Monday, March 02, 2020

जाकिर हुसैन से मुलाकात

 


कल जाकिर हुसैन से मिलना हुआ। शाहजहांपुर में 1992 से 2001 की पोस्टिंग के दौरान जाकिर हुसैन लंबे समय तक हमारे दफ्तर में अर्दली के रूप में रहे।

31 साल की उम्र में लेबर के रूप में भर्ती हुए जाकिर 60 में लेबर की उम्र में ही रिटायर हो गए -'जस की तस धर दीन चदरिया।'
हमारे दफ्तर में रहने के दौरान जाकिर हमारा पूरा ख्याल रखते थे। चाय-पानी और दीगर जरूरतों के अलावा फोन अटेंड करना, डाक लाना-ले जाना। नफीस लेकिन समझ में आने वाली उर्दू बोलते सुनकर लगता कि हमको भी उर्दू बोलने का अभ्यास करना चाहिए। कल मुलाकात के बाद फिर यह एहसास हुआ।
दफ्तर की देखभाल करने के साथ-साथ जाकिर साहब हमारी भी बखूबी देखभाल करते थे। कभी दफ्तर आने में देर हुई तो किसी सीनियर का फोन आने पर कहते -'हुजूर आपकी ही तरफ गए हैं।अभी निकले हैं, बस पहुंचते ही होंगे।' इसके बाद हमको खोजकर बताते -'आपको बड़े साहब पूंछ रहे हैं।'
दफ्तर में चाय पिलाने के अलावा कभी-कभी बतकही में भी शरीक होते। शायरी के भी शौकीन। कुछ पसंदीदा शेर कभी सुना देते।
1995-96 की एक मजेदार याद। उन दिनों हमारी फैक्ट्री में ISO-9000 प्रमाणपत्र पाने के लिए कोशिश चल रही थी। हम भी लगे थे। जानकारी और अनुभव की जो कमी थी उसे अपनी मेहनत से पाटने की कोशिश में लगे थे। रात देर तक काम करते।
ISO-9000 में क्वालिटी पॉलिसी भी घोषित करनी होती है। उसपर अमल सुनिश्चित करना होता है। निरीक्षण टीम यह देखती है कि निर्माणी के लोगों कम से कम अपनी क्वालिटी पॉलिसी के बारे में पता हो। हम लोग अलग-अलग तरीके से लोगों को अपनी क्वालिटी पॉलिसी याद करा रहे थे। सिलाई के लिए कटिंग के बंडल में भी घुसा देते क्वालिटी पॉलिसी। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में। बण्डल खोलेने वाला पढ़ेगा ही । याद भी हो जाएगा।
दफ्तर में काम करते हुए और दिन-रात क्वालिटी , आईएसओ-9000 की बातचीत सुनते हुए जाकिर हुसैन भी काम भर की जानकारी हासिल कर चुके थे। लेकिन उनके परफेक्शन का हमको कत्तई अंदाज नहीं था।
ऑडिट के दौरान जाकिर हुसैन की भेंट ऑडिट टीम के लीडर नीलकंठन जी से हुई। उन्होंने जाकिर जी से पूंछा -'आपकी फैक्ट्री की क्वालिटी पॉलिसी क्या है?'
फरवरी के महीने की गुनगुनी धूप में खड़े जाकिर हुसैन ने अपना मफलर फटकार कर गले में डाला और पूरे भरोसे के साथ हाथ पर हाथ रखकर बोलते हुए नफीस उर्दू में क्वालिटी पॉलिसी सुना दी। इसके बाद आईएसओ के फायदे भी गिना डाले। हमको भी ताज्जुब हुआ कि कभी इसके लिए जाकिर हुसैन को तैयार तो किया नहीं गया था।
टीम लीडर ने पूंछा कि आप कहां काम करते हैं? जाकिर हुसैन ने हमारी तरफ इशारा करके बताया -'हुजूर की खिदमत में लगे हैं।'
नीलकण्ठन जी ने मुझसे कहा -'यू आर वेस्टिंग ए टेलेंट। इनको तो ट्रेनिग देने के काम में लगाना चाहिए आपको।'
नीलकंठन जी की बात सुनकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। आज वह बात याद करके लगता है कि हम अपनी तमाम मेधा, टेलेंट बर्बाद करते हैं। एक से एक जहीन लोग सही काम न मिलने से बर्बाद हो जाते हैं या फिर लोग उनका उपयोग नकारात्मक काम, दंगे, फसाद, फिरकापरस्ती में उपयोग करते हैं।
2001 में शाहजहांपुर से ट्रांसफर होने के बाद भी जाकिर जी से बात होती रही। शाहिद रजा और लतीफ से उनके हाल मिलते रहे। जब भी बात हुई जाकिर जी ने घर में सबकी खैरियत पूँछी।
