Friday, November 29, 2013

राजनीति में उपमा अलंकार

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राजनीति के लिये तमाम चीजों की दरकार होती है। इनमें भाषण देने की कला सबसे अहम होती है। बिना भाषण के राजनीति के बारे में सोचना, बिना घपले की योजना की कल्पना करना सरीखा है। राजनीति में बिनु भाषण सब सून।

भाषण देना एक कला है। इस कला में कई घराने चलन में हैं। लेकिन इनमें जो दो घराने चलन में हैं उनमें सबसे प्रमुख घराने हैं- आत्मप्रशंसा घराना और परनिन्दा घराना।

आत्मप्रशंसा घराने के कलाकार अपने द्वारा किये गये कामों का ही आलाप लेते रहते हैं, आरोह –अवरोह में भी निज की तारीफ़। इस घराने के लोग दूसरे की बुराई को गन्दी बात समझते हैं। वे सिर्फ़ अपनी तारीफ़ से ही अपना काम चलाते हैं। गलती से कहीं विरोधी की बुराई निकल भी गई तो दांत से जीभ काट लेते हैं, कान पकड़ लेते हैं। यह बात और है कि वे अक्सर ऐसा करते हैं। करते रहते हैं।

परनिन्दा घराने के लोग अपने मुंह से अपनी तारीफ़ करने में शरमाते हैं। उनको लगता है कि अपने मुंह से अपनी तारीफ़ सज्जनों को शोभा नहीं देती। राजनीति में रहते हुये भी सज्जनता के हिमायती ये लोग विरोधी की बुराई मात्र से अपना काम चलाते हैं। अपनी तारीफ़ की कोई बात गलती से मुंह से निकल जाये तो मारे शर्म के लजा जाते हैं। गाल लाल हो जाते हैं।

लेकिन आज के समय में गठबंधन सरकारों की तरह भाषण में भी गठबंधन भाषण का सबसे ज्यादा चलन में है। आत्मप्रशंसा और परनिन्दा एक साथ। साम्प्रदायिक और सेकुलर दलों की गठबंधन सरकार सरीखे।

भाषण में कई तरह के लटकों-झटकों का प्रयोग होता है। कभी-कभी तो लगता है भाषण देने वाले राष्ट्रीय नाट्य संस्थान से सीधे मंच पर आ गये हैं। ऐसी आलंकारिक भाषा और ऐसे लटके-झटके कि देखकर लगता है कि राजनीति की जगह साहित्य में होते तो साहित्य का एकाध नोबेल और मिलता। साहित्य में कोई ’भारत रत्न’ न होने की टीस कम हो जाती।

भाषण में भी सबसे ज्यादा जिस अलंकार का प्रयोग होता है वह उपमा अलंकार होता है। विरोधी की बुराई हो या खुद की तारीफ़ दोनों में धड़ल्ले से उपमा अलंकार प्रयोग होता है। कोई विरोधी कुत्ते सरीखा है, कोई पिल्ले जैसा। किसी के कर्म ड्रैकुला सरीखे हैं , किसी के नीच से भी नीच, किसी के धूर्त से भी धूर्त। अपने काम हिमालय सरीखे ऊंचे, आसमान से भी विशाल, ओस की बूंद से भी निर्दोष।

भाषणों उपमा में अलंकार का वही महत्व है जो राजनीति में काले धन का है। चुनाव आते ही भाषणों और उसके चलते उपमाओं की खपत बढ़ जाती है। सैंकडों उपमायें चलन में आ जाती हैं। बाजार में उपमाओं की मांग इतनी बढ जाती है कि खपत मुश्किल हो जाती है। ऐसे में उपमाओं के कुटीर उद्योग खुल जाते हैं। लोग खुद की गढी हुई उपमायें प्रयोग करने लगते हैं। घटिया से घटिया उपमायें धड़ल्ले से खप जाती हैं।

अलंकारों में उपमा अलंकार वही महत्व है जो चुनाव लड़ते हुये तमाम राजनेताओं में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार राजनेता का है। बाकी सारे अलंकार नेपथ्य में रहते हैं जबकि उपमा अलंकार दहाड़ता रहता है। उपमा अलंकर साहित्य का एक अंग है। लेकिन उपमा अलंकार को जब भाषण में इतना भाव मिलने लगता है तो उसको लगने लगता है वह साहित्य का अंग नहीं बल्कि साहित्य का बाप है। इस भाव के चलते वह इतना अकड़ने लगता है कि काम भर का फ़ूहड़ लगने लगता है। बाकी अलंकारों को लगता है ये अगर प्रधानमंत्री बना तो हमें तो साहित्य से बेदखल कर देगा। लेकिन वे भी चुप रहते हैं यह सोचते हुये समय सब ठीक करेगा।

हम अपनी बात को कहने के लिये कोई उपमा खोज रहे थे लेकिन यह सोचकर रुक गये कि लोग सोचेंगे कि हम भी राजनीति करने लगे। ठीक किया न?

6 responses to “राजनीति में उपमा अलंकार”

  1. सतीश सक्सेना
    आज उखड़े उखड़े से नज़र आ रहे हो सरकार !
    लगता है वरांडे में बैठकर यह लेख जबर्दस्ती ठेल दिया, आज सुबह की चाय मिली ???
    सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..अपने मित्रों के स्नेह के, आभारी हैं मेरे गीत – सतीश सक्सेना
  2. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    उपमा अलंकार का भाव कभी नहीं गिरने वाला। बात को समझाने का आसान और प्रभावशाली तरीका है। यह बात अलग है कि राजनीति वाले उससे अर्थ का अनर्थ निकाल लें। जैसे ‘कुत्ते का पिल्ला’ कहा गया था एक साधारण अकिंचन जीव के उदाहरण से यह बताने के लिए कि उसके मर जाने से भी मन को तकलीफ़ होती है तो दंगों में मारे गये आदमियों की मौत पर क्यों नहीं होगी; लेकिन अर्थ लगाने वालों ने मुसलमानों को यह समझ दिया कि उनकी तुलना पिल्ले से कर दी गयी है। सोचने वाली बात यह है कि उन्हें इस तुलना पर विश्वास भी हो गया। :(
    सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..ध्यानचंद को भारतरत्न क्यो?
  3. sanjay jha
    छोटी किन्तु पूर्ण पोस्ट …… उपमा अलंकारों का……
    “कभी-कभी तो लगता है भाषण देने वाले राष्ट्रीय नाट्य संस्थान से सीधे मंच पर आ गये हैं।”
    प्रणाम.
  4. arvind mishra
    अनुपमेय पोस्ट
    arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..मोक्ष का मार्ग मछलियां (सेवाकाल संस्मरण- 12 )
  5. संदीप शर्मा
    आजकल की राजनीति पर एकदम सटीक बैठता है आपका लेख.. नमन..
    घटिया से घटिया उपमायें धड़ल्ले से खप जाती हैं।.. वाह.. सत्य..:)
  6. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    […] राजनीति में उपमा अलंकार […]

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