Monday, February 13, 2017

मेरी रुचि विवाद से ज्यादा रचनात्मक प्रक्रियाओं में है- आलोक पुराणिक



आज नई दिल्ली के हिन्दी भवन सभागार में हिन्दी व्यंग्य के सबसे सक्रिय और सर्वप्रिय व्यंग्य लेखक आलोक पुराणिक को हिन्दी व्यंग्य का प्रतिष्ठित ’व्यंग्य श्री’ पुरस्कार से सम्मानित किया जायेगा। इस मौके पर उनसे समसामयिपक हिन्दी व्यंग्य के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत सवाल-जबाब के रूप में यहां पेश है।
सवाल 1- ’व्यंग्य श्री’ सम्मान मिलने की बधाई। कैसा एहसास हो रहा है आपको ?
जवाब-जी प्रीतिकर आश्चर्य हो रहा है। आम तौर पर यह सम्मान बुजुर्ग रचनाकारों को दिया जाता रहा है, मैं उतना बुजुर्ग नहीं हूं। फिर भी इस सम्मान के लिए चुना गया। पंडित गोपालप्रसाद व्यास जी के नाम पर स्थापित इस सम्मान को प्राप्त करके गौरव की अनुभूति हो रही है।
सवाल 2-लिखते हुये आपको करीब 35 साल हुये। इन सालों में व्यंग्य लेखन में क्या बदलाव आये?
जवाब-व्यंग्य लिखते हुए करीब दो दशक से से ज्यादा हुए, आर्थिक पत्रकारिता करते हुए तीस सालों से ज्यादा हुए। व्यंग्य लेखन बहुत बदला पर काफी कुछ नहीं बदला। पहले सरकार राजनीति केंद्र में थी अब बाजार का स्पेस बढ़ गया है। बाजार नयी सत्ता है। व्यंग्य के फार्मेट में बदलाव आये। पहले डेढ़ हजार शब्दों के व्यंग्य को भी जगह मिलती थी अखबारों में, अब छोटा व्यंग्य चाहिए। तकनीक, व्हाट्सअप, फेसबुक, इस सब पर भी व्यंग्य अब आ रहे हैं। बहुत कुछ बदला है, पर बहुत कुछ नहीं बदला है दुनिया में, जो कभी नहीं बदलता-ईर्ष्या, खुद को श्रेष्ठ साबित करने का अहंकार, मौका-मुकाम देखकर दूसरे के इस्तेमाल की प्रवृत्ति, मौका मिलते ही दूसरे के शोषण का हुनर। इस पर व्यंग्य लगातार होना चाहिए और हो रहा है।
सवाल 3-आपके खुद के लेखन में क्या परिवर्तन आपने महसूस किये?
जवाब-जी रोज, रोज नयी तकनीक आयी देखा समझा और जानने की कोशिश की यहां विसंगतियां क्या क्या हैं। कोशिश रोज चल रही है। बदलती तकनीक, बदलती दुनिया ने रोज नये परिवर्तन के लिए प्रेरित करती है। छोटे में बड़ा कैसे कहा जाये, ऐसा भाव लगातार प्रबल हुआ है।
सवाल 4- जिन लेखकों के साथ आप लिखते थे अखबारों में नियमित उनमें सबसे ज्यादा आप किस लेखक से प्रभावित थे? क्यों?
जवाब-किट्टू जी,जिनका नाम आज की नयी पीढ़ी शायद जानती भी नहीं है, एक वक्त अखबारों, पत्रिकाओं के लिए बहुत महत्वपूर्ण रचनाकार थे। उन्हे पढ़कर मैं चकित रहता था कि कैसे यह बात ऐसे कही जा सकती है। स्वर्गीय किट्टूजी की एक ही किताब छपी है, भावना प्रकाशन से। किट्टूजी बहुत सीनियर थे मुझसे पर, उनके कालम और मेरे कालम एक ही अखबार में छपा करते थे। स्वर्गीय के पी सक्सेनाजी की संवाद-शैली भी बहुत असरदार लगी। शरद जोशीजी तो मेरे व्यंग्य लेखन की शुरुआत से पांच साल पहले स्वर्ग सिधार चुके थे। बतौर स्तंभकार शरद जोशीजी कमाल हैं, इंगलिश में बहराम कांट्रेक्टर, दोनों स्वर्गीय हैं अब।
सवाल 5- अपने लेखन में अभी क्या कमी देखते हैं आप?
