Tuesday, April 05, 2005

हम आज फजलगंज से घर की तरफ आ रहे थे-सपत्नीक.सामने से से एक सांड आता दिखा.आता क्या -भागता सा.मेरे मुंह से अचानक निकल – स्वामीजी यहां कैसे.पर वह सांड सीधा था,बिना रुके ,उचके भागता चला गया.
यह हायकू (संक्षिप्त) दर्शन हुये आज सांड के.हायकू कविता पढ़ी आज स्वामीजी की.जो हायकू कविता सबसे पहले मैंने सुनी थी वह कहती थी:-
अतीत- यादें ,और यादें, और यादें,
वर्तमान -इरादे,और इरादे और इरादे,
भविष्य -वायदे ,और वायदे ,और वायदे.

पता किया कि हायकू कविता जापानी कविता होती है.छोटी कविता.जिन्होंने बताया था उन्होंने तीन लाइन की कविता को हायकू कविता बताया था.हमें बहुत अफसोस हुआ था उस समय क्योंकि मैं बचपन की अन्य कुटेवों की तर्ज पर उस समय तक कई चार लाइन की तुकबंदियां गढ़ चुका था.मुझे अफसोस हो रहा था पहले पता होता तो चार लाइन की तीन कविताओं के जगह पर चार हायकू होते.मैनें काफी कोशिश की तीनों कविताओं को फुसलाकर चौथी कविता में लाने की.पर लाइनें नहीं मानी.वे कोई निर्दलीय विधायक तो थी नहीं जो सरकार बनाने चली आतीं.
फिर हमने दूसरी बार हायकू कविता सुनी एक दक्षिण भारतीय साथी से.वे सुनाते:-
बकरी चढ़ी पहाड़ पर ,
बकरी चढ़ी पहाड़ पर,
और उतर गई.

तथा
मेढक ने पानी में कूदा,
मेढक ने पानी में कूदा,
छपाक.

कुछ लोगों ने इन कविताओं को हायकू कविता मानने से इन्कार कर दिया यह कहकर कि इनकी पहली और दूसरी लाइन में एक ही शब्द है.पर तय पाया गया कि चूंकि लाइनें अलग-अलग हैं इसलिये इसे हायकू मानने के अलावा कोई चारा नहीं है.
फिर आयी ठेलुहा नरेश की एक छोटी कविता.जब मैंने वह पढ़ी तो हायकू कविता के बारे में सब कुछ भूल गया था.उसे पढ़कर यह भाव आया -हो न हो इसे कहीं देखा है.जानी-पहचानी चीज लगती है.फिर जैसे लोग रामदयाल को दीनानाथ कहकर नमस्ते कर देते है,वैसे मैंने उसे हायकू मान के टिपियाया. नतीजा यह हुआ कि चार लाइन की कविता पचास लाइन के कमेंट को ढो रही है.वैसे विस्वस्त सूत्रों से पता चला है कि इनकी पहली कविता हायकू टाइप ही थी:-
मेरे घर के,
सामने है ये सीढ़ी,
मत पी बीड़ी.

फिर पूर्णिमा जी कीजल की बूंदों में पुरानी सारी कवितायें घुल गयीं.वहीं से पता चला कि हायकू कविता में तीन लाइनों में
कुल 17 अक्षर
होते हैं.पहली में पांच,दूसरी में सात तथा तीसरी में पांच. पहले की सारी कवितायें ‘नान हायकू’ करार करनीं पढ़ीं,जैसे किसी रिकार्डधारी का रिकार्ड स्टेराइड पाजिटिव पाये जाने पर खारिज कर दिया जाये.हमारी चार लाइन की कविताओं पर फिर ऐंठ के बौर आ गये.
पहले जब हम विजय ठाकुर की कवितायें पढ़े तो लगा यह भी कुछ हायकूनुमा है.पर जब देखा कि वे पांच लाइना क्षणिकायें हैं तो हमने सोचा रहन दो.पहले मन किया कि टिप्पणी करें कि पहली लाइन में मतलब साफ होते हुये भी नहीं होता पर फिर आलसिया गये.मटिया दिये
आज जब स्वामीजी की कविता हायकूनुमा पढ़ी तो लगा कि इनकी हालत ठीक है.काहे से कि इनकी अवधूती भाषा बरकरार है.मेरा मन किया कि हायकू कविता पर कमेंट भी हायकू टाइप होने चाहिये.सो प्रयास करता हूं-मां सरस्वती को प्रणाम निवेदित करते हुये:-

दौड़ता हुआ
सांड़, सांड़ ही तो है
नही -दूसरा.

सिद्ध है सिद्ध
देख रहा है गिद्ध
नहीं बेचारा.
कुत्ते हैं भौंके
सांड़ चले मस्त
या गया सिरा ?
सिक्के खोटे
चलेंगे क्या सोंटे?
मरा ससुरा.
पूंछ पकड़ी
उचकेगा वो सांड
अबे ये गिरा..

सांड के पीछे-पीछे भागते-भागते मैं थका तो बैठ गया.बैठा तो लगा अच्छा लगा.लालच आ गया.सोचा कुछ और अच्छा लगे.फिर सोचा कुछ मोहब्बत की बातें की जायें.तो मन की हार्डडिस्क मेंसर्फिंग करके कुछ शेर निकाले :-

मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ भी सोचा नहीं जाता ,
कहा जाता है उसे बेवफा, बेवफा समझा नहीं जाता.(वसीम बरेलवी)
ये जो नफरत है उसे लम्हों में दुनिया जान लेती है,
मोहब्बत का पता लगते , जमाने बीत जाते है.
अगर तू इश्क में बरबाद नहीं हो सकता,
जा तुझे कोई सबक याद नहीं हो सकता. (वाली असी)

बरबादी की जहां बात आयी हम फूट लिये बिना पतली गली खोजे.हमें लगा कहीं फजलगंज में दिखा सांड़ भी न इसी डर से भागा हो कि कहीं कोई उससे प्रेमनिवेदन करके बरवाद न कर दे.निर्द्वंद बरबादी करना अलग बात है पर अपनी बरबादी से सांड भी डरते हैं – **

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

13 responses to “मोहब्बत में बुरी नीयत से कुछ भी सोचा नहीं जाता”

  1. eswami
    गुरुदेव,
    निःश्छल के क्रोध में भी एक सौंदर्य होता है, प्रतिक्रियात्मक आवेश तो होता है पर क्रियात्मक आवेग नहीं होता. मेरे विचार में सांड १०० मेसे ९९ बार सींग दिखाता है पर मारता नहीं, क्रोध आता है और चला जाता है फ़िर क्रोध का आवेश खुद को दिख जाता होगा हंसी आ जाती होगी अपने प्रतिक्रियात्मक आवेश पर!
    हायकू के बारे मे जानकारी देने के लिए आभार!
    साण्ड का ये चित्र कितना सुंदर है!
  2. जीतू
    अरे यार, तुमने तो अपने अच्छे भले स्वामी जी को साँड ही बना दिया,
    मेरा तो बस इतना ही कहना है, साँड को साँड ही रहने दो, कोई नाम ना दो,
    अब तुमने कमेन्ट के लिये डन्डा कर ही दिया है तो मेरा हाइकू मे कमेन्ट भी झेलो.
    तुमने लिखी कविता हाइकू
    सबने झेली ऐसी कविता
    काहे कू
    अब ये हाइकू है कि नही, ये मै नही जानता.
  3. Debashish
    Yaar koi Nirantar ki samsya purti mein ek aadh haiku kyon nahi kihd deta, Swamiji aap bhi haath aajmayein to aur log aayenge maidan mein :)
  4. आशीष
    लगता है स्वामी जी से आपको काफ़ी मोहब्बत है जो आपने उनको घसीट लिया यहां।
  5. हरिराम पन्सारी
    साँड शुद्ध शाकाहारी होता है. शुद्ध शाकाहारी गायों का परमेश्वर होता है. साँड ही असली पौरुषवाला होता है. एकाध को ही साँड छोड़ कर शेष बछड़ों को तो बैल बना दिया जाता है. साँड से न तो बैलगाड़ी चलवाई जा सकती है, न हल में लगा खेत जोता जा सकता है. साँड तो मस्त और स्वतन्त्र होता है. उसे कौन बाँध सकता है? सिर्फ भगवान शिव ही उस पर सवारी कर सकते हैं. वह भी बिना कोई नकेल बाँधे, बिना कोई काठी लगाए. साँड अर्थात् नन्दीश्वर स्वयं चाहें तभी शिव को स्वयं पर सवार होने देते हैं. पार्वती का वाहन सिंह भी साँड के शौर्य-वीर्य से डरा रहता है. जय साँड बाबा की.
    हम भी यदि हर शनिवार को साँड को एक मुट्ठी अरुवा चावल और एक केला खिलाएँ, तो साँड बाबा की कृपा होगी और सही हिन्दी हाइकु लिख पाएँगे. तीन लाइनों वाली अर्थात् तीन पहियोंवाले कॉनकार्ड या जेट विमान से झट उड़कर संसार की सैर कर पाएँगे. नहीं तो बैल की तरह बँधे रहकर हिन्दी की बैलगाड़ी ही खींचते रहेंगे.
    हरिराम
  6. रामु अग्रवाल
    साँड गोवंश रक्षक हैं. यदि साँड नहीं होते तो सम्पूर्ण गोवंश ही लोप हो जाता. मुक्त निर्बन्ध मस्त पुरुषों को भी साँड कहकर पुकारा जाता है. कभी जमाना था कि गायों के पीछे साँड पड़ता था, आजकल तो गायें साँड के पीछे पड़ी रहती दिखाई देती हैं.
    क्या केवल भारत में साँड बन्धनमुक्त रख कर घूमन्तु रखने की परम्परा है. क्या विदेशों में भी साँड इसी तरह परम मुक्त रहते हैं? या उन्हें कहीं बाँध कर रखा जाता है? क्यां भारत के बाहर विदेशी परिवेशों में वहाँ के साँडों से कुछ काम करवाया जाता है?
    कृपया प्रवासी भारतीय बन्धु इस सम्बन्ध में प्रकाश डालें तो बड़ी कृपा होगी.
    रामु
  7. फ़ुरसतिया » मेढक ने पानी में कूदा,छ्पाऽऽऽक
    [...] षिण भारतीय मित्र थे जो कि छोटी-छोटी कवितायें बार-बार लगातार सुनाते रहते ।वे य� [...]
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    आज कल ज्ञानियों को सड़क पर चलते सांड बहुत दिख रहे हैं। सांड की संख्या बढ़ गयी या नजरों का फ़ेर है कि हर तरफ़ सांड ही सांड दिखते हैं कभी सरकारी मुलाजिम के रूप में तो कभी देखने वाले को कवितामयी बना देते हैं। बेचारी गायें…:)
  11. फुरसतिया » आवश्यकता है डिजाइनर सांडों की
    [...] दो साल पहले मैंने सांड़ के बहाने कुछ हायकू लिखे थे। फिर से देखिये- दौड़ता हुआ सांड़, सांड़ ही तो है नही -दूसरा

Sunday, April 03, 2005

ये मस्त चला इस बस्ती से

बचपन में हमें बताया जाता था कि बेटा,घर से बाहर निकलो तो कोई अनजान आदमी दिखे तो उससे बच के रहना.लोगसाधू, सन्यासी के रूप में भी आते हैं पकड़ के ले जाते हैं.बचपना तो हम बाइज्जत निकल ले आये.जवानी भी वहां आ गयी जहां लोग हिचकते हैं जवान कहने में.अब इस उमर में हम पड़ गये स्वामीजी के चक्कर में.ये हमसे कहते हैं कि चलो आश्रम में वहीं सत्संग करते हैं.सो हम झांसे में आ गये हैं-वहीं से अलख जगाने का काम करेंगे.यहां हम तभी आयेंगे जब या तो आश्रम उजड़ जायेगा या ये उखड़ जायेंगे-काहे से हम उखड़ने से रहे कहीं से भी.देखना है क्या होता है.

