Saturday, March 07, 2015

खेल कभी खत्म नहीं होते

ट्रेन शहर के बाहर रुक गयी। रोज रूकती है। जबलपुर से चली एक्सप्रेस ट्रेन कानपुर पहुंचते-पहुंचते पैसेंजर बन जाती हैं। हर स्टेशन पर रूकती है। रोजी-रोटी के लिए शहर आने वाले लोग लोग जहां जगह मिलती है चढ़ लेते हैं। ट्रेन सबको ले आती है शहर। किसी को न नहीं कहती। टिकट-बेटिकट में भेदभाव नहीं करती। बहुत भली है ट्रेन।

शहर के पहले इंडस्ट्रियल एरिया के पहले बहुत लोगों को उतरना होता है।स्टेशन तो है नहीं। सिग्नल ...की समस्या भी नहीं। मजबूरन लोगों को चेन पुलिंग करना पड़ता है। स्टेशन जाकर वापस आयेंगे तो देर हो जायेगी कारखाने पहुंचने ने। बहुत समय बर्बाद होगा। देश का विकास प्रभावित होगा। सड़क पर जाम लगेगा सो अलग। ट्रेन की चेन पुलिंग होती है। वह रुक जाती है। ट्रेन को पता है कि उसकी चेन खिंचने वाली है। वह पहले से ही आहिस्ते सी हो जाती है ताकि चेन खिंचने पर झटका न लगे। कुछ ऐसे जैसे कि शहर में पढ़ाई,काम काज के लिए रोज निकलती महिलाओं को अंदाज सा हो जाता है कि किस मोड़, गली चौराहे पर उनको छेड़ा जाना है। वे पहले से सावधान सी हो जाती हैं। चुपचाप छिड़ती हुई निकलती जाती हैं। रोज होने वाली घटनाओं की आदत सी हो जाती है। जिस दिन वह नहीं होती है ,कुछ अधूरापन सा लगता है।

ट्रेन रुकते ही अपन ऊंट की तरह गर्दन उचकाकर बाहर का नजारा देखने लगते हैं। सामने फूस, छप्पर, मिट्टी की गठबन्धन सरकार से घर के बाहर दो बच्चे मिटटी की आड़ी टेड़ी पिच पर कुछ खेल रहे हैं। सीमेंट के पलस्तर के बेडौल से टुकड़े को लड़का किसी खाने में फेंकता है फिर पैर से उचक-उचककर दूसरे खाने में सरकाते हुए ले जाता है। कुछ देर बाद लड़की भी ऐसा ही कहती है। उछलकर घर फांदती है।घर बसाती है। कड़क्को के नाम से याद है मुझे यह।बच्चे न जाने किस नाम से खेल रहे हैं इसे।

अचानक घर से एक महिला निकलती है।बच्चे को कुछ पैसे देती है।बच्चा किसी फास्ट बॉलर वाले अंदाज में लहराता हुआ टेड़ा मेढ़ा होते हुए अगल-बगल की झोपड़ियों के जंगल में गुम जाता है। कुछ देर में हाथ में पालीथीन में कुछ लिए हुए प्रकट होता है। शायद चीनी है।महिला घर झोपडी में घुस जाती है। बच्चे फिर खेलने लगते हैं। कुछ देर बाद एक और छोटा बच्चा घर से निकलता है। लड़खड़ाते हुए चलना सीख रहा है अभी। डगमग डगमग। हिलडुल हिलडुल चलता हुआ।कुछ चहकता हुआ सा। कृष्ण जी की इसी चहकन पर सूरदास जी ने लिखा है:

"किलकत कान्ह घुटुरुवन आवत
मनिमय कनक नन्द आँगन के
बिम्ब पकरिबै धावत।"

लेकिन यह बच्चा कान्हा नहीं है। न इसका आँगन मनिमय है।झोपड़ी के पास एक गड्ढे में कई दिनों से जमा पानी में ही यह अपना बिम्ब देख सकता है।लेकिन उधर जाते ही खेलते हुए बच्चे उसको बरज देते हैं। उनको पता है कि इसकी लीलावर्णन के लिए कोई सूरदास भी नहीं आयेगे।

घर से एक बड़ी होती लड़की निकलती है। वह कुछ देर इधर-उधर समझदारी वाले अंदाज में देखती है। छोटे बच्चे को गोद में उठाकर थोड़ी देर पुचकारती है। फिर उसको लेकर अंदर चली जाती है। खेलते हुए बच्चे इस सबसे बेखबर खेलते रहते हैं।

