। जो जरूरी था मेरे लिये वो ये कि मैं क्या चाहती थी। अपने को आधुनिक, लिबरल, कामकाजी औरत के स्टिरियोटाइप से अलग हटाकर सिर्फ अपने मन की चाहत के संदर्भ में कोई निश्चय करना आसान नहीं लग रहा था। अंत में थकहार कर क्लांत मन से अपने को बहाव में बहने को छोड़ दिया।
अपने को आधुनिक, लिबरल, कामकाजी औरत के स्टिरियोटाइप से अलग हटाकर सिर्फ अपने मन की चाहत के संदर्भ में कोई निश्चय करना आसान नहीं लग रहा था।
आज छुट्टी का पहला दिन था। या ये कहें कि पहली रात थी । दिन तो बीत चुका था। उसके बांहों में चलते चलते रात की संभावना मुझे कहीं आशंकित कर रही थी। होट्ल लौटे थे। मैं तुरत अपने कमरे में आ गयी थी। टब में पड़ी, पानी और साबुन के फेनिल झाग में लेटे मन को खाली छोड़ दिया था। फोन की घंटी बजी थी-
“अगर तुरत नीचे नहीं आई तो भूखा सोना पड़ेगा ।रेस्तरां बंद होने का समय हो गया है।”
“बस दस मिनट में नीचे पहुँचती हूँ।”
खाना मुझसे खाया नहीं जा रहा था। हर कौर अटकता था गले में। पानी के छोटे छोटे सिप मैं लेती रही। वो तन्मय होकर खाता रहा। पोच्ड फिश के कतले, रशियन सलाद, बेक्ड चिकन, ओ ग्रातां मेरे पसंद के व्यंजन थे पर आज मेरी भूख मर गयी थी। इतना बड़ा कदम उठा तो लिया था फिर अंजाम तक पहुंचने में ये हिचकिचाहट, इतनी घबराहट क्यों हो रही थी ।
“तुम खा नहीं रही ?”
“कहाँ ? खा तो रही हूँ ।” मेरी आवाज़ कुछ कमज़ोर सी थी ।
वो बातें करता रहा, खाने का आनंद उठाता रहा, मेरी मानसिक दशा से जैसे बिल्कुल अनभिज्ञ। बिल आ गया था। जब तक वो साइन करता मैं उठ गई थी।
“मैं एक सिगरेट पी लूं?” उसकी आंखे जाने कैसे शरारत से चमक उठी थीं।
“तुम जाओ, थक गई होंगी। शुभरात्रि।”
मेरा कंधा थपथपाकर वह पलट गया। कमरे में पहुंच कर दरवाजा बंद किया और फिर बंद दरवाजे पर ही सर टिकाकर हांफ गई। छूट जाने का सा एहसास, पता नहीं क्या था । कपड़े बदलकर बिस्तर में दुबक गई। सुबह फोन की घंटी से नींद खुली।
“गुड मार्निंग ।नींद अच्छी आई ?”उसकी आवाज़ मुझे दुलरा गई ।
“तैयार होकर नीचे पहुँचो। फिर आज का कार्यक्रम तय करते हैं ”
दोनो दिन हम खूब घूमें। रात अपने अपने कमरे में तन्हा सोये । सोमवार हम वापस आ गये थे अपने काम पर ।
पर कहानी का अंत इसे मत समझ लीजिये। अजी आप भी कहेंगे ये कौन सी कहानी हुई। न कोई घटना घटी न, कोई हादसा हुआ। कोई रोमांस भी नहीं ।अरे पर आगे सुन तो लीजिये।
आज फिर उसी होटल में ठहरी हूं। एक साल बाद हम उसी दिन की तरह समुद्र तट से घूम कर वापस आये हैं। मैं बाथ्ररूम में नहा रही हूं। जल्दी करूं वरना रेस्तरां बंद हो जायेगा। हमें भूखे ही सोना पड़ेगा। अभी तो उसे भी नहाना है। कमरे से जो आवाज आ रही है उसी की तो है । आपको बताया नहीं हम हनीमून पर आये हैं ।

17 responses to “प्रत्यक्षा की कहानी- हनीमून”

  1. संजय बेंगाणी
    लगता हैं अच्छे इंसान वर्जनाएं नहीं तोड़ते.