ब्लाग लिखना हमने शूरु किया था अभिव्यक्ति में रवि रतलामी जी का लेख पढ़कर.कुल जमा नौ शब्दों की पहली पोस्टदेवाशीष के ब्लाग पर उपलब्ध की बोर्ड से लिखी थी.पहली पोस्ट की तीनों टिप्पणियां यह देखने में मिट गयीं कि शायद इन बक्सों को क्लिक करने पर कुछ मिले.

स्वामीजी ने तमाम सब्जबाग दिखाये हैं ,तमाम खूबियां बतायी हैं अपने आश्रम की.मैं उनसे उतना ही अज्ञान हूं जितना शुरु में था.मैं महाजनो येन गत: स: पन्थ: का नारा लगाते हुये चल रहा हूं-यायावरी के लिये.


बहरहाल अब आगे हमारे लेख नयी जगह पर मिलेंगे.यहां का शटर डाउन अगली सूचना तक के लिये.

परम्परा है विदा के समय कुछ कहने की तो ऐसे ही मौके के लिये रटी बातें न दोहरायें तो अच्छा नहीं लगता.


हम दीवानों की क्या हस्ती ,हम आज यहां- कल वहां चले,
मस्ती का आलम साथ चला ,हम धूल उड़ाते जहां चले.


तथा

ये मस्त चला इस बस्ती से इससे थोड़ी मस्ती ले लो,
इसने पायी सब कुछ खोकर तुम इससे थोड़ी सस्ती ले लो.

Saturday, April 02, 2005

खेती

सरकार ने घोषणा की कि हम अधिक अन्न पैदा करेंगे औरसाल भर में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.दूसरे दिन कागज के कारखानों को दस लाख एकड़ कागज का आर्डर दे दिया गया.
जब कागज आ गया,तो उसकी फाइलें बना दी गयीं.प्रधानमंत्रीके सचिवालय से फाइल खाद्य-विभाग को भेजी गयी.खाद्य-विभाग ने उस पर लिख दिया कि इस फाइल से कितना अनाज पैदा होना है और उसे अर्थ-विभाग को भेज दिया.
अर्थ-विभाग में फाइल के साथ नोट नत्थी किये गये और उसे कृषि-विभाग को भेज दिया गया.
बिजली-विभाग ने उसमें बिजली लगाई और उसे सिंचाई-विभाग को भेज दिया गया.सिंचाई विभाग में फाइल पर पानी डाला गया.
अब वह फाइल गृह-विभाग को भेज दी गयी.गृह विभाग नेउसे एक सिपाही को सौंपा और पुलिस की निगरानी में वह फाइलराजधानी से लेकर तहसील तक के दफ्तरों में ले जायी गयी.हर दफ्तर में फाइल की आरती करके उसे दूसरे दफ्तर में भेज दिया जाता.
जब फाइल सब दफ्तर घूम चुकी तब उसे पकी जानकर फूडकारपोरेशन के दफ्तर में भेज दिया गया और उस पर लिख दियागया कि इसकी फसल काट ली जाये.इस तरह दस लाख एकड़ कागज की फाइलों की फसल पक कर फूड कार्पोरेशन के के पास पहुंच गयी.
एक दिन एक किसान सरकार से मिला और उसने कहा-’हुजूर,हम किसानों को आप जमीन,पानी और बीज दिला दीजिये औरअपने अफसरों से हमारी रक्षा कर लीजिये,तो हम देश के लिये पूरा अनाज पैदा कर देंगे.’
सरकारी प्रवक्ता ने जवाब दिया-’अन्न की पैदावार के लिये किसान की अब कोई जरूरत नहीं है.हम दस लाख एकड़ कागज पर अन्न पैदा कर रहे हैं.’
कुछ दिनों बाद सरकार ने बयान दिया-’इस साल तो सम्भव नहीं हो सका ,पर आगामी साल हम जरूर खाद्य में आत्मनिर्भर हो जायेंगे.’
और उसी दिन बीस लाख एकड़ कागज का आर्डर और दे दिया गया.
——हरिशंकर परसाई

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

6 responses to “खेती”

  1. रवि
    हरिशंकर परसाईं की रचनाएँ अभी रॉयल्टी फ्री नहीं हुईं हैं, अत: सावधान रहिए. उनके किसी वारिस की नज़र इस पर पड़ गई तो वह आपसे रॉयल्टी मांग लेगा.
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  5. विवेक सिंह
    सही है, किसान की क्या जरूरत जब कागज पर ही अन्न पैदा हो जाता है :)
  6. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] तो सबको है,जी के भी देख लें 2. सतगुरु की महिमा अनत 3.मेढक ने पानी में कूदा,छ्पाऽऽऽक [...]

Friday, April 01, 2005

रंज लीडर को बहुत है,मगर आराम के साथ



कल रात देर तक जगा.फिर सो नहीं पाया.घर के बाहर पक्षी आवाज कर रहे थे.कोलाहल से नींद टूट गयी.इस कोलाहल को पता नहीं क्यों कविगण कलरव कहते रहे ?बाहर निकल कर मैंने देखा तो मोर हल्ला मचा रहे थे.मैंने कहा:-तुम क्यों चिल्ला रहे हो? सोने क्यों नहीं देते.एक स्मार्ट से दिखने वाले मोर ने इठलाते हुये कहा:-साहब ,अब तो भोर हो गयी.उठ जाइये.रात तो कब की बीत गई.आप उठते क्यों नहीं?मैंने उसे ,दिस इज नन आफ योर बिजनेस,कहकर हड़काने के लिये मुंह खोला कि मेरे मुंह से सवाल चू पड़ा-पर बांग देकर जगाने का काम तो मुर्गे करते थे.तुम लोग क्यों जुटे हो इस काम में?वह बोला-साहब यह काम मुर्गों ने मोरों को आउटसोर्स कर दिया है.वे खुद तो सो रहे होंगे कहीं .हम जुटे हैं पेट की खातिर.

मैं वापस लौट रहा था कि एक मोर गर्दन उचकाते हुये बोला:-साहब ,आप तो मुझे पहचानते होंगे.मैं हिंदिनी की छत पर रहता हूं.मेरे स्वामी ने मुझे आपका लेख लेने के लिये भेजा है.हिंदिनी में छापेंगे.मैं बोला:- क्या हाल हैं तुम्हारे साहब के?मूड ठीक है.वह बोला :-हां ,हवाखोरी के बाद कुछ ठीक लग रहे हैं.देखो कब तक ठीक रहते हैं.मैंने कहा:-ठीक है ,तुम चलो मैं लेख भेजता हूं.
सबेरे आफिस पहुंचा तो लिखने का दबाव हावी था.एक अप्रैल आ गया था पर वहां दिगदिगन्त में ३१ मार्च हावी था.बिल, रजिस्टर,चिट्ठी-पत्री चतुर्दिक ३१ मार्च का साम्राज्य पसरा था.सूरज १ अप्रैल का साइनबोर्ड लटकाये था पर फाइलों पर मार्च का कब्जा था.एक दिन-समय दो तारीखें चोर -सिपाही की तरह गलबहिंयां डाले घूम रहीं थीं.
दुनिया का तो पता नहीं पर अपने देश में ३१ मार्च का दिन सबसे लंबा होता है.हफ्तों पसरा रहता है.कहीं -कहीं तो महीनों ,सालों तक.बालि को बरदान था कि उसके शत्रु की आधी शक्ति उसे मिल जाती थी.राम को उसे छिपकर मारना पड़ा.यहां देखरहा हूं कि ३१ मार्च का दिन अप्रैल के दिनों को पनपने ही नहीं देता.अप्रैल के दिन आते है. अपना सर काटते है.मार्च के चरणों में चढ़ाते हैं चले जाते हैं.
३१ मार्च की ताकत का कारण तलाशने पर पता चलता है कि यह वित्तीय वर्ष का अंतिम दिन होता है.आज खर्चने का आखिरी दिन होता है सरकारी महकमों में.जोआज खर्चा नहीं होता वह हाथ से निकल जाता है.’लैप्स’हो जाता है.सारी कोशिशें की जातीं हैं कि पैसा इसी साल हिल्ले लग जाये.एक पेन खरीदने की स्वीकृति देने में नखरे करने वाला साहब छापाखाना लगवाने का आदेश बिना जरूरत दे देता है.आज,अभी इसी वक्त वाले अंदाज में.सब कुछ ३१ मार्च को होना है.
इस दिन सरकारी कर्मचारियों की कार्यक्षमता चरम पर होती है.११३० पर मिली ग्रान्ट ११३५ तक ठिकाने लग जातीहै. ’कन्ज्यूम’ हो जाती है.अगर ३१ मार्च की कार्यक्षमता के अंश के टुकड़े-टुकड़े करके साल के बाकी दिनों में मिला दिये जायें तो देश पलक झपकते चमकने लगे.देश २०२० के बजाये अगले साल ही विकसित हो जाते.३१ मार्च का ‘फ्लेवर’ही कुछ ऐसा है.
मैं और तमाम बातें कहता पर हमारे दोस्त ने टोंक दिया.ये क्या मजाक है.’मूर्ख दिवस’ पर ज्ञान की बातें कर रहे हो.अजीब मूर्खता है.मैंने कहा -क्या यह साबित नहीं करता कि ३१ मार्च का समय बीत गया.एक अप्रैल आ गया है .दोस्त ने कहा-करो कोई मूर्खतापूर्ण हरकत.हम बोले लिख रहे है यह कोई कम मूर्खतापूर्ण काम है.इससे बड़ी मूर्खता भी की जा सकती है क्या कोई?दोस्त उवाचा:-यह मूर्खता तो तुम बहुत दिन से कर रहे हो.कुछ नया करो.अपने से ऊपर उठो.देश,काल,समाज की बात करो. मार्च-अप्रैल को नादान ब्लागरों की तरह मत लडवाओ.
हम फौरन गंभीर हो गये.अपने गुरुकुल गये-इलाहाबाद.अकबर इलाहाबादी से कहा:-बुजुर्गवार कोई ऐसा शेर बतायें जो आज के हाल का बयान करता हो.बुजुर्गवार ने गला साफ करके फरमाया:-
कौम के डर से खाते हैं डिनर हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है,मगर आराम के साथ.

जब देश के कर्णधार आराम के मूड में हों तो उनका अनुशरण न करना बेअदबी है.कम से कम मैं ऐसा नहीं कर सकता.

मेरी पसंद

यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!
आसमान टूटा,
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे.
देखते-देखते दूब के दलों का रंग
पीला पड़ गया
फूलों का गुच्छा सूख कर खरखराया.
और ,यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया.

