Tuesday, September 03, 2019

भारत के आखिरी गांव तक

 


हुन्डर से अगला पड़ाव था भारत का आखिरी गांव । पहले यह तुरतक था। लेकिन 1971 की लड़ाई के बाद थांग भारत का आखिरी गांव हो गया।
गेस्ट हाउस सुबह निकले। रास्ते में सेना और बॉर्डर रोड आर्गनाइजेशन के कैम्प दिखे। कुछ स्कूल भी। ये स्कूल सेना की मदद से चलाए जाते हैं। कुछ स्कूलों में बच्चे कक्षाओं के बाहर खेल रहे थे। मस्तिया रहे थे।
रास्ते में जगह-जगह पहाड़ से उतरते झरने मिले। हर झरना अपने में अनूठा। मस्तियाता। पानी ठुमकते हुए , इठलाते हुए नीचे उतरता चला जा रहा था। प्रदूषण रहित एकदम सफेद पानी। झरने के पत्थर पानी को थोड़ा रोकते। लेकिन पानी मुस्कराकर पत्थर को बगलियाते हुए आगे बढ़ता जाता।
अपन हर झरने के पास रुककर उनको देखते। उनके साथ वीडियो बनाते। इसके बाद देरी की बात सोचते हुए आगे बढ़ते। ड्राइवर लखपा ने भी कई जगह हमारी फोटो लीं।

जगह-जगह बने छोटे-छोटे पुल देखकर लगता था कि इतनी दुर्गम जगहों पर पुल बनाना कितना कठिन रहा होगा। लेकिन पुल बने। देखकर यही लगा :
कुछ कर गुजरने के लिए
मौसम नहीं मन चाहिए।
आगे सड़क कुछ सपाट हुई। गाड़ी थोड़ा सरपट हुई। बगल में सड़क के साथ श्योक नदी भी सरपट भागती साथ चल रही थी। उसका पानी कुछ मटमैला हो गया था। शायद पहाड़ की मिट्टी मिलकर। नदी में पानी बढ़ता गया। नदी का आकार भी। लोगों ने बताया कि यह नदी पाकिस्तान जाती है। वहाँ के लोग इसके पानी से प्यास बुझाते होंगे, सिंचाई करते होंगे।
रास्ते में जगह-जगह बाइकर्स मिले। हेलमेट लगाए, धड़धड़ाते हुए सड़क से गुजरते। कुछ के हेलमेट में कैमरा भी लगा था। मोटरसाइकिल चलाते हुए वीडियो बनाने के लिए।

आगे सीमा पास का गांव पड़ा। लोग सड़क किनारे खेतों में काम करते दिखे। कोई बैठा हुआ। कोई बतियाता हुआ। एक जगह बच्चे स्कूल से आते दिखे। सड़क किनारे जाते कुछ लोगों के फोटो हमने चलती गाड़ी से लिये। कुछ बच्चियां घास के गट्ठर सर पर लादे आ रहीं थी। हमने उनके फ़ोटो लेने की कोशिश की तो उन्होंने घास के गट्ठर को कैमरे के सामने कर दिया या फिर पीठ कैमरे की तरफ कर दी।
सीमा के गांव पर हमारे परमिट जांचे गए। परमिट कई जगह देखे गए। लखपा ने कई कापियां करा रखी थीं परमिट की। जहां मांगी जाती निकाल कर थमा देते।
तुर्तक गांव में एक जगह कुछ बच्चे सड़क किनारे छोटे तालाब में नहाते दिखे। एक महिला सड़क किनारे लगे नल से अपने बच्चे को नहला रही थी। हमने उससे बात करनी चाही। वह मुस्करा कर बच्चे को नहलाने में लगी रही। लेकिन मुस्कान का आदान प्रदान अपने आप में सबसे बेहतरीन गुफ्तगू होती है। उसने फोटो लेने से टोंका नहीं।