यहाँ आने के बाद कल जाकिर हुसैन से मिलने गए। संकरी गलियों में गाड़ी फंस न जाये तो काफी बाहर खड़ी कर दी। पहुंचने पर बड़ी गर्मजोशी से मिले जाकिर । कसकर हाथ मिलाया और देर तक थामे रहे जैसे राष्ट्राध्यक्ष मिलते हुए थामे रहते हैं ताकि लोग फोटो ले सकें।
हाल-चाल पूंछने पर पता चला कि तबियत नासाज रहती है उनकी। कई तरह की बीमारियां। सबसे ऊपर चिंता सवार रहती है। डिप्रेशन में रहते हैं। बोले -'दिन भर काहिली सवार रहती है। जरा दूर चलते हैं थक जाते हैं। दिल साथ नहीं देता। हर डॉक्टर को दिखा चुके कोई फायदा नहीं हुआ। किसी से मिलना-जुलना नहीं।बस घर में पड़े रहने का जी चाहता है।'
हमने हौसला बंधाया कि मस्त रहा करो। अकेले मत रहा करो। काहे का डिप्रेशन। बच्चे अपने आप सेट हो जाएंगे। परेशान न हों। चिंता न करो।
बोले -'मैं बहुत कोशिश करता हूँ लेकिन अजीब-अजीब ख्यालात मन में आते हैं। पुरानी बातें अपने आप याद आती हैं उन्हीं में उलझ जाता हूँ।'
पेंशन के कागज देखे हमने। सब दुरस्त। कागज देखे तो जाकिर ने अपने वालिद का जिक्र किया। बोले फैक्ट्री में मुलाजिम थे। अगर उनके कागजात मिल जाएं तो उनकी कॉपी दिलवा दीजिएगा।
हमने कहा देख लेंगे लेकिन वालिद के कागजात किस लिए चाहिये ?
बोले -'कहीं जरूरत पड़ सकती है। ये एनआरसी वगैरह में काम आएंगे।'
हमने कहा -'अरे आप भी कहां की बातें सोचते हैं। मजे में रहिये। इन सबकी चिंता न करिये। हम हैं न।'
जाकिर हुसैन फीकी मुस्कान के साथ बोले -'सो तो है लेकिन कागज मिल जाएंगे तो सुकून रहेगा।'
जाकिर हुसैन के वालिद का इंतकाल सन 1980 के भी पहले हुआ था। वो उनके कागजात खोज रहे हैं कि एन आर सी में काम आएंगे। वह भी तब जब खुद उनके कागज हैं। वो सरकारी मुलाजिम रह चुके। पेंशन मिलती है।
बच्चों से बात की तो पता चला कि जाकिर सोचते रहते हैं । बच्चे अभी पुख्ता तौर पर काम में लगे नहीं हैं। बड़ा सड़क पर कपड़े की फेरी लगाता है, दूसरे नम्बर का लैब असिस्टेंट का काम सीख रहा है, तीसरा टेलरिंग का काम और सबसे छोटा हाईस्कूल कर रहा है।
जाकिर अपने बच्चों के रोजगार की चिंता में परेशान हैं। उनको दिलासा देकर विदा लेकर निकले। रास्ते में बड़े बेटे शोएब से मिले। सड़क पर कपड़ों की बिक्री करते हुए। शोएब ने बताया -'पापा आपका जिक्र करते हुए बहुत तारीफ करते रहते हैं।'
शोएब से बातचीत करते हुये कहीं से नहीं लगा कि वह रोजगार को लेकर परेशान है। तफसील से बताया कि कहां-कहां बिक्री करता है। कैसे-कैसे सामान लाता है। बोला -'दिल्ली में बहुत अंदर से छांट के कपड़े लाते हैं । एक बार जो ले जाता है वो दुबारा वापस जरूर आता है लेने के लिए।' और भी मारकेटिंग के हनर बता डाले शोएब ने खड़े-खड़े।
जाकिर के परेशान रहने की बात पर शोयब ने कहा -'बहुत समझाते हैं लेकिन वो समझते नहीं। न जाने क्या-क्या सोचते रहते हैं। कहीं आते-जाते नहीं। नई गाड़ी खरीदी तो बहुत कहने पर घूमने को राजी हुए। लेकिन जरा देर में ही बोले -घर चलो।'
दो पीढ़ियों की चिंताएं अलग-अलग होती हैं।
हमने जाकिर से पूछा -'दफ्तर में तो चाय बहुत बनाते थे। कभी घर में भी बनाई ? '
बोले -'घर में बनाने के लिए हैं। वही बनाती हैं।'
जाकिर हुसैन 70 के हो गए हैं। ऊपरी तौर पर स्वस्थ दिखते हैं लेकिन तमाम बीमारियों का इलाज करा रहे हैं। चिंता का शौक पाल लिया है।लेकिन एक रिटायर मुलाजिम जिसके बच्चे अभी काम पर न लगें हों चिंता तो करेगा ही। उसके बस में चिंता करने के अलावा और क्या हो सकता है।
हम तो हर चिंतित इंसान से यही कहते हैं -'दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो।'

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