-कन्हैयालाल नंदन

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

9 responses to “रंज लीडर को बहुत है,मगर आराम के साथ”

  1. eswami
    आपका लेख पढ कर याद आया. इधर अप्रेल का महिना शुरु होते ही टेक्स अदायगी की आपाधापी शुरु हो जाती है. पिछले साल तो मैंने आखरी दिन टेक्स भरा था – जब की रिफ़ंड आना था. इस साल भी लग रहा है वही होगा.
  2. जीतू
    भई, हम अपना टिप्पणी धर्म निभाते हुए, रात के एक बजे ये टिप्पणी कर रहे है,
    फुरसतिया जी, आपको नये गृहप्रवेश पर बहुत बहुत बधाई, अब इ बताया जाय, कि इस नये ब्लाग का नाम का रखोगे, अब फुरसतिया तो ब्लागस्पाट वाले का हैइ है, इसके नाम मे मामूली सा फेरबदल किया जाय, ताकि दोनो मे कुछ तो फर्क हो सकें.
    अब रात के एक बजे का मामला भी सुन लो, अभी अभी एक दावत से लौटे, तो दाँत के दर्द ने बहुत परेशान कर दिया, सोचा चलो थोड़ा इन्टरनैट खंगाल ले,मूड फ्रेश हो जायेगा,इमेल देखी तो पाया कि अपने प्यारे स्वामीजी की इमेल आयी पड़ी थी, आपके नये गृहप्रवेश की, सो सोचा, चलो भाई, न्योता आया है तो बधाई भी दे आयें. दाँत मे दर्द है इसलिये मिठाई बकाया रही, बाकिया चकाचक
    (स्वामी जी को कमेन्ट चालू करने के लिये धन्यवाद)
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  7. विवेक सिंह
    एक एक पोस्ट खँगालने की शुरूआत होगई है . सारा ज्ञान गृहण कर लेंगे .
  8. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.मरना तो सबको है,जी के भी देख लें 2. सतगुरु की महिमा अनत 3.मेढक ने पानी में कूदा,छ्पाऽऽऽक 4.जन्मदिन के बहाने जीतेन्दर की याद 5.हम घिरे हैं पर बवालों से 6.देबाशीष-बेचैन रुह का परिंदा 7.आवारा पन्ने,जिंदगी से–गोविंद उपाध्याय 8.आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग दो) – गोविंद उपाध्याय 9.आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग तीन) 10.संगति की गति 11.आओ बैठें ,कुछ देर साथ में 12.राजेश कुमार सिंह -सिकरी वाया बबुरी 13.नैपकिन पेपर पर कविता 14.सैर कर दुनिया की गाफिल 15.नयी दुनिया में 16.हम तो बांस हैं-जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे [...]
  9. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 1.मरना तो सबको है,जी के भी देख लें 2. सतगुरु की महिमा अनत 3.मेढक ने पानी में कूदा,छ्पाऽऽऽक 4.जन्मदिन के बहाने जीतेन्दर की याद 5.हम घिरे हैं पर बवालों से 6.देबाशीष-बेचैन रुह का परिंदा 7.आवारा पन्ने,जिंदगी से–गोविंद उपाध्याय 8.आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग दो) – गोविंद उपाध्याय 9.आवारा पन्ने,जिंदगी से(भाग तीन) 10.संगति की गति 11.आओ बैठें ,कुछ देर साथ में 12.राजेश कुमार सिंह -सिकरी वाया बबुरी 13.नैपकिन पेपर पर कविता 14.सैर कर दुनिया की गाफिल 15.नयी दुनिया में 16.हम तो बांस हैं-जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे [...]

Saturday, March 26, 2005

टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा

हम बहुत निराश हैं .मैंने होली के अवसर पर लिखा -बुरा मान जाव होली है.कोई बुरा नहीं माना .उल्टे लोग तारीफ कर रहे है.यह भी कोई बात है.यहां तक कि निठल्ले तक बुरा नहीं माने जिनका मैं जिक्र भूल गया बिना सारी कहे.हां यह खुशी कि बात है अतुल ,स्वामीजी वगैरह पूरा होलिया रहे हैं .सारे बचपना निकाल रहे हैं लिखा-पढ़ी में.पर इससे हम कुछ निराश भी हैं.इनका प्रेमालाप बार-बार हमारे जेहन में शेर ठेल रहा है - बशीर बद्र का:-

दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे,
फिर कभी जब दोस्त बन जायें तो शर्मिन्दा न हों.


कानपुर में रंग हफ्ते भर चलता है.आज कानपुर में गंगा मेला मनाया जाता है.रंग चलता है होली वाले ही अंदाज में.आज के बाद रंग कीचड़ हो जाता है सब बंद हो जाता है.आज के बाद सब कुछ साफ हो जाता है.सब जगह.

होली का त्योहार देवर-भाभी के लिये खास तौर पर याद किया जाता है.देवर भाभी का एक लोगगीत मुझे बहुत पसंद है. प्रख्यात गीतकार लवकुश दीक्षित का लिखा/गाया अवधी भाषा का यह गीत भाभी द्वारा देवर की बदमासियों ,शरारतों के जिक्र से शुरु होकर खतम होता है जहां भाभी बताती है कि देवर पुत्र के समान होता है.अपनी शैतानियां समाप्त कर दो .मैं देवरानी को बुलवा लूंगी ताकि तुम्हारी विरह की आग समाप्त हो जायेगी.यह भी कहती है कि मैं होली खेलूंगी जैसे भाई के साथ सावन मनाया जाता है.

यह गीत मैं कभी ब्लागनाद के द्वारा सबको सुनवाऊंगा .यह तभी संभव है जब अतुल,जीतेन्दर तथा स्वामीजी मुझे मिलकर ब्लागनाद की ट्रेनिंग दें -मिलकर.अकेले मैं नहीं सीखने वाला किसी एक से.

टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा


निहुरे-निहुरे कैसे बहारौं अंगनवा,
कैसे बहारौं अंगनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

भारी अंगनवा न बइठे ते सपरै,
न बइठे ते सपरै,
निहुरौं तो बइरी अंचरवा न संभरै,
लहरि-लहरि लहरै -उभारै पवनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

छैला देवरु आधी रतिया ते जागै,
आधी रतिया ते जागै,
चढ़ि बइठै देहरी शरम नहिं लागै,
गुजुरु-गुजुरु नठिया नचावै नयनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

गंगा नहाय गयीं सासु ननदिया,
हो सासु ननदिया,
घर मा न कोई मोरे-सैंया विदेसवा,
धुकुरु-पुकुरु करेजवा मां कांपै परनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

रतिया बितायउं बन्द कइ-कइ कोठरिया,
बन्द कइ-कइ कोठरिया,
उमस भरी कइसे बीतै दोपहरिया,
निचुरि-निचुरि निचुरै बदनवा पसीनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

लहुरे देवरवा परऊं तोरि पइयां,
परऊं तोरि पइयां,
मोरे तनमन मां बसै तोरे भइया,
संवरि-संवरि टूटै न मोरे सपनवां,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

माना कि मइके मां मोरि देवरनिया,
मोरि देवरनिया,
बहुतै जड़ावै बिरह की अगिनिया,
आवैं तोरे भइया मंगइहौं गवनवां,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.

तोरे संग देउरा मनइहौं फगुनवा,
मनइहौं फगुनवा,
जइसै वीरनवा मनावैं सवनवां,
भौजी तोरी मइया तू मोरो ललनवा,
टुकुरु-टकुरु देउरा निहारै बेइमनवा.


--लवकुश दीक्षित

Friday, March 25, 2005

बुरा मान लो होली है

प्रतिदिन दो शेखचिल्लीनुमा आइडियों को चार तरीके से आठ बार अंजाम देकर चहकते रहने वाले जीतेन्दर का चेहरा किसी सोलह साला कन्या की तरह लग रहा था जिसने 'स्मार्ट'लगने के लिये उदासी का मेकअप कर रखा था.अतुल ने कोहनियाते हुये पूछा- आर्यपुत्र आपके मुखमंडल पर उदासी का साम्राज्य किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के अधिकार क्षेत्र की तरह फैला हुआ है.मुझे प्रतिपल यह आभास हो रहा है कि कोई कोई दुष्चिंता आपके मानस पटल पर अनुनाद कर रही है.वैसे तो आप कोई बात कहते पहले हैं सोचते बाद में हैं पर आज यह विरोधाभास कैसा ?आप सोच रहे हैं बिना कुछ बोले.आप चिंतित हैं.यह चिंता किस अर्थ अहो,शीघ्र कहें समय व्यर्थ न हो.

थोड़ा देर नखरे के बाद जीतू उवाचे:-यार सारे अंगरेजी ब्लागर हर महीने मीटिंग करते हैं.कोई मुम्बई में कोई बंगलौर में.हमारी कोई मीटिंग नहीं हो पाई अभी तक.यही सोच-सोचकर दुख होता है.दुबला गया हूं.

अतुल:-अरे तो इसमें मुंह लटकाने की क्या बात है?हम हूं न.चलो चलते हैं अभी चौपाल पर.सभी को घसीट के ले आते हैं. होली का मौका है कोई बुरा भी नहीं मान पायेगा.

लोगों को जब कहा गया चलने के लिये चौपाल पर तो लोगों ने नखरे किये.जीतेन्दर को देखकर लोग घबड़ाने लगे.पूछने पर बताया कि हमें डर लग रहा है कहीं ये फिर न कोई योजना उछाल दें.पर अतुल ने दिलासा दिया:-मैं ,इंडीब्लागर अवार्ड का विजेता,आपको भरोसा दिलाता हूं कि आपके साथ कोई ज्यादती नहीं होगी.लोगों ने राहत महसूस की.चौपाल परचलने कीबात पर लोग तैयार हो गये .कुछ लोगों ने बहाना बनाया कि अनुगूंज के लिये लिखना है.पर थोड़ा नखरे के बाद सब आ गये चौपाल पर.


वहां पहली बार लोग जमा हुये थे.बौरे गांव ऊंट का माहौल.भंग की तरंग थी.उमंग अंग-अंग थी.नयी चिट्ठाकारसंगथी.उदासी भंग-भंग थी.भावना अनंग थी.

काफी देर के हो-हल्ले के बाद तय हुआ कि महामूर्ख सम्मेलन की तर्ज पर चुहलबाजी होगी.टाइटिल दिये जायेंगे.कोई रद्दी कविता पढ़ी जायेगी.कविता का नाम सुनते ही विजयठाकुर उचके-तो कौन सी कविता पढूं?उनको तत्काल रोका गया--भाई आप ने तो कुल पांच-सात कवितायें लिखी हैं.रवि रतलामीजी तो बहुत पहले से लिख रहे हैं .हर बार कविता गज़ल लिखते हैं.बुजुर्ग हैं.उनको पहला मौका मिलना चाहिये.

सवाल- जवाब उछलने लगे.पता नहीं लग पा रहा था कि कौन सवाल कर रहा है.पर चूंकि सवाल नाम लेकर पूंछे जा रहे इसलिये लोग अपने सवाल लपककर जवाब उछालते जा रहे थे.

सबसे पहला सवाल बुजुर्गवार रतलामी जी ने लपका-

सवाल:-रतलामीजी,आप अपना ब्लाग लिखने के लिये कविता पहले लिखते हैं या पहले ब्लाग लिखकर कविता लिखते हैं.

जवाब:-मैं खुद तय नहीं कर पाया अभी तक यह.वैसे मैंने एक प्रोग्राम बनाया है गजल लिखने के लिये.इसमें मालिकाना, शगल,मंजर ,आसामी, दरिया,दिल,चोंचले जैसे करीब हजार शब्द फीड हैं.मुझे बस गज़ल के लिये शेर की संख्या तथा एक शेर में कितने शब्द होंगे फीड करना होता है.गजल अपने आप निकल आती है.बाकी चिट्ठा लिखने के लिये अखबार की कटिंग ली तथा चार लाइना लिखकर काम हो जाता है.

सवाल:-पंकज भाई,तुमचिट्ठा विश्व में तो बड़े खिले-खिले दिखते हो.परबसंत में चेहरा उतरा-उतरा क्यों है?

जवाब:-घराड़ी के जाने पे जो खुशी चढ़ी थी उसकी आने पर वो उतर गयी.चेहरा भी साथ लग लिया-उतर गया.वैसे भी जीतू जी कहते हैं पत्नी के फोटो खिचाओ तो हमेशा चेहरा लटका लेना चाहिये.चेहरा चमकने पर लोग समझते हैं कि इनके संबंध नार्मल नहीं है.बीबी भी पचास सवाल पूंछती है.इसीलिये साथ में फोटो खिंचाते समय मैं चेहरा लटका लेता हूं.


सवाल:-अतुल भाई,ये तुम 'फर्स्टएड बाक्स'और डाक्टरी आला लिये काहे घूम रहे हो ?क्या डाक्टर झटका की दुकान में कंपाउन्डरी करने लगे?

