Sunday, March 07, 2021

दीवार पर अकड़ता हुआ बन्दर

 दुनिया के सबसे कठिन कामों की फेहरिस्त बनाने का काम अगर हमारे जिम्मे दिया तो सुबह जल्दी उठना इस लिस्ट में अव्वल आएगा। जग जाते हैं, लेकिन उठ नहीं पाते। जगने का क्या, कुछ लोगों की तो रातें ही करवटें बदलते बीत जाती हैं। करवटें बदलते होंगे तो कुछ तो जगे होते ही होंगे।

बहरहाल, आज सुबह साढ़े सात बजे शुरुआत होनी थी, शहीद पार्क से। हम समय पर निकल लिये। रास्ते में लोग अलग-अलग तरह से समय बर्बाद कर रहे थे। कुछ लोग टहल रहे थे। कुछ बतियाते हुए भी दिखे। सबका अलग-अलग नजरिया, अलग-अलग अंदाज।
एक आदमी एक हाथ में बीड़ी , दूसरे में झोला लिए चला खरामा-खरामा जा रहा था। बीड़ी को नीचे 'छिपाए टाइप' था। दिख नहीं रही थी, लेकिन बीड़ी के धुएं ने उसके होने की चुगली कर दी , जैसे कि कुछ लोगों के चुप रहने से छिपी बेवकूफियां उनके मुंह खोलते ही मुनादी करने लगती हैं।
कामसासू काम्प्लेक्स की दीवार पर एक बन्दरिया दूसरे के जुएं बिन रही थी। दुलराती जाती, जुएं बीनती जाती। हमको देखकर जुएं बीनना स्थगित करके हमको देखने लगी। हमको वह अजूबे की तरह देख रही थी। उसको भी लग रहा होगा कि यह बन्दा सुबह-सुबह साईकिल पर क्यो टहल रहा है।
बन्दरियों के अलावा कुछ बन्दर दीवार पर और पेड़ों पर चहलकदमी कर रहे थे। एक बंदर अपनी पूछ को झंडे की तरह फहराता हुआ दीवार पर गर्वीली चाल से टहल रहा था। ऐसे जैसे कोई किलेदार अपने किले की रखवाली करता घूम रहा हो। टहलते हुए रुआब मारने वाले अंदाज में इधर-उधर-सब तरफ देखता। बन्दर की गर्दन किसी नवेले, नकचढ़ेअफसर की तरह अकड़ी हुई थी। उसकी अकड़ देखकर लगा कि किसी दूसरे बन्दर को ' देखते' ही रगड़ देगा। लेकिन आगे चलकर उसके रास्ते में जुएं बीनती बंदरियां दिखीं। बन्दर अपनी सारी अकड़ को अपनी पूछ सहित समेटकर दीवार से नीचे उतर गया।
सड़क पर कुछ कुत्ते दो नाबालिक टाइप गाय की बछियों को भौंकते हुए दौड़ा रहे थे। कुत्तों का नेतृत्व एक पालतू कुत्ता कर रहा था। उसका साथ कुछ सड़क के कुत्ते कर रहे थे। गाय की बछियां कुत्तों के डर से अकबकाते हुए इधर-उधर भाग रही थीं। पालतू कुत्ते का मालिक सड़क पर खड़ा अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कुत्ते के करतब देख रहा है। मुदित हो रहा था।
मुझे लगा कि बछियों की जगह वह आदमी होता और उसको कुत्ते इसी तरह दौड़ाते तो उसके क्या हाल होते?
मोड़ पर माँगने वाली महिला बैठ गयी थी। पता चला डबल स्टोरी के पास किसी की कोठरी में रहती है। जिसकी कोठरी है उसको इस बात की सहूलियत हो जाती है कि उसके सामान की देखभाल हो जाती है। चलने से मोहताज बुढ़िया रिक्शे से सवारी करके आती है। इसके अलावा और कोई नहीं है बुढ़िया का।
मन्दिर के पास भी माँगने वाले जुट गए थे। कुछ छोटे बच्चे मांगने वाली मम्मियों से चुहल करते हुये बतिया रहे थे।
मन्दिर के आगे 'नेकी की दीवार' दिखी। लोग वहां पुराने कपड़े छोड़ जाते हैं। जरूरत मन्द ले जाते हैं। एक बच्चा रिक्शे पर ढेर सारे कपड़े लादकर ले जाता दिखा। हमने उससे कहा-'जरूरत भर के कपड़े ले जाओ।' उसने कहा-'सब हमारी जरूरत के हैं।' चलते हुए उस बच्चे ने चाय पीने के दस रुपये मांगे। हमने उससे कहा -'कपड़े इकट्ठा करना छोड़कर सवारी पहुंचाओ कहीं और कमाओ।' कपड़े बीनते हुए मेरी बात हवा में उड़ा दी यह कहते हुए -'आजकल रिक्शे पर कोई नहीं चलता। सब बैटरी रिक्शे पर चलते हैं।'
शहीद पार्क पर साइकिल-साथी इकट्ठा थे। समय पर निकल लिए। शहर के बीचोबीच होते हुए 'नगरिया बुर्ज' तक गए। वहां से लौट आये। रास्ते में गेंहू के खेत, गन्ने की खेती, जमीन पर पसरी बेहिसाब धूप देखने को मिली। गर्रा नदी से साफ पानी से नीचे की बालू दिख रही थी। बालू के बिस्तर पर नदी का पानी अलसाया सा लेटा था। सूरज की किरणें नदी के पानी पर दौड़ते हुए उसको चमका रहीं थीं।
सड़क किनारे गांव की पगडंडी पर एक बच्चा तेज साइकिल चलाते हुए आया। सड़क और जमीन की ढलवां ऊंचाई को जोर लगाकर पार करते हुए साइकिल को मिसाइल की तरह पगडंडी से सड़क की कक्षा में स्थापित किया। सड़क पर आकर साइकिल का पहिया चरखी की तरह घूमा और मुड़कर सीधे चलने लगा।
शहर में घुसने पर अलग नजारे दिखने लगे। एक ठेलिया पर पुराने जमाने बड़ा टीवी औंधा लेटा था। कभी इस टीवी के जलवे होते होंगे। लेकिन अब मार्गदर्शक मंडल के बुजुर्ग सरीखे हाल हो गए।
एक घर के बाहर दो आदमी तसल्ली से बैठे बीड़ी पी रहे थे। हमको देखकर बीड़ी छिपा ली गोया कहीं हम न मांग लें। उनसे पूछकर फोटों खींची तो उन्होंने कहा -'अखबार में काम करते हैं क्या?
सड़क पर किसी से बातचीत करते हुए इंसान को अभी भी लोग अखबार वाला समझते हैं। जबकि अधिकतर अखबार संवाद का सिलसिला बन्द कर चुके हैं।
कुछ देर बाद हम लौट आये घर। सकुशल।

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