Friday, February 17, 2017

आपका( आलोक पुराणिक) लेखन हमें निरन्तर आशान्वित करता हैं- ज्ञान चतुर्वेदी


[13 फ़रवरी को नई दिल्ली के हिन्दी भवन सभागार में Alok Puranik जी को वर्ष -2017 के पंडित गोपालव्यास जी स्मृति में दिये जाने वाले ’व्यंग्य श्री’ सम्मान से सम्मानित किया गया। इस मौके पर हिन्दी के शीर्ष व्यंग्यकार Gyan Chaturvedi जी ने आलोक पुराणिक के बारे में और समसामयिक हिन्दी व्यंग्य पर अपनी बात कही। यह बातचीत संतोष त्रिवेदीके सहयोग से यहां पेश कर रहे हैं। कार्यक्रम की रिपोर्ट भी आयेगी जल्दी ही]
......इसी चक्कर में हम जैसे लोगों को मुख्य अतिथि बना दिया जाता है। वर्ना अच्छे लेखकों को कौन पूछता है आजकल? गये जमाने। देखिये गोविन्द जी मैं आपसे कहूंगा कि यह पुरस्कार आपके हाथ एक ऐसा चमत्कारी डंडा है जिसके सहारे आप चाहें तो इस डंडे में अपना झंडा लगाकर पूरे देश में आप व्यंग्यकारों का एक अश्वमेघ यज्ञ कर सकते हैं। छोटे-छोटे पुरस्कार देकर, छोटी-छोटी मैगजीन में अपना उल्लेखकरके , किताब की समीक्षा करके बहुत सारे मठाधीश कोशिश करते रहते हैं। पता नहीं आपने मठाधीशी क्यों नहीं सीखी? यह आपके खून की खराबी है। क्या करें ? आप अभी भी ऐसे ना शुकरे संतान हैं अपने पिता की। शायद गोपाल प्रसाद व्यास जी की आत्मा को आप आज भी अपने आसपास महसूस करते हैं कि आपकी हिम्मत नहीं पड़ती कि आज के दौर के हिसाब से कुछ चीजें बदलने की कोशिश करें। एक महापुरुष की सन्तान होना एक बहुत बड़ी चुनौती है। बहुत कठिनाई है। बहुत परेशानियां पड़ती हैं। आप गान्धीजी की सन्तान से लेकर अमिताभ बच्चन तक देख लीजिये। बहुत कठिनाइयां होती हैं। आपने कैसे निभाया? इसीलिये आपने इतने सालों तक (तीस साल से चल रहा है) इस सम्मान की साख को आजतक बचाकर रखा है। यह बहुत चमत्कारी बात है। बहुत अभिनन्दनीय बात है। मैं आपको बधाई देता हूं।
मैं आलोक के लेखन के बारे में नहीं कहना चाहता था। सुभाष जी ने मेरी बहुत सारी बातें कह दी हैं। मैं मात्र यह कहना चाहूंगा कि इस पुरस्कार का प्रस्तावक और एक निर्णायक मैं भी था। तो कुछ तो बात होगी आपके लेखन में। बल्कि आपको(आलोक को) याद हो तो मैंने आपका डेट ऑफ़ बर्थ भी पूछा था। क्योंकि एक आब्जेक्शन यह भी था कि बड़ा यंग है। फ़ार्चुनेटली अभी इसने पचास साल क्रास ही किया था। हमारे यहां भोपाल में एक पुरस्कार है जो साठ साल के बाद दिया जाता है। जब आप साठ साल के हो जायें तो पुरस्कार दिया जाता है। ’अक्षर आदित्य’ सम्मान ऐसा कुछ। जब मुझसे कुछ बोलने को कहा गया तो मैंने कहा था- देखिये मेरे ऊपर दोहरी जिम्मेदारी है कि मैं अच्छा भी लिखूं और कहीं साठ से पहले मर न जाऊं। नहीं तो ’अक्षर आदित्य’ चूक जायेगा। क्योंकि वहां पर आदमी अपना एक्सरसाइज करे, खान-पान का ख्याल रखे। लिखने-विखने का भी चलता रहे। पर अगर आप साठ के के पहले चले गये तो अक्षर अमूल्य लेखन तो चूक जायेगा। पर हमारे यहां बहुत सारी चीजें हैं। जैसा सुभाष ने कहा - ’हम तो समझते थे कि आप उम्र में इनसे छोटे-बड़े हैं पर आपने इनके (अशोक चक्रधर जी के) पैर छू लिये।’ उम्र भी है एक क्राइटेरिया पैर छूने का। पर मेरी नजर में पैर छूने के बहुत सारे और क्राइटेरिया हैं। जिनमें आप जिसका सम्मान करते हैं वह भी और जुगाड़ में पैर तो छुये ही जाते हैं। अब आप तय करिये कि हमने किस चक्कर में पैर छुये होंगे। जुगाड़ की गुंजाइश बची नहीं जिन्दगी में बहुत। तो अशोक चक्रधर का कोई पैर छुये तो इसमें आश्चर्य तो नहीं होना चाहिये किसी को और न ही इसमें कोई जुगाड़ ढूंढना चाहिये। मुझे नहीं लगता कि अशोक चक्रधर कुछ दिलवा देंगे मेरे को। जो दिलवाना था वो दिलवा चुके। कभी आपने मुझे दिलवाया था दिल्ली अकाड़मी का सम्मान। और उसकी याद में कोई नहीं पैर छूता। अगर आप सोच रहे कि उसकी याद में हम आज पैर छू रहे तो यह गलत है। आपके लिये सम्मान है इसलिये पैर छुये।
मैं आलोक को बहुत स्नेह और आदर और सम्मान के साथ याद करता हूं हमेशा। मुलाकात शायद मेरी एक या दो बार हुई है। एकाध बार उसी मंच से मैंने रचना पाठ किया है जिससे आलोक ने किया है। आज भी शायद दूसरा ऐसा दूसरा अवसर आयेगा क्योंकि मुझसे कहा गया है रचना पाठ के लिये। इसलिये कि एक खर्च में दो काम क्यों नहीं करवा लेते। तो ज्ञान से एक रचना भी पढ़वा ली जाये तो कैसा रहेगा। देखिये क्या है कि आपसे मैं प्यार इसलिये करता हूं ,सम्मान इसलिये करता हूं कि हिन्दी व्यंग्य में अगर कोई भी, कुछ भी अच्छा कर रहा हो तो मेरा दिल जुड़ा जाता है। एक शब्द है दिल जुड़ा जाना। मजा आ जाता है। दिल भर जाता है। यह आदमी है। कौन है उसको ढूंढना, उससे मिलना , उसके बारे में जानना यह आपका कर्तव्य है। क्योंकि हिन्दी व्यंग्य में ढूंढे नहीं मिलते न लोग। जिसको पढकर आपका दिल जुड़ा जाये। ऐसा एक लेखक आलोक हैं। और आपका लेखन हमें निरन्तर आशान्वित करता है। आपके पास भाषा जो है जिस प्रयोग धर्मिता की बात करते हैं जो लोक भाषा होती है तो एक लोक हमारे शहर का भी है। एक लोक हमारे युवाओं का भी है। जैसे आपका लेख ’पापा रिस्टार्ट नहीं हुये’। इसमें गांवों की एक लोकभाषा है। रेणु जिस तरह से प्रयोग कर रहे थे अपनी रचनाओं में लोकभाषा का यह आज के लोक की भाषा का आलोक जो इस्तेमाल कर रहे हैं यह कहीं से उससे कमतर काम नहीं है। मैं यह कहना चाहता हूं। बहुत बड़ा काम है। उस भाषा को पकड़कर और उस भाषा सही जगह को सही तौर पर इस्तेमाल करना खाला का घर नहीं है। बहुत कठिन चीज है। इतनी आसानी से होता नहीं।
देखिये आप लाख हंसी कर लें, लाख बातें कर लें व्यंग्य के सौंदर्य शास्त्र की जो समझ आपकी है उसको बरतने का जो सलीका आपमें है वह मुझे बहुत भरोसा देता है। आप कुछ न कुछ नया करने की , देखिये जब आप कुछ नया करेंगे तो आपको फ़िसलने का खतरा रहता है हो सकता है आपसे कुछ गलत भी हो जाये। हो सकता है जैसा सोचा था वैसा न हो पाये। ऐसा भी होता है, ऐसा हुआ भी है, जैसा सोचा था वैसा नहीं हुआ पर उससे फ़रक नहीं पड़ता आप जो कोशिशें करते हैं जैसे आपने अभी फ़ोटो व्यंग्य की बात की उसमें व्यंग्य कैसे ढूंढेंगे (आलोक मे मुझे भेजा भी था एक बीबीसी से प्रसारित हुआ था) जैसे अब इसके हाथ में कैमरा आ गया। कैमरा भी एक बहुत बड़ा इन्स्ट्रूमेन्ट है। एक बेहद क्रियेटिव कला आपके हाथ में अगर आपके अन्दर उस तरह के विजन हैं जिससे आप व्यंग्य