जवाब:-नहीं भाई,असल में हमें गुस्सा आता रहता है.डाक्टर झटका ने बताया ब्लडप्रेशर कंट्रोल करो.तबसे पत्नी जी जहां जाता हूं-आला गले में घंटी की तरह लटका देती हैं.कहती हैं नापते रहा करो.जहां कम-ज्यादा हो,बात बंद करके जैनियों की तरह मुंह में टेप चिपका लिया करो ताकि कहीं किसी पर गुस्सा न कर बैठूं.क्योंकि जब हम करेंगे तो अगला छोड़ थोड़ी देगा . 'फर्स्टएड बाक्स' का कारण तो यह है कि पता नहीं कहां से मुन्ना कबाड़ी को शक हो गया कि उसको ईंटा हम मारे थे.सुना है गुम्मा लिये टहलता है.इसी लिये हम लैपटाप छोड़कर 'फर्स्टएड बाक्स 'लटकाये घूमते हैं.मरहम पट्टी के इंतजाम के लिये.पंकज भाई,जरा देखो तो रीडिंग कितनी को गयी?

सवाल:-ये ठेलुहा नरेश,ये तुम अपनी बांयी आंख पर हाथ काहे रखे हो?

जवाब:-यार ये केजी गुरु की संगत जो न कराये.आंख न चाहते हुये भी आदतन दब जाती है.पहली बार मीटिंग हो रही है.सुना है कुछ महिला चिट्ठाकार भी आने को हैं कहीं अनजाने में बेअदबी न हो जाये.कोई बुरा मान गया तो जीतेन्दर ,रवि की मेहनत पर पानी फिर जायेगा.इसीलिये दबाये रहते हैं आंख.

सवाल:-रीतू भाभी,आपको तथा दूसरी महिला चिट्ठाकारों को कैसा लग रहा है ब्लागिंग का अनुभव?

जवाब:-सच पूंछे तो बहुत अच्छा तो नहीं लग रहा है.हमने तो यह सोचकर लिखना शुरु किया था कि हमारी एक पोस्ट पर कम से कम पचीस तीस तारीफ तो मिलेंगी.पर यहां तो संख्या दो अंको तक भी नहीं पहुंची.हम तो ठगे से महसूस कर रहे हैं.खैर ,उम्मीद पर दुनिया कायम है.हो सकता है आगे हालात सुधरे.पर आप मुझे भाभी कैसे कह रहे हैं?

जीतू उवाच:-होली के मौसम में तो बाबा भी भी देवर लगते हैं और अभी तो मैं जवान हूं.आपकी ससुराल कानपुर में है.मेरा मायका वहां है.इस रिश्ते से भी आप मेरी भाभी हुयीं.जहां तक कमेंट की बात है तो आप मेरा कमेंट मैनेजमेंट के तरीके वाली पोस्ट पढ़िये.जरूर फायदा होगा.


सवाल:- फुरसतियाजी,ये बतायें कि वैसे तो आप बड़े पारदर्शी बनते हैं.ये अपनीसहपाठिनी का विवरण लगता है आप कुछ 'शार्टकट'में मार गये.अइसा है तो क्यों?

जवाब:-असल में छिपाने जैसी तो कोई बात नहीं पर हम ज्यादा डिटेल में नहीं गये.डर था जीतू लपक लेंगे.कहेंगे आप भी लिखें ब्लाग.लिखने तक तो ठीक पर फिर ये कहते 'ब्लागनाद'करो.अगर ऐसा होता तो निश्चित जानो कि हमारा पीसी का स्पीकर 'झारखंड'की सोरेन सरकार की तरह बैठ जाता.हम इन्हीं आशंकाओं के चलते बचा गये गैरजरूरी विवरण.

सवाल:-देबू भाई ,ये निरंतर तो झकास निकली है.पर सुना है कि चिट्ठा विश्व को निरंतर में शामिल करने की बात पर उखड़ गये थे.कहने लगे निरंतर बंद कर देंगे.सच क्या है?

जवाब:-असल में किसी ने मुझसे कह दिया कि गुस्सा करने पर मैं कुछ ज्यादा स्मार्ट लगता हूं.मुझे मन किया मैं भी डायलाग मारूं -ट्राई मारने में क्या जाता है?फिर उन्हीं दिनों मैंने शोले फिर से देखी तो मुझे लगा धर्मेन्द्र का डायलाग फिट रहेगा सो दाग दिया --गांव वालों अगर किसी ने मेरी बसंती को मुझसे अलग करने की कोशिश की तो मैं किताब जला दूंगा. वैसे भी मैं बहुत थक गया था उन दिनों इंडीब्लागर के चुनाव में.बड़ा रिलैक्स मिला डायलाग मार के.

सवाल:-स्वामीजी,आपके लेखों के टाइटिल इतने अण्ड-बण्ड-सण्ड क्यों होते हैं? आपके चिट्ठों में उलटबांसी वाली भाषा क्यों इस्तेमाल होती है?

जवाब:-पेलवानजी,जन्नतनशीं दादाजी बोले थे-बेटा तू शायर और सिंह तो बन नहीं सकता सो सपूत बनने 'ट्राई'मार.अपुन भी खोजे 'शार्टकट' सपूत बनने का.पता चला कि लीक से हटकर चलने से अपने आप सपूत बन जाता है आदमी.इसीलिये अपुन लकीरी अंदाज से घबड़ाते हैं.'समथिंग डिफरेन्ट 'है अपुन का अंदाज.इसीलिये अपुन तोड़-फोड़,उठापटक करते हैं.खराब चीज को सुधारने में मगजमारी से अच्छा है कि पूरी इमारत गिरा दो-मलबे से नयी,झकास इमारत बना दो.टाइटिल का तो ऐसा है कि कुछ नया,अण्ड-बण्ड अंदाज रहता है तो चौंकते हैं लोग.आधा चिट्ठा तो लोग टाइटिल समझने के चक्कर में पढ़ जाते हैं.बाकी जड़त्व में.फिर लोग बार-बार पढ़ते हैं पूरा समझने के लिये.

सवाल-जवाब के बीच ही किसी की नजर पर्दे के पीछे सजे रखे टाइटिलों पर पढ़ गयी.हरेक के लिये एक टाइटिल तय था.लोगों कोने सवाल-जवाब सत्र को बिना सूचना स्थगित कर दिया.गठबंधन सरकार के सांसद जैसे मंत्री पद लपकते है वैसे ही वे टाइटिल लपकने लगे.अफरा-तफरी में टाइटिल हर एक के हाथ में दूसरों के टाइटिल आ गये.बहरहाल जिसने लिखे थे उसको गलती सुधारने के लिये बुलाया गया.वह भी सारे टाइटिल सही नहीं बता पाया.जितने ठीक हो सके वे ठीक करके सारे टाइटिल ऐसे ही बांट दिये गये.अंतिम समाचार मिलने तक टाइटिल इस प्रकार थे:-

देवाशीष:-नुक्ताचीनी ठप्प पड़ी है,ठहर गया है लिखना,
येकरवाना,वो लिखवाना बस बिजी-बिजी ही रहना.
पोस्ट क्या दोस्त लिखेंगे?

मेरा पन्ना:-निसदिन उचकत ख्याल तिहारे,
यहां वाह की,वहां आह की टहलत द्वारे-द्वारे,
इनको लाये,उनको लाये आइडिया उछलत इत्ते सारे,
तुम तो लगता है फ्री रहते हो,सब है काम के मारे.
क्या कमाल की फुर्ती है.

रमण कौल:-इधर चला मैं उधर चला,अपना नहीं अब कहीं भला,
जिसनेबचाया डूबने से मुझे,वही बजातीअब तबला.
नहीं यार ,प्यार में कहीं ऐसा होता है भला?

अतुल:-अभी सो नहीं जाना अभी मेरी कहानी चल रही है,
जो हुयी बदसलूकी मेले में वो बेहद खल रही है,
तेज गली में गाड़ी चलती है.

पंकज:-हम हैं राही प्यार के हम से कुछ न बोलिये,
जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिये.
लड़का दलबदलू है.


आशीष गर्ग :- एक दिन ऐसा आयेगा न देश रहेगा और न भाषा,
फिर सोचेंगे हम कि क्या यही थी हमारी अभिलाषा ।
जल्दी आगे बढ़ने के चक्कर में रह गये ग़ुलाम
और अब हाथ मलने के अलावा और क्या है काम।
बात बड़ी बुनियादी है.


विजय ठाकुर:-होठों से छू लो तुम,खुद के गीत अमर कर दो,
वैसे तो चलेंगे लेकिन कुछ और मधुर कर दो.
यादों मेंफूल महकते हैं

प्रारंभ:-मन में है विश्वास,पूरा है विश्वास,
हम होंगे कामयाब,एक दिन,एक दिन.
हम चलेंगे साथ-साथ,डाले हाथों में हाथ,
हम चलेंगे साथ-साथ एक दिन.

रति सक्सेना:-तुमको देखा तो ये खयाल आया,
बगीचे में फिर कोई हौले से मुस्काया,
हमने सोचा था एकाध फूल दिख जायेंगे,
यहां देखा तो सारा उपवन ही खिल आया.

रमनबी:-जाड़े की लंबी रातों में जब सारी दुनिया सोती थी,
तब फोन हमारा जगता था बातें दर बातें होती थीं,
जेब हमारी लुटती थी दिल की झोली भर जाती थी,
जो बातें अब बचकानी लगती वे कभी बहुत मदमाती थीं.

अनुनाद सिंह:-निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल,
लिख मेरे भइया जल्दी-जल्दी वर्ना लोग जायेंगे भूल.
सिर्फ टिप्पणी काम न देगी.

आशीष तिवारी:-है नहीं कोई सांचा मेरा,न मेरा कोई तरीका है,
जो होता है वह लिखते हैं ,बस अपना यही सलीका है,
इहै हमार इस्टाइल बा.

आलोक:-कम शब्दों में कहने की आदत मेरी लाचारी है,
गागर में सागर भरने की आदत सब चर्चाओं पर भारी है.
थोड़ा कहा बहुत समझना.

रवि रतलामी:-नेट बीच चौकड़ी भर-भर कर,रतलामी बन गये निराले हैं,
गज़लों,ब्लागों के दंगल से, पड़ गये हमारे पाले हैं.
लिखने में न कभी थकते हैं ये,पढ़ने वाले थक जाते हैं,
पढ़कर बिना टिप्पणी के, पतली गली भग जाते हैं.

अरुण कुलकर्णी:-अरुण यह मधुमय ब्लाग तुम्हारा,
जहां पहुंच अनजान व्यक्ति भी पाता कवित्त तुम्हारा.

नीरवता:-पहला खत लिखने में वक्त लगता है-पता है,
महीनों से देह पे ही टिके हो, क्या अजब खता है
हवाओं के साथ चलने की बातें तो बहुत करते हो,
चिट्ठों की तो बाढ़ आ गयी है अब क्यों डूबने से डरते हो?

भोलाराम मीणा:-हमका अइसा वइसा न समझो हम बड़े काम की चीज,
सबको कंप्यूटर सिखलाने को हम डाल दिया है बीज,
तनिक हिंदी में भी समझाओ.

स्वामीजी:-चाह नहीं किसी लाला की गद्दी में ,मैं लग जाऊं,
चाह नहीं सामान्य बनूं,अच्छा बच्चा कहलाऊं,
चाह नहीं कोई मेरी तारीफों से पीठ खुजाये,
चाह नहीं सब कुछ तजकर,मैं हीरो ही बन जाऊं
मुझे पकड़ लेना तुन साथी,उस प्रोजेक्ट में देना झोक,
निज भाषा,निज देश हेतु लगे हों, जहां पर मेरे दोस्त अनेक.

दीपशिखा:-अल्पविराम,पूर्णविराम माने कामा ,फुलस्टाप,
संगी,प्रेमी सब मिलेगें ,बस लिखती रहो आप.
मरुभूमि में फूल खिलेंगे.

शैल:- शैल की गैल में रंग चले,वे भाजि गये लंदन
बच्चे आये हैलोवीन में इनका मामला ठनठन,
आग कुछ तेज करो भाई.