जवाब-इतिहास,वेद, पुराण का विधिवत अध्ययन नहीं है मेरे पास, होना चाहिए। कबीर, मीरा, तुलसीदास का विस्तृत अध्ययन नहीं मेरे पास। मुगल इतिहास का व्यापक अध्ययन नहीं है मेरे पास। यूरोपीय इतिहास का व्यापक अध्ययन नहीं है मेरे पास। इसलिए उनके संदर्भ मैं उस तरह से नहीं दे पाता, जिस तरह से दिये जाने चाहिए। अध्ययन की इस कमी को मैं आगे पूरा करुंगा।
सवाल 6-लेखन की आपकी कई स्टाइल हैं छात्र की कापी वाली, फ़ोन सेवा वाली, सवाल-जबाब वाली और भी कई। इनमें से कोई स्टाइल आपको लगता आपकी अपनी इजाद की हुई है?
जवाब -मुझे पता नहीं है मैंने क्या ईजाद क्या, क्या नहीं, जो समझा, जो शैली समझ में आयी, प्रयोग किये। प्रयोगों से मुझे कभी डर नहीं लगता। बहुतेरे प्रयोग किये हैं आगे भी करुंगा। ये नहीं पता कि मैं क्या पहली बार कर रहा हूं और क्या मुझसे पहले कोई कर चुका है।
सवाल 7-आपके बारे में आपके प्रेमी पाठक यह भी कहते हैं कि आप बहुत लिखने के चक्कर में बाजारू लेखक हो गये हैं मतलब लेखन के स्तर से समझौता करते हैं आप। आपको अब स्तरीय लेखन करना चाहिये। इस बारे में आपका क्या कहना है?
जवाब-हरेक को राय रखने का हक है। लेखन का स्तर बहुत सब्जेक्टिव विषय है। स्तरीय लेखन क्या है, यह भी सब्जेक्टिव विषय है। मेरी राय यह है कि जो मैं भी कर रहा हूं, उसमें भरसक प्रयास करता हूं कि स्तरहीन ना हो।

सवाल 8- भाषा के स्तर पर आपने तमाम प्रयोग किये। चलताऊ भाषा का प्रयोग नयी पीढी को आसानी से समझ में आने वाली भाषा का प्रयोग है कि आप इसी में अपने को सहज पाते हैं?
जवाब-भाषा के मसले पर मैं आपसे कहूं कि व्यंग्य की भाषा को संवादपरक होना चाहिए। व्यंग्य को अपने टीले से उतरकर सड़क पर, पब्लिक में, हर तरह की पब्लिक के बीच जाना होगा और उनकी बोलचाल सुननी चाहिए, मैं सुनता हूं और कोशिश करता हूं कि भाषा वह रहे, जिसमें लोग सहज महसूस करें।
सवाल 9-आपके प्रेमी पाठक सुरेन्द्र मोहन शर्मा का कहना है- ’आलोक पुराणिक बहुत लिखते हैं, बढिया लेखक हैं लेकिन हमें लगता है कि उनको सरकार के खिलाफ़ भी लिखना चाहिये। व्यंग्यकार हमेशा सत्ता के खिलाफ़ भले न लिखे लेकिन कभी-कभी तो लिखना चाहिये।’ आपका इस बारे में क्या कहना है?
जवाब-प्रेमी पाठक सुरेंद्र मोहन शर्मा का धन्यवाद,सत्ताओं का अर्थ सिर्फ सरकार नहीं है। बाजार अब सबसे बड़ी सत्ता है। अपनी समझ के हिसाब से मैंने कोशिश की है कि जहां विसंगति है, उन्हे चिन्हित किया जाये, जो सत्ता उसके लिए जिम्मेदार है, उसे इंगित किया जाये। शर्माजी के सुझाव पर विचार करुंगा।
सवाल 10-अब तो आप खुद अपने में एक स्थापित लेखक हो गये। तमाम लोग आपके जैसा लिखने की कामना करते होंगे। लेकिन जब आपने लिखना शुरु किया तब आप किस व्यंग्य लेखक जैसा लिखने की कामना करते थे? अब भी किसी लेखक जैसा लिखने की तमन्ना है?
