Sunday, July 21, 2019

लेह-लद्दाख वाया लखनऊ-दिल्ली


लेह-लद्दाख घूमे पिछले हफ्ते। कानपुर से लखनऊ, दिल्ली होते हुए लेह पहुंचे। लेह का मौसम बहुत हाहाकारी बताया था हमारे दोस्तों ने जो पिछले महीने यहाँ से घूमकर गये थे। सर्दी इतनी कड़क बताई थी कि हम तमाम स्वेटर और ठंड वाले कपड़े लादकर लाये थे। लेकिन जब लेह पहुंचे तो मौसम एकदम आशिकाना सा था। बड़ी गर्मजोशी से खिली धूप ने स्वागत किया। सर्दी कहीं दाएं-बाएं हो गई थी। शायद उसको भी हमारी और सूरज भाई की दोस्ती का अंदाज लग गया था।



लेह लखनऊ दिल्ली होते हुए आये। लखनऊ एयरपोर्ट पर चाय की दुकान पर चाय लेने गए। साथ में चिप्स भी। छोटा पैकेट लिये तो सेल्सबच्ची ने मजे लिए -'पैसे बचा कर क्या करेंगे।' बिना उसकी बातों के झांसे में आये उससे बतियाये। पता चला कि मुंबई से आई है नौकरी करने। घर आजमगढ़ है। सुबह छह बजे से ड्यूटी। खुद चाय पी कि नहीं पूछने पर बोली -'पहले पेट पूजा, बाद काम दूजा।'
जहाज में चढ़ने पर पता चला कि इकोनामी वाला टिकट अपग्रेड होकर चौड़ी सीट वाला हो गया। पचास मिनट के मुफ्तिया अपग्रेडेशन का खराब असर यह हुआ कि हम हर बार बोर्ड करते हुए सोचते कि यहां भी वीआईपी सीट हो जाये।
दिल्ली से लेह जाते हुए खूबसूरती खिलने लगी। बादल, पहाड़, धूप, बर्फ की चमकदार जुगलबंदियाँ दिखने लगीं। हर जुगलबंदी पहले से अलग और अपने में अनूठी। लेह में उतरे तो मौसम खिला-खिला और खुला-खुला दिखा।
लेह में एक दिन मौसम से तालमेल बिठाया गया। ऊँचाई पर लगभग जरूरी सी दवाई डायमोक्स लेना शुरू किया। जब तक पहाड़ पर रहे लेते रहे।
हालांकि लेह में पहला दिन आराम का ही रहता है लेकिन दोस्ताना मौसम देखकर शाम को बाहर निकले। बाजार चकाचक सजा था लेकिन कोई हड़बड़ी नहीं थी किसी को। फुटपाथ के अधिकतर दुकानदार या तो बगल के दुकानदारों से बतिया रहे थे या मोबाइल में व्यस्त थे। फुटपाथ में कतार से सब्जी बेचती महिलाएं या तो स्वेटर बुन रहीं थी या फिर मोबाइलिया रहीं थीं।
बाजार की बीच की बड़ी फुटपाथ पर बनी बेंचो पर बैठे हुए तमाम बुजुर्ग समय को आहिस्ते, बुजुर्गियत और तसल्ली से बीतते देख रहे थे। कई लोग इन बेंचों के आसपास अलग-अलग पोज में फोटो खिंचा रहे थे। एक लड़का साइकिल को चलाते हुए झटके से उठाकर फुटपाथ पर चढ़ाने का स्टंट टाइप कर रहा था।
बाजार में पर्यटकों के अलावा तमाम ऐसे भी लोग थे जो यहां काम खोजने आये थे। इनमें से अधिकतर लोग बिहार, झारखण्ड के मिले।

तिब्बत रिफ्यूजी बाजार में भी ज्यादातर दुकानदार तसल्ली से बैठे थे। ग्राहकों पर झपटने, उन पर कब्जा करने और सामान टिका देने की नीयत नहीं दिखी।
तिब्बती बाजार के बाहर सड़क पर एक बच्ची चलते हुए अपने टैब पर कुछ पढ़ती हुई दिखी। वहीं बाहर चाय की दुकान पर लोग अलग-अलग तरह की चाय पीते दिखे। और भी अलग-अलग तरह के चित्र जो अब यादों में गड्ड-मड्ड हो गए हैं।






लेह लद्दाख के दिन 'नेट विपश्यना' के दिन रहे। किसी भी कम्पनी के प्रीपेड पर फोन बंद। बीएसएनएल के अलावा पोस्ट पेड केवल लेह में चला। बाकी सब जगह केवल बीएसएनएल के पोस्ट पेड फोन ही चले। अच्छा ही हुआ, वरना हम प्रकृति सुषमा निहारने की बजाय नेटबाजी ही करते रहते।


अब जब वापस लौट आये हैं तो पुराने किस्से सारे गड्डमड्ड हो गए । किसको सुनायें , किसको छोड़ दें तय करना मुश्किल। दूसरी तरफ झउआ भर फोटुएं हल्ला मचाये हैं कि हमको दिखाओ, हमारे बारे में बताओ, हमको मंच दो। रास्ते के कई खूबसूरत वीडियो भी हैं। उनको जितनी बार देखते हैं , फिर देखने का मन करता है। कोशिश करेंगे कि उनमें से कुछ आपको भी दिखा सकें।





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