राजेश:-बड़े-बडे ठाकुर देखे हमने,देखे बड़े-बडे कविराज,
शत्रु बनाते,मित्र बनाते तुमको और नहीं कुछ काज?
मुबारक होली हो.

मानोशी :- ख्वाब शरारती होते हैं,खुद-ब-खुद पल जाते हैं,
खत न जाने कैसे बेसाख्ता लिख जाते हैं,
चिट्ठियां लिखती रहें जवाब भी आ जायेंगे,
दुश्मन बने जो दोस्त वो फिर करीब आयेंगे.

धनंजय:-नदी पार जाने को नाव बहुत जरूरी है,
जिंदगी जीने को तनाव भी जरूरी है.
सिर्फ मेहनत ही काम नहीं आती आफिस में,
बास को खुश रखने के बरताव बहुत जरूरी हैं

महावीर शर्मा:-रूप की जब उजास लगती है,जिंदगी आसपास लगती है,
तुमको पढ़ने की चाह कुछ ऐसे,जैसे खुशबू को प्यास लगती है.

जापानी मत्सु:-हमारा दोस्त ये जापानी,लगता पक्का हिंदुस्तानी,
कभी होली मुबारक होती,कभी चाय की कहानी,

कही-अनकही:-किसीको महसूस न होने दिया,यूं कहानी को हमने मोड़ दिया,
लिखने में कमी की पहले,फिर एकदम लिखना छोड़ दिया.

ठेलुहा:- केजी बोले सुन मेरी ए जी ,लपकत इंद्र रहे हैं आय,
जल्दी जाओ तुम अंदर को ,चाय का पानी देव चड़ाय,
ये तो हांकेंगे अब लंबी,अपनी बांयी आंख दबाय,
हुयी प्राब्लम यह डेली की एनीबाडी हमको लेव बचाय.
दोस्ती जंजाल हो गयी.

प्रेमपीयूष:-भइया यह घर प्रेम का ,खाला का घर नाय
जिसको जिसको चाहिये,मुफ्त पीयूष लै जाय.
गारण्टी जिंदगी भर की है.

राजकुमार:-मामाजी मामाजी फिर से तुमने आंख दिखाई,
ब्लागिंग में ठेला काहे,जबकि मैं हूं व्यवसायी,
बड़ा कठिन है लिखना.

आनंद जैन:- हर लम्हा ज़िंदगी का एक कोरा सफहा है,
कूची ख्वाहिशों की लेकर तुम इसमें रंग भर लो.

प्रसंग:-आंगन में कुटी छवाकर,वैभव तुम किधर निकल गये?
दर्द ठहरा है बहुत दिन से,कैसे इसके चक्कर में फंस गये?
कुछ दर्द निवारक ले लो.

संजय:-चरर-मरर कर अच्छी खासी जा रही थी भैंसा गाड़ी,
उसको छोड़ के कोल्हू में जुत गया मैं भी बड़ा अनाड़ी.

कालीचरण:-जिंदगी इम्तहान लेती है,मरते पर छप्पर तान देती है,
फुरसत के दिन हों तो अच्छा है,जाने क्यों इतना काम देती है.
काश कुछ छुट्टी मिलती.

हिंदी चिट्ठा:-उलट-पुलट सब हो गया पूरा कारोबार,
थाने में जन्माष्टमी,आश्रम में हथियार,
मामला गड़बड़ है.


पूर्णिमा वर्मन:- जल की बूंदों को हौले से,सूरज ने जब सहलाया
रंगों को विस्तार मिला,इन्द्रधनुष सा मुस्काया,
नजारा मनमोहक है.



फुरसतिया:-जब ये फुरसत में मिलें ,इनसे कुछ न बोलिये
जो भी ये लिखें उसे ,खुशी-खुशी से झेलिये
गर पसंद आये न तो आप भी तो बोलिये
कमेंट है खुला हुआ खुल के दिल से तोलिये,
इनके ऊपर लोग लिखेंगे.


टाइटिल से तमाम लोग नाखुश हो गये.कहने लगे ये क्या लिखा है-कुछ बढ़िया मिलना चाहिये.सबसे कहा गया आपसे में
बदल लो पर उसमें भी सर्वसम्मति नहीं बन पायी.अंत में यह कहा गया कि आप लोग इसे स्वीकार कर लें.घर में पूंछ लें.पसंद न आने पर साल भर में कभी भी वापस करके मनपसंद टाइटिल मुफ्त मिल जायेंगे.यह सुविधा भी बतायी गयी कि जो लोग वापस करेंगे टाइटिल उनको दो टाइटिल मिलेंगे.एक उनके मन का दूसरा देने वाले की तरफ से.दोनो फ्री.सारे लोग मुफ्त की बात सुनते ही खुश हो गये.

रद्दी कविता पर काफी विवाद हुआ.आखिर में तय हुआ कि सब बुनोकहानी की तरह कविता बुने.एक-एक लाइन लिखते जायें .सबकी लाइनें मिलाकर जो बनेगा उसे कविता कहा जायेगा.जो बनी कविता वो ये है:-

आज होली का त्योहार है,
हम सबकी खुशियों का विस्तार है
हर हाल में हंसने का आधार है

हंसी का भी बहुत बड़ा परिवार है
कई बहने है जिनके नाम है-
सजीली,कंटीली,चटकीली,मटकीली
नखरीली और ये देखो आ गई टिलीलिली,

हंसी का सिर्फ एक भाई है
जिसका नाम है ठहाका
टनाटन हेल्थ है छोरा है बांका
हंसी के मां-बाप ने
एक लड़के की चाह में
इतनी लड़कियां पैदा की
परिवार नियोजन कार्यक्रम की
ऐसी-तैसी कर दी.

हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है
अब यह अलग बात कि उसमें
हंसी से कहीं ज्यादा जान है.

एक बार हमने सोचा -
देंखे दुनिया में कौन
किस तरह हंसता है
इस हसीना के चक्कर में
कौन सबसे ज्यादा फंसता है

मैंने एक साथी कहा
यार जरा हंसकर दिखाओ
वो बोला -पहले आप
मैं बोला मैं तो हंस लेता हंसता ही रहता
पर डरता हूं लोग बेहया कहेंगे
-बीबी घर गयी है ,फिर भी हंस रहा है
लगता है फिर कोई चक्कर चल रहा है
इस बात को सब काम छोड़कर
वे मेरी बीबी को बतायेंगे
तलाक तो खैर क्या होगा
वो मुझे हफ्तों डंटवायेंगे

सो दादा यह वीरता आप ही दिखाइये
ज्यादा नहीं सिर्फ दो मिनट हंसकर बताइये
इतने में दादा के ढेर सारे आंसू निकल आये
पहले वो ठिठके ,शरमाये,हकलाये फिर मिनमिनाये
-हंसूंगा तो तुम्हारी भाभी भी सुन लेगी
बिना कुछ पूंछे वह मेरा खून पी लेगी
कहेगी-मैं हूं घर में फिर यह खुश किस बात पर है
बीबी का डर,लाजो शरम सब रख दिया ताक पर है

वहां से निकला पहुंचा मैं आफिस,साहब से बोला
साहब ने मुझको था आंखो-आंखो में तोला
मैंने कहा -साहब जरा हंसने का तरीका बताइये
साहब लभभग चीखकर बोले
हमको ऊ सब लफड़ा में मत फंसाइये
हंसना है तो अपने दस्तखत में
हंसने का प्रपोजल बनाइये
बड़का साहब से अप्रूव कराइये
फिर जेतना मन करे हंसिये-हंसाइये
पर हमको तो बक्स दीजिये-जाइये

बड़का साहब से पूंछा
साहब आप गुनी है,ज्ञानी हैं
अनुभव विज्ञानी है
खाये हैं खेले हैं
जिंदगी के देखे बहुत मेले हैं
हमको भी कुछ अनुभव लाभ बताइये
हंसने का सबसे मुफीद तरीका बताइये
साहब बोले अब तुम्ही लोग हंसो यार
हमारी तो उमर निकल गई
अब हंसना है बिल्कुल बेकार
तुम्हारे इत्ते थे तो हम भीं बहुत हंसते थे
पूरी दुनिया को अंगूठे पे रखते थे
तुम ऐसा करो पुरानी फाइलें पलट डालो
उनमें हंसी के रिकार्ड मिल जायेंगे
नमूने तो पुराने हैं पर ट्रेंड मिल जायेंगे


फाइलें में कुछ न मिला सब दे गई गयीं धोका
सोचा भाभियों से पूछ लें होली का भी है मौका

हमने पूंछा भाभी जी जरा हंस कर दिखाइये
वे बोली भाई साहब ये तो बाहर गये हैं
आप ऐसा करें कि तीन दिन बाद आइये
मैंने कहा अरे उसमें भाई साहब कि क्या जरूरत
आप कैसे हंसती हैं जरा बेझिझक बताइये
वे बोली नहीं भाई साहब अब हम
हरकाम प्लानिंग से करते हैं
सिर्फ संडे को हंसते है
आप उसी दिन आइये नास्ता कीजिये
हमारी हंसी के नमूने ले जाइये

अगर जल्दी है तोचौपाल चले जाइये
वहां लोग हंसते हैं खिलखिलाते हैं
बात-बेबात ठहाके लगाते हैं
आप अगर जायें तो मेरे लिये भी
चुटकुले नोट कर लाइयेगा
क्योंकि अब तो ये पिटी-पिटाई सुनाते हैं
हंसाते हैं कम ज्यादा खिझाते हैं

इस सब से मैं काफी निराश फिर भी आशावान था थोड़ा
सोच -समझ कर मैंने स्कूटर अस्पताल को मोड़ा
डा.झटका से मिला हेलो-हाय की ,सीधे-सीधे पूंछा
यहां अस्पाताल में लोग किस तरह हंसते है

डा. लगभग चीख कर बोले -क्या बकते हैं?
यहां अभी तक मैंने ऐसा कोई केस नहीं देखा
आपको किसी और बीमारी का हुआ होगा धोखा
क्योंकि हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है
एक से दस,दस से सौ तक फैलती इसकी क्यारी है
एक बार फैलने पर इसका कोई इलाज नहीं होता
यह हर एक को अपनी गिरफ्त में ले लेती है
सारा वातावरण गुंजायमान होता है

मैं बोला फिर भी हंसी का कोई मरीज आया तो
आप उसका इसका कैसे करेंगे?
इस लाइलाज समस्या से कैसे निपटेंगे?
डा.बोले -रोग कोई हो इलाज एक ही तरीके से करते है
शुरु हम कुनैन के तीन डोज से करते हैं
फिर हम अपने यहां हर उपलब्ध खिलाते हैं
दवायें खत्म हो जाने के बाद
हम मरीज को सिविल हास्पिटल भिजवाते हैं
कुछ दिनों में मरीज की इच्छा शक्ति लौट आती है
उसकी तबियत अपने आप ठीक हो जाती है
सो आप चिंता मत कीजिये घर जाइये
भगवान का नाम जपिये चैन की बंशी बजाइये

इसके बाद मैंने सोचा बच्चे तो मासूम होते हैं
कम से कम वे तो अंगूठा नहीं दिखायेंगे
न हंस पर कहने पर जरूर मुस्करायेंगे
मैंने एक बच्चे को पकड़ा गुदगुदाया
लेकिन यह क्या उसकी तो आंख से आंसू निकल आया
बोला-अंकल आजकल हम छिपकर,बहुत किफायत से हंसते हैं
क्योंकि हम अपने नंबर कटने से बहुत डरते हैं
हर हंसी पर 'सरजी'प्रोजेक्ट वर्क बढ़ा देते हैं
ठहाके पर तो टेस्ट के नंबर घटा देते हैं
इससे मम्मी-पापा अलग परेशान होते हैं
कुछ देर स्कूल को कोसते हैं फिर गुस्सा हम पर उतार देते हैं
इसीलिये हम अपनी हंसी का पूरा हिसाब रखते हैं
दिन भर में दो बार मुस्कराते हैं,एक बार हंसते हैं
ठहाका तो हफ्ते में सिर्फ एक बार लगाते हैं

इतना सब सुनकर हंसने के लिये मैं खुद गुदगुदी करता हूं
हंसी गले तक आती है फिर लौट जाती है
हंसी का कोई प्रायोजक नहीं मिलता है
अपने आप हंसना घाटे का सौदा लगता है
ऐसे में कौन किसे हंसाये ,किसे गुदगुदाये
सब अपने में व्यस्त हैं परेशान -हड़बड़ाये,
यही सब सोचकर मैंने अपनी कलम उठायी
होली का मौका मुफीद समझा और यह कविता सुनायी.