तुर्तक में सेना की चौकी है। वहां सेना के लोग दूरबीन की सहायता से आसपास को चोटियों के बारे में बता रहे थे। यह चोटी हिंदुस्तान की है वह पाकिस्तान की। यहां पर पहले पाकिस्तान का कब्जा था। वह ऊंचाई पर बंकर है। ऊपर पहुंचने में दो-तीन दिन लगते हैं। स्थानीय लोगों की सहायता के बिना सेना का काम चलना मुश्किल। सेना के सहयोग के बिना स्थानीय लोगों की जिंदगी दुश्वार। दोनों एक दूसरे के सहयोगी।
सीमा के आखिरी गांव थांग का किस्सा वहां लोगों ने सुनाया। पहले यह गांव पाकिस्तान में था। थांग और पहारू गांव जुड़वा गांव थे। 1971 की लड़ाई में थांग गांव पर हिन्दुस्तान का कब्जा हुआ। पहारू गांव पाकिस्तान में रह गया। दोनों गांव में रहने वाले लोग बिछुड़ गए। पति पत्नी अलग हो गए, बाप बेटे अलग हो गए। एक ही परिवार के साथ में रहने वाले लोग दो अलग देशों में रहने को मजबूर हो हो गए। मजबूरी का आलम यह कि अलग -अलग देशों में रहने वाले एक ही परिवार के लोग एक दूसरे को देख सकते थे लेकिन मिल नहीं सकते। कुछ लोग जो भारत की तरफ से अपने परिवार से मिलने पाकिस्तान के कब्जे वाले गांव में पहुंचे उनको जासूस समझकर गिरफ्तार करके जेल में बंद कर दिया गया।

रमानाथ अवस्थी जी ने विभाजन की त्रासदी पर एक कविता पढ़ी थी। उसकी पंक्तिया हैं:
धरती तो बंट जाएगी लेकिन
उस नील गगन का क्या होगा
हम तुम ऐसे बिछुड़ेंगे तो
फिर महामिलन का क्या होगा।
क्या हाल हुए होंगे उन इन गांवों में रहने वाले लोगों के एक गांव से दूसरे गांव सहज रूप में गए होगे। लेकिन 16-17 दिसम्बर को इस तरह अलग हुए कि मिलना तक सम्भव न हुआ।
हाल यह कि मिनटों की दूरी पर दूसरे देश के परिजन से मिलने कुछ लोग हफ़्तों की यात्रा करके वीसा के जरिये उस पार पहुंचे । मुलाकात करके आये। लोगों ने बताया कि उधर की सेना का रवैया उनके इलाके में रह रहे लोगों के साथ इतना दोस्ताना नहीं जितना इस तरह की फौज का।

सीमा चौकी पर कुछ ढाबे बने हुए है। सबमें चाय, मैगी , चाउ मीन जैसे खाने के सामान। दुकानें थांग गांव के लोगों हैं। उनमें आपस में ग्राहकों को कब्जियाने की कोई ललक नहीं। बल्कि जिस दुकान में हम रुके उसके मालिक ने ही हमको बताया - 'उस दुकान में खा लीजिये। उम्दा है।' हम उनकी सहजता के मुरीद हो गए और हमने कहा हम तो जो होगा यहीं खाएंगे ।
अब्दुल कादिर नाम था उस युवा का। उसने अपने गांव और आसपास के बारे में तमाम जानकारियां दीं। यह भी की कारगिल की लड़ाई के समय यहां एक तोप का गोला गिरा था जिससे एक खच्चर मर गया। और कोई नुकसान नहीं हुआ।
अब्दुल कादिर ने बताया कि जरूरत का सब सामान सेना के सहयोग से मिलता है। दुकानें मार्च से सितम्बर तक ही चलती है। बाकी सीजन बन्द। हर तरफ बर्फ की दुकान चलती है उस दौरान।
अब्दुल कादिर के ढाबे में तिरंगा फहरा रहा था। हमने साथ में फोटो लिए। दुकान पर दूसरे यात्री आ गए थे। कादिर उनको निपटाने में लग गए।
लौटते हुए फिर कैमरे के मुंह खुल गए। जो भी दृश्य जरा सा भी अलग दिखा उसको झपट कर कैद कर लिया। डाल लिया कैमरे की मेमोरी में । अब जब देख रहे हैं तो वो सारे क्षण फिर से जीवित हो उठे हैं।
लौटते हुए एक जगह सड़क खुदती हुई दिखी। केबल पड़ रहे थे। जियो के केबल। शायद मोबाइल के लिए। पूरी दुनिया मुट्ठी में करने के लिए।
प्रकृति यह सब देखकर मुस्करा रही थी। सूरज भाई भी हंस रहे थे। हम भी सबको मजे से देखते हुए गेस्ट हॉउस लौट आये।

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