Monday, November 24, 2014

कविता की रजिस्ट्री थोड़ी होती है

आज सुबह साईकिल नहीं मिली तो पैदल ही टहलते रहे इतै-उतै।

सूरज भाई अपने अमले के साथ शान से धरती पर आते दिखे।शुरुआत में थोड़ी सी रौशनी और थोड़े से उजाले के साथ काम शुरू किया।जैसे नया प्रधानमन्त्री शुरुआत में मंत्रिमंडल छोटा रखता है कुछ वैसे ही।

किरणें तो धरती पर पहुंचते ही इधर-उधर खिलंदड़ी करने लगीं। ओस की बूंदों पर झूले की तरह उतरने-चढ़ने लगीं।एकसाथ कई किरणों की सवारी से ओस की बूँद हिल-डुल जाती तो कुछ किरणें धप्प से जमीन पर गिर जातीं।इससे बाकी की किरणें ताली बजाते हुए खिलखिलाने लगतीं।ओस की बूँद भी मुस्कराते हुए किरण-कौतुक देखती रहती।उसका भी चेहरा चमकने लगता। सूरज भाई भी वात्सल्य से अपनी बच्चियों को निहारते रहते।

मेरे साथ चाय पीते हुए सूरज भाई किरणों को पेड़ की पत्तियों , फुनगी , फूलों , कलियों पर धमाचौकड़ी करते हुए देख रहे हैं। आज चाय चौकस बनी है कहते हुए सूरज भाई हमको कविता सुनाने लगे:
"तुम,
कोहरे की चादर में लिपटी,
किसी गुलाब की पंखुड़ी पर
अलसाई सी ठिठकी ओस की बूँद हो
नन्हा सूरज तुम्हें बार-बार छूता,खिलखिलाता है।
अपनी हर धड़कन पर
मुझे सिहरन सी होती है
कि कहीं इससे चौंककर
तुम फूल से नीचे न ढुलक जाओ।"
हमने कहा कि वाह भाई हमारी ही कविता हमको सुना रहे हो।

"अरे कविता की रजिस्ट्री थोड़ी होती है। जो बांच ले उसकी हो जाती है।" यह कहते हुए सूरज भाई डबल मुस्कराने लगे।उजाला हो गया।

सुबह हो गयी।

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