जवाब-ना, ना, ना, ना, ना, ना, रचनाकार कभी स्थापित ना होता, वह स्थापित होता लग सकता है। पर होता नहीं है, इतना कुछ है करने के लिए। फोटो आधारित व्यंग्य निबंधों पर सोच रहा हूं, काम कर रहा हूं उन पर, कुछेक छपे भी हैं बीबीसीहिंदी में, दैनिक जागरण में। स्थापित बिलकुल नहीं हूं, अभी बहुत काम करना है। व्यंग्य लेखन की शुरुआत में किट्टूजी चकित करते थे, उन जैसा लिखने की इच्छा होती थी। किसी लेखक जैसा बनने की इच्छा नहीं है, आलोक पुराणिक ही और रचनात्मक बनें, यही इच्छा है।
सवाल 11-अपनी कोई एक रचना आपको अचानक ध्यान में आती है जिसको आप सबसे ज्यादा पसंद करते हों?
जवाब-फेयर एंड हैंडसम प्रश्नोत्तरी इसमें पुरुषों को गोरा बनानेवाली क्रीम के बहाने व्यंग्य किया गया है।
सवाल 12- हमेशा से सबसे ज्यादा व्यंग्य राजनीतिज्ञों पर लिखे जाते हैं। उनको गरियाया जाता है। जबकि राजनीति समाज का बहुत छोटा अंग है। बाजार इसको प्रभावित करता है जो स्वयं समाज की इकाई है। क्या ऐसा नहीं लगता है कि राजनीतिज्ञ ऐसा दिहाड़ी का नौकर जिसे समाज ने अपनी बुराई ढंकने के उद्धेश्य से गरियाने के लिये रख लिया है।
जवाब-1991 के बाद सीन बदला है। 1991 से पहले हमारी तमाम परेशानियों की वजह सरकार होती थी, आप याद कीजिये, जसपाल भट्टी का उल्टा पुल्टा शो, उसमें ठप्प फोन पर व्यंग्य होता था, सरकार पर व्यंग्य होता था। सरकारी कामकाज के तौर-तरीकों पर व्यंग्य होता था। पर 1991 के उदारीकरण के दौर पर बाजार का स्पेस बढ़ा। अब वोडाफोन एयरटेल परेशान कर रहा है, बीएसएनएल और एमटीएनएल ही नहीं हैं परेशान करने के लिए। बल्कि सरकारी टेलीफोन कंपनियों का स्पेस आनुपातिक तौर पर कम हुआ। बाजार बहुत महीन किस्म का शोषक है। बहुत ही महीन, इसे समझना इस पर लगातार व्यंग्य करना, बाजार की न्यूनतम समझ की मांग करता है। बाजार पर 1991 से पहले भी व्यंग्य हुए हैं। पर राजनीति पर व्यंग्य करना अपेक्षाकृत आसान जान पड़ता है। आसान काम करने का अपना आकर्षण होता है। पर नये लोग तकनीक, बाजार, इश्तिहार, कस्टमर केयर पर खूब व्यंग्य लिख रहे हैं। साठ के उस पार के व्यंग्यकारों की नजर बाजार पर उतनी नहीं गयी है। पर बिना बाजार को समझे वर्तमान में व्यंग्य रच पाना असंभव है।
सवाल 13- अपने देश में तमाम ऊर्जा और संभावनाओं के बावजूद आम आदमी के हाल बेहाल होते जा रहे हैं। क्या कभी इसमें सुधार की गुंजाइश और व्यापक सुधार की संभावना देखते हैं आप?
