Samiksha Telang द्वारा 'सूरज की मिस्ड कॉल' की समीक्षा। आभार समीक्षा इतनी मेहनत से किताब पढ़ने और उसके अंश इकट्ठा करने के लिए । धन्यवाद
Santram.जी इसे प्रकाशित करने के लिए।
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अनूप शुक्ल जी की पुस्तक की समीक्षा जिसे इस वर्ष उप्र संस्थान से पुरस्कार भी मिला... आप भी पढिए, शायद पुस्तक पढ़ने का मन हो जाए...
आभार संपादक Santram Pandey जी
उस दिन दो मेल आए। १३ अक्टूबर तारीख़ थी। देखा,
#अनूपकीडाक से मेल। ख़ुशी का ठिकाना नहीं। काफ़ी समय से मन था अनूप शुक्ल जी की पुस्तकें पढ़ने का। यहाँ ऑनलाईन पुस्तकें नहीं मिलती। इसलिए ख़रीदना दूर की बात है। “सूरज की मिस्डकॉल” और “पुलिया पर दुनिया” ये दो किताबें। उनके अनुसार उन्होंने अपनी पुस्तकें रिश्तेदारों तक में फ़्री नहीं बाँटी। और मुझे ये सौग़ात ईनाम के रूप में मिली।
ऐसे तो अनूप जी को रोज़ ही पढ़ते हैं। और हर बार उन्हें पढ़ना उतना ही सुखद होता है। जिस बानगी और रोचक अन्दाज़ में वे लिखते हैं शायद कोई प्रयत्न करके भी न लिख पाए। कोई नए विषय नहीं। सब कुछ हमारे आसपास की घटनाएँ। बस बताने का अन्दाज़ निराला। और यही निरालापन उन्हें औरों से अलग करता है।
आप लोगों को ध्यान हो फ़ेसबुक पर चल रही
#व्यंग्यकीजुगलबंदी- १०७ में की मैंने १४ लोगों के लेखों की समीक्षा लिखी थी। बस उसी मेहनत का नतीजा कि अनूप शुक्ल जी ने ये पुरस्कार दिया।
इधर व्यस्तता ज़्यादा होने की वजह से पुस्तक अब जाकर पढ़ पायी हूँ। मैंने उनकी बहुचर्चित पुस्तक “सूरज की मिस्डकॉल” जब पढ़ी तो लगा कि क्या इस सोच के साथ भी कोई लिख सकता है।
पहला लेख जो कि अनूप जी का सबसे पसंदीदा लेख भी है। उसमें वे लिखते हैं-
“बूँद की आड़ में बूँद बाहर आयी तो देखा सूरज कि एक किरण एक बूँद में रोशनी का इंजेक्शन लगा रही थी। साथ की बूँदें खिलखिला रही थीं। तमाम बूँदों को खिलखिलाता देखकर एक दलाल ने उनको अपने साथ इकट्ठा करके एक फ़ोटो सेशन कर लिया और सारी दुनिया भर में खिलखिलाहट को इंद्रधानुष के नाम से पेटेंट करा लिया”।
ये तो बस नमूना है। सूरज जहाँ लड़कियों का पिता है वहीं किरणें उसकी बेटियाँ हैं। अपनी बेटियों को लेकर एक पिता कितना पजेसिव और जागरुक रहता है, आपको पढ़कर समझ आ जाएगा। जगह जगह सूरजभाई कहीं कोहरे की, तो कहीं ओस की या फिर बादलों की हड्डी तुड़ाई से भी बाज़ नहीं आए। अधिकतर लेखों में चाय की दुकान पर जो भी फ़िल्मी गानें बजते उसे उसी अन्दाज़ में बयां किया है। लिखने के लिए बैठूँ तो शायद किताब का एक एक शब्द लिखना पड़ जाए। मतलब हरेक शब्द में व्यंग्य, मानवीय संवेदनाओं और व्यवहार पर तिखा प्रहार है। आप भी पढ़ें कुछ अंश-
१- देखते देखते जहाज़ उड़ा और उचक कर शहर के बाहर हो लिया। ऊपर पहुँचते समय सूरज की रोशनी कम साफ़ दिखाई दी। हम पूछे- यार सूरजभाई, तुम हमको नीचे तो एकदम चमकदार रोशनी भेजते हो। लेकिन यहाँ मटमैली धूप कैसे? वो बोले- ऊपर उठने में सब जगह गंदगी होती है भाई!
