Friday, April 07, 2017

जो चीजें जबरियन भुलाई जाती हैं वो और तेज याद आती हैं

आज सबेरे उठकर बाहर आये तो देखा सूरज भाई आसमान पर जलवा नशींन थे। हमको देखा तो मुस्कराने लगे। बोले -'ठीक है उठने के बाद बायोमेट्रिक अटेंडेंस नहीं देनी पड़ती लेकिन टाइम से उठा करो भाई।'
सूरज भाई के साथ किरणें भी हंसने लगीं। कुछ हमारी बातचीत से बेपरवाह बगीचे में घास, पत्ती, फ़ूल पर खेलती रहीं। धूप और उसकी छांह की जुगलबन्दी के बीच एक गिलहरी बिना वीसा, पासपोर्ट के फुदक रही थी। फुदकते समय अपनी पूँछ झंडे की तरफ फहरा रही थी। उचकते हुए पेड़ पर चढ़ने लगी। कुछ देर चढ़ी फिर पलटकर खड़ी हो गयी पेड़ पर ही। मुंडी नीचे पूँछ ऊपर। शायद शीर्षासन कर रही हो।
बगीचे में चिड़िया चहचहा रहीं थी। कुछ चिल्ला रहीं थीं। जैसे ही हमने कुछ के लिए चिल्लाना लिखा वैसे ही एक चिड़िया और तेज चिल्लाने लगी। शायद कह रही हो-'हमारे चहकने को चिल्लाना मत लिखो। अपने गुण हम पर मत आरोपित करो। हमारे चहकने को चिल्लाना मत कहो।
अलग-अलग आवाज में बोलती चिड़ियाँ अपने-अपने पसंदीदा लेखक की तारीफ़ करते हुए लेखक सी लगीं। ज्यादातर के पसंदीदा लेखक वो स्वयं होते हैं। खुद की फोटो, खुद की तारीफ़, खुद के किस्से। मुग्धनायिका जैसे। मुग्धानायिका से याद आया हमने एक बार लिखा था-'हर सफल लेखक मुग्धानायिका सरीखा होता है।'
लेखक की बात करते हुए सामने दीवार पर बंदर चलते हुए दिखे। मंकीवाक करते बन्दर अपनी पूंछ को झंडे जैसा फहराते चल रहे थे। पूँछ का झंडा संतुलन के लिए फहराते होंगे शायद।
दीवार पर टहलते बन्दर में से एक को अचानक प्यास सी लगी। वह टहलना छोड़कर दीवार से कूदकर नल के पास आया। टोंटी खोलकर पानी पिया और पानी चलता छोड़कर चल दिया। बन्दर भी आदमी की तरह लापरवाह सा दिखा। 'जल बचाओ अभियान' की अवहेलना करता। उसको भी एहसास नहीं कि पानी कितना जरुरी है जीवन के लिए।
कुछ बन्दर छत पर कूदते हुए भाग रहे हैं। टीन की छत भड़ भड़ा रही है। बंदर आवाज से उत्साहित होते और जोर से कूद रहे हैं। शायद विरोध प्रकट कर रहे हों कि यहाँ घर क्यों बनाया। यहाँ तो हमारा पेड़ था। हर जीव अपने अधिकार के लिए हल्ला मचाता रहता है। आदमी भी एक जीव है।
क्रासिंग से रेलगाड़ी गुजर रही है। उसकी सीटी हमको छेड़ते हुए बज रही है। गाने की याद दिलाती हुई:
गाड़ी बुला रही है
सीटी बजा रही है
चलना ही जिंदगी है
हमको बता रही है।
बगल के स्कूल में बच्चे प्रार्थना कर रहे हैं। बोल समझ में नहीं आ रहे हैं। समवेत स्वर भी अलग-अलग निकल रहे हैं।
आपत्ति फूल को है माला में गूथने से
भारत माँ तेरा वंदन कैसे होगा।
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना
बिखरे स्वर से ध्वज का वंदन कैसे होगा।
हमको ये कविता याद आ गईं। देशभक्ति टाइप है। इसलिए लगेगा हम देशभक्त टाइप हैं। अलग टाइप की याद होती तो अलग टाइप के लगते। इंसान को जिस तरह की चीजें याद रहती उसके उसी टाइप का बन जाने की संभावना सबसे ज्यादा रहती हैं। इसीलिए सत्ताएं लोगों को अपने टाइप का बनाने के लिए अपने टाइप की चीजें सिखाने की कोशिश करती हैं। लेकिन इस चककर में अक्सर न्यूटन बाबा का तीसरा नियम भूल जाती हैं- हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है।
जो चीजें जबरियन भुलाई जाती हैं वो और तेज याद आती हैं।
अब चलें । सुबह हो गयी। दफ़्तर को जबरियन भूले हुए थे, बहुत तेज याद आ गया।
आप मजे से रहिये। दिन शुभ हो।

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