जवाब-देखिये आम आदमी के हाल बेहाल होते जा रहे हैं-आपका यह बयान एक सरलीकृत बयान है। हाल बेहाल भी हुए हैं, खुशहाल भी हुए हैं। उस गति से खुशहाल नहीं हुए, जिस गति से नेता-ठेकेदार-भ्रष्ट अफसर के होते हैं। इस मुल्क में करीब 100 करोड़ मोबाइल फोन हैं, 127 करोड़ की जनसंख्या में। तीस साल पहले फोन उच्चवर्गीय आइटम होता था। भूख से मरने की रिपोर्टें पहले के मुकाबले कम आती हैं। बीस साल पहले कालाहांडी भूख का मुहावरा था। अब बीस साल के बच्चे को कालाहांडी का वह संदर्भ पता नहीं होगा, क्योंकि उसने कालाहांडी की दुर्दशा अपने चैतन्यकाल में नहीं देखी सुनी। पर इसका मतलब यह नहीं है कि देश एकदम खुशहाल है। इस महादेश में तीन देश बसते हैं, एक करीब 5 करोड़ का अमेरिका-एकदम उच्चर्गीय सिविल लाइंस, नारीमन पाइंटवाला, बीच का करीब 35 करोड़ मध्यवर्गीय मान लें, मलेशिया मान लें इसे, खाने पीने ठीकठाक इंतजाम हैं, बच्चे ठीक ठाक कंपनियों में नौकरी कर रहे हैं। करीब 85 करोड़ का भारत यहां युगांडा या बंगलादेश है। तीन देश आर्थिक तौर पर हैं इस देश में। सबकी अपनी विसंगतियां हैं। पर हालत पहले के मुकाबले खराब हैं, यह बात अतिरेक है। हां हालत उस गति से आम आदमी के नहीं सुधरे जिस गति से उद्योगपतियों के सुधरे, नेता के सुधरे, यह बात एकदम सही है। भारत का कल आज के मुकाबले बेहतर होगा, ऐसा मैं विश्वास करता हूं। पर सुधार की दर तेज नहीं होगी। धीमी गति का समाचार होगा सुधार।
सवाल 14- श्रीलाल शुक्ल जी ने एक बार मुझसे कहा था- ’ इस देश के आदमी में विपरीत परिस्थितियां झेलते हुये जीने की अद्भुत क्षमता है। इसलिये अपने यहां बहुत बदलाव की संभावना मैं नहीं देखता।’ आपका क्या सोचना है इस बारे में?
जवाब-श्रीलाल शुक्लजी ने देश के मिजाज को भांपकर ही कहा कि विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए जीने की अद्भुत क्षमता है। कैसे भी हाल में बंदा एडजस्ट कर लेता है, इसलिए इस देश में बहुत गहरे असंतोष, बहुत ही इंटेस किस्म के हिंसक आंदोलनों की आशंका कम है। पर बदलाव की संभावनाएं हैं पूरी हैं। समय बहुत लगना है। एक दो साल में कुछ ना होना। बड़े बदलावों के लिए दशक चाहिए। उत्तर भारत, पूर्वी भारत में बदलाव की रफ्तार बहुत धीमी है। पश्चिम और दक्षिण भारत में बदलाव तेज है।
सवाल 15- आज सोशल मीडिया के चलते व्यंग्य लेखन का विस्फ़ोट सा हो रखा है। आम आदमी लिखने और छपने लगा है। कुछ पुराने , सिद्ध लेखक इसको व्यंग्य लेखन के लिये ठीक नहीं मानते। उनका कहना है कि लिखास और छपास की कामना के चलते व्यंग्य लेखन का स्तर गिरा है। आपका क्या मानना है इस बारे में।
जवाब-आपका सवाल बहुआयामी है। व्यंग्य लेखन का नहीं, हर किस्म के लेखन का विस्फोट हो गया है। सोशल मीडिया खुला मीडिया है, असंपादित मीडिया है। यही इसकी ताकत है और यही इसकी कमजोरी है। ताकत यह है कि अगर आपके पास कुछ कहने के लिए है, तो अपनी फेसबुक वाल पर, ट्विटर पर कह दीजिये। वह लोगों तक पहुंच जायेगी। किसी संपादक की चिरौरी करने की जरुरत नहीं है, प्लीज छाप दीजिये। अब उलटा हो रहा है, आप के कहने में दम है, तो मुख्यधारा