ट्रेन चल देती है। खरामा-खरामा।एक बच्चा साइकिल पर सिलिंडर लादे जाता दीखता है। कुछ लोग एक जगह इकट्टा जमीन पर झुके कुछ आड़ी तिरछी रेखाओं पर गिट्टियां रखे कोई खेल खेल रहे हैं। एक आदमी बीड़ी पीते हुए अपनी चाल चलता है। बगल का आदमी उसके हाथ से बीड़ी लेकर एक दो सुट्टा मारकर बीड़ी वापस कर देता है। दूसरी तरफ की चाल का इन्तजार है शायद सबको। पास ही कुछ लड़कियां एक हैण्डपम्प पर पानी भरने के लिए इकट्ठा हैं। एक लड़का उचक-उचककर हैंडपंप चला रहा है। पानी बाहर आ रहा है।

बड़े होने पर तमाम लोगों को लगता है कि बचपन में जो खेल वो खेलते थे वो अब खत्म हो गए। उनको कोई नहीं खेलता अब। लेकिन ऐसा शायद होता नहीं है। कोई खेल कभी खत्म नहीं होते। वे सिर्फ एक के बचपन से दूसरे के बचपन में, एक के जीवन से दूसरे के जीवन में चले जाते हैं।किसी के द्वारा खेलना बन्द कर देंने पर खेल उसकी जिंदगी से भले दूर हो जाएँ लेकिन वे खेल किसी दूसरी जिंदगी में चलने लगते हैं। हमेशा चलते रहते हैं। खेल कभी खत्म नहीं होते।

रेल लाइन के किनारे एक आदमी एक औरत के साथ खड़ा रेल को देखते हुए मंजन कर रहा है। दोनों एक साथ मुंह में ब्रश घुमा रहे हैं। मुंह और होंठ के आसपास मंजन का झाग इकट्ठा हो रहा है। शायद ट्रेन को पूरा देखकर दोनों उसे रेलवे लाइन के ही पास थूक दें। क्या पता दोनों आपस में शर्त लगाते हुए थूकें कि देखें कौन ज्यादा दूर थूकता है।

धूप अभी पूरी निकली नहीं है। एक चारपाई पर गेंहू धुले हुए फैले हैं। चादर पर फैले गीले गेंहू को दुलारते हुए सी एक महिला गेंहू के ढेर को बराबर से फैला रही है।सबकी ऊंचाई बराबर कर रही है। ताकि सब दानों को बराबर धूप मिल सके।यह नहीं कि नीचे के दानों तक धूप ही न पहुंचे और ऊपर वाले मजा मारते रहें। गेंहूँ के दाने धूप के इन्तजार में चारपाई पर अलसाये से लेटे इन दानों को पता भी नहीं होगा कि उनसे कुछ मील की दूरी अनगिनत दाने बालियों में बंद मौसम के लाठीचार्ज खेतों में घायल,औंधे पड़े हैं। यह भी पता नहीं कि बालियों के दाने जिएंगे या बालियों में ही दम तोड़ देंगे।टेलीविजन पर कोई खबर भी नहीं आती उनकी तो। टेलीविजन तो भारत वेस्ट इंडीज के मैच में व्यस्त है।

अब ट्रेन फटाफट चलकर स्टेशन पहुंच गयी है। सामान उठाकर अपने आसपास के यात्रियों को थोड़ा निहारते हुए आहिस्ते आहिस्ते चलते अपन पटरी फांदते हुए स्टेशन से बाहर आते हैं। पटरी पार करते हुए याद आता है रेलवे ने बायोडिस्पोजेबल शौचालय पर खूब रकम अलॉट की है।आने वाले दिनों में शायद पटरी पार करते हुए बीच में गन्दगी कम दिखे।

पीछे ट्रेन बाकी बचे यात्रियों को अपने साथ लेकर चली जा रही। पूरे वात्सल्य के साथ। बड़ी भली होती हैं ट्रेने। हमको आलोक धन्वा की कविता याद आ रही है:

हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो उसके माँ के घर की ओर जाती है
सीटी बजाती हुई
धुंआ उडाती हुई।



1 comment:

  1. बड़े होने पर तमाम लोगों को लगता है कि बचपन में जो खेल वो खेलते थे वो अब खत्म हो गए। उनको कोई नहीं खेलता अब। लेकिन ऐसा शायद होता नहीं है। कोई खेल कभी खत्म नहीं होते। वे सिर्फ एक के बचपन से दूसरे के बचपन में, एक के जीवन से दूसरे के जीवन में चले जाते हैं।किसी के द्वारा खेलना बन्द कर देंने पर खेल उसकी जिंदगी से भले दूर हो जाएँ लेकिन वे खेल किसी दूसरी जिंदगी में चलने लगते हैं। हमेशा चलते रहते हैं। खेल कभी खत्म नहीं होते।

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