Wednesday, April 15, 2020

कोई काम नहीं है मुश्किल

 

कोरोना काल में काम करना कठिन है। बाजार बंद, सड़कें सूनी। कोई सामान चाहिए तो मिलना मुश्किल। काम के लिए औजार नदारद। सब लस्टम-पस्टम। लेकिन यही तो समय है जब इम्तहान होता है। इम्तहान देना है और पास भी होना है। साधन के अभाव का रोना नहीं रोना है।

हम लोगों को कवरआल, मास्क , डिस्पोज़ेबल बेड रोल और कम्बल कवर बनाने का काम मिला हैं। कपड़ा मिलता है चंडीगढ़ में, टेप मिलता है दिल्ली मुंबई में। बनाना है तो जाओ लेने। लाओ , बनाओ। कभी-कभी तो किराए का खर्च सामान की कीमत से कई गुना ज्यादा।
कवरआल बनाने के लिए अपन के यहां सिलाई मशीन तो हजारों हैं। काम करने वाले भी आ रहे हैं। लेकिन सिलाई के बाद कवर आल पर जो टेप से सीलिंग की जाती है उसके लिए मशीनों की कमी है। जिस भी सप्लायर से पूछो वो कहता है अभी स्टॉक निल है। अगले हफ्ते आ सकती हैं। बुक कर दीजिए। कीमत दो गुना। गरज कि पचास लफड़े।
टेपिंग मशीन की कमी पूरी करने के लिए अपन नगरी-नगरी, द्वारे-द्वारे घूम रहे। किसी के पास हो तो उधर दे दे, किराए पर दे दे।जैसे मन आये, वैसे दे दे। बस दे दे। मशीन मिल जाये, काम बन जाये।
ऐसे ही हमको खबर मिली कि शहर में जी-सरजीवियर मेडिकल कपड़े बनाती है। बड़ा काम है। हो सकता है , उनके पास हो मशीन। पता यह भी चला कि किसी को अपने
यहां आने नहीं देते।
बहरहाल बात हुई विनम्र अग्रवाल से। तय हुआ कि जाएंगे फर्म। तय समय पर गए अपने साथियों के साथ। बहुत बड़ा संस्थान। करीब 1000 लोग काम करते हैं। हमको ताज्जुब हुआ कि इतने बड़े संस्थान के बारे में हमको जानकारी ही नहीं।
गेट पर सैनिटाइजर से हाथ साफ करवाये दरबान ने। अंदर पहुंचे। कुछ देर बाद मुलाकात हुई विनम्र अग्रवाल और उनके पिताजी डॉ घनश्याम दास अग्रवाल जी से। बातचीत के दौरान पता चला कि डॉ अग्रवाल जी मूलतः सर्जन हैं। 1981 के किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ के पास आउट। कुछ साल की डॉक्टरी के बाद मेडिकल से जुड़े कपड़ों का काम शुरू किया। कुछ लोगों से शुरू करके आज हजार लोगों को रोजगार देते हैं।
डॉ अग्रवाल के साथ उनका संस्थान देखा। आधुनिक। साफ-सुधरा , एयरकंडीशन्ड संस्थान। कपड़े के साथ कई तरह की मशीनें खुद बनाते। कठिन काम में ही हाथ डालते हैं, उस रास्ते नहीं जाते जो आम हो जाये।
बहरहाल अपनी जरूरत बताई तो अग्रवाल ने अपने यहां मौजूद मशीन दिखाई। बोले -'छह साल से बन्द है। ले जाइए। चल सके तो चलाइये। निकालिए अपना काम।'
हमने किराया, खर्च पूछा तो बोले -' मशीन ले जाईये। बाकी सब बाद में देखेगें।'
दोपहर बाद उठा लाये हम मशीन। लग गए बनाने में हमारे लोग। खोली तो पता चला तार कटे हैं, रोलर घिसे हैं। हर पुर्जा दूसरे से खफा। 36 के आंकड़े में मुंह बनाये हुए है। सबको मनाते हुये, सम्भालते हुए मरम्मत का काम शुरू हुआ।
रात दस बजे लगा मशीन ठीक हो गई। ठीक तो हो गयी लेकिन चलने के नखरे। क्या किया जाए। तय हुआ कि जो आपरेटर फर्म में मशीन चलाता था उसको बुलाया जाए। रात को दौड़ाया गया लोगों को। लाकडाउन में घण्टाघर से बुला के लाये गए आपरेटर जी।
मशीन और आपरेटर का संयोग होते ही मशीन चल पड़ी। जो काम दोपहर तक असम्भव लग रहा था वह रात सवा ग्यारह बजे पूरा हो गया। इसमें हमारी फैक्ट्री के अधिकारी एच के अग्रवाल जी की सक्रिय भूमिका रही। अपनी मेंटिनेंस टीम के साथ भिड़े रहे। मशीन चलाकर ही माने।
इस दौरान हम भी पूरी निष्क्रियता के साथ मौजुद रहे घटना स्थल पर। मशीन चलने पर जो खुशी हुई हम लोगों को उसको बयान करना मुश्किल। सबके सहयोग से मशीन चल गई। यह सबका सहयोग सामूहिकता का सौंदर्य है। अद्भुत, अनिवर्चनीय, आनंददायी।
किसी समस्या के हल होने पर उसकी सरलता महसूस करके ताज्जुब होता है।
कल जब फैक्ट्री गए तो हमने भी हाथ साफ किया मशीन पर। जो काम हमारे ऑपरेटर 15 मिनट में करके फेंक देते हैं उसको करने में दो घण्टे लगाए। वह भी गड़बड़। लेकिन दो घण्टे बाद लगा कि करते रहेंगे तो दो-तीन दिन बाद हम भी कुशल आपरेटर बन सकते हैं।
बहरहाल यह किस्सा तो ऐसे ही। ऐसे किस्से अनगिनत हैं। सुनाएंगे कभी तसल्ली से। अब्बी तो निकलना है काम पर। निर्माणियां हमारा आह्वान कर रही हैं।

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