के अखबार आपके कटेंट, आपके ट्वीट को उठाकर अपने अखबार में ले जायेंगे। आप देख सकते हैं, यामिनी चतुर्वेदीजी, रंजना रावतजी, सोमी पांडेयजी के कंटेट को मुख्यधारा के अखबारों में जगह मिली है। कई नये रचनाकार इस माध्यम से व्यंग्य जगत को मिले हैं। ये वो लोग हैं, जो कभी किसी अखबार-पत्रिका के दफ्तर में अपनी रचनाएं ना भेजते। पर इन लोगों के काम में दम है, तो मुख्यधारा का मीडिया इन्हे जगह दे रहा है। पर, पर इसका दूसरा आयाम यह है कि सोशल मीडिया असंपादित मीडिया है। जिसका जो मन करे, जैसा मन करे, लिख जाये। मुख्यधारा की अखबार-पत्रिकाओं में संपादन के बगैर कुछ ना छपता, तो वहां जो छपता है उसमें एक न्यूनतम जिम्मेदारी सुनिश्चित मानी जा सकती है। ऐसा सोशल मीडिया के बारे में नहीं कहा जा सकता कि वहां जो कुछ भी छपता है, जिम्मेदारीपूर्ण कंटेट होता है। सिर्फ सोशल मीडिया के लेखकों के दिक्कत यह है कि वह 1000 लाइक के आधार पर खुद को परसाई, शरद जोशी घोषित कर सकते हैं क्योंकि इन्हे तो कभी ऐसे लाइक ना मिले थे। तो यह जिम्मेदारी है सोशल मीडिया के लेखक की वह समग्रता में देखे चीजों को, परंपरा का विधिवत अध्ययन करे। गाली-गलौच से बचे। पर कई सिद्ध बड़े लेखक सोशल मीडिया के लेखन को दूसरी वजहों से खारिज करते हैं। जैसे किसी ने एक मठ बनाया, एक पत्रिका बनायी, कुछ चेले पाले, कुछ को यह पुरस्कार दिलाया, कुछ को वो सम्मान दिलाया, फिर अपने मठानुकूल बनाकर नाम प्रसिद्धि दिलायी। उन्हे लगता है कि अरे सोशल मीडिया के कई लेखक लेखिकाओं को बिना हमारे मठ में आये, बिना हमें नमस्ते किये हुए सब कुछ मिल रहा है। उन्हे अपने मठ का, अपनी पत्रिका का, सुतनादेवी पुरस्कार जो चेलों को दिलवाया था, एकदम व्यर्थ जान पड़ता है। अपना निवेश उन्हे एकदम चौपट दिखायी देता है। तो वह फिर नयों को कोसते हैं, फेसबुक को कोसते हैं। कोसने की वजहें दूसरी हैं, बताते हैं कि व्यंग्य का नुकसान हो रहा है, जैसे पत्रिकाओं में छपे हर व्यंग्य से व्यंग्य का भला ही हो रहा हो। जैसे किताबों में छपे हर व्यंग्य से व्यंग्य उन्न्त ही हो रहा हो। मठाधीशी पर सीधी चोट करता है सोशल मीडिया, इसलिए मठाधीशों को सोशल मीडिया खराब लगता है। उसकी समस्याएं हैं, पर मठाधीशों के हमले की वजहें दूसरी हैं। व्यंग्य की गुणवत्ता से ज्यादा उन्हे उन्हे अपने मठों की चिंताएं हैं। नयी पीढ़ी ज्यादा लिहाज नहीं करती। सामने मुंह पर टिका देती है जवाब। यह बात परंपरागत मठाधीशों को बुरी लगती है, उन्होने झोला थामे चेले देखे हैं यहां आपका झोला छीनकर ले जानेवाले वीर हैं सोशल मीडिया पर। सोशल मीडिया को माध्यम मानें , जैसे किताब, अखबार , पत्रिका में छपी हर बात से व्यंग्य का भला नहीं होता, वही बात सोशल मीडिया पर लागू होती है। सोशल मीडिया को मठाधीशी पर चोट के लिए गरियाना सिर्फ निहित स्वार्थ है।
सवाल 16- अखबारों ने आज अपने फ़ार्मेट बदल दिये हैं। व्यंग्य 400 शब्दों तक सिमट गया है। व्यंग्य शुरु होते ही खत्म हो जाता है। पत्रिकायें जिनमें लंबे व्यंग्य छप सकते हैं उनका सर्कुलेशन बहुत कम है। क्या यह स्थिति व्यंग्य के लिये घातक नहीं है?