तलाश सक्ते हैं तो एक बहुत बड़ी नयी चीज कर रहे हैं सबसे बड़ी बात इसीलिये मैं आपका सम्मान करता हूं कि आप लकीर के फ़कीर नहीं हैं चाहे उस फ़कीरी की मजार का कितना भी बड़ा हो पर आप उस लकीर के फ़कीर बनने की कोशिश भी नहीं करते। नित्य खुद से बाहर निकलने की जो कोशिश है आप डेली कॉलम लिखते हैं उसमें रोज अपने आप को अतिक्रमण करके बाहर जाना बहुत कठिन काम है। बहुत बड़ी चुनौती है। यह तब होता है जब व्यंग्य में ही जीने लगते हैं। लगातार व्यंग्य में जीना (इतनी तारीफ़ कर दी गला सूख गया।) आपने और इसको आपको बहुत सीरियसली लेना पड़ेगा और आपको व्यंग्य का पुरस्कार जब व्यंग्य श्री दे रहे हैं तो इसके पीछे हमारी यह भावना भी है और यह हिन्दी भवन की भावना है कि आपमें एक बड़े लेखक बनने के सारे गुण हैं। गुण हैं। पोटेन्शियल है। आप बन नहीं गये हैं। आपमें एक बड़े लेखक बनने के सारे गुण हैं। और यह बहुत बड़ी बात है कि इस हिन्दी भवन ने आपके इस गुण को पहचानकर आपको पुन: याद दिलाया है कि आप उन गुणों का न तो दुरुपयोग करना और न उन गुणों को भूल जाना। यह बहुत महत्वपूर्ण है ।
हम आपको हनुमान जी की तरह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि आप यह समुद्र लांघ सकते हैं। आपकी शक्ति का एहसास दिलाने के लिये यह पुरस्कार आपको दिया जा रहा है कि आप समझें कि आपमें क्या है और क्या आपमें अनयूज्ड पड़ा है जिसका अपने अभी इस्तेमाल ही नहीं किया। तो हम तो इस पुरस्कार के साथ जो आपको लाख टके का जो चेक मिला है उसके साथ एक लाख टके की एडवाइस मेरी है मेरा कहना आपसे यह है अब आपको एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी आपको यह भवन आपको सौंप रहा है। आप भूल जायें हम तभी सन्तुष्ट होंगे( हो सकता है जब तक आप बड़े लेखक बनें तब तक हम मर मरा जायें) लेकिन हम वहां से संतुष्ट होंगे देखकर आपको कि आपने वो किया जो इस हिन्दी भवन ने आपमें देखा था। वहां तक आप पहुंचे। देखिये शिखर पर जाने का रास्ता बेहद कठिन है। याद रखिये। एक पठार चलता है। फ़िर थोड़ी चढाई आती है फ़िर अचानक बहुत बड़ी चढाई आ जाती है। या तो आप यहीं रुक जाइये यहीं पर एक तम्बू गाड़ लीजिये और यहीं पर रहकर आप काम करते रहिये। जितने आप शिखर की तरफ़ जाते हैं अकेलापन बढता है। आप अकेले होते हैं शिखर पर। हवायें बड़ी तेज चलती हैं। पैर टिकते नहीं। आंधियां होती हैं शिखर पर। उनके बीच टिके रहकर अपने शिखर की तरफ़ जाते रहना बस वह मैंने आपमें देखा इसलिये आपका मैंने नाम प्रस्तावित किया। मुझे लगा था कि आप यह काम कर सकते हैं। अभी जो लोग लिख रहे हैं उनके बीच में आप सबसे बेहतर हैं। मैं अपने दिल की बात कह रहा हूं। तो मैं यह चाहूंगा कि आप शिखर पर जाने की यात्रा की तैयारी करें। आप कर सकते हैं। बहुत सारे काम कर सकते हैं।