Wednesday, March 23, 2005

शिक्षा :आज के परिप्रेक्ष्य में

HPIM0007

मैं स्कूल से घर लौट आया


हमारे एक दोस्त हैं.उनके एक लड़का है.१८ साल का.लड़का मेधावी है.इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ता है.हास्टल में रहता है.अच्छी बात है लड़का आज्ञाकारी है.पिता की हर बात मानता है.सब कुछ ठीक रहा तो बच्चा सिविल सर्विसेस में या एम.बी.ए. में निकल जायेगा.कुछ नहीं तो इंजीनियरिंग तो कहीं नहीं गयी-जहां वह पढ़ रहा है.

एक दिन बालक ने पिताजी को 'मोबाइलियाया'.वे मींटिगरत थे.उचक के,लपक के फिर भाग के बाहर आये.कान,कंधा तथा
आवाज उचका के बात की.पांच सौ किमी दूर बालक पूछ रहा था कि हास्टल से दो किमी दूर शहर वह साइकिल से जाये या
रिक्शे से .पिताजी ने मौसम,माहौल ,जरूरत आदि के बारे में तथ्य जमा किये.फिर तर्कपूर्ण निर्णय देकर बच्चे का कष्ट निवारण किया.यही बच्चा आगे चल के देश का नीतिनिर्धारण करेगा.मोबाइल से सलाह लेते हुये.मेधा बची रहेगी जरूरी कामों के लिये.हमारी शिक्षा व्यवस्था साल में लाखों ऐसे मेधावी पैदा कर रही है.पर ससुरा देश अंगद का पांव हो गया है.

लोग कहते हैं अकबर १३ साल की उमर में गद्दी पर बैठा.वह पढ़ा ज्यादा नहीं था.अगर हो भी तो आज की तुलना में तो अनपढ़ कहा जायेगा.लोग कहते हैं वह पढ़ा नहीं कढ़ा था.पचास साल तक शासन किया.बिना पढ़े लिखे.इतिहास के सफलतम शासकों में से एक किसी शिक्षा व्यवस्था का मोहताज नहीं रहा.
Akshargram Anugunj


दुनिया के तमाम महापुरुषों के नाम गिनाना फिजूल है जो कभी औपचारिक शिक्षा नहीं पाये.महान लोग महान होते है-आम लोग आम होते हैं.उनके लिये शिक्षा की आवश्यकता होती है, रहेगी -हमेशा.

शिक्षा यानि कि विद्या के बारे में मशहूर है--विद्या विनय देती है,विनय से पात्रता आती है,पात्रता से धन,धन से
धर्म तथा धर्म से सुख मिलता है.फ्लोचार्ट बनायें तो कुछ यों बनेगा:
विद्या->विनय->पात्रता->धन->धर्म->सुख
बहुत दिन तक चलता रहा काम इस प्रोग्राम से.फिर पता नहीं कुछ वायरस आ गये बीच की कड़ियों का तालमेल गड़बड़ा गया.
फ्लोचार्ट भी करप्ट हो गये.कहीं वे विद्या->धन->सुख हो गये .कहीं विद्या->विनय->पात्रता->धर्म हो गये.कहीं विद्या->अविनय->अपात्रता->धन->अधर्म->सुख हो गये.अधिकांश मामलों में यह समीकरण पाया गया विद्या->धन हो गया.विद्या की धन से हाट लाइन जुड़ गयी.

विद्या की शार्टशर्किटिंग हो गयी.जंपिग प्रमोशन मिला.विनय तथा पात्रता को सुपरसीड करके धन तक पहुंच गयी.पर उछलकूद
में ढेर हो गयी.आगे नहीं जा पायी.लब्बोलुआब कि जिसके पास विद्या है उसके पास धन है.जिसके पास धन है उसके पास विद्या.विद्या अब फ्री सस्ते साफ्टवेयर की स्थिति को छोड़ती जा रही है.

शिक्षा का उद्देश्य हमेशा से मानव का परिष्कार करना रहा है.यह परिष्कार रुढ़िग्रस्त होने पर अरुचिकर होता जाता है तथा शिक्षा
बोझिल होती जाती है.तभी स्कूलों में किसी अचानक हुयी छुट्टी की घंटी के मुकाबले बच्चे की हुर्रे हमेशा ऊंची होती है.

शिक्षासमाज की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिये.मुझे लगता है हमेशा होती भी है-हर समाज में.आज हमारी जरूरत पिछलग्गू विकासशील बने रहने की है तो हम अपने आला वर्ग के लिये आला देशों से आला दर्जे की शिक्षा आयात कर लेते हैं -जस की तस(बाकियों के लिये शाला है ही).अमेरिका की जरूरत दूसरे देशों को बरवाद करके उनको सभ्य बनाने की है तो वहां वैसी व्यवस्था है समाज स्कूलों में.तभी वहां हाईस्कूल का छात्र नौ लोगों को मुस्कारते हुये गोलियों से भून कर कर खुदकशी कर लेता है.कुछ चूक हो गयी होगी नहीं तो यह जवान होकर हजारों पर बम बरसाता.

हम भी कोई लकीरी नहीं हैं कि जोंक की तरह एक ही शिक्षा नीति से जुड़े रहें.हर साल बदल देते हैं अपनी प्राथमिकतायें.आज ज्योतिष पर जोर कल गणित पर परसों वैदिक गणित.आज गणित का प्रैक्टिकल शुरु किया बोर्ड में तो अगले साल साइंस में भी प्रैक्टिकल गोल.

बकौल श्रीलाल शुक्ल -वर्तमान शिक्षापद्धति रास्ते में पड़ी कुतिया है,जिसे कोई भी लात मार सकता है.

यह लतखोर शिक्षा व्यवस्था दिन पर दिन मंहगी होती जा रही है.सरकार कल्याणकारी कामों से उदासीन होती जा रही है.सरकारी
स्कूलों की शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है.प्राइमरी शिक्षक गुटबंदी,जनगणना,चुनाव,पोलियो उन्मूलन आदि के अलावा
दोपहर भोजन योजना के इंतजाम में लगे रहते हैं.मंहगे स्कूलों में फीस ज्यादा है पर उसका अध्यापक सरकारी मास्टर के मुकाबले कम तनख्वाह पाता ज्यादा असुरक्षित है.यह असुरक्षाबोध वह कुंठा में बदलता है.येन-केन-प्रकारेण वह बच्चों को सौंप देता है.जिस वर्ग से जो मिला लौटा दिया-त्वदीयं वस्तु गोविंदम,तुभ्यमेव समर्पयामि.



सार्थक शिक्षा के लिये जरूरी है कि ,बच्चों को स्कूलों में घर जैसा माहौल मिले.उनको जो कुछ पढ़ाया जाये उसका रोजमर्रा के जीवन से सहज संबंध हो.शिक्षा बच्चे की नैसर्गिक मानसिक क्षमताओं के विकास में योगदान करे तथा उसे समाज के लिये उपयोगी और मजबूत नागरिक के रूप में तैयार कर सके.

यह जरूरतें हर समाज की हैं .जरूरत है समाज के अनुरूप इस जरूरत को पूरा करने की.

मेरी पसंद

हिमालय किधर है ?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था.

उधर-उधर --उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी

मैं स्वीकार करूं
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है!

--केदारनाथसिंह

Thursday, March 10, 2005

मेरे बचपन के मीत

बडी आफत है.सबरे अनुगूंजिये कहते हैं अतीत के बारे में लिखो.कोई कहता है प्यार के बारे में लिखो,कोई कहता है चमत्कार के बारे में लिखो.अब नींद खुली अवस्थी की बोले- बचपन के यार के बारे में लिखो.अतीत गरीब की लुगाई हो गया,सब छेड रहे हैं.

यह भी कहा गया बचपन के यार के बारे में लिखो.तो बचपना कब तक माना जाये?कुछ लोगों का बचपना बुढापे के साथ जवान होता है.हम अपना बचपना कहां तक माने ?कुछ साफ नहीं है.सब गोलमाल है. हमने पूंछा पत्नी से बचपना कहां तक लिया जाये.बोली तुम भविष्य की बात अभी से कैसे लिखोगे–का कौनो ज्योतिषी हो?हमने पूंछा क्या मतलब? बोली बचपने का स्कोप तो हमेशा रहता है.तुम उमर वाला बचपना लेव.काहे से कि दिमाग के बचपने के लिये तो तमाम टेस्ट कराने पडेंगे.उमर १६ साल तक ले लेव काहे से कि उसके बाद मामला किशोरावस्था की सीमा रेखा लांघ जाता है.

बहरहाल,गये हम अतीत के तलघर में.झाड़-पोंछकर इकट्ठा की कुछ यादें.वही यहां छितरा रहे हैं. Akshargram Anugunj

शरद अग्रवाल हमारे सबसे पुराने दोस्त हैं.हम कक्षा एक से पांच तक साथ पढ़े.शरद और हमें रामचरितमानस की चौपाई याद करने का चस्का शायद एक साथ लगा.गुरुजी,क्लास में अन्ताक्षरी कराते.हम लोग एक तरफ रहते , पूरी क्लास एक तरफ.फिर भी हम कभी हारे नहीं. गुरुजी रोज हमें दोपहर के बाद कबड्डी खिलाते.हम लोग एक तरफ रहते.मैं लोगों को अपने पाले में पकडने में माहिर था.शरद को दूसरे पाले में लोगों को छूकर जिन्दा वापस लौट आने में महारत थी.पता नहीं कितनी सांसे लेता रहता वह.देर तक कबड्डी-कबड्डी बोलता रहता धीरे-धीरे.बहुत कम ही होता ऐसा कि हम हारे हों.

आज जब बताया कि शरद अब प्यार,चमत्कार के बाद बचपन के यार पर लिखना है कुछ बताओ.तो बोले –अनूप भाई, मेरा पहला प्यार तो तुम हो.हम शरमा गये.’यू नाटी’ तक न बोल पाये.इसी क्रम में पता चला कि शरद के बेटे का जन्मदिन २२ मार्च को है.बोले- आना.हम बोले बेटा तो बाद में पहले शादी तो रेगुलराइज कराओ.बोले –आओ.यह संयोग है कि एक ही शहर में रहने,तथा अक्सर मुलाकात के बावजूद मैं अपने बचपन के यार की पत्नी का अभी तक दीदार नहीं कर पाया.

स्कूल पांच तक ही था.गुरुजी की सलाह पर हम भर्ती हुये जी.आई.सी.में– क्लास ६ में.हम रहते थे गांधीनगर में.पैदल जाते स्कूल.साथ में जाते संतोष बाजपेयी.संतोष रहते थे रामबाग में.प्रभात शिशु सदन के पास.मैं उसकी गली में नीचे से आवाज लगाता.फिर साथ-साथ जाते.

स्कूल में हम खूब खेलते. पूरी क्लास के साथ स्कूल के मैदान में गुल्ली डंडा , क्रिकेट खेलते.दिन भर खेलते.बस्ते का विकेट बनाते.चन्दा करके बाल खरीदते.गुल्ली डंडा सस्ते में आ जाता.कबड्डी वगैरह भी खेलते.संतोष थोडा तेज स्वभाव के थे.लड जाते गुस्सा आने पर.एक बार किसी बात पर हम लोगों की बोलचाल बंद हो गयी.हमारे साथ आना-जाना बदस्तूर जारी रहा.खाली बोलते नहीं.करीब एक महीने बाद संतोष की मम्मी ने मुझे ऊपर बुलाया.पूछा-क्या बात है तुम लोग बोलते नहीं.तुरंत बोलचाल शुरु हो गयी.आज जब पूंछा कि याद है किस बात पर बोलचाल बंद हुयी थी तो बोले यह तो नहीं याद है किस बात पर पर हम लोग बहुत दिन तक नहीं बोले थे.

