Wednesday, June 08, 2016

जिंदगी में संघर्ष तो होता ही है

सोनू से मिलकर आगे बढे तो देखा एक हाथ रिक्शा पर एक बुजुर्गवार झपकी ले रहे थे। रिक्शे की आगे की रॉड पर मसाला पुड़िया वंदनवार सरीखी सजी थीं। हम पास में खड़े होकर निहारने लगे बुजुर्गवार की 'झपकी सौंदर्य सुषमा'।

साँसे जितनी आराम से आ रहीं थीं उतनी ही तसल्ली से विदा हो रही थी।कोई हड़बड़ी नहीं थी। हम साँसों की भाषा नहीं जानते पर क्या पता बाहर निकलती हुई सांस अंदर जाती हुई सांस को 'आल द बेस्ट' भी बोलती हो। यह भी हो सकता है कोई अंदर जाती हुई सांस कहती हो -'यार मुझे डर लग रहा है। कहीं अंदर ही न रह जाऊं। बहुत अँधेरा होगा न अंदर।' इस पर बाहर आती हुई सांस उसको हौसला बंधाती होगी -'अरे ऐसा कुछ नहीं। बस जाना है और आना है। शरीर है कोई थाना थोड़ी जो दिन भर बिना मतलब बैठा लेगा कोई। जा अंदर जाकर बाहर आ जा तब तक मैं यहीं चेहरे पर रूककर तेरा इन्तजार करती हूँ।'

सांसों का फेसबुक खाता होता तो शायद अंदर जाती साँस स्टेटस डालती - 'पहली बार नाक के अंदर घुस रहीं हूँ। विश मी गुडलक।' बाहर निकलते हुए अपने स्टेटस पर सैकड़ों लाइक और दसियों टिप्पणी देखती तो खुशी और विनम्रता से दोहरी-तेहरी होते हुए सबको धन्यवाद देती। कुछ को दिल के आकार के निशान देती कुछ को कुछ और और बाकियों को मुस्कान निशान। 
पास में खड़े होने से बुजुर्ग की नींद खुल गयी और वे चैतन्य से हुए। हमें बतियाने का मौका मिल गया।

सालिगराम नाम बताया बुजुर्ग ने। पैदाइश सन 1936 की। मतलब समय के स्कोरबोर्ड पर अस्सी लकीरें खींच चुके। 1936 मतलब मुंशी प्रेमचन्द के निधन का साल। हाथ-पैर पोलियो ग्रस्त। पढाई हाईस्कूल तक की। फैजाबाद के रहने वाले। वहां से बाप-दादे आये थे। कानपुर में बस गए।

सात बीधे खेती थी फ़ैजाबाद में। तीन बच्चे हुए। तीनों होजरी का काम करते हैं। नातिन ने अभी बीए का इम्तहान दिया है।

जिंदगी कैसे कटी? पूछने पर बोले-' कट ही गयी। संघर्ष बहुत रहा। जिंदगी में संघर्ष तो होता ही है।'

पास की ही कालोनी में रहते हैं सालिगराम। घर में पत्नी है। सुबह आठ बजे करीब निकलते हैं। शाम तक सौ-पचास रूपये कमा लेते हैं। हो जाता है गुजारा।

हाथ साईकल किसी ने दी है विकलांग योजना के अन्तर्गत।

इस बीच कोई कमला पसंद लेने आया, कोई पान पराग। एक ने सिगरेट मांगी। गद्दी के नीचे से निकाल कर एक सिगरेट दी। कैप्सटन नाम देखते ही कालेज के दिनों CAPSTAN सीखा उल्टा-सीधा फुल फ़ार्म याद आ गया। यह भी याद आया कि खुली सिगरेट बिकना बन्द हो गया है। 45 रूपये की दस का रेट है सिगरेट का।

पान-मसाला सिगरेट बेंचते हैं सालिगराम पेट के लिए लेकिन खुद किसी चीज का शौक नहीँ करते। तम्बाकू तक नहीं खाते। खाते तो वो भी नहीं होंगे जिनकी इनसे हवेलियां खड़ी हैं। आम जनता के लिए हैं यह सब। ख़ास लोग तो बनवाने, बेंचने और कमाने के लिए हैं।

धूप बहुत तेज थी। गर्म हवा ने थपड़ियाते हुए कहा -'चलो, आगे बढ़ो। घर नहीं जाना क्या?'
हम आगे बढ़ लिए।

2 comments:

  1. गज़ब गज़ब गज़ब... बहुत समय बाद आपकी कोई रचना पढ़ी, समझ में नही आ रहा इसे किस विधा से सम्बद्ध मानू, शायद इतना समर्थ नही हो पाया हूँ कि आपकी रचना को किसी श्रेणी में स्थापित कर सकूँ, साँसो की गति को आज कुछ धीमा महसूस किया हमने जब अंदर जाती हुई साँस को बाहर जाती हुई साँस से गुडलक बोलते हुए पढ़ा.. "साँस में तेरी साँस मिली तो मुझे साँस आई" ये गीत भी याद आ गया अभी अभी... वैसे धन्य हो आप.. अभी बहुत सीखना है आपसे..

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    1. पोस्ट पढने और सराहने का शुक्रिया !

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