Tuesday, March 02, 2021

दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो

 

इतवार को इधर-उधर देखते-झांकते वापस लौटे। एक दुकान पर जलेबी बन रही थीं। बन रहीं थीं या कहें छन रहीं थी? छनेगी तो तब जब बनेंगी। एक लड़का कड़ाही में जलेबी बना रहा था। मोटे कपड़े में बने छेद से मैदा कड़ाही में गोल-गोल गिराता हुआ जलेबी बना रहा था।
नरम, मुलायम, गीली, मासूम मैदा कड़ाही के गर्म तेल में पड़ते ही बिलबिलाने लगी। उसके बदन में चारो तरफ फफोले पड़ गए। फूल गया पूरा बदन। उसके अंदर की पूरी नरमी भाप बनकर उड़ गई। कड़ी होती गयी जलेबी। मैदा जो कभी गुड़ी-मुड़ी होकर कपड़े में समाई थी, वह कड़ाही में भूनकर इतनी कड़ी हो गई कि जरा सा जोर लगाते ही टूटने लगी। परिस्थियां हर वस्तु को कड़ा मुलायम बनाती हैं।
गोविंद गंज बाजार के पास की एक गली में दो गायें और काफी भैंसे दिखीं। लेडीज फर्स्ट वाले अंदाज में गायें आगे और भैसों से अलग चल रही थीं। शायद उनके यहां भी लिंग भेद इंसानो की तरह ही है। भेदभाव भी। भेदभाव इस तरह कि गायों के मुंह में मुसक्का बंधा हुआ था। भैंसों के मुंह आजाद थे। शायद उनके यहां भी बोलने और चारे पर मुंह मारने की आजादी लिंग के आधारित हो।
ठीक से कह नहीं सकता लेकिन मुझे गायें सड़क पर चलते हुए सहमी सी लगीं। गली की सड़कों पर लड़कियां थोड़ा सतर्क और सहम कर चलती हैं उसी तरह गायें जाती दिखीं। उनके पीछे भैंसे अलमस्त चाल में चलते हुए आती दिखीं। समूह में होने के चलते वे थोड़ा बेफिक्र अंदाज में दिखी। लेकिन पास से देखने पर लगा कि वे भी अपने हाल से खुश टाइप नहीं हैं। किसी चिंता में डूबी, उदास टाइप दिखीं भैंसे। क्या पता उनके यहाँ भी बेकारी, बेरोजगारी और मंहगाई के हमले हो रहे हों।
आगे एक दुकान पर रुमाली रोटी बन रही थी। बनाने वाला रोटी को अपने हाथों से बड़ा और बड़ा करता जा रहा था। दोनों हथेलियों के बीच रोटी बड़ी होती जा रही थी। साइकिल पर चलते-चलते हम उसको देखते और मुग्ध होते रहे। इसी मुग्धावस्था में हमारे बगल से गुजरती एक कार अचानक मुड़ गयी। कार का पिछला पहिया साइकिल के अगले पहिये से लग गया। कार मुड़ रही थी, साइकिल सामने जा रही थी। दोनों पहियों के बीच शक्ति प्रदर्शन हो गया। नतीजा वही हुआ जो होता है। कमजोर और मजबूत की जीत में कमजोर ही हारता है। हमारी साइकिल का पहिया टेढ़ा होकर जमीन से लग गया। साथ में साइकिल भी। सवार होने के कारण अपन भी जमीन से जुड़ गए। जुड़ क्या गए, चू जइसे गए।
जमीन मतलब सड़क से जुड़ते हुए हमने सर ऊपर कर लिया था। हमको आभास हो गया था कि सड़क पर तो गिरना ही है। कम नुकसान से गिरें। सर के बल गिरने से बचने के लिए कमर और कूल्हे ने कुर्बानी दी। हम जैसे ही गिरे वैसे ही अपने आप उठ भी गए। मतलब लद से गिरे, फद से गिरे। उठने के बाद पास की दूकान से एक बच्चा लपकता हुआ आया- हमको उठाने के लिए। हम उठ पहले ही चुके थे लिहाजा उठाने के मौके से वंचित होकर उसने पूछा -'अंकल लगी तो नहीं?'
अंकल बिना कुछ कहे आगे बढ़ गए यह सोचते हुए कि जिस समय सड़क पर गिरे थे उसी समय कहीं कोई गाड़ी तेज गति से आ रही होती तो क्या होता?
आगे मजदूरों की मंडी थी। सड़क पर दिहाड़ी पर काम करने वाले अपने लिए काम की तलाश में खड़े थे। हमारे रुकते ही तमाम लोग लपककर हमसे पूछने लगे -'मजदूर चाहिए, कित्ते चाहिए, क्या काम है, कहाँ चलना है?'
हमने कई बार साफ किया कि हमें कोई मजदूर नहीं चाहिए। हम ऐसे ही बेफालतू टहल रहे हैं। मजदूरों की भलमनसाहत ही कहेंगे इसे कि यह सुनकर भी हमें किसी ने यह नहीं कहा -'जब मजदूर नहीं चाहिए तो हमारा टाइम काहे बर्बाद कर रहे।'
उन मजदूरों से कुछ देर बतियाये। उन लोगों ने जैसा बताया उसके अनुसार हफ्ते में दो-तीन दिन काम मिलता है लोगों को। 200 लोग रोज आते हैं उनमें से पचास-साठ लोग रोजी पाते हैं। काम नहीं भी मिलता तो भी चले आते हैं।
बताने वाले ने आत्मव्यंग्य वाले अंदाज में कहा -'काम खोजने की लत लग गयी है इनको। बिना यहाँ आये चैन नहीं मिलता। '
'दिहाड़ी 300-350 रुपये मिलती है। इत्ते में क्या होता है आज के समय में?'- साजिद ने कहा।
इन मजदूरों के ग्राहक अधिकतर मध्यमवर्ग के लोग होते हैं। कानून की दुहाई देने वाला सभ्य मध्यम वर्ग, मजदूरों से भाव-ताव करके कम से कम पैसे मजदूर खोजता है। भले ही वह न्यूनतम मजदूरी से कम क्यों न हो।
साजिद ने बताया कि वो एम ए इतिहास से कर चुके हैं। बी.एड. कर रहे हैं। कोई और काम नहीं है तो फिलहाल दिहाड़ी पर मजदूरी कर रहे हैं।
दांत मसाले से रंगे हुए थे। पूछने पर कहा -'रोज छोड़ते हैं लेकिन फिर शुरू हो जाता है। काम न मिलने पर सस्ता वाला खाते हैं। काम मिलने पर मंहगा वाला।'
जिनकी नई शादी हुई है। परिवार बड़ा है उनकी मरन है। कोरोना के कारण काम और कम हो गया है।
काफी देर गपियाते रहे उनसे। असुरक्षित जिंदगी जीते हुए भी हंसी-मजाक बदस्तूर जारी थे।' दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो' वाला अंदाज।
मजदूरों से मिलकर हम वापस घर की तरफ लौट लिए।

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