Saturday, July 06, 2019

सपने में साहित्य

 सबेरे उठे तो देखा पानी बरस रहा था। बहुत धीमे-धीमे। गोया कोई बुजुर्ग (मल्लब अकल बुजुर्ग) लेखक समसामयिक साहित्य की दशा पर टसुये बहा रहा हो। बुजुर्गवार को बड़ा ख़राब टाइप फील हो रहा है कि साहित्य का स्तर दिन पर दिन गिरता जा रहा है। दर्द गिरने का, पतन का उत्ता नहीं है जित्ता इस बात का कि सारा पतन उससे बिना पूछे हुआ जा रहा है। मल्लब उनको मार्गदर्शक साहित्यकार बना दिया गया हो। साजिशन।

बीच में पानी तेज हुआ। लगा बुजुर्ग हड़काने लगे हों। लेकिन जल्दी ही हांफकर फिर टसुये मोड में आ गये। पानी सहज गति से गिरने लगा।

ऊपर वाली पतन कथा में करेला में नीम इस बात पर कि पतन में भी सामूहिकता की भावना गायब होती देखकर बुजुर्ग का मन खून के आंसू रोने का कर रहा था । वे रोने की तैयारी भी कर चुके थे। बस शुरू ही होने वाले थे कि उनको याद आया कि खून की रिपोर्ट में हीमोग्लोबिन कम निकला था। मन मसोसकर सिर्फ टसुये बहाकर रह गए।

पानी गिर रहा था। तेज गिर रहा था। मानो बादल पानी गिराकर कहीं फूट लेना चाहते हों। जैसे सरकारें विकास करके निकल लेती हैं किसी इलाके से। सड़क खोदकर, तालाब पाटकर, घपले करके, व्यवस्था चौपटकर और जाते-जाते यह 'नियति टॉफ़ी' थमाकर :

होइहै सोई जो राम रचि राखा,
को करि तर्क बढ़ाबहि शाखा।

ऊपर पानी की टोंटी खोले हुए बदली बगल की बदली से बतियाती भी जा रही थी। बता रही थी कि एक बादल कुछ दिन उसके साथ रहा। जब तक पानी बरसाने का आर्डर नहीँ हुआ तब तक उसके आगे-पीछे घूमता रहा। लेकिन जैसे ही पानी बरसाने की ड्यूटी लगाई गयी वो निगोड़ा बादल मुम्बई की तरफ भाग गया। बोला - 'हिरोइन को ही भिगोयेगें।' हमने बहुत समझाया -'अरे पानीभरे हीरोइनें बारिश के पानी से थोड़ी नहाती हैं। उनके लिए अलग से रेन डांस का इंतजाम किया जाता है। यहीं कुली कबाड़ियों के शहर में बरस। खुश रह। नहीँ माना। भाग गया मुंबई। आज फोन आया था। सारा पानी किसी सड़क पर उड़ेलकर खलास हो गया था। हमने कहा - 'सड़क, सीवर पर ही उड़ेलना था पानी तो कानपुर क्या बूरा था।'
सहेली जरा साहित्यिक टाइप थी। बोली -'सही कह रही डियर। कूड़ा ही लिखना है तो क्या अखबार, क्या पत्रिका।' लेकिन तक तक उसकी सहेली बगल के बादल से बतियाने लगी थी। बादल उसके आगे- पीछे होते हुए 'लेडीज फर्स्ट' सोचते हुए चुप रहा। बदली उसकी इस बेवकूफी पर रीझने को हुई कि इस गबद्दु को यह तक पता नहीं कि बातचीत की शुरुआत पहले बादल को करनी होती है। 'लेडीज़ फर्स्ट'गलत सन्दर्भ में ले रहा है पगला।

बदली का एक बार मन किया कि बादल की बेवकूफी बताते हुए वह ही शुरू करे लेकिन फिर मन मार लिया उसने। उसको लगा कि अगर बादल सही में बेवकूफ हुआ तो फिर वह अपनी बेवकूफी कहां खपायेगी। यह सुनते हुए कि जो नायिकाएं बेवकूफी की हरकतें मासूमियत से कर लेती हैं उन पर नायक जल्दी फ़िदा होते हैं, बदली ने बेवकूफी और मासूमियत के मरजावां नमुने (अंग्रेजी में कहें तो डेडली कंबीनेशन) के तौर पर खुद को तैयार किया था। इश्क मोहब्बत में बेवकूफी-बेवकूफी का जोड़ा मिलता नहीं। पिक्चर तक में हीरो-हीरोइन अमीर-गरीब टाइप चलते हैं। दोनों गरीब हों तो इश्क की गाडी जाम में फंस जाती है।

पानी अचानक बहुत तेज हो गया। मानों सीमा पर बमबारी हो गयी हो। या फिर कोई महगाई से पीड़ित कोई वीर रस का कवि माइक पाकर पाकिस्तान को गरियाने लगा हो। रामचरित मानस की चौपाई याद आ गयी:
बूँद अघात सहैं गिरि कैसे
खल के वचन सहैं संत जैसे।

लेकिन अब गिरि मतलब पहाड़ बचे कहां जो बारिश की बूंदे उन पर गिरें। सब पहाड़ तो जमीन से मिला दिए गए। स्टोन माफिया काट ले गए उनको। और अब संत भी ऐसे कहां बचे जो खल के वचन सहन करें। अब तो संत को कोई कुछ बोले तो उनकी भक्तमंडली खल के मुंह में त्रिशूल घुसेड़ कर मुंह चौडा कर दें, कटटा मुंह में डाल के खाली कर दें। इसीलिये तमाम खल अब संतों के यहां ड्यूटी बजाते हैं।
अचानक बादल गरजने लगे और दूसरी चौपाई बिना पूछे सामने आकर इठलाने लगी:
घन घमंड गरजत नभ घोरा
प्रिया हीन डरपत मन मोरा।
लेकिन हमारा डर ये वाला नहीँ है। दूसरा है। थोड़ा क्यूट टाइप है। स्वीट भी। अब आपको क्या बताएं , आप तो सब जानते हैं।

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