वहीं मिले अजय सिंह.हम आगे पीछे बैठते इम्तहान में.अजय की अंगरेजी बढिया थी.मेरी कमजोर.हम क्लास ६ में अंग्रेजी से पहली बार मिले.हम बाकी विषयों में सहायक होते.

राजीव मिश्रा भी घर के पास ही रहते थे.हम सब साथ-साथ जाते.राजीव की हिंदी .अंगरेजी की राइटिंग बहुत अच्छी थी.राजीव बोलने में भी माहिर था.अभी पिछले हफ्ते बहुत दिन बाद मुलाकत हुयी.

बहुत सारे नाम याद आते जा रहे हैं.मुन्ना का घर वहीं स्कूल में था.उसके पिताजी वहीं स्कूल के अहाते में रहते(आज भी)उसका घर हमारे लिये 'ट्रान्जिट एकमोडेशन' जैसा था.वहीं हम सारा सामान रखते खेल का.

मैं जब भर्ती हुआ था स्कूल में तो मेरी पोजीशन शायद सबसे नीचे थी.बाद में मैंने मेहनत की.दोस्त मुझे बहुत सहयोग करते जब मैं निकला हाईस्कूल करके तो मेरी पहली पोजीशन थी स्कूल में.

हाईस्कूल के बाद मैने दाखिला लिया बी.एन.एस.डी. में.सेक्शन एफ-1.इस सेक्शन में दाखिले के लिये हाई स्कूल में कम कम 75% नंबर चाहिये होते थे.जितने बढिया अध्यापक मैंने इन दो सालों में देखे उतने जिन्दगी में कभी एक साथ सब मिलाकर नहीं देख पाया.ना पहले ना बाद में.सारे अध्यापक धुरंधर.लडके पढाकू.मैं अपने किसी दोस्त को नहीं जानता जो आगे-पीछे इंजीनीयर ना हो गया हो.मुझे लगता है कि दुनिया में अगर किसी एक क्लास से सबसे ज्यादा इन्जीनियर कहां से बने जैसी कोई स्टडी हो तो निश्चित तौर पर बी.एन.एस.डी.के सेक्शन एफ-1 का नंबर पहले कुछ स्थानों में होगा.

मुझे याद आ रहा है मेरे क्लास का एक वाकया.केमिस्ट्री की प्रैक्टिकल क्लास चल रही थी.सुनील कुशवाहा एक लडकाशर्ट ,पैंट में नहीं खोंसे था.अध्यापक ने कहा शर्ट अन्दर करो.उसने कहा -सर ,आदत नहीं है.गुरुजी ने एक कन्टाप मारा.कहा बहुत हीरो बनते हो.कितने नंबर थे हाईस्कूल में? वह बोला–384/500.गुरुजी बोले –इन्टर में 300 भी नहीं आयेगें.बालक उवाच–सर लिख लीजिये,400 से ज्यादा आयेंगे.गुरुजी ने फिर एक कन्टाप मारा –कहा जवान लडाते हुये.जब रिजल्ट निकला तो उसके 407 नंबर थे.मेरिट में सातवीं पोजीशन.

वहीं हमारी मुलाकात हुयी बाजपेयीजी से .गुरुजी अंग्रेजी पढाते थे.खोजते थे कि किन बच्चों के नंबर फिजिक्स, केमिस्ट्री, गणित में अच्छे आये हैं.अंग्रेजी पढाने के लिये निशुल्क बुलाते.एक महीना पढाते .कहते मैं तुम्हें लिखने को दूंगा तुम लिख के लाना.मैं जांचूंगा.इस एक घंटे के उनके साथ के दौरान वे हमको इतना उत्साहित कर देते कि हमे लगता कि हम किसी से कम नहीं हैं.बाजपेयी जी हम लोगों को मानसपुत्र कहते.उनके उत्साहित करने का परिणाम हुआ कि उस साल हमारे क्लास में दस में से तीन पोजीशन आयीं इंटर में.यह उनका दिया हुआ उत्साह है कि आज भी लगता है दुनिया में ऐसा कोई काम नहीं है जो कोई दूसरा कर सकता है और मैं नही कर सकता. यह विषयान्तर हो गया.इस बारे में फिर कभी विस्तार से.

वहां मेरे सबसे बढिया दोस्तों मे रहे लक्ष्मी बाजपेयी, रविप्रकाश तथा अखिल वैश्य.लक्ष्मी तथा रवि मेरे घर के आसपास रहते.अखिल दूर रहता था.लक्ष्मी,रवि तो मिलते रहते हैं.अखिल का पता नहीं.कहीं किसी शहर में अमेरिका के बैठा होगा किसी कम्पयूटर के सामने.

बहुत सारे दोस्त याद आ रहे हैं.बहुत याद आयेंगे.उनकी बारे में फिर कभी विस्तार से.दोस्तों को याद करने पर एक मजेदार वाकया याद आया.एक बार किसी दोस्त ने मुझसे कहा.मैं तुमको बहुत याद करता हूं.मैने कहा–याद करते हो तो कोई अहसान तो नहीं करते.याद करना तुम्हारी मजबूरी है .मैं भी याद करता हूं तो कोई प्लान बनाकर थोडी याद करता हूं.अपनी अभी तक की जिन्दगी के सबसे बेहतरीन समय को अगर मैं चुनूं तो पाता हूं कि ऐसे बेहतरीन लम्हे सबसे ज्यादा मुझे मेरे दोस्तों के बीच मिले हैं.दोस्त की दौलत मेरे लिये वह ताकत रही हमेशा कि मैं अपने आपको शहंशाह समझता रहा हमेशा.आज भी मैं कभी-कभी मजाक में कहता हूं –दुनिया के हर शहर में मेरे आदमी फैले हैं.यह पोस्ट मैंने बहुत अनिच्छा के साथ लिखनी शुरु की थी–यह सोचकर कि अवस्थी का आमंत्रण —जरूरी है लिखना.अब लगा रहा है कि बहुत कुछ लिखा जाना रहा गया जो मैं स्थगित करता रहा.दोस्ती के बारे में लिखा है किसी नें:-

बात -बात में रातें की हैं
रात-रात भर बातें की हैं .


यह सिलसिला अंतहीन है.विस्तार से फिर कभी.फिलहाल इतना ही.

Friday, March 04, 2005

स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी

वीणा की टुनटुनाहट के बीच अपने इस बार के मृत्युलोक डेपुटेशन के ओवरस्टे को स्वीकृत कराने के बहाने सोचते हुये नारद जी स्वर्गलोक के मुख्यद्वार पर पहुंचे.द्वाररक्षक ने उन्हें कोई टुटपुंजिया सप्लायर समझकर गेट पर ही रोक लिया.इस दौरे में इक्कीसवीं बार नारदजी ने अपना विजिटिंग कार्ड साथ लेकर न चलने की मूर्खता पर धिक्कारा.बहरहाल,कुछ देर तक तो वे इस दुविधा में रहे कि इसे वे अपना सम्मान समझें या अपमान.बाद में किसी त्वरित निर्णय लेने मे समर्थ अधिकारी की भांति ,जो होगा देखा जायेगा का नारा लगाकर,उन्होंने इसे अपना अपमान समझने का बोल्ड निर्णय ले लिया.

नारदजी ने पहले तो,अरे तुम मुझे नहीं पहचानते का आश्चर्यभाव तथा उसके ऊपर अपने अपमान से उत्पन्न क्रोध का ब्रम्हतेज धारण किया.अगली कडी के रूप में द्वाररक्षक का ओवरटाईम बन्द होने का श्राप इशू करने हेतु जल के लिये उन्होंने अपने कमंडल में हाथ डाला तो पाया कि जैसे किसी सरकारी योजना का पैसा गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही चुक जाता है वैसे ही उनके कमंडल का सारा पानी श्रापोयोग से पहले ही चू गया था.मजबूरन नारदजी ने अपने चेहरे की मेज से ब्रम्हतेज की फाईलें समेट कर उस पर दीनता के कागज फैलाये. उधर गेटकीपर ने,किसी देवता का खास आदमी ही बिना बात के इतनी अकड दिखा सकता है ,सोचते हुये उन्हें अन्दर आने की अनुमति दे दी.

नारदजी अन्दर घुसे.वहां किसी फैक्टरी सा माहौल था.कुछ लोग धूप सेंक रहे थे,कुछ छांह की शोभा बढा रहे थे.कुछ चहलकदमी कर रहे थे,गप्परत थे कुछ ने अपने चरणों को विराम देकर मौनव्रत धारण किया था--मानों कह रहे हों इससे ज्यादा काम नहीं कर सकते वे.जो जितना फालतू था उसके चेहरे पर उतनी ही व्यस्तता विराजमान थी.नारदजी स्वर्ग को निठल्लों का प्रदेश कहा करते थे.यहां के निवासियों को कुछ करना-धरना नहीं पडता था.खाना-पीना, कपडे-लत्ते की सप्लाई मृत्युलोक के भक्तगण यज्ञ ,पूजा पाठ के माध्यम से करते थे.

नारदजी स्वर्ग के सबसे प्रभावशाली देवता विष्णुजी से मिलने के लिये उनके चैम्बर की तरफ बढे.नारदजी ने देखा कि विष्णुजी अपने सिंहासन पर किसी सरकारी अधिकरी की तरह पडे-पडे कुछ सोच रहे थे.नारदजी को देखकर उन्होंने अपने चिन्तन को गहरा कर लिया ,व्यस्तता बढा ली तथा नजरें अपने चैम्बर में उपलब्ध एक़मात्र कागज में धंसा लीं.पहले तो नारदजी ने सोचा कि कि विष्णुजी शायद अपने शेयर पेपर्स देख रहें हों या फिर शाम को खुलने वाली महालक्ष्मी लाटरी के नंबर के बारे में अनुमान लगा रहे हों.वे एक सिंसियर स्टाफ की तरह बाअदब, बामुलाहिजा चुपचाप खडे रहे.देर होने पर नारदजी ने कनखियों से झांककर देखा कि विष्णुजी की नजरें तो एक खाली कागज पर टिकी हैं.उन्होंने फुसफुसाहट ,सहमाहट में थोडी हकलाहट मिलाकर विष्णुजीको दफ्तरी नमस्कार किया.

विष्णुजी ने अपनी नजरें कागज की गहराइयों से खोदकर नारदजी के चेहरे पर स्थापित की.अपने चेहरे पर मुस्कराहट की छटा बिखेरी तथा 'हाऊ डु यू डु से लेकर ओ.के.देन सी यू 'की ड्रिल एक मिनट में पूरी कर
इसके बाद वो अपने चेहरे की मुस्कराहट का बल्ब आफ करने वाले ही थे कि उन्हें यह ध्यान आया कि नारदजी तो इस बार मृत्युलोक होकर आये हैं जहां वे खुद,यदा यदा हि धर्मस्य....संभवामि युगे-युगे,का बहाना बनकर कई बार डेपुटेशन पर जा चुके हैं.उन्होंने अपने मन के कारखाने में एक अर्जेन्ट 'वर्क आर्डर 'प्लेस करके मृत्युलोक
और नारद जी के प्रति प्रेम पैदा किया.अपने कमरे के बाहर लाल बल्ब जलाया.अर्दली को नरक की कैन्टीन से चाय लाने के लिये भेज दिया और नारदजी से इत्मिनान से बतियाने लगे.

विष्णुजी:-और सुनाइये मि.नारद ,इस बार कहां घूम के आये.