जवाब-देखिये ऐसा नहीं है, इस दौर में भी लंबे उपन्यासों के पाठक भी तो हैं ना। नये फार्मेट आयेंगे, नयी चुनौतियां आयेंगी। सुनील गावस्कर ने टेस्ट खेले, सचिन तेंदुलकर ने टेस्ट, वन डे, 20-20 सब खेले। अब गावस्कर कहें कि मैं सचिन को क्रिकेटर नहीं मानता कि वह 20-20 खेलते हैं, तो यह गलत होगा। अखबार साहित्यकारों के लिए, व्यंग्यकारों के लिए नहीं निकल रहे हैं, वहां व्यंग्य को जगह इसलिए मिल रही है, वह पब्लिक पढ़ती है। लंबे व्यंग्य छापनेवाली साहित्यिक पत्रिकाएं नहीं छप रही हैं तो क्या इसकी वजह यह नहीं है कि उन पत्रिकाओं को पढ़नेवाले कम हो रहे हैं। हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाएं कईयोँ के लिए यश, रोजगार का साधन हैं, उन्हे अपनी चिंता है, जो अफसर मेरे गेस्ट हाऊस, दारु के खर्चों को वहन कर ले, उसे मैं टाप साहित्यकार मान सकता हूं। चुबेर नगर कमोड मैन्युफेक्चरर एसोसियेशन मुझे सम्मानित कर दे, तो उस सम्मान के संयोजक को मैं महान व्यंग्यकार मान सकता हूं, इस भाव से आप साहित्यिक पत्रकारिता करेंगे और उम्मीद करेंगे कि आम पाठक आप के काम में दिलचस्पी ले, तो यह ठीक नहीं है। आपका निवेश हैं, आप समझें। साहित्यिक पत्रकारिता अब निवेश है और उसके करनेवाले पर्याप्त स्मार्ट धंधेबाज हैं। निवेश से अधिक ही उनको मिल रहा है, तब ही वह चला रहे हैं। उनमें व्यंग्य वगैरह का भला, साहित्य का भला देखना उनके निवेश के साथ अन्याय है। मुख्य धारा का अखबार अपने लाभ के लिए सन्नी लियोनी की फोटू लगा रहा है, तमाम साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक धनलाभ-यशलाभ-पुरस्कारलाभ के चुबेरनगर कमोड मैन्युफेक्चरर एसोसियेशन के संयोजक को महान व्यंग्यकार मान रहे हैं। दोनों में खास फर्क नहीं है, निवेश और प्रतिफल के मसले हैं यह। इंटरनेट ने काफी हद तक राह आसान कर दी है, अब कम लागत में गुणवत्ता वाले काम किये जा सकते हैं, बिना चुबेरनगर.. के संयोजक को महान माने। हां सम्मानजनक अपवाद हैं साहित्यिक पत्रकारिता में, पर वे इतने अपवाद हैं कि कहीं भी उनका जिक्र-फिक्र नहीं है।

सवाल 17- लोग कहते हैं कि व्यंग्य में ’पंच’ व्यंग्य लेखन की आत्मा टाइप होता है। लेकिन व्यंग्य कहानियों में पंच के अवसर कुछ कम टाइप होते हैं। तो क्या व्यंग्य कहानियों में व्यंग्य की आत्मा कम टाइप होती है?
जवाब-सवाल है पंच क्या है, पंच तिरछत्व से परिपूर्ण एक भंगिमा, एक बयान है। तिरछत्व लंबा नहीं चल सकता है, पंच लंबा बहुत लंबा नहीं हो सकता है। यह व्यंग्य-लेख की आत्मा है। कहानी का फार्मेट अलग है, कहानी सीक्वेंस में आगे बढ़ती है। कहानी का तत्व उत्सुकता है अब क्या होगा, अब क्या होगा। व्यंग्य लेख का तत्व पंच है, घूंसा है, जल्दी पड़ना चाहिए। हरेक का अपना टेस्ट है, अपनी क्षमताएं हैं, कहानी लेखन अलग किस्म के शिल्प की मांग करता है, व्यंग्य लेख का शिल्प अलग है। जिससे जो सध जाये, साध ले।
सवाल 18-व्यंग्य लेखन में आम तौर पर व्यंग्य की स्थिति पर चिंता व्यक्त करने वाले लोग नये-नये बयान जारी करते रहते हैं। सपाटबयानी सम्प्रदाय, गालीगलौज सम्प्रदाय, कूड़ा लेखन आदि। इस स्थिति को आप किस तरह देखते हैं।