२- इत्ती ज़ोर से बूँदों को हाथ रगड़ने पर पक्का सब बूँदों का दम घुट गया होगा।
३- आसमानी रंग का प्लास्टिक का पर्दा खिंच गया।
४- कलकत्ता से दिल्ली के लिए हवाई जहाज़ के उड़ते ही तमाम यात्री समाधि मुद्रा में आ गए। आँखें मूँदकर इतने ध्यान से साँस ले रहे थे मानों ये वाली साँस लेने के लिए १०हज़ार रुपया ख़र्च करके जहाज़ में बैठें हैं। बैठते ही पैसा वसूलना शुरू कर दिए।
५- ‘बच्ची डिबिया’ में चटनी।
६- दूर सूरजभाई पेड़ों की कुर्सी पर सेठ की तरह बैठे सब तरफ़ का मुआयना कर रहे हैं। उनको ख़याल था की कोई किरण छूट न जाए। ज़माना बड़ा ख़राब है न।
७- यूकेलिपटस के पेड़ों की पालकी पर सूरजभाई।
८- सब जगह क़ब्ज़ा कर लिया धूप ने। धूप मानो बाज़ार हो गई है।
९- लेखक की सूरजभाई को सलाह- एक ठो रेनकोट काहे नहीं लेते?
१०- पेट की गरमी सूरज की गरमी पर भारी है।
११- बगुले धर्मगुरुओं की तरह ‘निर्लिप्त घाघ’ लग रहे थे।
१२- कोई दिन रात कृत्रिम रोशनी में रहने वाला हो तो मारे चकाचौंध के उसका तो ‘उजाला फ़ेल’ हो जाए।
१३- क़ायदे और नियम में अंततः नियम जीत।
१४- अनूठी परिभाषा ब्लेक होल की-
सूरजभाई चाय पीते हुए बताते हैं- ब्लेक होल वैसा ही होगा जैसी वह दुनिया होगी जहाँ लड़कियाँ नहीं होंगी। सिर्फ़ और सिर्फ़ लड़के होंगे। दुनिया को ब्लेक होने से बचाना है तो लड़कियों को बचाए रखना होगा।
१५- दुकान चाहे चाय की हो या राजनीति की बिना नाटक चलती कहाँ है।
१६- समोसे को फुसलाते हुए कह रहे हो- खौलती कड़ाही में कूदने से लोगों के पेट में हलचल मचा देना पुण्य का काम है। इस नेक काम को करने से जन्नत नसीब होगी तुमको और अगले जन्म में पूड़ी पराँठा पैदा होगे।
१७- सूरजभाई शेर सुनकर बमक गए और बादलों का सुरक्षा कवच तोड़कर बाहर निकल आए।
१८- सूरजभाई चूँकि हमारे दोस्त हैं तो हमारे इलाक़े में थोड़ा धूप ज़्यादा भेज देते हैं तो कौन गुनाह करते हैं।
१९- पुलिया के पास के नए स्पीड ब्रेकर को कोई मोटर साइकल रौंद कर चला गया है। लगा किसी मासूम के साथ दुराचार हुआ है।
२०- मुँह खोला तो सिस्टम हिल जाएगा। यह बयान पढ़कर आरोपी के प्रति मन श्रद्धा से भर गया लबालब। बेचारा अंदर हो गया सिस्टम के चलते। लेकिन सिस्टम की रक्षा के लिए मुँह नहीं खोल रहा है। कित्ता प्यार है सिस्टम से।
२१- नमी को भागते देखकर घास की पत्तियाँ चहकते हुए खिलखिलाने लगीं।
२२- कई दिनों की रिमझिम और पटापट बरसात के बीच आज अचानक सूरज भाई दिख गए। कुछ ऐसे ही जैसे ३६५ अंग्रेज़ी दिवस के बीच अचानक हिंदी दिवस मुंडी उठाकर खड़ा हो जाए।
२३- दिनभर का थकाहारा सूरज अब मार्गदर्शक बनने लायक ही रह गया दिखता है।
२४- उनकी तो रोजै दिवाली मनती है। कोई दिवाली के मोहताज थोड़े हैं सूरजभाई।
