Tuesday, September 10, 2019

सन्तोष की सांस

 कल घर से निकलते समय हमने अपनी गाड़ी का मुखड़ा देखा। दफ़्तर से लौटते समय एक आटो अनजान तरीके से मेरी गाड़ी को रगड़ता चला गया था कुछ ऐसे जैसे भीड़ भरी बसों में मर्दाने लोग जनानी सवारियों पर हाथ/बदन साफ़ करते चलते हैं। मेरी गाड़ी सही सलामत थी। मैंने ईश्वर को लाख-लाख शुक्रिया दिया। लेकिन फ़िर याद आया कि शुक्रिया तो खुदा को दिया जाता है। ईश्वर तो धन्यवाद ग्रहण करते हैं। भन्ना न गये हों कहीं धन्यवाद की जगह शुक्रिया देखकर। हमने फ़ौरन ईश्वर को डेढ-डेढ लाख धन्यवाद रवाना किया और अनुरोध किया कि हमारे शुक्रिया वापस कर दें ताकि हम उनको खुदा के हवाले कर दें। लेकिन शुक्रिया वापस आया नहीं। जमा हो गया होगा कहीं गुप्त खाते में ईश्वर के। बहुत गड़बड़झाला है ऊपर वाले के यहां।

जब निकले तो तीन बच्चियां स्कूल जाते दिखीं। कन्धे पर हाथ धरे बतियाती, खिलखिलाती चली जा रही थीं। उत्फ़ुल्ल, उमंग भरी बच्चियों को स्कूल जाते देखकर मन खुश हो गया।
ओएफ़सी फ़ैक्ट्री के बाहर सड़क पर बैठी महिला की बिटिया उसके जुयें बीन रही थी। महिला टांग फ़ैलाये बैठी थी। उसका छुटका बच्चा उसकी पीठ से सटा इधर-उधर ताक रहा था। महिला जिस तरह बैठी थी आराम से उससे लग रहा था कि अपने आंगन में बैठी है । सड़क उसका आंगन ही तो हो गया है।
बगल में तमाम छुटपुट सामान बेचने वाले अलग-अलग कम्पनियों का छाता लगाये धूप से बचते हुये अपना बिक्री-बोहनी में जुटे थे। जिस कम्पनी का छाता था सामान सबका उस कम्पनी से अलग था। उसई तरह जैसे किसी पार्टी द्वारा दिये लैपटाप पर चलने वाले सोसल मीडिया के सहारे विरोधी पार्टी उसको चुनाव में पटक देती है।
आगे एक बुजुर्गवार बीच सड़क को अपना बाथरूम बनाये हर-हर गंगे कर रहे थे। पीछे मंदिर था, उसके पीछे फ़ुटपाथ। मतलब सड़क पर भगवान के भक्त कब्जा किये धर्म का प्रचार करने में जुटे हुये थे। धर्म का धंधे से सहज जुड़ाव धर्म के प्रसार में सुविधाजनक होता है।
ध्यान से देखा तो हर पन्द्रह-बीस कदम पर एक मंदिरनुमा अतिक्रमण सड़क पर दिखा। धार्मिक स्थल आजकल कमाई के स्थाई और कम खर्चे में लगाये जाने वाले धंधे बन गये हैं। क्या पता है कल को फ़लाने क्या करते हैं ? का जबाब लोग देना शुरु करें-" उनका अपना मंदिर है। अंधाधुंध कमाई है। दरोगा खुद वहां पूजा करता है। सोचते हैं हम भी गली के मुहाने पर एक मंदिर डाल लें।"
घर से निकलने में जरा देर हो गयी थी कल इसलिये जरा स्पीड से चल रहे थे। आगे वाली हर गाड़ी को दायें- बायें से ओवरटेक करते हुये निकलते जा रहे थे। कोई पैदल सवारी दिखती तो डर लगता कि कहीं उसको बीच से ओवरटेक करने का मन न हो जाये। यह सवारी का असर भी बहुत बुरा होता है। जितना आदमी उन पर चढता है उससे ज्यादा वे आदमी के सर पर सवार हो जाती हैं।
क्रासिंग भी खुली मिली जबकि हमने इसके लिये रेलवे मिनिस्टर को ट्विट भी नहीं किया था। एक ट्रक आगे इतना धीमे चल रहा था मानो सामने जयमाल के लिये कोई वाहन इंतजार कर रहा हो उसका। उसके बगल में एक खड़खड़ा वाला अपने घोड़े को उचकाता हुआ चला जा रहा। उसी खड़खड़े पर पीछे एक लड़का हाथ में थामे स्मार्टफ़ोन में मुंडी घुसाये चला जा रहा था। दुलकी चाल से जाते घोड़े को हमने हार्नियाया तो भड़ककर पहले थोड़ा बीच में फ़िर ज्यादा किनारे हो गया। हम फ़ुर्र से आगे निकल लिये।
आगे पंकज बाजपेयी जी को देखकर हार्नियाये तो वे निपटान मुद्रा से उठकर खड़े हो गये। खिड़की खोलकर हाथ मिलाया। बोले-" जार्डन वाले लोग आये हैं। बच्चे खा जाते हैं। जयप्रकाश मिश्रा के बेटे को ले गये थे। कोहली के आदमी हैं। झकरकटी पुल के नीचे पकड़े गये हैं। कोई गन्दी चीज दे तो खाना नहीं।"
इसी तरह की बाते करते हैं बाजपेयी जी। एक दूसरे से संबद्ध-असंबद्ध। लेकिन भागते-दौड़ते बस दुआ सलाम ही हो पाती है। कभी तसल्ली से मिलने की प्रयास किया जायेगा। उनसे नमस्ते करते हम जो निकले तो सीधे दिहाड़ीखाने की चौखट पर ही रुके। समय से पांच मिनट पहले पहुंचने पर जो सांस ली उसे लोग संतोष की सांस कहते हैं।
फ़िलहाल इतना ही। शेष अगली पोस्ट में। 🙂
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217570296662729



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