जवाब-देखिये, रचनात्मक लेखन के मूल्यांकन की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया है। जो आपको कूड़ा दिखाये दे, उसमें दूसरे को नगीने दिखायी पड़ सकते हैं। मोटे तौर पर यह मानना चाहिए कि समय और पाठक-यह फैसला करते हैं कि रचना है क्या। हरेक को अपनी रचना को महानतम मानने का हक है, बस यह हक नहीं है कि वह औरों से भी इसे मनवाने पर तुल जाये। रचना का मूल्यांकन फीता लेकर, तराजू लेकर नहीं हो सकता। मेरा मानना है कि लेखक को क्रियेटिव फ्रीडम होनी चाहिए कि वह क्या करे, फिर पाठक को भी फ्रीडम है कि वह क्या करे-पढ़े या ना पढ़े। दोनों की स्वतंत्रताओं का हनन नहीं होना चाहिए। मोटे तौर पर असरदार लेखन अपने पाठक देर-सबेर तलाश लेता है और पाठकों के बड़े हिस्से का प्यार भी हासिल कर लेता है। अब जैसे आप ज्ञान चतुर्वेदीजी को देखें। कमोबेश सहमति है कि उनका लेखन इस समय हिंदी व्यंग्य में प्रतिमान है। मैं व्यक्तिगत तौर पर 1991 के बाद के वक्त के व्यंग्य-समय को ज्ञान चतुर्वैदी युग मानता हूं। ज्ञानजी गोष्ठीबाज, पुरस्कारबाज, चुबेरनगर संयोजक-सम्मानित व्यंग्यकार नहीं हैं, पर दिल्ली से बहुत दूर रहकर, हिंदी व्यंग्य को जितना उन्होने प्रभावित किया है, उतना किसी भी समकालीन ने नहीं, तो यह काम की ताकत है ना, कमोबेश एक सर्वानुमति उभरती है ज्ञानजी को लेकर। तो पाठकों का प्यार और समय की छलनी, ये दो महत्वपूर्ण मसले हैं। समय की छलनी के पार कौन सा लेखन जाता है, सिर्फ गाली-गलौज के कारण कोई रचना बड़ी नहीं हो जाती। हम गौर से देखें, विश्व साहित्य में भी, जो गाली-गलौचयुक्त रचनाएं हैं, या अश्लील मानेजानेवाले संवादों से युक्त रचनाएं हैं, क्या सिर्फ गाली-गलौच के कारण बड़ी रचनाएं हैं, नहीं। गालिब अपने वक्त में सुपर फ्लाप शायर थे, अब गालिब की मौत के करीब 150 सालों बाद गालिब उन शायरों से बहुत आगे हैं, जो उनके जमाने में बहुत कामयाब माने जाते थे। तो मेरा मानना है कि आप काम करें, बाकी पाठकों और समय पर छोड़ दें।
सवाल 19- आप आम तौर पर व्यंग्य लेखन के विवादों से दूर रहते हैं। तटस्थ टाइप। दिनकर जी ने लिखा है ’जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध’। तो भविष्य में अपराधी ठहराये जाने से डर नहीं लगता ?
जवाब-जी विवादप्रियता में रस नहीं आता। देखिये समय बहुत कम है करने के लिए बहुत रचनात्मक काम हैं, बात प्राथमिकताओं की है। इतना तो है पढ़ने के लिए, इतना तो है करने के लिए। अभी फोटोग्राफी में रुचि पैदा हुई है,लगता है कि इसे सीखने में एक जन्म निकल जायेगा। तटस्थ मूलत फर्जी शब्द है, हरेक के तट अलग हैं, हरेक की गति अलग है। तटस्थ कोई हो नहीं सकता, हरेक की रचनाएं साफ करती हैं कि वह कहां है। कोई सिर्फ विवाद में ही रस लेता है। कोई थोड़ा रस लेता है। मेरी रुचि विवाद से ज्यादा रचनात्मक प्रक्रियाओं में है। हर रचनाकार से कुछ सीखने के लिए है, हर रचनाकार के पास कुछ है, जो खास है, मेरी दिलचस्पी इस में है। हर रचनाकार में उसकी खासियत, उसकी खूबी देखना चाहता हूं, सीखना चाहता हूं। सिर्फ व्यंग्य में नहीं, कथा में, उपन्यास में, पेंटिंग में, फोटोग्राफी में, मूर्तिकला में, संगीत में, सब तरफ से। मेरी इच्छा है कि एक ऐसा काम हो, जिसमें हर रचनाकार के लिखे में जो मुझे असरदार लगा, उसका एक कोश बनाऊं। समय-साध्य काम है, पता नहीं इस जन्म में कर पाऊंगा या नहीं।
सवाल 20-रागदरबारी और खोयापानी की तुलना करने को आपसे कहा जाये तो आप क्या कहेंगे?