बाजार की आपने जहां तक बात की मैं निवेदन करूंगा बल्कि निवेदन क्या करूंगा बाजार का जमाना है तो मैं भी अपनी थोड़ी मार्केटिंग कर लूं अपने नये उपन्यास की। मैं अपना नया उपन्यास बाजार पर ही लिख रहा हूं। वह बाजारवाद के खिलाफ़ है और इसी बात के खिलाफ़ है कि जब जीवन की हर शै बाजार तय करने लगता है। जब आप मोहब्बत कैसे करेंगे। मोहब्बत को प्रकट कैसे करेंगे और सैंया जी से ब्रेक अप हो गया उसको कैसे सेलिब्रेट करेंगे यहां तक जायेंगे तो सबंधों में, सबमें, फ़ादर्स डे, मदर्स डे से लेकर सबमें बाजार आ गया तो यह बाजारवाद है। बाजार की आवश्यकता सब को है। किसको नहीं है बाजार की आवश्यकता, सबको है। पर जब बाजार आप पर इस कदर हावी हो जाये कि आपकी हर सोच को अब बाजार ही तय करेगा उस पर हमने एक उपन्यास करना शुरु किया। पागलखाना। एक विराट पागलखाना। जिसमें यह चल रहा है। हम भी पीछे-पीछे आपके हैं। बाजार पर हम भी कोई बड़ा काम कर रहे हैं। कोशिश कर रहे हैं यह मैं कहना चाहता था।
एक और यहां बैठे हुये थे मित्र वे सोच रहे होंगे कि मौका मिलेगा तो मैं हिन्दी व्यंग्य के वर्तमान परिदृश्य पर अपनी चिन्ता कहीं प्रकट न कर डालूं। क्योंकि आजकल आप कहीं कोई चिन्ता प्रकट करते हैं तो लगता है हमारे बारे में ही कह रहे हैं। हमारे एक प्रोफ़ेसर थे वो बहुत खराब पढाते थे और कहीं कोई हंसे कहीं चार लड़के खड़े होकर हंस रहे हैं तो बुलाकर पकड़कर डांटते थे कि साले मुझपे क्यों हंस रहे हो? क्योंकि उनको था, उनको था यह कि जब मैं यहां हूं तो साला कोई किसी और पर हंस कैसे सकता है? तो जब आप यूं ही बात भी करते हो तो कुछ हिन्दी के व्यंग्य लेखक तड़प जाते हैं कि शायद उसके बारे में बात की जा रही है। हमारे बारे में बात की जा रही है।
तो यह मत सोचिये। आज मैं व्यंग्य पर कुछ भी अपनी चिंता व्यक्त नहीं करूंगा। पर बात तो जरूर है कि अगर आप व्यंग्यकार हैं तो आप में सच बोलने की कुटेव तो होगी। आप ठकुर सुहाती नहीं कर सकते। आप चेहरा देखकर बातें नहीं कर सकते। अगर आप अच्छे हैं तो अच्छे हैं अगर आप खराब हैं तो मुझसे अच्छे कहते नहीं बनेगा। यह पक्का है। अगर कोई स्थिति गड़बड़ है तो मैं बोलूंगा। अभी किसी ने बीच में आवाज दी जब इन्होंने कहा कि ज्ञान चतुर्वेदी खुद कभी विवादों में नहीं पड़ते तो किसी ने कहा -ज्ञान चतुर्वेदी सुपारी देते हैं। किसी न कहा था। तो ज्ञान चतुर्वेदी के लिये बहुत सारे लोग सुपारी ले सकते हैं। ज्ञान चतुर्वदी क्या सुपारी देंगे किसी के लिये? इतना क्या है हमारे पास जो हम आपको दे देंगे। कि मेरे से सुपारी लेकर कोई महान बन जायेगा। तो ऐसा मत समझिये।
मैं क्रियेटिविटी पर जरूर बात करना चाहूंगा कि हम लगातार क्रियेटिव कैसे हों। रचना पाठ तो होते रहते हैं। यह बात जरूरी है जो मुझे लगता है कही जानी चाहिये। आपको लगातार क्रियेटिव क्या चीज बनाती है। दो ही चीज आपको लगातार क्रियेटिव बनाती हैं यह है मेरे अन्दर है। बिल्कुल है। मैं मानूंगा और मैंने कई बार कहा है और मेरे मित्र शुक्ल जी (अनूप शुक्ल) यहां बैठे हैं उन्होंने कहा था कि आप बयानों की कदमताल क्यों करते हो। तो यह बयानों की कदमताल भी मान पर यह महत्वपूर्ण है। कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं। कुछ चिन्तायें जैसे बेटे के बारे में है, घर के बारे में है, आपकी चिन्तायें बार-बार आती हैं। उनको आप कहें कि चिन्ताओं को बार-बार रिपीट करके कुछ कदमताल कर रहे हैं तो यह गलत है। क्योंकि यह बात तो आयेगी जब आयेगी। क्रियेटिविटी