Friday, March 06, 2020

गांधी पुस्तकालय - एक सात्विक संकल्प का पूरा होना

 शाहजहांपुर आने के समय से ही गांधी पुस्तकालय जाने का मन था। चौक स्थित इस पुस्तकालय से तमाम यादें जुड़ी हैं। कई गोष्ठियां, कवि सम्मलेन और बैठकी इस पुस्तकालय में हुईं। शहर का साहित्यिक केंद्र है यह पुस्तकालय।

1948 में शुरू हुआ यह पुस्कालय चौक की जिस बिल्डिग में था वह कमजोर हो गयी थी। बुजुर्ग फर्श के झुकते चले जाने की याद जेहन में थी। पुस्तकालय के सचिव अजय गुप्त भाई साहब इसके लिए नई बिल्डिग बनवाने के लिए प्रयासरत रहे।
अजय गुप्त जी के एक गीत का अंश है:
'सूर्य जब-जब थका हारा ताल के तट पर मिला,
सच कहूं मुझे वो बिटियों के बाप सा लगा।'
जैसे एक पिता को अपनी बड़ी होती बेटियों के लिए सुयोग्य वर की तलाश और चिंता रहती है वैसे ही अजय जी को इस लाइब्रेरी के लिए नई बिल्डिंग बनवाने की चिंता लगी रहती थी। बेटियों को विदा करने के बाद इस काम को पूरा करने में जी जान से जुट गए। पूरा करके भी अब मान कहां रहे हैं। अब उनकी जिद इसे समृद्ध करने की है।
आज जब चलते हुए पुस्तकालय बन्द हो रहे हैं ऐसे में लाइब्रेरी के लिए नई इमारत बनवाने की बात सोचना और उस पर अमल करना जुनूनी लोगों के ही बस की बात है। यह सात्विक जुनून अजय भाई साहब में है। वे लगे रहे और लाइब्रेरी बन ही गयी।
वह कहते हैं न :
'जो सुमन बीहड़ों में, वन में खिलते हैं
वो माली के मोहताज नहीं होते,
जो दीप उम्र भर जलते हैं,
वो दीवाली के मोहताज नहीं होते।'
इस पुस्तकालय की इमारत के लिए अजय जी लगातार प्रयास करते रहे। दीपक की तरह जलते हुए अपने संकल्प को पूरा किया।
इसमें शहर के तमाम लोगों का सहयोग रहा। लोगों ने आर्थिक सहयोग दिया, सम्बल दिया, हौसला बढ़ाया और कहा -'आप करिये। काम होगा। कैसे नहीं होगा।' वही हुआ । लाइब्रेरी बनकर रही। इनमें अजय भाईसाहब की जीवन संगिनी आशा गुप्ता भाभी जी (जो कि स्वयं भी सिद्ध कहानीकार हैं) का भी भरपूर सहयोग रहा। वो हौसला नहीं बढ़ाती तो संकल्प मूर्तिमान होता न होता, कहना मुश्किल।
लाइब्रेरी में 30000 के करीब पुस्तकें हैं। कई दुर्लभ हस्तलिखित पत्रिकाएं हैं और शानदार भवन है। लाईब्रेरी में करीब 70 बच्चे नियमित आते हैं। सब कुछ निशुल्क ।
यह सारा प्रयास आपसी सहयोग से हो रहा है। मित्र , शुभचिंतक किताबें , आर्थिक सहयोग देकर लाइब्रेरी को समृद्ध कर रहे हैं। आप भी अपना सहयोग देकर इस सार्थक काम में भागेदारी कर सकते हैं। लेखक साथी अपनी किताबें भेज सकते हैं।
आप किताब या सहयोग जो भी देंगे उसका लाइब्रेरी के फेसबुक पेज पर उल्लेख किया जाएगा।
दुनिया में तमाम तरह के वायरस होते हैं। कुछ अच्छे कुछ बुरे। इंसान की प्रवृत्ति के अनुसार उस पर असर करते हैं। अजय गुप्त भाई साहब की लाइब्रेरी देखकर हम भी उनके जुनून की चपेट में आ गए। अपनी इस्टेट लाइब्रेरी चालू तो हो ही गई है। अब गांधी पुस्तकालय देखकर उसको समृध्द करने की ललक भी उठ रही है।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219029828830121

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