    अगर पहली बार ही कुछ कदम और आगे बड़ जाते तो इसबार हनिमुन पर नहीं आए होते, यह शर्त लगा कर कह सकता हूँ.
  2. Jagdish Bhatia
    एक बार फिर धन्यवाद। कहानी छोटी मगर विस्तार लिये हुए है जो कि पाठक के मन पर पड़ता है।
    बहुत खूब।
  3. राम चन्द्र मिश्र
    मैने पिछले साल अप्रैल मे ही हिन्दी नेस्ट पे पढी थी!
    अच्छी लगी थी…..
  4. ratna
    आज के परिवेश पर चोट करती और दबी ज़ुबान में कुछ समझाती सुन्दर कहानी। प्रत्यक्षा जी सच में बधाई की हकदार हैं।
  5. प्रियंकर
    जो नदी बांध नहीं तोड़ती,हरहराती हुई समुद्र की तरफ़ दौड़ती है. समुद्र को भी धीर,गम्भीर,प्रशांत और गहरा होना चाहिये तभी तो नदी उसकी ओर पूरे वेग के साथ उमड़ कर बहेगी . जो सागर ज्वार को जज़्ब या नियंत्रित कर लेते हैं उनका विशाल मन-माथा — उनका आत्मविश्वास — देखने लायक होता है . अब समुद्र तो गिनती के हैं, जरा-जरा सी बरसात पर ‘ओवरफ़्लो’ कर जाने वाले बरसाती नाले बहुत से . लगभग बोधकथा/नीतिकथा के स्तर को छूती प्रत्यक्षा की यह छोटी कहानी अच्छी लगी .
  6. SHUAIB
    हनीमून का लिंक और प्रत्यक्षा जी की तसवीर दिखाने के लिए अनूप जी आपका धन्यवाद और प्रत्यक्षा जी को उनके इस लेख पर बधाई।
  7. राकेश खंडेलवाल
    हम तो जबरिया लिखबे
    शायद इसीलिये फिर से लिख, हमें पढ़ाई गई कहानी
    अच्छी भावपूर्ण गाथा है, बात ह्रदय से हमने मानी
    अब फ़ुरसत है, और कहानी हमें पढ़ायें आप “निरंतर”
    और आपकी चौपाई में रँगी हुई कविता कल्याणी
  8. समीर लाल
    रिश्तों के पावन अहसासों पर बहती एक बहुत सुगठित एवं सुंदर कहानी के लिये प्रत्यक्षा जी को बधाई और अनूप भाई को इसे हम पाठकों तक पहूँचाने के लिये साधुवाद.
  9. राजीव
    आधुनिकता के परिवेश में नैतिक मूल्यों का कुशलता पूर्वक समर्थन करती, संतुलित, मनोभावों का स्वाभाविक और सहज चित्रण करती हुयी कथा।
    अनूप जी व प्रत्यक्षा जी को धन्यवाद।
  10. प्रत्यक्षा
    आप सबों का बहुत आभार ! कहानी पसंद करने के लिये । आगे भी लिखती रहूँ ऐसा विश्वास उपजता है । शुक्रिया
    और शुक्रिया अनूप जी का भी कि मेरी कहानी फुरसतिया में डाली ।
  11. Pradeep Kant
    Its a beautiful story having balance of the heart and mind. Today, even in this environment of modernism, the characters of the girl and boy created by PRATYAKSHA, touches the heart that still the values are remaining. Congrats to you as well as PRATYAKSHA
    Pradeep Kant
  12. mayank
    मैने कहानी पढ़ी मन को छू गयी। दोनो का चरित्र अच्छा लगा ।
    congrats pratyachha
  13. ashish
    this story is very short but it is so gooo and……………………..
  14. hiralalkashyap
    yahi jindagi hai…………….
  15. devyani
    yah jo man ki uljhan hai, yahi is kahani ko sundar banati hai, ghatnayen yahan koi arth nahi rakhati.
  16. Yashendra
    कहानी और निबंध विधाओं का अद्भुत मिश्रण है यहाँ.
  17. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
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