नारदजी:-साहब,इस बार मैं धरती पर स्थित स्वर्ग भारत देश की यात्रा करके आया हूं.

विष्णुजी:-धरती पर स्वर्ग !क्या भारत स्वर्ग हो गया?क्या वहां के लोग भी स्वर्ग के निवासियों की तरह कुछ काम-धाम नहीं करते?खाली बैठे रहते हैं?

नारदजी:-नहीं साहब ,ऐसी बात नहीं है.लोग कामचोरी ,लडाई-झगडा,खुराफात,चुगलखोरी आदि जरूरी कामों से फुर्सत पाकर काम-धाम को भी क्रतार्थ करते हैं.पर ऐसा कम ही होता है कि लोग जरूरी खुराफातें छोडकर काम-धाम में समय बरबाद करें.

इसके बाद नारदजी ने चाय की चुस्कियों के बीच अपने डेपुटेशन से जुडी जानकारियां दी.विष्णुजी ने भी,व्हेन आई वाजा देयर ड्यूरिंग रामावतार/कृष्नावतार.....,कहते-कहते शेयर कीं.नारदजी ने उन्हें मुम्बई में हुये फिल्म महोत्सव के बारे में भी बताया .वीणा की धुन पर मस्त-मस्त गाने सुनाये.फिल्म महोत्सव के बारे में सुनकर विष्णुजी उदास हो गये.उस दौरान उन्होंने पृथ्वी पर धर्म की बढती हानि और अधर्म के बढते उत्पादन को देखते हुये धर्म की संस्थापना के लिये अपने डेपुटेशन का प्रस्ताव पेश किया था.अपना पीताम्बर वगैरह प्रेस करवा कर जाने की तैयारी कर ली थी.वे इन्तजार करते रहे.फिल्म महोत्सव निकल गया पर प्रस्ताव की फाइल लौट के नहीं आई.उन्होंने तमाम दूसरी योजनाऒ की तरह धर्म की स्थापना का इरादा भी मुल्तवी कर दिया.

विष्णुजी ने नारदजी से पूछा:-और सुनाओ आजकल भारत में क्या हो रहा है?

नारदजी:-मार्च में सेफ्टी माह मनाने की तैयारी हो रही है.

सुनते ही विष्णुजी उछल पडे.नारदजी को लगा कि कहीं विष्णुजी अपने खर्चे पर तो नहीं धर्म की स्थापना करने
चल पडे या फिर किसी सफेद हाथी ने तो नहीं इन्हें पुकारा जिसकी रक्षा के लिये भगवान उछलकर जाना चाहते हैं.बहरहाल कुर्सी की आकर्षण शक्ति ने उन्हें पुनर्स्थापित किया.नारदजी विष्णुजी के उछलने का कारण जानने के लिये अपने चेहरे पर हतप्रभता स्थापित कर पायें इसके पहले जी विष्णुजी ने सवाल दागने शुरु कर दिये:-

ये सेफ्टी माह क्या होता है?कैसे मनाया जाता है?किस देवता की पूजा करनी पडती है?कितने दिन का व्रत रखना पडता है?इसे मनाने वाले को क्या फल मिलता है?मैनें तो किसी शास्त्र/पुराण में इसकी चर्चा सुनी नहीं .विस्तार से बताओ नारद--मुझे जानने की इच्छा हुयी है.

नारदा उवाच:-पहले तो मैं आपको सेफ्टी के बारे में बताता हूं.किसी दुर्घटना के बाद सबसे ज्यादा हल्ला जिस चीज का मचता है उसे सेफ्टी कहते हैं.सेफ्टी का जन्म दुर्घटना के गर्भ से होता है.

विष्णुजी:-सो कैसे?

नारदजी:-जब तक कोई दुर्घटना नहीं होती तब तक सेफ्टी का कोई नामलेवा नहीं होता.सेफ्टी अल्पमत में होती है.दुर्घटना के बाद बहुमत सेफ्टी की आवश्यकता की तरफ हो जता है.अत:सेफ्टी के महत्व के लिये दुर्घटनायें बहुत जरूरी हैं.

विष्णुजी:-पर आप तो कह रहे थे कि सेफ्टी से दुर्घटनायें कम होती हैं.

नारदजी:-दरअसल यह अफवाह सेफ्टी पालिसी का बहुमत विभाजित करने के लिये फैलाई जाती है.सेफ्टी पालिसी के न होने पर दुर्घटना होने पर सब लोग एक मत से कहेंगे कि सेफ्टी पालिसी का ना होना ही दुर्घटना का कारण है.सेफ्टी पालिसी के होने पर बहुमत विभाजित हो जायेगा.दुर्घटना होने पर कोई कोई कामगार को कोसेगा,कोई मशीन को दोष देगा,कोई अपने कर्मों को,कोई सेफ्टी पालिसी को और कोई इसे आपकी (भगवान की)मर्जी मानेगा.दुर्घटना के कारणों की मिली-जुली सरकार बन जायेगी.किसी एक कारण की तानाशाही नहीं रहेगी .

विष्णुजी:-सेफ्टी माह कैसे मनाया जाता है?

नारदजी:-यह मार्च माह में मनाया जाता है.भाषण,सेमिनार,वाद-विवाद,कविता,पोस्टर प्रतियोगिता आदि आयोजित होती हैं.सेफ्टी बुलेटिन निकाला जाता है.4मार्च को संरक्षा दिवस (सेफ्टी डे)मनाया जाता है.संरक्षा शपथ ली जाती है.

विष्णुजी:-यार,यह तुमने अच्छा बताया .चलो हम भी इस बार सेफ्टी माह मनाते हैं.तुम ऐसा करो फटाफट एक स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी बना लाओ.

नारदजी:-साहब ,सेफ्टी पालिसी की जरूरत तो वहां होती है जहां दुर्घटनायें होती हैं और दुर्घटनायें वहां होती हैं जहां कुछ काम-धाम होता है .स्वर्ग में कोई काम-धाम तो होता नहीं है. स्वर्ग में सेफ्टी पालिसी की क्या जरूरत !

विष्णुजी:-देखो यार जहां तक काम-धाम की बात है तो स्वर्ग में काम-धाम का कल्चर तो कोई पैदा नहीं कर सकता .लोग-बाग जुगाड लगाकर यहां आते ही इसी लालच में हैं कि कुछ काम ना करना पडे.काम-काज की परम्परा शुरु हो जायेगी तो लोग यहां आना ही बंद कर देंगे.पर दुर्घटनाऒ की चिन्ता तुम ना करो.उनका इन्तजाम मैं कर दूंगा.अभी मेरे सुदर्शन चक्र में इतनी धार बाकी है.मैं एक बार जो सोच लेता हूं वो करके रहता हूं.मृत्युलोक
में धर्म की स्थापना के लिये बार-बार मुझे यों ही नहीं बुलाया जाता.कहते-कहते विष्णुजी की आवाज गनगनाउठी.

नारदजी जानते थे कि ,जो सोच लेता हूं वह करके रहता हूं ,कहने के बाद विष्णु जी की सोच-समझ की दुकान बन्द हो जाती है तथा सारी बुकिंग फिर जिद के बहीखाते में होने लगती है.इस समय उनकी स्थिति उस सरकारी अफसर की तरह हो जाती है जो अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की स्थिति को प्राप्त कर चुका होता है .ऐसी दशा में तारीफ के अलावा किसी दूसरी फ्रीक्वेन्सी की आवाज उन्हें नहीं सुनायी देती.

नारद जी ने ,तू दयालु दीन हौं ,की मुद्रा धारण करके विनयपूर्वक निवेदित किया- साहब आप दुर्घटनायें क्यों करायेंगे?लोग तो आप का नाम लेकर भवसागर पार करते हैं.पर मुझे सेफ्टी पालिसी का कोई उपयोग नहीं समझ में रहा है.इसका कोई जस्टीफिकेशन ना होने पर कागज ,समय तथा पैसे की बरबादी के लिये आडिट आब्जेकशन होगा.

विष्णुजी:-यू डोन्ट केयर फार जस्टीफिकेशन.बन जायेगी तो पडी रहेगी.कभी ना कभी किसी काम आयेगी ही.अब मान लो कोई कल्पतरु के नीचे खड़े होकर स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी मांग ले और वह कह दे--"सारी आई डोन्ट हैव सेफ्टी पालिसी ".तो कैसा लगेगा? कल्पवृक्ष /स्वर्ग की तो इमेज चौअट हो जायेगी.मृत्युलोक में लोग कहेंगे--क्या फायदा माला जपने.तपस्या करने,यज्ञ में घी-तेल, अन्न फूंकने से जब इसके फलस्वरूप स्वर्ग जाने पर कल्पतरु एक सेफ्टी पालिसी तक नहीं दे सकता..ये तो अच्छा हुआ तुमने बता दिया वर्ना हम धोखा खा सकते थे.'एनी वे'जाओ जल्दी करो .एक हफ्ते में सेफ्टी पालिसी बनाकर ले आओ.

नारदजी ने अपना अन्तिम हथियार इसतेमाल करते हुये एकदम बाबुई अन्दाज में कहा-साहब आप कहते हैं तो
बनाने की कोशिश करता हूं पर एक हफ्ते में सेफ्टी पालिसी नहीं बन सकती.काम ज्यादा है.

बाबू के जवाब में अफसर कडका-- आई डोन्ट वान्ट टु हियर एनी थिंग.यू गेट लास्ट एन्ड कम बैक आफ्टर वन वीक विथ सेफ्टी पालिसी आफ स्वर्गा.

वीणा उठाकर गेटलास्ट होते-होते नारदजी ने दृढ विनम्रता से कहा.साहब आप कह रहे हैं तो कर देता हूं पर यह काम हमारा है नहीं.हमारा काम तो आप लोगों की स्तुति/चापलूसी करना,लोगों की निन्दा करना ,टूरिंग जाब करके खबरें इधर-उधर करना है.लिखाई-पढाई करना मेरा काम नहीं है.यह काम तो चित्रगुप्त ,सरस्वती जी का है--जिन्हें आपने कलम सौंपी है.

यह कहते हुयी नारदजी विष्णुजी के कमरे से बाहर आ गये.उनकी वीणा से निकलते 'हरे कृष्ण गोविंद हरे मुरारी 'के स्वर विष्णुजी के कानों में गुदगुदी करने लगे थे.

एक सप्ताह बाद नारदजी द्वारा बनाई स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी पढते समय विष्णुजी को एक नियम दिखा-अपने शरीर के किसी भी अंग को किसी भी चलती मशीन/वस्तु के संपर्क में ना लायें.

विष्णुजी चौंके.नारदजी को बुलाया.बोले:-यह तो मेरी शक्तिहरण का षडयंत्र है.अगर यह नियम रहेगा तो मैं अपना सुदर्शन चक्र कैसे चलाऊंगा?पापियों का नाश कैसे करूंगा,दुष्टों का संहार कैसे करूंगा?अधर्म का नाश तथा धर्म की स्थापना कैसे करूंगा?

इस पर नारदजी बोले:-साहब जिससे नकल करके मैने यह सेफ्टी पालिसी बनाई है उसमें तो यही नियम है.इसे कैसे
हटा दूं मुझे समझ नहीं आता.जानकारी नहीं है मुझे.आप या तो सेफ्टी पालिसी बनवा लें या धर्म की स्थापना कर लें.

विष्णुजी बोले:-फिलहाल तो मैं धर्म की स्थापना पर ही ध्यान दूंगा.तब तक तुम कोई ऐसी सेफ्टी पालिसी खोजो जिससे मेरे सुदर्शन चक्र के संचालन में कोई बाधा ना पडे.

तबसे नारदजी ऐसी सेफ्टी पालिसी की तलाश में हैं जिसकी नकल करके वो स्वर्ग की सेफ्टी पालिसी बना सकें.मुझसे भी पूंछ चुके हैं कि क्या मैं उनकी सहायता कर सकता हूं?

क्या आप उनकी सहायता कर सकते हैं?