में मेरे को सबसे बड़ी शर्त यह लगती है कि मैंने आज लिखा तो मैं कल उसको जरूर भूल जाता हूं। मेरी आजतक किसी किताब का विमोचन नहीं हुआ। मैंने किसी किताब की कोई समीक्षा नहीं लिखवाई। कोई आज कह दे कि मैंने कभी किसी से कहा हो कि मेरी किताब की समीक्षा छाप दीजिये। मैं भूल ही जाता हूं। आप उसे भूलते जाइये जो करते हैं तभी तो नई जगह बनेगी। कचरा तो हटाइये। यह सोचकर दिमाग के अन्दर से पुरानी सब रचनायें निकाल दी। तब आप निरन्तर कुछ नया करने की स्थिति में होंगे। न तो आप आत्ममोह में हैं कि मैंने क्या -क्या कर दिया। न ही पुरानी चीजों की छाया रहती है। वर्ना आप वहां से निकलकर यहां (अब जो लिखने की कोशिश कर रहे हैं बाजारवाद पर) बाजारवाद तक न पहुंचते। एक ग्राहक बैठा हुआ है।
आप क्यों नहीं बारामासी रिपीट करते। क्यों हम न मरब को रिपीट करते। आपका परिवेश है, आपके पास चरित्र हैं। बनाइये एक और रचना, एक और रचना, एक और रचना। पर ऐसा नहीं होता। आपको निरन्तरता कायम रखना है तो जीवन से निरन्तरता सीखना है। उसको आप अपने व्यंग्य लेखन में लायें। मैं सोचता हूं कि यही एकमात्र सिद्धांत है। यह कभी मत सोंचे कि आपने बहुत सारा कर डाला।
बातें तो बहुत सारी हैं पर मैं इस बार यह सोचकर आया था कि आखिरी बार मैं कह रहा हूं कि बाजार की समझ नहीं है लोगों को जो लोग बाजार पर लिख रहे हैं। व्यंग्य लिख रहे हैं। आपका इंटरव्यू पढ रहा था मैं आज। बहुत मह्त्वपूर्ण है कि जो लोग लिख रहे हैं उनको अपने इतिहास का बोध हो, अपने सामाजिक परिवेश का ज्ञान हो, समाज की समझ हो, मुझे बाजार की समझ हो मुझे इकोनामिक्स की समझ हो, मुझे विचार धारायें पता हो, मुझे दर्शन शास्त्र की जानकारी हो। दूसरी विधाओं में क्या हो रहा है, कविता में क्या हो रहा है, कहानी में क्या हो रहा है यह मुझे मुझे फ़िर अपनी विधा की संभावनाओं का अन्दाजा हो तभी जाकर आप एक अच्छा व्यंग्यकार बन सकते हैं। तब जब आपकी क्रियेटिविटी वहां पहुंचती है जिसकी आप बात कर रहे हैं। केवल व्यंग्य व्यंग्य और व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता। पूरे समाज को देखकर समझने की दृष्टि होनी चाहिये। फ़िर आप लिखें उसमें इन सारी चीजों का मिश्रण होना चाहिये।
[इसके बाद ज्ञानजी ने अपनी व्यंग्य रचना जंगल का शेर बनाम सर्कस का शेर का का पाठ किया]
संबंधित लिंक: 1. राज्यसभा टीवी पर शख्सियत कार्यक्रम में ज्ञानजी के बारे में कार्यक्रम की कड़ी https://www.youtube.com/watch…
इसमें Subhash ChanderSushil Siddharth और ज्ञानजी से जुड़े लोगों के उनके बारे में विचार हैं। ज्ञानजी की जीवन, साहित्य और अन्य पहलुओं पर राय।
2. https://www.facebook.com/sushilsiddharth/posts/1253065881427940 ( Sushil Siddharth जी की ज्ञान जी के बारे में लिखी पोस्ट पर अनूप शुक्ल की कदमताल वाली टीप)
3. आलोक पुराणिक का इंटरव्यू जिसका जिक्र ज्ञान जी ने कियाhttps://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210543919247685
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10210583105987329

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