Thursday, April 06, 2017

धन्धे से धंधा जुड़ा होता है


आज दो बार गंगापुल पार किये। नरेशा सक्सेना जी की कविता याद करते हुये:
पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना।
लेकिन पुल की कहानी फिर। शुरुआत चाय की दुकान से।
सुबह गेट के बाहर चाय की दुकान जम रही थी। पप्पू नाम चाय वाले का । पप्पू दूध गरम कर रहे थे। तीन साल से लगा रहे हैं दूकान। दस किलो दूध की चाय रोज बेच लेते हैं। एक किलो में बीस- बाइस चाय। एक चाय पांच रूपये की। मतलब 1000 रूपये की बिक्री चाय से। बाकी चुटुर-पुटुर।
पहले टट्टर बनाने का काम करते थे। अब मेहनत कम कर पाते हैं। इसलिये चाय की दुकान कर ली। पांच बच्चे हैं। दो सिलाई का काम करते हैं।
पप्पू दूध गरम कर रहे हैं। इसलिये हम अपनी चयास को स्थगित करके सैर पर निकल लेते हैं।
'यदुवंशी स्वीट हाउस' की गन्दगी को तीन सूअर जिस तरह तसल्ली से खखोरकर छितरा रहे थे उससे लगा जीबीआई (गन्दगी ब्यूरो इन्वेस्टिगेशन) की टीम का छापा पडा है दुकान पर।
मंदिर में भजन चल रहा है--'मैया ने बुलाया है।'
सड़क के दोनों तरफ पड़ी चारपाइयों में लोग गुड़ी-मुड़ी हुए सो रहे थे। कुछ लोग मच्छर दानी को चादर की तरह लपेटे हुए खर्राटे भर रहे थे।
पुल पर पहुंचकर सोचते हैं कि वापस लौटें या पुल पार चलें। सोचते-सोचते सौ कदम निकल जाते हैं। अपने आप तय हो जाता है ,पार चलना है।
नीचे रेती में लोग ककडी,खरबूजा, तरबूज के खेत में काम कर रहे थे। डीजल -पम्प लगाकर सिंचाई कर रहे थे। दो बच्चे रेत में दौड़ते-भागते खेल रहे थे। यह उनकी यादों में दर्ज हो रहा होगा।
बगल वाले पुल पर ट्रेन जा रही थी। बीच पुल पर रुक गयी। हम आगे निकल गए। चलते रहने वाला हमेशा रुक जाने वाले से आगे हो जाता है। आलोक धन्वा की कविता याद आती है:
हर भले आदमी की एक रेल होती है
जो माँ के घर जाती है
सीटी बजाती हुयी
धुआँ उड़ाती हुयी
- आलोकधन्वा
पुल के बायीं तरफ बने हुये मकान पुल से नीचे दीखते हैं। एक बच्ची छत पर सतर्क मुद्रा में बैठी पढ़ाई कर रही थी। अगल-बगल की छतों पर लोग सोए हुए थे।
गंगापुल पार करते ही चाय की दुकान दिखी। चाय की दुकान पर चाय पीते हुये लोग राजनीतिक चकल्लस कर रहे थे। एक अख़बार वाले कांग्रेस समर्थक अकेले सबका मुकाबला कर रहे हैं। बोले -'अब राजस्थान वाले कहिहैं, हमारौ कर्ज माफ़ करौ। करैंक परी (करना पड़ेगा)।'
कांगेस समर्थक बाजपेयी जी अकेले भिड़े हैं दस लोगों से। बोले- 'रायबरेली जिला है। कट्टर कांग्रेसी हैं। अगली बार फिर अइहै कांग्रेस।'
दुकान के सामने खड़े बाजपेयी जी का फोटो खींचते हैं। तब तक एक रिक्शेवाले उचककर सामने आ जाते हैं। बोले-'हमरौ फोटो खींचो।' ओमप्रकाश नाम है। हम फोटो खैंच कर दिखाते हैं। खुश हो जाते हैं। एक क्लिक भी काफी है किसी की ख़ुशी के लिए।
लौटते हुए रिक्शे पर लोग बोरे में फूल लादे आते दीखते हैं। बताते हैं अजगैन से फूल मण्डी जाते हैं । कानपुर में शिवाला में मंडी है फूलों की। एक-एक रिक्शे पर तीन-चार बोरे और एक-दो लोग लादे हुए हैं रिक्शेवाले।
नीचे रेती में एक बच्चा एक टाले को रस्सी से बांधे हुए टहल रहा है। रेत पर ताले की पगडण्डी बनती जा रही है। एक बच्ची सायकिल पर चली जा रही है। गद्दी पर हीरो लिखा है। उसके पीछे और तेजी से एक बच्ची कैरियर पर किताबें रखे चली जा रही है। सामने से एक आदमी खरामा-खरामा गुनगुनाता हुआ चला आ रहा है:
श्री रामचन्द्र क्रपालु भजु मन हरण भव भय दारुणम
कन्दर्प अगणित अमित छवि नवनीलनीरज सुन्दरम।
भजन सुनकर याद आया कि यह भजन निराला जी को बहुत प्रिय था। अक्सर गाते थे। रामविलास जी ने लिखा है कि पहली बार यह भजन उन्होंने अपनी पत्नी मनोहरा देवी से सुना था। उसके बाद उनका लिखना शुरू हुआ था। पूरा किस्सा यहां पढें:
नीचे नदी में दो नाव वाले अगल-बगल नाव चला रहे थे।
पुल पार करते हुए देखा एक महिला स्कूटर पर अपने पति के साथ आई। उतरकर घर से लाया कूड़ा कूड़े में मिलाकर चली गयी। कूड़े का भी आकर्षण का सिद्धांत होता है- ’कूड़ा कूड़े को खींचता है।’
सुरेश रिक्शे वाले अपने रिक्शा स्टैंड पर टहलते दिखे। बताया गुड्डू घर गए हैं। हरदोई। खेती का काम देखने। चार-पांच दिन में आएंगे।
अनीता की झोपडी के पास से गुजरते हुए देखा वह अंदर बर्तन धो रही थी। बाहर होती तो पूछते- ’नाम मिला कि नहीं?’
पप्पू की दुकान पर चाय पीने वाले आ गए हैं। हमको जबरियन चाय पिलाये। पैसे लेने से मना किये-'पहली बार चाय पी रहे हैं।नहीं लेंगे।' हम भी जबरियन पैसा देते हैं। देते क्या धर देते हैं दुकान पर।
पप्पू के ज्यादातर ग्राहक ’बार्क यार्ड’ में सिलाई का काम करने वाले ठेकेदारों के यहां सिलाई का काम करते हैं। काम कम हो रहा है। हमीरपुर से आये एक टेलर बताते हैं जब काम नहीं होगा तब घर चले जाएंगे। पप्पू भी कहते हैं -जब ये चले जाएंगे, हमारी बिक्री और कम हो जायेगी। अभी यही हमारें नकदी/उधारी के ग्राहक हैं।
धन्धे से धंधा जुड़ा होता है -’सोचते हुए हम घर चले आते हैं।’
सुबह हो गयी है।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10211035163648488

No comments:

Post a Comment