Thursday, March 05, 2020

जो भी है इसी जनम में है, जिन्दगी के पार कुछ नहीं

 


परसों कवि अजय गुप्त जी से मिलना हुआ। चौक स्थित उनकी दुकान पर शाहजहांपुर के साहित्यकारों की नियमित बैठकी होती है। परसों मुलाकात हुई तो उनकी 'गांधी लाइब्रेरी' देखने गए। अजय गुप्त भाई साहब का सपना एक लाइब्रेरी बनाने का था। उनके सात्विक संकल्प को पूरा होते देखना मेरे लिए अद्भुत अनुभव था। उसकी कहानी अलग से। गांधी लाइब्रेरी में ही शाहजहांपुर के गीतकार बृजेश मिश्र जी ने जो गीत सुनाया वह आप भी सुनिए। आपको अच्छा लगेगा।
जो यहां करो वहां मिले
इस कथा में सार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
कल्पना में कुछ भी सोच लो
सत्य है वही जो दीखता,
एक पल की जब खबर नहीं
उस जनम का है किसे पता।
जितना भी मिले तुरन्त ले
प्यार में उधार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
चांदनी चकोर को भली
चोर के लिये भली कहां,
आदमी की सोच भिन्न है
कुछ भला बुरा नहीं यहां।
ज्ञान चक्षु हों जिसे मिले
उसको अंधकार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
राग, रंग, रूप, रस सभी
भोग हेतु सृष्टि में रचे,
त्याग कर भी जो इन्हें चले
काल पाश से कहां बचे।
जिन्दगी को मौज से जियो
मुक्ति का विचार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
जो जनम-मरण के बीच में
पाप-पुण्य खोजते रहे,
मोतियों को पा नहीं सके
डूबने से जो डरे रहे।
पतझरों में भी जो खिले सके
फ़िर उसे बहार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
कर्म भाग्य का भविष्य है
कर्म ही से शीत-ताप है,
जिसमें सुख मिले वो पुन्य़ है
जिसमें क्षोभ हो वो पाप है।
प्यार आत्मा की प्यास है
इसमें जीत-हार कुछ नहीं,
जो भी है इसी जनम में है
जिंदगी के पार कुछ नहीं।
बृजेश मिश्र, शाहजहांपुर।

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