Monday, March 11, 2019

गुनगुनी धूप में अलसाई सुबह

 


सुबह फिर सुबह हुई। रोज होती है। रात कित्ती भी अंधेरी हो, सुबह का उजाला होता ही है। इसीलिए तो कवि कह गया है:

'दुख की पिछली रजनी बीच
विलासता सुख का नवल प्रकाश।'
बरामदे में धूप पसरी है। जैसे बरामदे से की जाली से अखबार सरकाकर अंदर डाल दिया जाता है वैसे ही कोई धूप को सरकाकर बरामदे में डाल गया है। धूप अलसाई सी लेती है बरामदे में। गुनगुनी धूप में गनगना रही है धूप। सुबह भी अलसाई सी धूप के गले में हाथ डाले आंखे मूंदे सो रही है। दोनों का ढीला-ढाला गठबंधन टाइप हो गया है।
अरबों-खरबों फोटॉन होंगे इत्ती जगह में। सूरज के रजिस्टर में चढ़ाए गए होंगे। इत्ते अरब फोटॉन कानपुर में अनूप शुक्ल के बरामदे में भेजे गए। कभी कोई ऑडिटर मिलाए तो क्या पता हिसाब गड़बड़ मिले। खरबों फोटॉन उधर से चलें हो इधर न पहुंचें हो। उनकी रपट लिखाई जाएगी। थाने अलग होने पर बहस हो। धरती का थानेदार कहे यह मामला सूरज के थाने का है, वहां रपट लिखाओ। धरती वाला बोले -'मामला सूरज के इलाके का है। वहां जाओ।'
क्या पता फिर कोई सुप्रीम कोर्ट दखल दे। उसके आदेश पर रपट लिखी जाए। सुप्रीम कोर्ट भी पता नहीं किसी और आकाशगंगा में हो। हो सकता है सुप्रीम कोर्ट मामले की निगरानी के लिए ब्लैकहोल में बदल चुके किसी भूतपूर्व तारे को तैनात कर दे। पूरा तारामंडल मामले की गवाही देने के लिए ब्लैकहोल के पास जाए। लेकिन इसमें भी लफ़ड़ा है। कहीं ब्लैकहोल समूचे तारामंडल को निगल न जाये। फिर एक और जांच बैठाई जाए।

सूरज की किरणें बगीचे में कबड्डी खेल रहीं हैं। कुछ लुका-छिपी भी। बाकी किरणें झूला-झूल रही हैं। चुनाव की तारीखें घोषित होने से भी उनके व्यवहार में कोई फर्क नहीं आया है। वे पहले की तरह खिलंदड़े अंदाज में मजे कर रहीं हैं।
चुनाव की घोषणा होते ही सर्वे होने लगे हैं। अलग-अलग दावे हैं। आम आदमी इन सब चोंचलों से अलग जीने की लड़ाई में जुटा है। कल एक आदमी फूलबाग मोड़ पर चावल पकाते दिखा। दो लीटर के पेंट के डब्बे में चावल ऊपर तक भरे। ईंटों के चूल्हे पर इधर-उधर की लकड़ियां इकट्ठा करके सुलगती आग पर चावल पकाते आदमी को उसके सामने बैठा एक जवान देख रहा था। पके तो खाएं वाले अंदाज में। चावल पकाता आदमी लकड़ी से चावल चलाता जा रहा था।
बगल में एक पौशाला बनी थी। उसके उद्घाघाटन की तारीख लिखी थी। उद्घघाटन करने वालों के नाम लिखे थे। लेकिन पौशाला बंद थी। बन्द होने की तारीख और बन्द कराने वालों के नाम वहां से गायब थे। बन्द कराने वालों के नाम पता चलते तो उनके खिलाफ कार्यवाही की मांग होती। लेकिन जब पूरा समाज शामिल है इस साजिश में तो कार्यवाही कौन करेगा।

एक आदमी सड़क किनारे टुन्न सा बैठा। शायद काफी पी गया है। दारू पीने के बाद विटामिन डी पी रहा है। धूप की किरणें उसके चेहरे पर रोशनी के छींटे मारकर उसको जगाने की कोशिश कर रहीं हैं। लेकिन वह नशे की चपेट में हैं। आंखे मूंदे सो रहा है। सूरज की किरणों की बेइज्जती खराब कर रहा है। वह उसको जगा रहीं हैं यह नशे में सो रहा है।
नशे की बात से कैलाश बाजपेयी की कविता याद आती है:
तुम नशे में डूबना या न डूबना
लेकिन डूबे हुओं से मत ऊबना।
कुछ देर में वह बैठे से अधलेटा हो गया। देखते-देखते सड़क पर ही लंबलेट हो गया। नाली के समानांतर। चेहरा नीचे हो जाने के कारण किरणें अब उसके चेहरे पर नहीं पहुंच पा रहीं। ऊब कर दूसरी जगहों पर चलीं गईं। उनके पास भी पचास काम हैं।
काम तो अपन के पास भी बहुत हैं। हम चलते। आप मजे करिये। धूप का मजा लीजिये। अभी मुफ्त है। क्या पता कब इस पर भी कोई सेस लग जाये। कोई धूप पर कोई कर लगे इसके पहले जी भरकर नहा लीजिये धूप में। अच्छी तरह रगड़कर। हर हर गंगे कहते हुए।

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