२५- आसपास कोई पेड़ नहीं है न कोई चिड़ियों की डिस्पेंसरी कि चोट लगने पर फ़ौरन इलाज हो सके लेकिन चिड़िया उड़ रही है। पंख से ज़्यादा शायद अपने हौंसले से।
२६- आसमान भी एक दलबदल निर्दलीय विधायक सरीखा है। सूरज चाँद जिसकी भी सत्ता होती है उसके रंग में रंग जाता है।
२७- मामला लोकतंत्र में सरकार और कारपोरेट जैसा दिखा। जो ज़बर वही दूसरे को हांकता है।
२८- एक जगह कुछ महिलाएँ लकड़ियाँ बिन रही थीं। साथ में आदमी उनके सर पर लकड़ी लादने में सहायता कर रहे थे बस। अक्सर मैंने देखा है कि जहाँ आदमी और औरत दोनों काम करते हैं वहाँ आदमी अपना रोल अपेक्षाकृत निट्ठल्लेपन का ही चुनता है।
२९- रिश्ते रंगबिरंगी तितलियों की तरह होते हैं। कसकर पकड़ने से उनके परों का रंग छूट जाता है। धीरे पकड़ने पर वे उड़ जाती हैं।
३०- अनुलोम विलोम क्रिया साँसों पर सीबीआई कार्रवाहि की तरह है। पहले साँस अन्दर करती है। कुछ देर क़ब्ज़े में रखती है। फिर साँस को रिहा कर देती है। क्लीन चिट दे देती है।
३१- जित्ती बेवक़ूफ़ी की बातें वे राजनीति वाले पैसा ख़र्चा करके दूसरों से लिखवाकर करते हैं उत्ती तो तुम फ़्री फ़ंड में, मज़ाक़ मज़ाक़ में कर लेते हो।
३२- पानी पूरा चमकदार लग रहा था। तालाब के जीव जंतु भी शायद कहते हों कि अपना तालाब स्मार्ट तालाब बन गया है। किनारे के झाड़ झंझाड झुँझलाते हुए कहते हों- काहे का स्मार्ट तालाब, सारी गंदगी तो हमारे ऊपर डाल दी। एकदम शहर सा बना दिया है तालाब को।
३३- अरबों खरबों की फोटोन हर सेकंड दनादन धरती पर उड़ेले दे रहे थे।
किताब पढ़कर पता चला की-
*अनूप जी लिखने के अलावा क्षेत्रफल निकालने का भी ख़ूब शौक़ रखते हैं। इतना कि कहीं का भी क्षेत्रफल निकालने का मन ललचाता है। अब कहाँ का ये आपको पुस्तक पढ़कर ही पता चलेगा। हरेक चीज़ तो नहीं लिखी जा सकती न।
*उन्होंने ख़ुद को फ़ेसबुकिया भी कहा है।
*हाथ में अख़बार बुद्धिजीवी होने का आईडेंटिटी कार्ड है।
*मधु अरोरा जी के सौजन्य वाली चाय काफ़ी स्वादिष्ट लगी सूरजभाई को।
बहरहाल ये किताब पढ़ें और ज़रूर पढ़ें। रोज़ के बोलचाल के शब्दों को कैसे ढाला है वाक्यों में। बहुत ही ग़ज़ब अन्दाज़ है कहने का। ये अपने आप में इकलौती मात्र सी किताब है जो सूरजभाई और लेखक की आपसी बातचीत पर आधारित है। आप कर सकते हैं क्या सूरजभाई से बातचीत? नहीं न। लेकिन अनूप शुक्ल जी कर सकते हैं। और उन्होंने की हैं। चाहे कानपुर रहें, जबलपुर रहें या फिर कलकत्ता दिल्ली। उनके सूरजभाई हमसफ़र रहे। और पूरी शिद्दत से उन्होंने अपने विचारों को सूरजभाई के माध्यम से रखा है। ये एक अपने आप में अनूठा प्रयास है। बहुत बहुत शुभकामनाएँ और बहुत सारी बधाई अनूप जी को।