जवाब-दोनों अलग रेंज के रचनाकारों का काम है। राग दरबारी के श्रीलाल शुक्ल गहरे पालिटिकल हैं, खोयापानी के मुश्ताक साहब मूलत पालिटिकल नहीं हैं। रागदरबारी में कथात्मकता का प्रवाह है, मुश्ताक साहब कथात्मकता के नहीं रोचक किस्सों के खिलाड़ी हैं। कथात्मकता का तकाजा है कि वह कहीं पहुंचाये आपको, किस्सों पे यह फर्ज नहीं है कि वो कहीं पहुंचायें, रोचक सी बात थी, बता दी, खेल खत्म पैसा हजम। खोया पानी समेत मुश्ताक साहब का लगभग सारा काम किस्सागोई है। पर राग दरबारी हमें कहीं पहुंचाता है, भले ही नैराश्य के एक भाव तक। मुश्ताक साहब के किस्सों के अंत अलग तरह से होते हैं, आम तौर पर सुखांत होते हैं। पर इसका मतलब यह नहीं कि मुश्ताक साहब श्रीलाल शुक्ल से छोटे रचनाकार हैं। मुश्ताक साहब दर्शन के गहरे व्याख्याता हैं व्यंग्य की भाषा में, यह कमाल है। व्यंग्य में दर्शन समझाना लगभग असंभव काम है। मुश्ताक साहब इस काम को बहुत ही असरदार तरीके से करते हैं। मौत के जैसे खिलंदड़े मंजर आपको मुश्ताक साहब के यहां मिलते हैं, वो अनूठे हैं। दर्शन खालिस दर्शन है वह। तो मोटा-मोटा यह समझ सकते हैं कि श्रीलाल शुक्लजी मूलत पालिटिकल हैं, मुश्ताक साहब मूलत किस्सेबाज दार्शनिक हैं। दोनों ही महान हैं, बेशक।
सवाल 21-परसाई जी के लेखन में विसंगति का वर्णन करने के साथ कहीं न कहीं बदलाव का भी आह्वान दिखता था। आज के समय के व्यंग्य लेखन में विसंगति वर्णन तक ही रह गया है मामला। इस बारे में क्या कहना है आपका?
जवाब-परसाईजी की राजनीति का फ्रेम एकदम साफ है, विसंगति यह है, बदलाव ऐसे हो, ऐसे आह्वान वहां साफ दिखायी पड़ जाते हैं। पर मसला यह है कि परसाईजी के जीवनकाल में ही उस राजनीति की सफलता-विफलता को लेकर डिबेट शुरु हो गयी थी। पूरे विश्व में उस राजनीति की विफलताओं की लंबी डिबेट चली। पर विचारधारा का अपना महत्व होता है। परसाईजी के लिए आसान था कि विसंगति को चिन्हित करके उस विचारधारा से संपुष्ट बदलाव का आह्वान कर सकें। अब मामला बहुत कनफ्यूजन का है। आप देखें नब्बे के दशक तक, सोवियत संघ के विघटन से पहले चीजें एकदम साफ थीं, आप इस तरफ हैं या उस तरफ हैं। पर अब मामला बहुत कनफ्यूजन का है, इसमें समस्या है, पर इसके विकल्प के तौर पर जो हल बताये जा रहे हैं, उसमें भी कम समस्याएं नहीं हैं। तो अब विसंगतियां दिखायी पड़ती हैं, पर उनके सुधार के लिए संभावित हल को लेकर भी एकदम पक्के तौर पर आश्वस्ति का भाव नहीं है। आप जितना समझेंगे, जितना पढ़ेंगे, जितना जानेंगे उतना संदेह गहरा होता जाता है कि यह प्रस्तावित हल काम करेगा भी कि नहीं। तो व्यंग्य लेखक अब विसंगतियों का वर्णन कर ले, यह भी कम नहीं है।
सवाल 22- व्यंग्य का विपुल लेखन करने वालों की किताबें आते-आते लेखक बुढा जाता है। किताब छपती भी है तो अधिकतर प्रकाशक पैसा लेकर छापते हैं। उनका लेखन लोगों तक पहुंच नहीं पाता। इस स्थिति को कैसे देखते हैं आप?
जवाब-यह पुराना सवाल है। लेखन लोगों तक पहुंचे, इसके लिए अब तो फेसबुक भी है, ट्विटर भी है। प्रकाशक की अपनी समस्याएं हैं। अब तो खुद भी प्रकाशक बनना मुश्किल नहीं है। थोड़ा तकनीकी ज्ञान हो, तो लोगों तक अपनी बात पहुंचाना मुश्किल नहीं है। अब लेखक को तकनीकी तौर पर खुद सक्षम होकर अपनी बात सीधे तौर पर पाठकों तक पहुंचानी चाहिए।
आलोक पुराणिक से बातचीत कैसी लगी ? अपनी राय बताइयेगा। कोई प्रश्न आलोक पुराणिक से पूछना हो तो टिप्पणी बक्सा प्रयोग करिये। 
आलोक पुराणिक का पुराना इंटरव्यू यहां बांच सकते हैं 
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